आत्मकथा-49
सब कुछ ठीकठाक चल रहा था कि अचानक कोलकाता पर एक भयानक विपत्ति आ गयी। प्रबल वृष्टि प्रारंभ हुई तो फिर रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे बादल फट गये हों और अपना सारा पानी कोलकाता पर ही उड़ेल कर जायेंगे। लगातार एक सप्ताह की वृष्टि से कोलकाता की सारी सड़के घुटने तक पानी में डूब गयीं।
हमारा फ्लैट निचले तल्ले पर था। वहां भी अंदर घुटनों तक पानी भर गया।
पत्नी वंदना त्रिपाठी अपनी दोनों संतानों बेटी अनामिका त्रिपाठी और नन्हें
चंद्रमौलि को लिए बैठी थी। सामान जो नष्ट हुआ सो हुआ हमें बच्चों की चिंता थी।
हमारी चिंता का अंत तब हुआ जब दो तल्ले पर रहनेवाली एक महिला आयी और मेरी पत्नी
वंदना त्रिपाठी को डांटते हुए बोली-अपना छोड़ो क्या तुम्हें बच्चों का डर नहीं।
चलो सब ऊपर चलो यहां ताला लगा दो।
हमारे पास उसका कहा मानने के
अलावा और कोई रास्ता नहीं था। ऊपर एक फ्लैट खाली था वहीं हम बच्चों के साथ जाकर
रहने लगे। पानी था कि रुकने का नाम नहीं ले रहा था। जलजमाव और निरंतर हो रही वर्षा
डराने लगी थी। कार्यालय जाने का तो सवाल ही नहीं था यातायात के सारे साधन ठप हो
गये थे। ट्रेन की पटरियों में जल जम जाने के कारण कई रुटों पर ट्रेन परिचालन भी ठप
गया।
हम सब प्रभु से विनती कर रहे थे कि वे इस विपत्ति को दूर करें। सात
दिन बाद बरसात थमी पर नगर में भरा पानी उतरने का नाम नहीं ले रहा था। नगर की बरसात
का सारा पानी हुगली नदी (गंगा की एक शाखा) में जाता है। गंगा भी उफन रही थी इसलिए
पानी धीरे-धीरे जा रहा था।
पानी थोड़ा कम हुआ तो डाकिया किसी तरह से तार लेकर आया। तार का नाम
सुनते ही मेरा दिल कांप गया। गांव से आया था वहां से किसी अच्छी खबर की उम्मीद
नहीं थी पिता जी बीमार हैं शायद उनकी तबीयत और गंभीर हो गयी होगी। मेरी आशंका सच
साबित हुई। तार में पिता जी के निधन का समाचार था। मैंने सबको वह खबर सुनायी और हम
सब बिलख-बिलख कर रोने लगे। हमारा रोना सुन वह महिला आ गयी और ,सब कुछ जान कर
ढांढ़स बंधाने लगी। कोई कितना भी ढांढंस बंधाये पर जब कोई अपना संसार को छोड़ कर जाता
है तो दिल में हूक सी उठती है। लगता है हमारी कोई अनमोल मिधि हमसे छीन ली गयी। लोग
अक्सर कहते हैं कि किसी के जाने से दुनिया खत्म नहीं होती मेरा सवाल है कि इससे
जानेवाले की अहमियत तो कम नहीं होती। किसी पुत्र के लिए पिता का क्या महत्व होता
है जानते हैं आप? अचानक किसी के सिर से उस हाथ का हमेशा के लिए हट
जाना जो था तो दिलासा था मेरे पिता का साया सिर पर है मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा। हर
तूफान हर संकट से मेरे पिता मुझे बचा लेंगे। जब वह भरोसा खत्म हो गया लगा कि सबक
रहते मैं अकेला हो गया हूं।
मेरे बाबा (पिता जी) |
भैया ने ढांढस बंधाते हुए कहा-मैं
देख कर आया हूं मामा बहुत कष्ट भोग रहे थे। मामी भी उनको लेकर बहुत परेशान थीं
उन्हें खुद हिस्टीरिया के दौरे पड़ने की बीमारी थी। कहने में बुरा लगता है पर
अच्छा हुआ कि मामा को कष्ट से मुक्ति मिल गयी। अब हम लोगों को गांव चलना होगा।
मामी वहां अकेली हैं उन्होंने गांव वालों की मदद से अंत्येष्टि की होगी अब मामा के
अवशेषों का संगम में विसर्जन और श्राद्ध कार्य भी करना होगा।
भैया मुझसे बोले-ऐसा करो कल मेरे साथ पैदल ही चलते हैं मैं सन्मार्ग
चला जाऊंगा तुम आनंद बाजार के आफिस में जाकर छुट्टी के लिए अप्लीकेशन दे देना मैं
भी अपने यहां दे दूंगा।
हम लोग घुटनों तक पानी में
चलते हुए अपने अपने आफिस पहुंचे। भैया का आफिस नजदीक था महाजाति सदन के पास और
मेरा धर्मतला के पास हिंदुस्तान बिल्डिंग के सामने।
मैं जब आफिस पहुंचा तो हमारे संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह का पहला
प्रश्न था- कैसे आये राजेश जी।
मैंने उत्तर दिया-पैदल।
एसपी बोले-रजिस्टर में सिगनेचर कीजिए और जाइए। जब स्थिति संभल जाये
तभी आइएगा।
मैंने कहा-भैया एक दुखद खबर है।
एस पी बोले-कैसी दुखद खबर राजेश जी?
