Monday, November 10, 2014

जीवनगाथा डॉ. रुक्म त्रिपाठी-1


बांदा से कलकत्ता तक का सफर
(भाग-1)

राजेश त्रिपाठी
       यह कहानी बांदा जिले के एक छोटे से गांव बिलबई से शुरू होती है जो बांदा-बबेरू रोड के किनारे स्थित है। यहां से जनपद बांदा काफी करीब है। इसी गांव में आज से तकरीबन 93 साल पहले गांव के मुखिया शिवदर्शन त्रिपाठी के घर एक बालक का जन्म होता है। अब मुखिया के घर पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई तो खुशियों का पारावार न रहा। बधाइयां बजने लगीं, बतासे बटने लगे। मुखिया खुशी से फूले न समाये और बच्चे को लेकर तरह-तरह के सपने देखने लगे। उत्तरप्रदेश के गांवों में बच्चों के नाम ईश्वर या देवताओं के नाम के साथ जोड़ कर रखने की परंपरा थी इसलिए बच्चे का नाम रामखिलावन त्रिपाठी रखा गया। शायद इसका अर्थ यही होता है कि ऐसा बच्चा जिसे खेलाने के लिए स्वयं राम ही आ जायें। अच्छी कई एकड़ की मालवा जमीन सोने जैसी बालियों वाली गेहूं की फसल वरदान में देती थी वह शिवदर्शन जी के पास थी। गांव के मुखिया थे खूब मान-सम्मान था। ईश्वर की कृपा से किसी चीज की कमी नहीं थी। वे बड़े अच्छे स्वभाव के थे और गांव के हर व्यक्ति की मदद के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। उनके घर बेटा आया तो बेटे के मामा मंगल प्रसाद त्रिपाठी भी फूले नहीं समाये। वे जीजा शिवदर्शन जी को भगवान की तरह पूजते थे और उनके सामने आंख उठा कर बात नहीं करते थे। वे अपने जीजा के इशारे पर किसी से भी लोहा लेने को तैयार हो जाते थे। छह फुट से भी लंबे मंगल प्रसाद तिवारी हर तरह के हथियार चलाने में माहिर और निर्भीक थे। उनके लिए जीजा जी का आदेश ईश्वरी आदेश की तरह होता और वे हरदम उसे बजा लाने के लिए तत्पर रहते थे। अकेले सात-सात लोगों से लड़ने और निपटने की ताकत रखते थे मंगल प्रसाद।
      दिन यों ही गुजरने लगे लेकिन कहते हैं ना कि खुशी और गम में कोई ज्यादा फासला नही होता। कोई नहीं जानता कि अभी जो ठहाका है वह कब कराह और क्रंदन में बदल जाये। इस सच्ची कहानी में भी सुख बहुत जल्द ही दुख में बदल गया। नन्हा बच्चा रामखिलावन अभी पिता का भरपूर प्यार पा भी न सका था कि शिवदर्शन जी को एक ऐसी बीमारी लग गयी जिसे सिर्फ और सिर्फ आपरेशन से ही ठीक किया जा सकता था। उस वक्त लोग आपरेशन से बेहद डरते थे और वह भी नाक जैसी संवेदनशील जगह का। उन्हें नाक के पॉलिप बढ़ जाने की बीमारी हो गयी थी जिससे सांस लेने में बेहद तकलीफ होती थी । अब तो शायद इसे रे से जला कर या दूसरी पद्धति से ठीक कर लिया जाता है लेकिन उस वक्त पॉलिप को काटना पड़ता था। अब जीजा की बीमारी को लेकर चिंतित मंगल प्रसाद त्रिपाठी भी परेशान रहने लगे। उन्होंने जीजा जी से पूछा कि क्या किया जाये, कैसे इस बीमारी से निजात पायी जा सकती है। जीजा जी ने सुझाया कि अगर आपरेशन ही इस बीमारी का इलाज है तो फिर बांदा ले चलो मेरा आपरेशन करा दो। जीजा जी की आज्ञा पाते ही मंगल प्रसाद उनको बांदा ले गये। वहां एक सर्जन को दिखाया गया तो उसने आपरेशन कराने की सलाह दी। कोई चारा न देख कर आपरेशन के लिए हामी भर दी गयी। डॉक्टर ने आपरेशन कर पॉलिप तो निकाल दी लेकिन एक अनर्थ हो गया। उसने पॉलिप के साथ ही एक शिरा भी काट दी जिससे होनेवाले रक्तक्षय से शिवदर्शन जी की स्थिति खराब होने लगी। जब उनके बचने की कोई उम्मीद नहीं रह गयी तो उन्होंने अपने साले मंगल प्रसाद तिवारी से कहा कि वे उन्हें वापस घर (बिलबई) ले चलें। उन्होंने उनसे साफ कह दिया-गांव में प्रवेश करते वक्त मुझे गांव के बीच से नहीं किनारे से ले चलना जिससे दुश्मन यह न देख लें कि मैं खत्म हो रहा हूं।

