Thursday, September 15, 2022

जब मुझे मिला संत स्वरूप, गीता मर्मज्ञ पांडेय जी का आशीर्वाद

 आत्मकथा-42



राजेश त्रिपाठी

संजय का जीवन बाल्यकाल से अब तक शृंखला सन्मार्ग में नियमित छप रही थी। लोगों को यह पसंद आ रही थी. परिचितों की कौन कहे अपरिचितों से भी प्रशंसा आ रही थी। दरअसल मेरी कोशिश यह थी कि इसे राजनीतिक रिपोर्ताज की तरह नही एक सत्य घटनाओं पर आधारित औपन्यासिक रचना थी। इसकी कुछ किस्तें पढ़ने के बाद मेरे परिचित विख्यात कथाकार ध्रुव जायसवाल ने भी इसकी प्रशंसा की थी और इसे पुस्तककार प्रकाशित करने की सलाह दी थी लेकिन वह हो नहीं पाया।

  जब मै सन्मार्ग में प्रशिक्षण प्राप्त कर रहा था और हिंदी फिल्म साप्ताहिक स्क्रीन के प्रबंध संपादक का भी कार्यभार संभाल रहा उन्हीं दिनों एक खबर सुनने में आयी। उड़ती सी खबर आयी कि बंगाल के सर्वाधिक लोकप्रिय बंगला दैनिक आनंदबाजार पत्रिका प्रकाशित करनेवाला संस्थान आनंद बाजार प्रकाशन एक हिंदी साप्ताहिक निकालने जा रहा है। खबर उड़ी तो पर विश्वास नहीं हो रहा था। मैंने इसका जिक्र अपने भैया रुक्म जी से किया।

भैया ने कहा-कोई बात नहीं,मैं कल ही जाकर पता करता हूं कि यह सच है या किसी ने अफवाह उड़ा दी है। वहां के सिनेमा एडीटर मेरे परिचित हैं।

दूसरे दिन भैया कोलकाता के 6 प्रफुल्ल सरकार स्ट्रीट स्थित आनंदबाजार पत्रिका के कार्यालय पहुंचे। उन्होंने रिसेप्शन में पूछा कि हिंदी विभाग में जाना है। लोगों ने उन्हें ऊपरी तल्ले में जाने और मणि मधुकर से मिलने को कहा।

 ऊपरी मंजिल में पहुंच कर भैया जी मणि मधुकर जी से मिले। बातचीत के दौरान पता चला कि वे प्रसिद्ध कवि हैं। उनसे जब भैया ने पूछा कि क्या यहा से कोई हिंदी प्रकाशन शुरू होनेवाला है।

 मणि मधुकर जी ने उत्तर दिया –जी हां, यहां से हिंदी साप्ताहिक रविवार निकालने की तैयारी चल रही है।

 इसके बाद भैया ने कहा-मेरा भाई भी पत्रकार है, जरा उसका भी ध्यान रखिएगा।

मणि मधुकर जी ने कहा-अवश्य अवश्य।

इसके बाद भैया ने पूछा-आपके अलावा और कोई इस काम के लिए आया है या फिलहाल वन मैन शो है।

मणि मधुकर जी हंसते हुए बोले-नहीं नहीं सुरेंद्र प्रताप सिंह जी भी हैं।

इस नाम से भैया परिचित थे। उन्होंने कहा-वे तो मेरे परिचित हैं। कहां बैठते हैं वे।

मणि मधुकर ने वह चैंबर दिखा दिया जिसमें सुरेंद्र प्रताप सिंह बैठते थे।

भैया ने सुरेंद्र प्रताप सिंह जी का चैंबर खोलते हुए पूछा-मैं अंदर आ सकता हूं।

उन्हें देखते ही सुरेंद्र प्रताप सिंह अपनी कुर्सी से उठ कर बोले-अरे रुक्म जी आइए आइए।

भैया अंदर गये तो सुरेंद्र जी ने उन्हें सामने की कुर्सी पर बैठने का इशारा किया।

भैया जब बैठ गये तो सुरेंद्र जी ने उनसे कहा-अरे मैं तो सन्मार्ग में आपके बाल विनोद का सदस्य था। कहिए मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं।

