Saturday, September 3, 2022

आपातकाल के काले साये और जेपी की हुंकार

 आत्मकथा- 41



आप जिस कालखंड में होते हैं उसके ऊंच-नीच से किसी ना किसी तरह आप प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सकते। 25 जून, 1975 की आधी रात को देश में आपातकाल लागू कर दिया गया। इसकी की जड़ में था राजनारायण बनाम उत्तर प्रदेश नाम के मुकदमे में आया फैसला।

एक ऐतिहासिक फैसले ने एक साल से आंदोलनरत विपक्ष को वह ऑक्सीजनदे दी थी जिसकी उसे तलाश थी।

. इसी फैसले ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को देश में आपातकाल लगाने पर मजबूर कर दिया था. जिस मुकदमे में यह फैसला आया था उसे राजनारायण बनाम उत्तर प्रदेशनाम से जाना जाता है।

इस मुकदमे में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को चुनावों में धांधली का दोषी पाया था. 12 जून 1975 को सख्त जज माने जाने वाले जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने अपने निर्णय में उनके रायबरेली से सांसद के रूप में चुनाव को अवैध करार दे दिया। अदालत ने साथ ही अगले छह साल तक उनके कोई भी चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी। ऐसी स्थिति में इंदिरा गांधी के पास राज्यसभा में जाने का रास्ता भी नहीं बचा। अब उनके पास प्रधानमंत्री पद छोड़ने के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं था. कई जानकार मानते हैं कि 25 जून, 1975 की आधी रात से आपातकाल लागू होने की जड़ में यही फैसला था।

यही वह समय भी था जब गुजरात और बिहार में छात्रों के आंदोलन के बाद देश का विपक्ष कांग्रेस के खिलाफ एकजुट हो चुका था। लोकनायक कहे जाने वाले जयप्रकाश नारायण यानी जेपी पूरे विपक्ष की अगुआई कर रहे थे। वे मांग कर रहे थे कि बिहार की कांग्रेस सरकार इस्तीफा दे दे। वे केंद्र सरकार पर भी हमलावर थे. ऐसे में कोर्ट के इस फैसले ने विपक्ष को और आक्रामक कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अगले दिन यानी 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में जेपी की रैली थी. जेपी ने इंदिरा गांधी को स्वार्थी और महात्मा गांधी के आदर्शों से भटका हुआ बताते हुए उनसे इस्तीफे की मांग की. उस रैली में जेपी द्वारा कही गयी रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता का अंश अपने आप में नारा बन गया है. यह नारा था- सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बने रहने की अनुमति तो दे दी, लेकिन कहा कि वे अंतिम फैसला आने तक सांसद के रूप में मतदान नहीं कर सकतीं.कोर्ट के फैसले के बाद इंदिरा गांधी की स्थिति नाजुक हो गई थी।

आलोचकों के अनुसार इंदिरा गांधी किसी भी तरह सत्ता में बने रहना चाहती थीं और उन्हें अपनी पार्टी में किसी पर भरोसा नहीं था. ऐसे हालात में उन्होंने आपातकाल लागू करने का फैसला ​किया।

इसके लिए उन्होंने जयप्रकाश नारायण के बयान का बहाना लिया. 26 जून, 1975 की सुबह राष्ट्र के नाम अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा, ‘आपातकाल जरूरी हो गया था। एक जनासेना को विद्रोह के लिए भड़का रहा है। इसलिए देश की एकता और अखंडता के लिए यह फैसला जरूरी हो गया था।

उन दिनों क्या-क्या नहीं हुआ। राष्ट्र में व्यापक अराजकता, सरकारी प्रतिबंधों का ऐसा दौर चला कि जनता त्राहि-त्राहि करने लगी। जबरिया नसबंदी का खौफ कुछ इस तरह का था कि कोलकाता में मोहल्ले-मोहल्ले घूम कर फल बेचने वाले बिहार के कई लोग नसबंदी के डर से जो कोलकाता छोड़ कर भागे तो फिर कभी नहीं लौटे।

