Wednesday, February 11, 2015

जीवनगाथा डॉ. रुक्म त्रिपाठी-12


फिल्मी दुनिया की मृगमरीचिका से युवक को इस तरह बचाया
भाग- (12)
राजेश त्रिपाठी
     आगे की किस्त में बता आये हैं कि रुक्म जी कई लोगों को कोलकाता से मुंबई की फिल्मी दुनिया में भेजने के प्रेरणास्रोत बने। इनमें अंजन श्रीवास्तव, रविंद्र जैन, संजीव कुमार के नाम प्रमुख हैं। उन्होंने फिल्मी दुनिया की मृगरीचिका में छले जाने से कई लोगों को बचाया। इनमें से एक युवक की कहानी यहां दे रहे हैं। रुक्म जी की पहचान और मित्रता नये-पुराने उन लेखकों से तो थी ही जो सन्मार्ग के साहित्य परिशिष्ट में लिखते थे जिसके वे संपादक थे। इसके अलावा सन्मार्ग के सिनेमा पृष्ठ में उनके द्वारा प्रारंभ किये गये प्रश्नोत्तर के स्तंभ लालबुझक्कड (यह स्तंभ आज भी सन्मार्ग में बाकायदा जारी और वैसा ही लोकप्रिय है) ने भी उनके कई दोस्त बना दिये थे। इसमें लालबुझक्क़ड़ वही थे जो पाठकों की तरह-तरह की जिज्ञासा अपने उत्तरों से शांत करते थे। यह स्तंभ इतना लोकप्रिय हो गया था कि हर हफ्ते इसमें सैकड़ो प्रश्न आते और जिसका प्रश्न उत्तर और उसके नाम, धाम के साथ छप जाता, वह खुद को बहुत ही भाग्यशाली समझता था। इसी स्तंभ में छपने वाले कुछ युवक कोलकाता के पास के एक उपनगर गारुलिया से आते थे। धीरे-धीरे उन  लोगों का परिचय रुक्म जी से इतना बढ़ गया कि वे उन्हें प्यार से चाचा जी कहने लगे। घनिष्ठता इतनी  बढ़ी कि वे उनसे मिलने उनके कांकुड़गाछी स्थित फ्लैट में जाने लगे।
    युवकों की इस तिकड़ी में एक गोरा-चिट्टा लंबा-सा युवक था जिसे फिल्मों में जाने का बहुत ही शौक था। वह अक्सर रुक्म जी से कहता-चाचा जी, आपकी तो मुंबई की फिल्मी दुनिया में इतनी पहचान है, मुझे कहीं चांस दिला दीजिए ना।इस पर रुक्म जी हंस कर कहते-अरे भाई, फिल्मों में काम करने के लिए अभिनय का ज्ञान बहुत जरूरी है। अब जमाना बदल गया है। वह बेचारा युवक मन मसूस कर रह जाता। एक दिन जब वह अपने उपनगर से कोलकाता रुक्म जी से मिलने आया, उसका चेहरा खिला हुआ था जैसे कि उसने कोई ऐसी चीज पा ली हो जिसकी उसे बड़ी जरूरत हो। वह कुछ बोले इससे पहले रुक्म जी ने पूछा- क्या बात है भाई, आज तो तुम बहुत खुश नजर आ रहे हो।
   वह युवक मुस्करा कर बोला-चाचा जी बात ही खुशी की है। आप कहते थे ना कि फिल्मों में काम करने के लिए अभिनय का ज्ञान जरूरी होता है।
    रुक्म जी बोले-अभी भी कह रहा हूं कि जरूरी है। मैं तुम्हें गलत सलाह तो दूंगा नहीं, अपने घर के बेटे जैसे हो।
    ‘चाचा जी मुझे वह राह मिल गयी है जो फिल्मों में काम करने के मेरे सपनों को पूरा कर देगी।
  ‘अरे क्या हुआ साफ-साफ बताओ ना।
  रुक्म जी की बात सुन कर उस युवक ने उनके हाथ में एक फिल्मी पत्रिका रखते हुए उसके एक पृष्ठ को खोल कर दिखाया। उसमें मुंबई के किसी एक्टिंग स्कूल का विज्ञापन छपा था।
 रुक्म जी ने विज्ञापन देखा तो पूछा-इस विज्ञापन को दिखा कर क्या बताना चाहते हो।
   ‘चाचा जी यही कि मैं यहां से अभिनय सीख सकता हूं, देखिए ना इसमें राजेश खन्ना. निर्देशक मोहन सहगल, शत्रुघ्न सिन्हा और ना जाने कौन-कौन अभिनय सिखाते हैं।
