आत्मकथा-31
कुछ भूल गया, कुछ याद रहा
राजेश त्रिपाठी
भाग-31
मेरे बाबा ने बांदा में रहते हुए कनाल सेक्सन में अंग्रेज ओवरसियर के
सहायक के रूप में काम किया था। वे अक्सर उनन दिनों के किस्से हम लोगों को सुनाया
करते थे। उनके पास ऐसे-ऐसे अनुभव थे जो हमारे घर के सामने की डगर से दूसरे गांव
जानेवाले लोग भी कुछ पल के लिए उनके पास बैठ कर अंग्रेजों के जमाने के किस्से
सुनते थे। बाबा कहा करते थे कि अंग्रेजों ने भले ही हमारे देश में कब्जा कर शासन
किया हो लेकिन उनका शासन बहुत अच्छा था। वे मिसाल दिया करते थे कि उस वक्त कोई
खुलेआम सोना ले जाये तो भी उसे डर नहीं लगता था क्योंकि उन दिनों कोई चोरी-चकारी
करने की हिम्मत तक नहीं कर पाता था।
बाबा बताते थे कि उन दिनों
लाल टोपी वाला पुलिसवाला अगर गांव में घूम
जाये तो दरवाजे बंद हो जाते थे। सन्नाटा खिंच जाता था। वे बताते हैं कि एक बार
उनके किसी परिचित सेठ ने अंग्रेज ओवरसियर के पास फल भेंट में भेजे। बाबा अंग्रेज
अफसर को फल का टोकरा दे आये और बताया कि सेठ जी ने उनके लिए भेजा है। इस पर
अंग्रेज ओवरसियर ने बाबा से कहा- सेठ जी को कह दीजिएगा थैक्यू, धन्यवाद, शक्रिया।
अब लौटने तक पिता जी को थैंक्यू,
धन्यवाद तो याद रहा पर वे तीसरा शब्द भूल गये।
उन्होंने सेठ जी से दो शब्द तो बता दिये पर तीसरा नहीं बता पाये।
सेठ जी ने पूछा- पंडित जी साहब कुछ और बोले।
बाबा बोले- क्या कहूं सेठ जी कुछ और कहे थे पर मैं जानता हूं और वह
जानते हैं पर कह नहीं पा रहा, अभी याद नहीं आ रहा।
दूसरे दिन बाबा जब ड्यूटी से
लौट कर आये तो तपाक से सेठ जी से बोले-सेठ जी याद आ गया, साहब ने कहा था-शुक्रिया।
सेठ जी उनकी बात सुन कर हंस
दिये और बोले-आप भी पंडित जी।
बाबा हमें भी बांदा में उनके
साथ घटी रोचक घटनाएं सुनाते थे। उन्होंने एक बार बताया कि नहर की खुदाई चल रही थी।
मजदूर लोग खुदाई कर रहे थे। उन्हें नहर में जहां खुदाई करनी थी वहां एक जंगली
भैंसा बैठा था। मजदूर उसे हटाने जाते तो वहा फूं-फां कर के और नथुने बजा कर उन्हें
डरा देता था। जब मजदूर तमाम तरह से कोशिश कर हार गये तो उन्होंने ओवरसियर के सहायक
मेरे बाबा से कहा-पंडित जी अपने साहब को बुलाइए नहीं तो इस भैंसे के चलते काम नहीं
हो पायेगा। बाबा जाकर ओवरसियर को बुला लाये। बाबा ने उस दिन की घटना के बारे में
बाताया कि साहब ओवरकोट पहले हुए थे उसकी एक जेब से उन्होंने एकदम छोटा जेबी कुत्ता
निकाला, रूमाल से कुत्ते का मुंह पोंछा और भैंसे की ओर दिखा कर सीटी बजा दी। वह
जेबी कुत्ता तेजी से दौड़ा और भैंसे की गरदन से चिपक गया। भैसा दर्द के मारे छटपटाने और गरदन जोर-जोर से
हिला कर कुत्ते से मुक्त होने की कोशिश करने लगा लेकिन नाकाम रहा। वह नहर से काफी दूर
निकल गया जेबी कुत्ता अब तक उसकी गरदान से चिपका था। जब साहब ने देखा कि भैंसा
काफी दूर निकल गया है तो उन्होंने फिर एक सीटी बजायी। सीटी सुनते ही जेबी कुत्ता
भैंसे को छोड़ दौड़ता हुआ आया और उछल कर साहब की गोद में बैठ गया। साहब ने फिर
उसका मुंह रूमाल से पोंछा और ओवरकोट की जेब में डाल कर घोड़े पर सवार हो वापस लौट
गये।
*
मेरे बाबा (पिता जी) शहर बांदा की ऐसी-ऐसी बातें सुनाते थे जिनसे हम
लोग बिल्कुल अनजान थे। उन्होंने हमें फिल्मों के बारे में बताया कि पहले अनबोली
(बाद में हमने इस अवाक फिल्म के रूप में जाना) फिल्मों के बारे में बताया कि
फिल्मी तस्वीरें बोल नहीं पाती थीं उनकी बात कोई और बोलता था जो चलते हुई तस्वीरों
के साथ-साथ सुनाई देता था। बाद में फिल्में बोलने लगीं (बाद में हम इन्हें बोलती
या सवाक फिल्मों के रूप में जाना)। इसके साथ ही उन्होंने जोड़ा कि चलती फिरती
