Tuesday, October 9, 2018

कविता-2




भाग-2
एक फूल की कामना
त्रेता से द्वापर तक   मैंने, पाया  था सम्मान।
किंतु आज कलियुग में मेरा, होता है अपमान।।
तब देवों के मस्तक पर चढ़,फूला नहीं समाता।
सबसे बड़ा मान अपने को, झूम-झूम इतराता।।
मेरा हृदय चीर कर माली, गूंथे जब-जब हार।
तब-तब वह बलात् करता था, मुझ पर अत्याचार।।
किंतु मुझे पहनाया जाता, देवों को जब सादर ।
सारा कष्ट भुला देता तब, पाकर ऐसा आदर।।
बीत गया वह समय,किंतु अब नया जमाना आया।
प्रभु तो अतंर्धान  हो गये. प्रकट हो गयी माया।।
यह माया जिसके चक्कर में, भाग रहा है मानव।
मानवता को त्याग आज जो, बना हुआ है दानव।।
तरह-तरह  के  करे  घोटाले, घपला  अत्याचार ।
वही आज पूजा जाता है, करता जो  व्यभिचार।।
ऐसे  लोगों  की होती  है,  सरकारी रखवाली ।
जयजयकार चरण वंदन हो, बजा बजा कर ताली।।
छोटे  चोर  जेल  खटते  हैं, बड़े  सुरक्षा पाते ।
कलियुग के ये  देव, जहां भी जाते पूजे जाते।।
ऐ माली तुम मुझे भले ही, कूड़ेदान में देना फेंक।
इनके गले न पड़ने पाऊं, धन्यवाद है तुम्हें विशेष।।

सुन री बहू !

सुन री बहू तुम्हारे लक्षण, मुझको फूटी आंख न भाते।
तुझको लाज नहीं आती है, अपने सेक्सी अंग दिखाते।।
बारह  अंगुल  के  ब्लाउज से,  पेट-पीठ दोनो  दर्शाती ।
नाभि-दर्शनी साड़ी पहनो, छि: छि: तुमको लाज न आती।।
पेंसिल से  भौहें  रंगती हो,  पैनी काजल रेख निकालो ।
मस्ती भरी चाल दिखला कर, हे भगवान गजब कर डालो।।
बोली  बहू  ठीक  कहतीं मां, पर यह  मेरी है मजबूरी ।
मेरी सर्विस का रहस्य यह, निर्भर इस पर है मजदूरी ।।
हूं मैं विवश, करूं क्या मैया, बॉस हमारा ऐसा झक्की ।
औरों  की हो साल साल में, मेरी हो हर माह तरक्की ।।
काम  बहुत  हल्का-फुल्का  है,  बैठे-बैठे  है  मुसकाना ।
मालिक का बस एक हुक्म है, आफिस खूब संवर कर आना।।
मुसकाने  की  करूं रिहर्सल, डर है  कहीं  भूल ना जाऊं ।
गर यह  नहीं  आपको भाता,  इस्तीफा  मैं तुरत पठाऊं ।।
बोली सास, मधुर मुसका कर, सचमुच तुम हो बहुत अनाड़ी।
इस्तीफा  पठवा  दोगी तो, रुक  जायेगी  घर की  गाड़ी ।।
यह तो बस यों ही मजाक था ,तुनक गयी हो तुम पल भर में।
हमको तुम पर बहुत नाज है, तुम सा कौन कमाऊ घर में ।।
पहले  नहीं  बताया  तुमने, काम  मिला है इतना आला ।
तेरे  बॉस  गऊ  हैं  बेटी, मेरी  आंख  पड़ा  था जाला ।।



तब क्या होगा?