  रुक्म जी विज्ञापन को ठीक से पढ़ा और फिर बोले-इस विज्ञापन की सत्यता पर कैसे भरोसा किया जाये। हो सकता है यह ठगी का कोई धंधा हो, पैसे ऐंठ लें और कुछ सिखायें भी नहीं।
 नहीं चाचा जी, ऐसा नहीं हो सकता। यह बहुत लोकप्रिय पत्रिका है।
 लोकप्रिय पत्रिका इसका प्रमाण तो नहीं कि उसमें छपे विज्ञापन भी प्रामाणिक हों। पत्र-पत्रिकाओं को पैसा मिलता है वे विज्ञापन छाप देते हैं। ध्यान से देखना वे कहीं एक कोने में यह भी छापना नहीं भूलते कि विज्ञापन के बारे में पत्र-पत्रिका जिम्मेदार नहीं। ऐसे में यह मानना कि इस एक्टिंग स्कूल में राजेश खन्ना जैसा सुपर स्टार अभिनय सिखाने का मौका पाता होगा बहुत मुश्किल लगता है।
  वह युवक कुछ निराशा के स्वर में बोला-चाचा जी आप मुझे हतोत्साहित  करना चाहते हैं या कोई राह दिखाना चाहते हैं।
  रुक्म जी भांप गये कि उस युवक पर एक्टिंग का बुखार कुछ ज्यादा ही चढ़ गया है इसीलिए उनकी सही सीख भी उसको नहीं भा रही।
 रुक्म जी फिल्मी दुनिया से बखूबी वाकिफ थे, उऩ्होंने वह दौर भी देखा था जब अभिनेता, अभिनेत्री, लेखक, गीतकार व यूनिट के दूसरे लोग फिल्मी कंपनियों के वेतनभोगी हुआ करते थे। तब ना तो किसी को लाखों, करोड़ों पारिश्रमिक मिलता था, ना ही फिल्मी कलाकारों का इतना रंग और रुतबा ही होता था। बाद में फिल्मी दुनिया का रंग-ढंग बदलता गया, अच्छे निर्माता, निर्देशकों के साथ ही ठगों की भी बाढ़ आ गयी जो फिल्मी दुनिया के दीवाने युवक-युवतियों से रुपये ठगते और काम देने के नाम पर उन्हें वर्षों भटकाते। बाद में इनमें से कुछ युवक तो हताश होकर वहीं कोई छोटा-मोटा काम कर जिंदगी गुजारने लगते और युवतियों की जिंदगी ऐसी अंधेरी पाप की सुरंग में गुम हो जाती जहां से लौटना मुश्किल होता था। फिल्मों के चक्कर में घर से रुपया चुरा कर भागे युवक-युवतियों को फिल्मों की चकाचौंध वाली मृगमरीचिका में जिंदगी तबाह होते रुक्म जी ने देखा था। कइयों की कहानियां स्क्रीन आदि में छापी थीं। यही वजह थी कि वे नहीं चाहते थे कि उन्हें चाचाजी कहने वाले उस युवक के साथ भी ऐसा ही कुछ हो।
 उन्होंने काफी देर तक उसे समझाया लेकिन जब वह नहीं माना तो वे बोले-मैं तुमको इस एक्टिंग स्कूल में दाखिल होने की इजाजत दे सकता हूं बशर्ते मैं खुद इसकी सच्चाई जान लूं।
  युवक के चेहरे से गायब चमक फिर लौट आयी। वह बोला-चलिए ना चाचाजी, मुंबई चलते हैं। वहां राजेश खन्ना जी, मोहन सहगल साहब से पूछने पर ही पता चल जायेगा। मैं असलियत जान लूं फिर मैं भी आपका ही कहा मानूंगा। असलियत जाने बगैर अफसोस रह जायेगा कि पता नहीं जाता तो शायद मेरा सपना सच हो जाता।
  
केदार शर्मा
रुक्म जी राजी हो गए और उस युवक को लेकर मुंबई गये। मुंबई में वे दादर के अरोमा होटल में ठहरे जिसमें वे हमेशा ठहरते थे और जिसका गोवानीज मैनेजर उनका दोस्त बन गया था। मुंबई पहुंच कर उन्होंने अपने पुराने परिचित मशहूर फिल्मकार केदार शर्मा से मिलना चाहा। उन्होंनें अपने साथ गये युवक को शर्मा जी का नंबर देकर कहा-जरा नंबर मिलाओ तो शर्मा जी से भी राय ले लेते हैं। इन्होंने कई लोगों को फिल्मों में चांस दिया था वे क्या कहते हैं।
   युवक ने फोन मिलाय़ा तो उधर से एक स्त्री स्वर उभरा –कौन?’
