कोलकाता लौट कर दो दिन विश्राम करने के बाद मैं आफिस पहुंचा। रविवार हिंदी साप्ताहिक के मेरे सभी संपादकीय साथियों और हमारे संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह जी ने मेरे पिता की मृत्यु पर संवेदना व्यक्त की। सबने उनका श्राद्ध कर्म विधिवत पूर्ण होने का समाचार सुन संतुष्टि व्यक्त की। मैने कार्यालय में अपनी नियत भूमिका निभानी शुरू कर दी लेकिन सच कहूं पिता के जाने का दुख भुला नहीं पा रहा था। माना कि मेरे पिता वर्षों से नेत्रहीन थे वह भी एक झोलाछाप वैद्य के चलते पर मेरे यही एहसास काफी था कि मेरे पिता सशरीर मेरे साथ तो हैं।
जब गांव में था पिता जी को हमेशा मेरी चिंता रहती। कहीं बाहर जाता तो
प्रभु को याद कर हाथ जोड़ लेते जैसे कह रहे हों-प्रभु बच्चा बाहर जा रहा है उसके
साथ रहिएगा।
सच कहूं उनके आशीर्वाद ही थे
जो मेरे साथ कवच बन कर चलते थे और अगर कोई विपत्ति आती तो शायद मैं उनके बल पर ही
उनसे पार पा लेता था। पिता चले गये लेकिन मुझे इस बात का एहसास था कि वे जहां भी
जिस रूप में भी हैं मुझे आशीर्वाद दे रहे होंगे। यह सच है कि किसी परिजन के
देहावसान के बाद वह भैतिक रूप में हमारे बीच भले ही ना रहें उनकी स्मृति हमेशा
हृदय में रहती है और यह एहसास भी कि वे जहां भी हैं हमें आशीर्वाद ही दे रहे
होंगे।
*
यह तो मैं पहले ही बता चुका हूं कि सुदीप जी के कहने पर सुरेंद्र जी
फिल्मी लेख मुझसे लिखवाने लगे थे। उसी दौरान हमारे यहां एक फिल्मी स्तंभ ‘सुनते हैं’ छपने लगा था जो
प्रसिद्ध फिल्म पत्रकार देवयानी चौबाल अंग्रेजी में लिखती थीं जिसका हमारे एक
संपादकीय साथी हिंदी में अनुवाद करते थे। आगे बढ़ने से पहले देवयानी चौबाल का
थोड़ा परिचय दे देना जरूरी समझता हूं। स्वनाम धन्य देवयानी चौबाल फिल्मी दुनिया
में बहुत विख्यात (कुछ हद तक कुख्यात भी
क्योंकि उनका लिखा कभी-कभी किसी किसी अभिनेता को इतना चुभ जाता था कि वे उनकी जान
के प्यासे हो जाते थे) रही हैं। वे एक सिने पत्रिका ‘स्टार एंड स्टाइल’ में एक
स्तंभ लिखती थीं ‘नीताज नैटर’। यह स्तंभ बहुत ही
लोकप्रिय था। कुछ लोग तो देवयानी चौबाल का लिखा यह स्तंभ पढ़ने के लिए ही पत्रिका
खरीदते थे। उनके वैसे ही फिल्मी गासिफ सुरेंद्र जी रविवार में ‘सुनते हैं’ स्तंभ में छापते
थे। पता नहीं क्यों उसका अनुवाद वे मुझसे कराना चाहते थे। खैर वे संपादक थे उनका
हर आदेश मानना हमारा कर्तव्य था। मैंने हां कर दी और उस अंक से देवयानी चौबाल के
फिल्मी गासिप का मैं अनुवाद करने लगा।
समझ नहीं पा रहा था कि आखिर
सुरेंद्र जी ने देवयानी चौबाल का स्तंभ मुझसे ही क्यों अनुवाद करवाना चाहा। इसका
जवाब दो महीने बाद मुझे तब मिला जब सुरेंद्र प्रताप सिंह जी ने मुझे अपने केबिन
में बुलाया और एक फैक्स संदेश मेरे हाथों में थमाते हुए कहा-आप सवाल कर रहे थे ना
कि मैं आपसे अनुवाद क्यों करा रहा हूं देवयानी चौबाल का मैटर। देखिए देवयानी का यह
फैक्स आपके सवाल का जवाब है।
मैं शपथ पूर्वक कह रहा हूं मैं इस आत्मकथा में जो कुछ भी लिख रहा हूं
वह सच है सच के सिवा कुछ भी नहीं। देवयानी चौबाल का वह फैक्स संदेश मेरे कार्य का
प्रमाणपत्र ही था। उसमें लिखा था-सुरेंद्र जी जो भी मेरे स्तंभ का अनुवाद कर रहे
हैं उन्हें मेरी ओर से बधाई दीजिएगा। उन्होंने मेरी स्टाइल को क्या खूब समझा है कि
लिखा उन्होंने है और लगता है जैसे मैंने ही हिंदी में लिखा हो।
सुरेंद्र जी मेरी तरफ देख कर मुसकराये और बोले-अब मिल गया ना आपको
अपने सवाल का जवाब मैं क्यों आपसे देवयानी के लिखे का अनुवाद करवा रहा हूं। इस
फैक्स को रख लीजिए यह आपके लिए ऐसा प्रशंसापत्र है जो एक विख्यात फिल्म पत्रकार ने
दिया है।
मैंने सहर्ष उसे अपने पास रखा