मां   के घर से  साजन  के घर, रोती जाती हैं ललनाएं।
पर तेजी से बढ़ती जातीं , जातीं बहू जलाने की घटनाएं।।
आज  गर्भ में  की जाती हैं, भ्रूणों  की निर्मम हत्याएं ।
बिगड़ रहा अनुपात जन्म का, कम पैदा होतीं कन्याएं ।।
कन्याएं  जब  कम होंगी  तब, रह जायेंगे बहुत कुंवारे ।
जो  दहेज  ना दे  पायेंगे,  दुखी  रहेंगे  सदा  बेचारे ।।
अचरज नहीं कभी हम देखें, दुल्हन वर के घर जायेगी ।
दुल्हा को  वर कर दहेज संग, बैंड बजाते  ले जायेगी ।।



मृत्यु का बीमा

कैसी-कैसी मांग करो तुम, मांगों को कर सूना ।
किसके हित का ठेका लेकर, बढ़ा रहे दुख दूना।।
ऐ हत्यारों तुमने उनके, गम को क्या है आंका।
कभी नहीं जो सूख सकेंगी,उन आंखों में झांका।।
झांकोगे गर उन आंखों में, पाओगे यह अंकित ।
अपनी ही परछाईं से है, मानव आज सशंकित।।
जीवन नहीं मृत्यु का लगता, तुम करते हो बीमा ।
कहो तुम्हारी बर्बरता की. कोई है क्या सीमा ।।


साहस हारे कवि से

महंगाई का दौर चला है, महंगे मिलते कलई चूना।
नहीं सफेदी हो पाती है, दाम बढञे हैं ऐसा  दूना ।।
रिक्शा, मोटिया, झाखावाले, बहा पसीना खट कर खाते।
दफ्तर   में जो सोते बाबू, घूस सूंघते ही जग जाते ।।
खंड काव्य लिख डालो इन पर, और विश्व में नाम कमाओ।
कवि सम्मेलन इतने होंगे, जिससे फुरसत कभी न पाओ।।
जिसका काव्य समझ न आता, वह कवि बहुत सराहा जाता।.
या फिर गद्य पद्य सा पढ़ कर, सम्मेलन में धाक जमाता।।

बेटी है या साली है?

हंसने से उसके फूल झरें, बतियाये  तो  मोती चमकें।
थी घर सलोनी सोलह की, खुलती, मुंदती पलकें झपके।।
उसके संग था करिया बबूल, जैसे कगार पर खड़ा रूख ।
थी उमर पचासी के ऊपर, अमचुर सा चेहरा  गया सूख।।
वह बाला को कह आप आप ,पोपले मुंह से था बतियाता।
उन दोनों का था क्या रिश्ता, कोई भी छोर नहीं पाता ।।
हमने पूछा, बोलो किब्लां यह बेटी है या साली है।
बोले, दोनों में एक नहीं, यह नयी नयी घरवाली है।।


नये दोहे
चतुर प्रशंसक राखिए, आंगन कुटी छवाय ।
जो  निंदक  हुरपेट के, तुरतै देय भगाय।।
झूठ बराबर तप नहीं, सत्य बराबर पाप।
सच सुनते पतियाय नहिं, भले कहे निज बाप।।
नेता नियरे जो बसे, वाको हो कल्याण ।
थैला उसका ढोय के, अगणित बने महान।।
सज्जनता तजि जो सखे, बने क्रूर मस्तान।
वाको दुर्लभ कुछ नहीं, जानत सकल जहान।।


वह उत्तम हो तात

ठकुरसुहाती जो कहे, अपना आपा खोय।
मिथ्यावादी एक दिन, पछतायेंगे रोय।।
कभी भूल ना कीजिए,वृद्धों का अपमान।
खुद भी बूढ़े होयंगे, रखें इसका ध्यान ।।
निंदक उसे ना मानिए, सत्य कहे जो बात।
व्यर्थ प्रशंसक से भला, वह उत्तम हो तात।।

ध्यानाकर्षण

लोग तर्क घटिया देते हैं कहें देवता मदिरा पीते।
कभी नहीं बीमार पड़े वे, तभी सदा रहते थे जीते।।
मदिरा नहीं सोमरस था वह, उनको भला कौन समझाये।
दिव्य पेय कहलाता था वह, कोई रोग फटक न पाये।।
किंतु आज मदिरा पीकर के,असमय ही यमलोक सिधारें।
पहले जो मदिरा पीते हैं, फिर मदिरा उनको पी मारे।।
मदिरा नहीं जहर पीकर के,अब तक मरे हजारो प्राणी।
फिर भी सबक नहीं लेते हैं, देख रहे ऐसी नादानी।।















































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