    युवक ने कहा-श्रीमती जी, आप जरा शर्मा जी को दीजिए ना।
  रुक्म जी पास ही खड़े थे उन्होने उस युवक से कहा-अरे मुझे दो, वे शर्मा जी ही हैं।
  ‘ अरे नहीं चाचा जी उधर से किसी महिला की आवाज आ रही है।
   ‘मैं जानता हूं, उनकी आवाज इतनी पतली है कि मैं भी पहली बार धोखा खा गया था।
  इसके बाद रुक्म जी ने शर्मा जी से बात कर के उनसे समय ले लिया। केदार शर्मा जी ने उन लोगों को दूसरे दिन दोपहर का समय दिया और दादर के ही एक स्टूडियो में बुला लिया।
 आगे बढ़ने से पहले जरा केदार शर्मा के बारे में जान लिया जाये। नोरवाल (अब पाकिस्तान में) में जन्मे केदार शर्मा के माता-पिता बचपन में यही समझते थे कि उनसे कुछ काम-धाम नहीं हो पायेगा। लेकिन केदार शर्मा तो किसी और धातु के बने थे। उनमें बचपन से ही संघर्ष करने का जज्बा था और दिल जिस चीज की हामी भरे सिर्फ वही करने की धुन। वे सपनों की दुनिया यानी फिल्म उद्योग से जुड़ने की ठान चुके थे। अपनी इस ख्वाहिश को पूरा करने के लिए पहले वे कलकत्ता आये और फिर वहां से मुंबई चले गये। फिल्मों में वे हीरो बनने आये थे लेकिन उनकी बेहद पतली आवाज इस राह में रोड़ा बन गयी। हीरो बनने की अपनी इस ख्वाहिश को बाद में उन्होंने अपने बेटे अशोक शर्मा को हमारी याद आयेगी फिल्म में हीरो बना कर पूरी की। केदार शर्मा खुद भले ही हीरो न बन पाये हों लेकिन फिल्मी दुनिया को राज कपूर, मधुबाला, गीता बाली, तनूजा और माला सिन्हा जैसे अनमोल सितारे देने का श्रेय उन्हें ही है। उन्होंने चित्रलेखा’, ‘जोगन’, ‘बावरे नैन’, ‘सुहागरात’, ‘हमारी याद आयेगीऔर पहला कदमजैसी यादगार फिल्मों का निर्माण-निर्देशन, लेखन और गीत लेखन किया। पृथ्वीराज कपूर ने अपने बेटे राज कपूर को शर्मा जी को सौंपते हुए कहा कि वे उसे कुछ काम सिखायें। राज कपूर शर्मा जी के यहां क्लैपर ब्वाय बन गये। एक दिन वे क्लैप देना भूल कंघी से बाल संवारने लगे। केदार शर्मा को बड़ा गुस्सा आया और उन्होंने उन्हें एक थप्पड़ जड़ दिया। वैसे उस दिन शर्मा जी को यह एहसास हो गया था कि राज कैमरे के सामने आना चाहते हैं। अगले ही दिन उन्होंने राज को अपनी फिल्म नीलकमलका हीरो बना दिया। इस फिल्म की हीरोइन थीं मधुबाला। यानी शर्मा जी के एक थप्पड़ ने राज कपूर को हीरो बना दिया। मधुबाला जिन्हें वीनस आफ इंडिया कहा जाता था, उस वक्त 13 साल की थीं।
  योजना के मुताबिक दूसरे दिन रुक्म जी अपने उस भतीजे के साथ केदार शर्मा जी से मिलने गये। औपचारिक नमस्कार आदि के बाद शर्मा जी ने ही पूछा-बताइए रुक्म जी क्या बात है।    रुक्म जी ने अपने साथ आये युवक की ओर इशारा करते हुए कहा-ये फिल्म अभिनेता बनना चाहते हैं। क्या आप इनकी मदद कर सकते हैं?’