भैया मेरे पिता जी का निधन हो गया है। मुझे देर से खबर मिंली।
अंत्येष्टि तो मां ने की गांव वालों की मदद से अब मुझे संगम में उनका अस्थि
विसर्जन और श्राद्ध कर्म की विधि संपन्न करना है। मुझे एक माह की छट्टी चाहिए।
एसपी ने पहले तो मेरे पिता के निधन पर संवेदना व्यक्त की फिर कहा-आप
अभी अप्लीकेशन लिख कर मुझे दे दो आप जितना जल्द हो गांव चले जाओ, छुट्टी मैं पास
करवा लूंगा।
पिता जी का निधन सुन रविवार पत्रिका के मेरे अन्य साथियों ने भी दुख
जताया और ढांढंस बंधाया कि आप धैर्य धारण कीजिए और परिवार को भी धैर्य बंधाइए। जो
हुआ उसमें किसी का वश नहीं यह सोच कर अपने आपको संभालिए।
घर लौट कर हमने गांव जाने की तैयारी शुरू कर दी। किसी तरह ट्रैवेल
एजेंट से टिकट बुक कराया। हमारे फ्लैट के जितने जान-पहचान वाले पड़ोसी सब हमारे
दुख में शामिल हुए। हमें दुखी देख उनकी भी आंखें नम हो गयी थीं।यह दुनिया का
दस्तूर है कि जो आपके साथ हंसा है उसे भले ही आप भूल जायें लेकिन आपके दुख में
आंसू बहाने वाले आपको आजीवन याद रहते हैं।
*
हमने नियत समय पर ट्रेन पकड़ी और पूरा परिवार दूसरे दिन बांदा जिले के
बबेरू प्रखंड के गांव जुगरेहली पहुंच गया। घर पहुंचते ही मां सबसे लिपट कर रोने
लगीं। उनके दुख की कोई सीमा ना थी वे अब नितांत अकेली हो गयी थीं। पिता नेत्रहीन
भले सही मां को इतना तो भरोसा था कि सिर पर कोई है। हम सबने मां को धीरज बंधाया,
बहुत समझाय़ा और कहा –अब तुम अकेले नहीं रहोगी तुम्हें हम साथ ले जायेंगे। तुम यहां
अकेली रहोगी तो हमारे प्राण यहीं अटके रहेंगे।
मां को हमने समझाया कि हमें
तार देर से मिला उधर कोलकाता में लगातार पानी बरसने से सारी सेवाएं ठप थीं इसीलिए
तार भी देर से मिला।
मां ने समझाया कि किस तरह से गांव वालों ने उनको अंत्येष्टि में मदद
की। उन्होंने कहा कि अब हम लोगों को उनकी अस्थियां इलाहाबाद में विसर्जित कर
पिंडदान करना है और फिर यहां आकर श्राद्ध करना है।
मेरी अम्मा (मां) |
मैंने थैले में रखे पिता जी
के अवशेष लिए और शिवबालक नाई और गांव के एक दूसरे व्यक्ति को साथ लिया और बस से
इलाहाबाद पहुंचे। वहां हम एक ऐसे व्यक्ति के यहां रुके जो श्राद्ध आदि कर्म कराते
थे। उनके घर रात बिता कर सुबह हम सब नाव से यमुना से होते हुए संगम की ओर चल पड़े।
यमुना का गहरे रंग का पानी देख कर मुझे खेर गांव याद आ गया जहां हम लोग रामलीला
करने गये थे। वहां एक शाम मैं यमुना में
मरते बचा था। जब मैंने पीछे मुड़ कर देखा जो पाया कि जो मल्लाह नाव खे रहा था उसके
पास एक ही डांड था। डांड यानी वह काठ का औजार जिससे मल्लाह पानी काटा करते हैं।
उसे पतवार भी कह सकते हैं। जब मल्लाह से इस बारे में पूछा तो उसने बताया-अरे साहब
कुछ नहीं होगा,मैं महीनों से एक डांड से ही चला रहा हूं।
मल्लाह ने समझा तो दिया लेकिन
मेरा डर दूर नहीं हुआ, मैं प्रभु से मना रहा था कि हे प्रभु गांव तक सुरक्षित लौटा दीजिएगा अभी
बहुत सी जिम्मेदारियां निभानी है मुझे।
खैर संगम आया और पिता की अस्थियां विसर्जित कर मैंने क्षमा मांगी
आखिरी क्षणों में उनके पास ना रह पाने के लिए उन्हें अंतिम प्रणाम किय़ा. वहीं गंगा