  अखबारों पर सेंसर लगा दिया गया। कोई खबर अधिकृत सूचना अधिकारी के जांचे बगैर नहीं छप सकती थी। रोज लोग खबरें लेकर जाते अधिकारी हर उस खबर पर क्रास लगा देते जो उन्हें व्यवस्था विरोधी लगतीं। इसके विरोध में कई अखबारों ने अपने संपादकीय स्तंभ खाली छोड़ने लगे।

 

आपातकाल में सेंसर के विरोध में खाली छोड़ा गया इंडियान एक्सप्रेस का संपादकीय स्तंभ

मेरे भैया रामखावन त्रिपाठी रुक्म भी सन्मार्ग में व्यंग्य स्तंभ लिखते थे जिसमें सरकारी नीतियों की आलोचना भी होती थी। उनके संपादकीय विभाग के साथी अक्सर कहते –रुक्म जी आपने आज जो लिखा है वह तो पास नहीं होगा। भैया उत्तर देते-वे लोग समझ पायेंगे तब ना काटेंगे।

 उनके सभी सहयोगी चौंक जाते जब वे पाते कि सूचना अधिकारी के कार्याय से भैया का लेख ओक होकर आ गया।

आपातकाल को सही और राष्ट्र के लिए हितकर बताने के लिए सरकार की तरफ से कई तरह के अभियान चलाये गये। बसों और दूसरे वाहनों में में लिखा जाने लगा नेशन आन दी मूवइसका अर्थ तो यही हुआ कि-राष्ट्र चल पड़ा। तो क्या इसके पहले राष्ट्र ठहरा हुआ था।

 आपातकाल, अनाचार के विरोध में आवाज उठाने वाले लोकनायक जयप्रकाश समेत कई वरिष्ठ विपक्षी नेताओं को जेलों में ठूंस दिया गया।

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खैर काफी अरसे बाद देश को आपातकाल से मुक्ति मिली। मैं सन्मार्ग में प्रशिक्षण और फिल्मी साप्ताहिक स्क्रीन में प्रबंध संपादक के रूप में काम कर रहा था। आपातकाल हटा तो मैंने एक शृंखला लिखनी शुरू की संजय का जीवन, बाल्यकाल से अब तकजो सन्मार्ग में प्रतिदिन धारावाहिक रूप में प्रकाशित होने लगी। इसे आत्मश्लाघा ना समझें यही प्रार्थना है। यह धारावाहिक कुछ दिनों में ही लोकप्रिय हो गया। इसके साथ ही एक संकट भी आया कुछ लोग सन्मार्ग कार्यालय से राजेश त्रिपाठी का अता-पता पूछने लगे। 



सन्मार्ग में प्रकाशित 'संजय का जीवन बाल्यकाल से अब तक' की पहली किस्त

इसके बाद सन्मार्ग के मालिक रामअवतार गुप्त जी ने मेरे भैया रुक्म जी से कहा- भाई को बोलिए कि लिखे मगर नाम बदल कर। यहां बताते चले कि सन्मार्ग के संपादकीय विभाग के एक वरिष्ठ संपादक भी लेख लिख रहे थे पर कल्पित नाम से। भैया जी ने गुप्ता जी का संदेश मुझ तक पहुंचाया। मेरा जवाब था-मैं नाम नहीं बदलूंगा। उन्हें नहीं छापना तो ना छापें। भैया रुक्म जी मेरा जवाब गुप्ता जी को सुना दिया। वे बहुत खुश हुए और यह शृंखला धारावाहिक छपती रही। लोग इसे इसलिए पसंद कर रहे थे कि यह साधारण लेख की शैली में  नहीं बल्कि उपन्यास की शैली में रोचक ढंग से लिखी गया था। इसलिए इसे उन लोगों ने भी सराहा जिन्हें राजनीति में रुचि नहीं थी। (क्रमश:)

 

 

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