 शर्मा जी मुसकराये और बोले –रुक्म जी, आप मेरे परिचित हैं, पत्रकार हैं आपसे मैं झूठ नहीं बोलूंगा। इस फिल्मी दुनिया में आपसे कोई भी काम देने का वादा करे तो यकीन मत कीजिएगा। यहां लोग किसी को ना नहीं कहते।
 रुक्म जी बोले –क्या मतलब?’
मतलब यह कि यहां लोग किसी का दिल नहीं तोड़ना चाहते। वे उसे फंसा कर रखना चाहते हैं ताकि उससे पैसा ऐंठ सके। मैं यह नहीं कहता कि सारे लोग ऐसे हैं लेकिन हमें यह मानने में कतई संकोच नहीं कि हमारी फिल्मी दुनिया में ऐसे लोग भी हैं।
 रुक्म जी बोले-यह तो बहुत बड़ा छल है। इससे तो बहुतों की जिंदगी तबाह हो जायेगी।
  ‘हो जायेगी नहीं, हो चुकी है। लोग यहां हीरो बनने आते हैं, एड़ियां रगड़ते हुए बूढ़े हो जाते हैं पर उनका सपना पूरा नहीं होता। वे घर के रहते हैं ना घाट के।
 ‘मतलब?’ रुक्म जी ने आश्चयर्य से पूछा।
मतलब यह कि वे घर से मां-बाप से चुरा कर पैसा लेकर आते हैं और पैसा गंवा कर फिर मारे शर्म और भय के घर नहीं लौट पाते मुंबई के रेस्तराओं में प्लेटें साफ करते जिंदगी गुजार देते हैं।
 ‘तो हमारे इस भतीजे के लिए आपकी क्या सलाह है?’ रुक्म जी ने पूछा
शर्मा जी बोले-यही कि अगर बरबाद करने के लिए बाप का पैसा है तो यहां आओ, पैसा बरबाद करो और दर-दर की ठोंकरें खाओ।
 ‘आप तो इसे बिल्कुल निराश कर रहे हैं। रुक्म जी  ने कहा।
 शर्मा जी से विदा लेकर जब रुक्म जी और उनका वह मुहबोला भतीजा विदा होने लगा तो शर्मा जी उन्हें छोड़ने स्टूडियो के अहाते तक आये। अहाते के एक कोने में बने छोटे से रेस्तरां में एक खूबसूरत गोरा-चिट्टा युवक प्लेंटें साफ कर रहा था। उसकी ओर इशारा करते हुए शर्मा जी ने कहा-इस युवक को देख रहे हैं रुक्म जी, यह भी आज से कई साल पहले उत्तर प्रदेश के किसी इलाके से बाप का पैसा लेकर अभिनेता बनने आया था। पास का पैसा खत्म हो गया पर इसका सपना पूरा नहीं हो सका। अब घर वापस लौटता तो क्या मुह लेकर। बस तब से इसी तरह प्लेंटें मांज कर जिंदगी ढो रहा है। मैं नहीं चाहता कि आपके भतीजे का भी यही हश्र हो।
 रुक्म जी ने अपने भतीजे के चेहरे की ओर देखा जिस पर उदासियों के चिह्न और भी गहरा गये थे। लग रहा था कि जैसे केदार शर्मा जी की बातें उसके उत्साह को कुछ कम कर गयी थीं फिर भी रुक्म जी उसका भ्रम पूरी तरह काट देना चाहते थे। शर्मा जी के बाद वे बांद्रा स्थित उस वक्त के सुपर स्टार राजेश खन्ना के बंगले आशीर्वाद गये।
राजेश खन्ना
 रुक्म जी ने अपना परिचय दिया और अपने साथ आये भतीजे के बारे में बताते हुए कहा-ये अभिनय सीखना चाहते हैं और कोई एक्टिंग स्कूल है जिसमें आप अभिनय सिखाते हैं उसमें भरती होना चाहते हैं। यह कह कर रुक्म जी ने वह पत्रिका दिखा दी जिसमें एक्टिंग स्कूल के पते के साथ यह भी उल्लेख था कि वहां राजेश खन्ना अभिनय सिखाते हैं।
 पत्रिका देखने के बाद राजेश खन्ना ने ठहाका लगाया। रुक्म जी हैरान हो गये। उन्होंने पूछा-अरे भाई , इसमें हंसने की क्या बात है?’