तस्वीरें बोलने लगीं आम आदमी की तरह दौड़ने लगीं।
इसी मोड़ पर हमने आपत्ति की
पहले तो हमें जेबी कुत्ते पर विश्वास नहीं हुआ था अब बाबा ने नयी गप हांक दी कि
तस्वीरें,चलती-फिरती और बोलती हैं ठीक आम आदमी की तरह। हमने कहा-बाबा अब तो आपने
हद कर दी भला कभी तस्वीरें बोल सकती हैं।
बाबा कुछ बोले नहीं लेकिन
दूसरे दिन जब भैया अमरनाथ उनसे मिलने आये तो बाबा बोले-दादू मेरा एक काम करो। अपने
इस भाई और बाबूलाल को बांदा ले जाओ इन्हें
सिनेमा दिखा लाओ इनको विश्वास ही नहीं होता कि तस्वीरें बोलती हैं।
भैया अमरनाथ ने हामी भर ली और कहा बांदा में एक बड़ा सरकस चल रहा है
वह भी दिखा दूंगा।
मेरे मुंह से निकला-भैया
सरकस।
भैया बोले-हां,तुम लोग रात को देखते नहीं एक घूमती लाइट यहां तक दिखाई
देती है।
मैंने कहा-वह सरकस की लाइट है हम तो उसे भुतहा प्रकाश मान कर डर रहे
थे।
हमारा कोई कसूर नहीं था।
हमारा जनपद नगर बांदा बीस किलोमीटर दूर था। वहां जाना नहीं हो पाता था इसलिए
सिनेमाघर के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं थी फिर हम कैसे विश्वास कर लेते कि
तस्वीरें आम आदमी की तरह दौड़ती-बोलती हैं।
दूसरे दिन भैया अमरनाथ मुझे और मेरे सहपाठी बाबूलाल यादव (अब सेवा
निवृत जज) के साथ लेकर बांदा गये। तय यह हुआ कि पहले हम सरकस देख लेते हैं उसके
बाद सिनेमा देख लेंगे।
सरकस के पंडाल में घुसते ही
अपनी जान सूख गयी। आज तक जिन शेरों को केवल चित्रों के रूप में देखा था वे ना
सिर्फ पूरी तरह सजीव सामने खांचे में थे अपितु गरज भी रहे थे। किसी तरह कुर्सी में
मैं और बाबूलाल दुबक कर बैठे रहे। भैया अमरनाथ आराम से बैठे थे क्योंकि यह सब वे
कई बार देख चुके थे।
सरकस के कलाकार झूले पर
तरह-तरह की कलाबाजियां दिखाईं, जोकर अपनी हरकतों से हंसाते रहे। जब शेर रिंग पर
आये तो हम और दुबक गये। हमें यही लग रहा था कि अगर इन शेरों का मन बदल गया तो रिंग
पार कर दर्शकों तक आने में इन्हें देर नहीं लगेगी। हमारे पास कोई चारा नहीं था। हम
शहर से अनजान थे पंडाल से भागें भी तो कहां जायेंगे। मन मार कर बैठे रहने के अलावा
और कोई चारा नहीं था।
खैर सरकस खत्म हुआ और हम अब
सिनेमाघर की ओर बढ़े। याद आ रहा है वह सिनेमाघर इंदिरा टाकीज था। हम उस अंधेरे हाल
में घुसे उस वक्त समाचार दिखाये जा रहे थे। (बाद में जाना कि वह फिल्म्स डिवीजन के
समाचार होते थे) उसमें जवाहरलाल नेहरू से संबंधित कोई समाचार दिखाया जा रहा था
जिननका कुछ अरसा पहले निधन हो चुका था। यह सचमुच हमारे लिए ताज्जुब की बात थी कि
नेहरू जी कब के गुजर गये फिर यहां चल फिर रहे हैं, बोल रहे हैं।
खैर थोड़ी देर बाद फिल्म शुरू
हुई। बाबा की कही सारी बातें सच निकलीं। सचमुच तस्वीरें बोल रही थीं, गां रही थीं
साइकिल चला रही थीं। बाद में जब फिल्मों के बारे में जाना-समझा तो पता चला कि जीवन
की जो पहली फिल्म हमने बांदा में देखी थी उसका नाम ‘सीमा’ था। इसकी हीरोइन नूतन थी जिसने फिल्म में एक
चोरनी की भूमिका निभायी थी। बलराज साहिनी जेलर की भूमिका में थे। हमें कहानी से
कुछ लेना-देना नहीं था हम तो अपने बाबा को झूठा
साबित करने आये थे। मगर हमें यकीन हो गया कि बाबा ने ठीक कहा था। सीमा
फिल्म में यों तो कई गाने थे लेकिन ‘तू प्यार का सागर है
तेरी एक बूंद के प्यासे हम लौटा जो दिया तुमने चले जायेंगे जहां से हम ’ दूसरा गाना था-‘मनमोहना
बड़े झूठे हमसे ही प्रीति करी हमसे ही रूठे’।
हम बांदा से संतुष्ट होकर
लौटे कि बाबा ने जो कहा सच कहा था। हमें
फिल्म और सरकस देखने का जिंदगी में पहला अनुभव भी हुआ। (क्रमश:)
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