      खैर शिवदर्शन जी को बचना नहीं था और अतिरिक्त रक्तक्षय से उनका निधन हो गया। बालक रामखिलावन के सिर पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा। अभी वह पिता की बांह पकड़ चलना भी न सीख पाया था कि उन बांहों का सहारा उससें हमेशा के लिए छिन गया। वह उस अबोध उम्र में था जब उसे पिता की मृत्यु का अहसास भी नहीं हो पाया था। पिता जब आखिरी सांसें ले रहे थे लोगों ने उसे भी लाकर उनकी खाट के पास  खड़ा कर दिया था। सभी  रो-बिलख रहे थे तो बालक रामखिलावन की भी आंखों में आंसू आ गये। आंखों में आंसू आये और उधऱ उसकी जिंदगी में खौफ और दहशत का साया उतर आया। पिता के जाने के बाद उसके सबसे करीबी परिजन उसकी जान के दुश्मन बन गये। उनकी  योजना थी कि अगर यह बच्चा नहीं रहे तो शिवदर्शन की जमीन के वारिस भी वही हो जायेंगे। रामखिलावन के मामा मंगल प्रसाद को उनकी इस मंशा की भनक लग गयी। वे कुछ दिन तक छोटे रामखिलावन को पीठ में बांध कर उसके खेतों आदि का काम देखने लगे और  जब खतरा बढ़ता देखा तो अपना सुख-चैन, अपने गांव की जमीन सब त्याग कर शहर बांदा चले गये। तब तक मंगल प्रसाद ने शादी नहीं की थी। अब बांदा आये तो पहले किसी काम  की तलाश में जुट गये ताकि बच्चे का पालन-पोषण और उसका रख-रखाव सही ढंग से किया जा सके। पहले उन्हें नहर विभाग में काम मिला जहां अंग्रेज ओवरसियर से उनकी खूब पटती थी। रामखिलावन थोड़े बड़े हुए तो उनको स्कूल में दाखिल कराया गया लेकिन बच्चे को सभालना और नौकरी करना एक साथ संभव नहीं हो पा रहा था इसलिए लोगों की सलाह पर मंगल प्रसाद शादी के लिए राजी हो गये। शादी हुई तो उनकी पत्नी ने रामखिलावन के पालन-पोषण का सारा जिम्मा अपने  सिर पर ले लिया। उनके प्यार-दुलार ने बालक रामखिलावन को पिता की कमी महसूस नहीं होने दी। जब किशोर वय में आये तो शहर की रामलीला में लक्ष्मण की भमिका करने लगे। उत्तर प्रदेश में उन दिनों रामलीला का बहुत चलन था। जन-जन के हृदय में बसी रामायण की गाथा का सजीव मंचन सबका मन मोह लेता था। रामखिलावन का लक्ष्मण के रूप में अभिनय भी लोगों को बहुत भाता था। उन दिनों वे बड़े-बड़े घुंघराले बाल ऱखते थे। रामलीला का श्रीगणेश मुकुट पूजन से और समापन भरत मिलाप से होता था। रामलीला के कुछ प्रसंग स्थायी रामलीला मंच के अतिरिक्त तालाब और दूसरे स्थानों पर भी होते थे।
रुक्म जी जब वे रामलीला में लक्ष्मण बनते थे
      इस तरह रामखिलावन की जिंदगी का सफर आगे बढ़ता रहा। उनका लगाव साहित्य से भी था और 13 वर्ष की उम्र से ही उन्होंने कविताएं व कहानियां लिखना शुरू कर दिया था। कुछ और बड़े हुए तो कहानियां और कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगीं। एक लेखक के रूप में उनकी पहचान बन गयी। कवि सम्मेलनों में उन्हें बुलाया जोने लगा। बड़े-बड़े कवियों के साथ वे मंच साझा करने लगे। उन दिनों स्वाधीनता आंदोलन चल रहा था जिसमें बढ़ –चढ़ कर हिस्सा लिया। कविताओं के जरिये भी विदेशी शासन पर हमला करते रहे। कई बार लाठियां खायीं, यातनाएं सहीं। तब वे व्यथितउपनाम से कविताएं लिखा करते थे। उन दिनों बांदा के कलेक्टर बालकृष्ण राव थे जो खुद भी अच्छे कवि थे और हिंदी में गीत लिखते थे। वे अपने बंगले पर कवि सम्मेलन करवाते थे जिसमें कवि व्यथित यानी रामखिलावन भी प्रमुखता से हिस्सा लेते थे। राव साहब उनकी कविताओं से बहुत प्रभावित थे और उन्होने व्यथित को रुक्मबना दिया। रुक्म यानी स्वर्ण और इसका एक अर्थ रुक्मिणी का भाई भी होता है। उस दिन कलेक्टर ने उन्हें फूलमाला पहना कर, हाथी में बैठा कर पूरे शहर में घुमा कर सम्मान भी किया था।
उसके बाद से ही वे रुक्म नाम से ख्यात हो गये। इस नाम की प्रसिद्धि में उनका वास्तविक नाम (रामखिलावन) कहीं छिप गया। बांदा में जिये उनके कालखंड में कई घटनाएं-दुर्घटनाएं, कभी खुशी कभी गम जैसी स्थितियां भी हैं। एक बार तो वे बांदा की केन नदी में डूबते बचे थे जहां उन्हें उनके मामा ने ही बचाया।
  
