Friday, October 5, 2018

जीवनगाथा डॉ. रुक्म त्रिपाठी भाग-28


  

भाभी को खोने के बाद वे हमेशा उदास रहने लगे थे
 भाभी के निधन के बाद से भैया पहले जैसे नहीं रहे। रोतों को हंसानेवाला आदमी हमेशा खोया-खोया और उदास लगने लगा। हमारी हमेशा कोशिश होती कि उनको ढांढस बंधायें और उन्हें गम के उस दर्द से बाहर लायें जिसमें शायद वे तिल-तिल कर खुद को खत्म करने लगे थे। हिंदू धर्म में पत्नी को अर्धांगिनी की संज्ञा दी गयी। उसे सहभागिनी कहा गया है। जिनमें धार्मिक आस्था और अपने पुनीत संस्कारों का भान है वे इन शब्दों को अक्षरश: मानते हैं। अगर किसी का साथी जीवन के सफर में पहले ही साथ छोड़ दे तो उसके लिए इससे बड़ा कोई दुख नहीं हो सकता। भरे-पूरे परिवार में भी वह व्यक्ति खुद को अकेला पाने लगता है। यही भैया रुक्म के साथ हो रहा था। वे लिखने-पढ़ने में खुद को व्यस्त रखने की कोशिश करते लेकिन घर में भाभी की कमी उन्हें चौबीसों घंटे सालती रहती। उनकी वह बीमारी जो पहले कुछ ठीक हो गयी थी धीरे-धीरे उदासी और भाभी के गम में बढ़ने लगी। हम लोग उन्हें किसी तरह से समझा कर रखने की कोशिश करते लेकिन यह अक्सर असफल ही रहती क्योंकि जो सच था वह तो ढांढस से झूठ हो नहीं सकता था। इस पर पुराने यार-दोस्त मिलने और भाभी के निधन पर शोक जताने आते तो जैसे उनके गम के घाव फिर हरे हो जाते। कुछ दिन बाद तो आनेवालों से हम संकेत में समझाने लगे कि वे भाभी का जिक्र ना करें।
भैया रुक्म ने पत्रकारिता में एक युग बिताया था और उनके साथ तरह-तरह के अनुभवों का खजाना था। जब खाली होते तो उनको यादों के पुराने गलियारों में जाने और वहां से कुछ बातें सुनाने की जिद करता तो फिर पत्रकारिता के कई अनजाने किस्से अनावृत्त होते चलते। वे अक्सर समझाया करते अपना काम सत्य,निष्ठा और लगन से करते जाओ, मत सोचो कौन, क्या कर या कह रहा है। अगर तुम सच्चे हो, अपने काम के पक्के हो और ईमानदार हो तो भले ही तुम्हें कोई पुरस्कार मिले न मिले यह संतोष जीवन भर के लिए रहेगा कि तुमने कोई गलत काम नहीं किया। कभी ऐसा कुछ मत करना जिससे तुम्हारी तरफ कोई उंगली उठा सके। काम वैसा ही करना जिससे संतोष हो और जिसमें कोई दोष ना हो। पैसा कमाने का शार्ट कट दुनिया में कई बार मुसीबत भी लाता है। जो कमाया जाये उसमें ईमानदारी हो तो फिर भगवान भी मदद करते हैं। वे कहते कि उन्होंने कई ऐसे लोगों को देखा है जिन्होंने गलत ढंग से पैसे कमाये और खूब ऐशो आराम किया लेकिन अंत में भिखारी की मौत मरे। बुरे ढंग से कमाया गया , अधर्म का पैसा हमेशा शांति-सुख ही दे जरूरी नहीं।