लेकिन कुछ दिन में ही उसके सारे अक्षर उड़ गये इसलिए मैं उसे साझा नहीं कर पा रहा।
आपको मेरे कहे पर यकीन हो तो बहुत अच्छा ना हो तो मैं कुछ नहीं कर सकता।
रविवार अंक दर अंक हिंदी पत्रकारिता में नये आयाम जोड़ रहा था। न
दैन्यम् न पलायनम् (ना दीनता ना पलायनवादी रुख) के मूलमंत्र को लेकर चल रहा था और
अच्छे-अच्छों की खबर ले रहा था चाहे वे सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेता हों या भ्रष्ट
सरकारी कर्मचारी। सच कहें तो उन दिनों भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों में रविवार का
खौफ था। स्थिति यह थी कि राज्यों की विधानसभाओं में रविवार प्रमाण के रूप में
उछाला जाने लगा था। इसी वजह से एक बार अनर्थ हो गया। सुरेंद्र प्रताप सिंह जी से
मिलने अक्सर उनके कुछ पुलिस वाले मित्र आते थे। एक बार तीन-चार पुलिस वाले आये और
उन्होंने एसपी( सभी सुरेंद्र जी को इसी नाम से पुकारते थे) के बारे में पूछा।
हमारे एक मित्र ने सुरेंद्र जी के केबिन की ओर इशारा किया वे धड़धड़ाते हुए एसपी
के कमरे में धड़धड़ाते हुए घुस गये. थोड़ी देर बाद उन लोगों के साथ एसपी निकले और
संपादकीय सभी साथियों को संबोधित करते हुए बोले-अरे भाई कोई मुझसे मिलने आये तो
पहले मुझे सूचित कर दिया कीजिए। यह मध्यप्रदेश से आये पुलिस अधिकारी हैं जो हमारी
पत्रिका में छपी एक स्टोरी पर मामला होने पर मुझे गिरफ्तार करने आये हैं। गिरफ्तार
हो चुका हीं मैं जमानत लेने जा रहा हूं।
इस तरह की परेशानियों का सामना अक्सर करना पड़ता था जिसके लिए एक
कानूनी विभाग कार्यालय में था जिसे विजित दा संभालते थे। वे बहुत खुश होते थे जब
भी कोई मामला होता था।
उदयन शर्मा |
एक बार वे कोलकाता कार्यालय आये। वे पहली बार आये थे तो हमारे संपादक
एस पी सिंह ने सारे संवादकीय साथियों से
उनका परिचय कराया।
सबका परिचय कराते हुए जब एसपी
उन्हें लेकर हमारे संपादकीय साथी रहे राजकिशोर के पास पहुंचे तो उदयन से
बोले-तुम्हारी लिखी स्टोरी की चीरफाड़ यही करते हैं।
मुझे अच्छी तरह याद है कि
उदयन जी ने राजकिशोर को संबोधित करते हुए कहा था-राजकिशोर जी मैं हिंदी प्रदेश से
हूं हिंदी अच्छी तरह से जानता हूं। आपको मेरी स्टोरी संपादित करने का पूरा अधिकार
है इसे रिराइट तो मत करिए। मेरी अपनी एक स्टाइल है कहीं तो उसे अर्थात उदयन शर्मा
को भी दिखने दीजिए। आप रिराइट करते हैं तो उसमें उदयन शर्मा नहीं आप ही आप नजर आते
हैं। स्पष्ट है कि उदयन की इस टिप्पणी पर
राजकिशोर को झेंप जाना पड़ा।
*
हजारीप्रसाद द्विवेदी |
यह घटना उन दिनों की है जब मोरार जी देसाई की सरकार गिर गयी थी। सुरेंद्र जी रविवार की आमुख कथा की तैयारी कर
रहे थे जिसका शीर्षक था ‘मोरार जी के बाद कौन’।इसमें मुख्य आमुख कथा के साथ विभन्न वर्ग के
लोगों के विचार भी इसमें सम्मिलित करने थे। मेरे जिम्मे शिक्षिका का इंटरव्यू आया
और मेरी खोज भारती मिश्रा जी पर जाकर खत्म हुई। उनकी सबसे बड़ी पहचान यह है कि वे
हिंदी के मूर्धन्य विद्वान हजारीप्रसाद द्विवेदी की पुत्री हैं। मैंने उनका
इंटरव्यू लिया। उन्होंने मोरार जी के बाद कौन पर अपने विचार व्यक्त किये। जब मैं
वहां से लौट रहा था तो देखा घर में मेरी बायीं तरफ हिंदी के मूर्धन्य विद्वान
हजारीप्रसाद द्विवेदी एक आसन पर विराजमान हैं। मैंने जाकर उनके चरण स्पर्श कर
आशीर्वाद लिया। यह मेरे जीवन का सबसे बड़ा सौभाग्य था कि मुझे उन जैसे अतुलनीय
विद्वान के आशीर्वाद मिले। उन्होंने मेरा परिचय जानना चाहा मैंने उनको अपना परिचय
दिया। भारती मिश्रा जी के घर से निकलते वक्त पंडित जी के आशीर्वाद और उनके दर्शन
की पुण्य स्मृति मेरे साथ थी। (क्रमश:)
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