जीवनसंगिनी निरुपमा त्रिपाठी के साथ रुक्म जी

  बांदा ने उन्हें गुणीजनों का संग, सम्मान तो दिया ही उनकी जीवनसंगिनी निरुपमा भी वहीं मिलीं। बाद में उनके साथ ही वे कोलकाता आ गये। कोलकाता में किसी परिचित के नाम का आसरा लेकर आये और इधर-उधर भकटते हुए एक काटन मिल में क्वालिटी चेकर का काम मिला। उन दिनों वेतन बहुत कम था लेकिन चलो जिंदगी जीने को एक हिल्ला तो मिला। वहां उनका काम था मिल से बन कर आनेवाले कपड़े को चेक कर यह देखना कि वह बाजार में जाने लायक है या नहीं। तब वे मटियाबुर्ज में रहते थे। बाद में हावड़ा के बांधाघाट में रहने लगे। कई अन्य जगहों पर रहने के बाद कोलकाता के मुंशीबाजार क्षेत्र में रहने लगे। पहले वाला काम छूट गया तो दिन मुश्किल से गुजरने लगे। जब बहुत मुश्किल हुई तो उन्हें अपना हुनर याद आया और दिन भर किताबें लिखते शाम को प्रकाशक को बेच कर जो मिलता उससे घर का चूल्हा जलता। यह रोज कुआं खोदना और रोज पानी पीने के समान था लेकिन और कोई चारा ही न था। इस दौरान उन्होंने सदावृक्ष सारंगा और अन्य किताबें भी लिखीं। उन दिनों को याद करते वक्त वे अक्सर उदास हो जाते कि जिंदगी ने उन पर कैसी-कैसी आफतें डालीं। पर  इसके बीच ही कभी खुशी की भी झलक मिल जाती.। जैसे एक बार गांव लौटते वक्त इलाहाबाद स्टेशन पर जाड़े के मौसम में अलाव तापने कुलियों को सदावृक्ष नारंगा की कहानी गाते सुन कर उनके पास गये और बताया कि यह कहानी लिखनेवाला आपके सामने बैठा है। कुलियों ने इतना आदर-सत्कार किया कि उनका दिल भर आया कि जिसे वे बेकार का लेखन मान रहे थे वह जन-जन की जुबान पर टिक गया है। जिंदगी कुछ दिन तक यों ही लड़खड़ाती और बेबसी में चलती रही। उन दिनों प्रकाशक के यहां से इतना पैसा भी   नहीं मिलता था कि कोई उससे आराम से जिंदगी गुजार सके। उन दिनों रायल्टी जैसी कोई चीज नहीं थी आपने अपनी कहानी या कोई और किताब बेची आपको कुछ मिल गया और माल दूसरे का हो गया। कई बार तो उन्हें कुछ खुचरे पैसों से भी संतोष करना पड़ता था। इस पर भी उन्होंने हार नहीं मानी। उन्हें यह एहसास था कि अगर उनके सिर पर सरस्वती का वरदहस्त है, उनकी कलम में कुछ दम है तो एक न एक दिन उसे सही सम्मान और मूल्य मिलेगा ही। और वैसा हुआ भी। उनको नवभारत टाइम्स में काम मिल गया। इस दौरान उनका कविता, कहानियां और उपन्यास लिखना जारी रहा। नगर के लेखकों में उनकी पहचान बन गयी। उन दिनों गिरीशरंजन त्रिपाठी मनोरंजन साप्ताहिक निकालते थे जिसमें उनका एक उपन्यास पाप और पुण्य धारावाहिक छपता था। यह बहुत लोकप्रिय  हुआ था। उन दिनों गिरीशरंजन त्रिपाठी महानगर कलकत्ता से प्रकाशित हिंदी दैनिक सन्मार्ग के दीपावली विशेषांक का संपादन किया करते थे । रुक्म गिरीश जी को अपना गुरु  मानते थे और उनके साथ रहते थे। एक बार गिरीश जी ने उनसे कहा-' आज सन्मार्ग के दीपावली विशेषांक का आखिरी फर्मा छूटना है चलो उसे देखते चलते हैं। आज नहीं देखा तो मालवीय जी (सन्मार्ग के तत्कालीन संपादक) परेशान हो जायेंगे।'