 राजेश खन्ना बोले-हंसूं नहीं तो क्या करूं रुक्म जी। इन दिनों चार-पांच शिफ्ट में काम करता हूं। सांस लेने की फुरसत नहीं फिर मैं अभिनय सिखाने का टाइम कैसे निकाल सकता हूं।
 ‘लेकिन इन लोगों ने तो आपका नाम दे रखा है।
 ‘यह गलत किया गया है। आपने ध्यान दिलाया, अब मैं देखता हूं क्या किया जा सकता है। ये आपके साथ हैं इसलिए सावधान किये देता हूं कि इस फिल्मी दुनिया में हर चीज उजली नहीं है। इसके कुछ कोनों में इतना गहना अंधकार है कि कोई उनमें धंसा तो फिर जिंदगी भर रोशनी के लिए तरसता रहेगा।
 अब रुक्म जी का गंतव्य था रूपतारा स्टूडियो जहां निर्देशक मोहन सहगल अपनी फिल्म सावन भादौं’(नवीन निश्चल, रेखा) की शूटिंग कर रहे थे। रुक्म जी जब वहां पहुंचे तो मोहन सहगल जी लंच ले रहे थे। उनके हाथ चावल से सने थे। उन्होंने रुक्म जी को देखते ही कहा-बस दो मिनट, जरा हाथ दो लूं।
   हाथ धोने के बाद पास की एक कुर्सी पर मोहन सहगल जी बैठे और दोनों को बैठने के लिए कहने के बाद पूछा-रुक्म जी बताइए, कैसे आना हुआ?’
 
मोहन सहगल
रुक्म जी ने अपने साथ आये युवक की ओर इशारा करते हुए कहा-ये एक्टिंग स्कूल में भरती होना चाहते हैं। देखिए ना इस स्कूल ने तो आपका नाम भी प्रशिक्षक के रूप में दे रखा है। यह कह रुक्म जी ने वह पत्रिका मोहन सहगल  को दिखा दी जिसमें एक्टिग स्कूल का विज्ञापन छपा था।
  मोहन सहगल ने अपना नाम पत्रिका में देखा तो मुसकराये और बोले-अरे भाई, अपने काम से ही फुरसत नहीं फिर हमारे पास पढ़ाने का टाइम कहां। किसी ने यों ही नाम दे दिया होगा ताकि उनका विज्ञापन जोरदार लगे।
  ‘अब आप ही बताइए कि क्या किया जाये। इन्हें तो अभिनय सीखने की बड़ी इच्छा है। रुक्म जी ने पूछा।
      मोहन सहगल बोले-अगर ऐसा है तो मैं आपके लिए एक काम कर सकता हूं। मैं फिल्म इंस्टीट्यूट पुणे के लिए एक पत्र लिख देता हूं, आप इन्हें वहां अभिनय के कोर्स में दाखिल करा दीजिए। वहां से प्रशिक्षण प्राप्त कर लौटेंगे तो संभव हुआ तो मैं ही अपनी फिल्म में चांस दे दूंगा।मैंने नवीन निश्चल के साथ भी ऐसा ही किया था। उन्हें पहले फिल्म इंस्टीट्यूट में दाखिल करवाया और पास होकर आये तो अपनी फिल्म में चांस दिया।
   मोहन सहगल जी के आश्वासन के बाद रुक्म जी ने कहा-बहुत-बहुत शुक्रिया। हम कोलकाता लौट कर आपसे संपर्क करते हैं।
    इसके बाद वे वहां से अरोमा होटल लौट आये। उन्होंने अपने उस मुंहबोले भतीजे से पूछा-इतने लोगों से मिल लिये, सच्चाई जान ली, बताओ अब क्या इरादा है?’
    भतीजे ने जवाब दिया-इरादा क्या, घर लौटते हैं। इतने लोग, वह भी इतने सीनियर झूठ तो नहीं कहेंगे। मुझे अपनी जिंदगी तबाह नहीं करनी। समझ में आ गया कि यहां की रंगीनी एक छलावा है। अच्छा हुआ इसे करीब से देख लिया, दूर से तो हर चीज हसीन लगती है। चाचाजी आपका धन्यवाद। आपने मेरी आंखें खोल दीं। मैं टिकट कटाने जाता हूं। हम कल ही कोलकाता लौट रहे हैं।
        उसमें आया यह परिवर्तन रुक्म जी को अच्छा लगा। वह भी मुसकराये। उन्हें खुशी थी कि एक युवक की जिंदगी बरबाद होने से उन्होंने बचा ली। सचमुच जो ऐसी मृगमरीचिकाओं में फंस जाते हैं, उनकी प्यास बुझने के बजाय बढ़ती ही जाती है और वे तबाह हो जाते हैं। (शेष अगले भाग में)

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