उन्हें पढ़ने का बहुत शौक था। जब भी कोई नयी पत्रिका निकलती वे मुझसे उसका पहला अंक लाने के लिए जरूर कहते। वे हर ऐसी पत्रिका में रचनाएं भेजते और अधिकांश में उनकी रचनाएं छपती भी थीं। जिनमें उनकी रचनाएं छपतीं वे अंक वे अपने पास सुरक्षित रख लेते थे। लिखने वगैरह के मामले में मैं पहले से ही जरा सुस्त ही रहा हूं। वे अक्सर मुझसे कहते-अरे यही उम्र है खूब लिखो। तुम्हारी उम्र में मेरी कहानियां, उपन्यास तक प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे थे। मैं उन्हें गौर से सुनता पर शायद क्यों जो लिखता हूं स्वांत सुखाय ही कहीं भेजने का न मन करता है और  ना ही भेजता हूं। खुद भैया भी कभी-कभार कहते थे और मैं भी मानता हूं कि सभी जगह नहीं लेकिन कहीं-कहीं बार-बार कुछ जाने-पहचाने नामों को ही छापा जाता है। ऐसे में आपकी सही और सशक्त रचना भी वापस लौट आये तो ताज्जुब नहीं। तब आप अपने आपको उन लोगों से बौना महसूस करने लगेंगे जो बराबर छप रहे हैं। कुछ संपादक अपने जान-पहचान के लेखकों को तरजीह देना ज्यादा पसंद करते हैं। रुक्म जी ऐसे नहीं थे वे नये लोगों को ही ज्यादा मौका देते थे।  खैर उपरोक्त बातों  का जिक्र मैंने किसी पर दोष मढ़ने की गर्ज से नहीं किया बल्कि उस रवायत की ओर संकेत करने के लिए किया है जो आजकल कई पत्र-पत्रिकाओं में आम हैं। कुछ ऐसे नये लेखक जिनकी सशक्त रचनाएं तक बैरंग लौट आती हैं मुझसे इत्तिफाक करेंगे।
भैया रुक्म को हमने जिंदगी में इतना उदास और टूटा हुआ कभी नहीं पाया जितना भाभी के जाने के बाद पाया। दूसरों को हौसला देने वाले भैया खुद हौसला खो बैठे थे और जैसे तिल-तिल कर घुल रहे थे।  हमारे पास उन्हें दवाइयों और दिलासों के बल पर बचाये रखने के अलावा और कोई चारा नहीं था। हम वही कर रहे थे। बीमारियां भी शायद उदास और दुखी आदमी पर जल्दी और ज्यादा असर करती हैं। आदमी सुख-चैन से हो तो बहुत-सी बीमारियों को भूल कर जी सकता है। भैया वैसा नहीं कर पा रहे थे। वे अक्सर अपनी नीरू को खोजने लग जाते। उनकी सूनी-उदास नजरें कभी दरवाजे की तरफ घूमतीं तो कभी दूसरे कमरे की ओर शायद उस उम्मीद पर कि नीरू कहीं बाहर गयी होगी अभी आ जायेगी। लेकिन उनकी नीरू तो वहां चली गयी थी जहां से कोई लौट कर कभी नहीं आता। भैया को भी इस बात का शिद्दत से एहसास हो गया था लेकिन वे इस कमी को बरदाश्त नहीं कर पा रहे थे। उनकी बीमारियां और हमारी बेचैनियां एक साथ बढ़ने लगीं। उनकी रीढ़ की पुरानी चोट का दर्द फिर उभरने लगा और दिन ब दिन बढ़ने लगा था। उसका कोई इलाज नहीं था, जो था वह बहुत ही कष्टसाध्य और खतरनाक था। डाक्टरों से सलाह लेने पर उन्होंने बताया कि इसके लिए स्पाइन की सर्जरी करनी पड़ेगी जो सफल भी हो सकती है और नहीं भी सकती। इसमें सबसे बड़ा खतरा यह है कि अगर स्पाइन की कोई महत्वपूर्ण नर्व डैमेज हो गयी तो आदमी या तो गूंगा हो सकता है या उसे पैरालाइसिस हो सकता है। इस पर हिम्मत नहीं पड़ी। नब्बे वर्ष की उम्र को छू रहे व्यक्ति को इस टार्चर को झेलने के लिए मजबूर करना हमें अच्छा नहीं लगा। उनको ब्रांकाइटिस की पुरानी शिकायत थी जो अब धीरे-धीरे प्रबल होती जा रही थी। लोग सच कहते हैं कि वृद्धावस्था अपने आपमें एक बीमारी है उस पर अगर पहले कुछ बीमारियां शरीर में घर कर चुकी हों तो समझो आफत ही है। कब कौन प्रबल रूप धारण कर ले और गंभीर स्थिति आ जाये कहा नहीं जा सकता। (अगले भाग में जारी)


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