   जब ये दोनों सन्मार्ग कार्यालय पहुंचे, मालवीय जी सिर पर हाथ रखे बैठे थे। वे बेहद परेशान थे। पूछने पर पता चला कि चंद्रधर शर्मा गुलेरी की वह कहानी खो गयी है जो स्वीकृत थी, जिसके लिए पेज तय कर लिये गये थे, चित्रों के ब्लाक बन गये थे। तब तो आज की तरह भरपूर विज्ञापन भी नहीं मिलते थे कि उससे पेज भर दिये जाते। फिर उस कहानी की घोषणा भी कर दी गयी थी। गिरीश जी भी परेशान हो गये। रुक्म जी जो उन दोनों वरिष्ठों की बातें सुन और उनके चेहरे की व्यग्रता को पढ़ रहे थे धीरे से बोले- चित्रों के आधार पर भी तो कहानी लिखी जा सकती है। इस पर संपादक मालवीय जी बोले-कहानी लिखना बच्चों का खेल नहीं। तुम अभी बच्चे हो बढ़-चढ़ कर बातें मत करो। इस बार जवाब गिरीश जी की ओर से आया-इसके सामर्थ्य को कम कर के मत आंकिए। आप मेरे मनोरंजन साप्ताहिक में जो पाप और पुण्य उपन्यास पढ़ते और पसंद करते हैं उसका लेखक यह बच्चा ही है।
        इतना सुनते ही मालवीय जी की आंखों में उम्मीद की किरण चमक उठी। वे बोले-तुम्हें क्या चाहिए, क्या पियोगे।
      रुक्म बोले-मुझे कहानी के चित्रों का प्रिंट मंगवा दीजिए और एक गिलास पानी।
     रुक्म ने एक घंटे में कहानी तैयार करके  दे दी। वह कहानी विशेषांक में छपी और उसके बारे में कहानी के मूल लेखक शर्मा जी की टिप्पणी थी-यह कहानी तो मेरी लिखी कहानी से भी बेहतर है।    यह रुक्म की जिंदगी का वह मोड़ था जिसने उनकी जिंदगी ही बदल कर रख दी।   उसके बाद मालवीय जी गिरीश जी के पीछे पड़ गये कि जैसे भी हो इस लड़के रुक्म को सन्मार्ग में लाओ। हमारे यहां सभी ट्रांसलेटर हैं साहित्यिक कोई नहीं। हम चाहते हैं कि हमारे यहां भी परिशिष्ट निकलें जिसके लिए एक साहित्यकार जरूरी है। जब रुक्म जी को गिरीश जी ने यह आफर दिया तो उन्होने साफ इनकार कर दिया कि नवभारत टाइम्स जैसे बड़े अखबार को छोड़ कर वे सन्मार्ग में आने से रहे। लेकिन गिरीश जी को वे इतना मानते थे कि उनके आग्रह पर आखिर वे नवभारत टाइम्स छोड़ कर सन्मार्ग में आ गये।  (शेष अगले भाग में)

1 comment:

  1. जीवन भर जाने कितनी ही राहों से गुजरती है इंसान जी जिंदगी .,,,,,.कितनी ही कहानी बनती हैं ...कितनी यूँ ही खो जाती है ....
    बहुत बढ़िया प्रेरक कहानी ....

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