भैया ने कहा-सुना है यहां से कोई हिंदी प्रकाशन शुरू हो रहा ह।

सुरेंद्र जी ने कहा-जी हां हिंदी साप्ताहिक रविवार निकालने की तैयारी चल रही है। क्या बात है कहिए।

भैया बोले- मेरा भाई सन्मार्ग में प्रशिक्षण ले चुका है वह एक हिंदी फिल्म साप्ताहिक स्क्रीन में प्रबंध संपादक है। मैं चाहता हूं  कि वह आप लोगों से जुड़े। आप लोगों के साथ जुड़ेगे तो उसके भविष्य के लिए भी अच्छा रहेगा और सही ढंग से सीख पायेगा। मैं मणि मधुकर जी से मिला था उन्होंने कहा कि वे ध्यान अवश्य रखेंगे।

इस पर सुरेंद्र जी ने कहा- मणि जी  ने जो कहा उसे रहने दीजिए। भाई से एक अप्लीकेशन अवश्य भिजवा दीजिए।

भैया ने घर लौट कर मुझे सारी जानकारी दी और कहा-कल ही अप्लीकेशन भेज दो।

मैंने दूसरे दिन ही अप्लीकेशन भेज दी। उसमें मैंने यह भी लिखा कि मैं कौन-कौन सी भाषाएं जानता हूं। इनमें उर्दू का भी नाम था।

अप्लीकेशन भेज कर मैं आनंद बाजार प्रकाशन से जवाब आ का इंतजार करने लगा।

*

सन्मार्ग में मेरा प्रशिक्षण जारी रहा। स्क्रीन भी मैं संभालता रहा। सन्मार्ग में भैया रुक्म जी सिनेमा संपादक भी थे। उनके सिनेमा पेज में बुझक्कड कालम में पाठको के प्रश्नों के उत्तर देते थे। एक दिन भैया कुछ व्यस्त थे तो उन्होंने मुझसे कहा कि मैं लाल बुझक्कड के प्रश्न लिख दूं।

दूसरे दिन मैने लालबुझक्कड़ कालम के प्रश्नो के उत्तर लिखे। उनमें से कुछ प्रश्न ऐसे थे कि उनके उत्तर में मैंने गीता के कुछ श्लोक कोट कर दिये।

दूसरे दिन जब मै सन्मार्ग में भैया रुक्म जी की बगल वाली कुर्सी में बैठा काम कर रहा था तभी सूर्यनाथ पांडेय जी आये और भैया रुक्म ज से बोले-वाह रुक्म जी आपने लालबुझक्कड़ के प्रश्नों के उत्तर में भी गीता के श्लोक दे दिये वह भी इतने अच्छे ढंग से कि एकदम बेतुके नहीं लग रहे.

भैया ने कहा-आशीर्वाद देना है तो मेरे इस भाई को दीजिए इसने ही यह लिखा है।

मैंने उनहें प्रणाम किया और उन्होंने सिर पर हाथ रख कर बहुत आशीर्वाद दिया।

सूर्यनाथ पांडेय जी संत स्वरूप थे। वे गीता मर्मज्ञ थे और अंग्रेजी व हिंदी में धराप्रवाह गीता पर प्रवचन करते थे। वे मिरजई और धोती पहनते थे। वे सन्मार्ग के वरिष्ठ सदस्यों में थे। सभी उनका बड़ा सम्मान करते थे। पांडेय जी एक और बात के लिए बहुत विख्यात थे। वह यह कि वे भोजन बनाने और पीने के लिए भी गंगाजल का ही प्रयोग करते थे। उनके लिए जल लाने के लिए एक व्यक्ति नियुक्त था।

बाद में पांडेय जी वाराणसी चले गये और वहीं उनका स्वर्गवास हो गया।

मैंने आनंद बाजार में अप्लीकेशन भेज दी थी और बड़ी व्यग्रता से वहां से जवाब का इंतजार कर रहा था। (क्रमश:)

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