तट पर पंडित जी ने मुझसे पिंडदान कि विधि संपन्न करवायी और हम वापस लौट पड़े।हमारे
साथ वे पंडित जी भी थे जिनके घर हम ठहरे थे और जिन्होंने पिंडदान कराया था।
इलाहाबाद का सारा कार्य संपन्न हो चुका था हमने पंडित जी को दक्षिणा दी और बांदा
जानेवाली बस पकड़ ली। शाम होते-होते हम
गांव पहुंच गये।
दूसरे दिन ही वह तिथि तय कर ली गयी जिस दिन श्राद्ध कर्म व स्वजन भोजन
होना था। गांव के सभी लोगों को निमंत्रण दे दिया गया। बिलबई में रहनेवाले भैया
रामखिलावन त्रिपाठी के चचेरे भाइयों को भी निमंत्रण भेज दिया गया। लेकिन दूसरे ही
दिन से गांव में अलग-अलग गुट बन गये। सभी यह कहने लगे कि-वे लोग जायेंगे तो हम
नहीं जायेंगे। आपने सात कनौजिया नौ चूल्हे वाली कहावत तो सुनी होगी बस वैसी ही
स्थिति। मैं परेशान हो गया। मैं किसी गुट में नहीं आता था। गांव से वर्षों से दूर
था पता ही नहीं चल सका कि गांव गुटों में
बंट गया है।
मैं हर गुट के नेता के पास गया। हाथ जोड़ कर विनती की कि मैं सबका हूं
सब मेरे हैं मैं किसी गुट का नहीं। मेरी मां गांव के हर एक व्यक्ति के दुख-सुख की सहभागी
रही है। आप सब मेरे बाबा (पिता) को श्रद्धा करते रहे हैं। उन्हीं तिवारी बाबा के
श्राद्ध का प्रसाद पाने में आप आनाकानी कर रहे हैं।
उस दिन मुझे गांव में प्रवेश
कर चुकी जातीय प्रतिद्विता और द्वेष का
अनुभव हुआ। मेरे पास काशीप्रसाद काका (हमारे
भैया अमरनाथ द्विवेदी जी के पिता जी) के पास जाने और विनती करने के अलावा और कोई
चारा नहीं था। मैंने जाकर उनके चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया और सारी समस्या
सुनायी।
उन्होंने कहा –तुम चिंता मत
करो, कल मैं अपने यहां हर गुट के नेताओं, उनके मुख्य लोगों को शाम के वक्त बुलाता
हूं तुम अवश्य आना देखता हूं कौन है जो नहीं मानता।
दूसरे दिन काशीप्रसाद काका के दरबार में सभा हुई। सारे गुट के नेता
उनसे जुड़े प्रभावशाली लोग वहां एकत्र हो चुके थे। काशीप्रसाद काका ने कहा-तिवारी
तुम्हें इन लोगों से क्या कहना है।
मैंने-हाथ जोड़ कर सभी से निवेदन किया-मेरे बाबा (पिता) आप सबके प्रिय
रहे हैं। हर एक के सुख दुख के साथी रहे हैं। अब मैं उनके श्राद्ध के लिए आपको
न्योता दे रहा हूं। मैं गांव से दूर रहा मुझे पता नहीं एक छोटा सा गांव कब इतने
गुटों में बंट गया। मेरे लिए अपनी जिद छोड़ दीजिए। मेरा यहां यह आखिरी काम है फिर
शायद कभी-कदा मेहमानों की तरह ही आना हो पायेगा। आज अगर आप मेरी विनती नहीं
मानेंगे तो उस गांव से जहां मैंने जन्म लिया, आप सबकी गोद में खेला भारी मन लेकर
जाऊंगा।
इसके बाद काशीप्रसाद काका की ओर मुड़ते हुए बोला-काका बस मुझे इतना ही
कहना था।
काका ने उन जातीय नेताओं की ओर देख कर कहा- मेरा भी कहना है कि तिवारी
बाबा के काम में आप सब खुशी-खुशी जाओ अपनी यह प्रतिज्ञा बाद में निभाते रहना।
थोड़ी देर तक सभा में खामोशी रही फिर सबने एक साथ हाथ उठा कर कहा-हम
सब राजी हैं।
मैं हाथ जोड़ कर काका
काशीप्रसाद को प्रणाम कर घर लौट आया। हम श्राद्ध कार्यक्रम, ब्राह्मण भोजन,
ग्राम्यजनों के भोजन के इंतजाम की तैयारी में जुट गये। (क्रमश:)
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