- मानवीय संवेदना से जिनका रग-रग भरा था
- पत्रकारिता जिनके लिए पेशा नहीं मिशन थी
राजेश त्रिपाठी
कुछ वयक्तित्व ऐसे होते हैं जो इतने महान, इतने जनप्रिय और अपने हो जाते
हैं कि उनका जाना उनके परिजनों को तो मर्माहत करता ही है, उनसे जुड़े,
उन्हें चाहने वालों को भी ऐसा दर्द दे जाता है जो भुलाये नहीं भूलता। उनकी
भावनाएं, संवेदना से भरा उनका दिल, सबको साथ लेकर चलने और सबको परिजन जैसा
मानने का उनका भाव हर एक को उनसे आत्मीयता के बंधन से जोड़ देता है। ऐसे ही
थे इस सदी के महान पत्रकार, मीडिया महानायक सुरेंद्र प्रताप सिंह, दोस्तों
के एसपी और हमारे प्यारे एसपी दा। 27 जून को उनकी पुण्य तिथि पड़ती है। राज्यसभा टीवी ने उन पर एक घंटे से भी ज्यादा समय की एक डाक्युमेंटरी
बनायी जिसमें उनके परिजनों व सहयोगियों, सहकर्मियों ने उनसे जुड़ी अपनी
यादें साझा की हैं। उसे देखते हुए उनसे जुड़ी यादें तो ताजा हुईं ही, उनके
व्यक्तित्व के कई अजाने पहलू भी अनावृत हुए। इसका एक-एक दृश्य उस महान
पत्रकार के जीवन के कई रंग, कई तेवर उजागर करता चलता है और देखनेवाले के
सामने एक सशसक्त पत्रकार, अदम्य, अनमनीय और अपने वसूलों के पक्के व्यक्ति
की मुकम्मल तसवीर पेश होती है। ऐसी तस्वीर जो मीडिया के क्षेत्र में आये
लोगों को नया, बेहतर और सामाजिक सरोकार से जुड़ा कुछ करने को प्रेरित करे
और उनमें यह साहस, यह हौसला जगाये कि अगर जरूरत हो तो भ्रष्टाचार, अनाचार
के विरुद्ध आवाज उठाने में पत्रकार चूके नहीं। इसके लिए अगर सत्ता या
व्यवस्था के ऊंचे से ऊंचे शिखर से भी टकराना पड़े तो उनके हाथ नहीं कांपे,
हौसला नहीं पस्त हो। एसपी सिंह ने ऐसा करके दिखाया था, वे सच के साथ खड़े
होने के लिए सत्ता के सर्वोच्च शिखर तक से पंगा (मुंबई में रहने के कारण वे
झमेले के लिए यही शब्द प्रयोग करते थे) लेने में भी नहीं हिचकिचाये।
हालांकि इसके लिए उन्हें धमकियां और कई तरह के दबाव भी झेलने पड़े। लेकिन
वे कभी किसी दबाव के सामने नहीं झुके। दृढ़प्रतिज्ञ इतने कि अगर उनके
संस्थान में भी उनकी इच्छा और सिद्धांतों के विरुद्ध कुछ हुआ तो सम्मान और
अच्छे वेतन की नौकरी की बलि देने में भी वे नहीं चूके। उनको जानने वाले,
मानने वाले इस बात को मानेंगे कि एसपी ने कभी समझौता नहीं किया, वे झुके
नहीं और साहसी व अपने इरादे के पक्के थे इसलिए टूटे भी नहीं। एक राह बंद
हुई तो उनकी प्रतिभा और उनके प्रभावी व्यक्तित्व ने दूसरे राह खोल दी।
मीडिया हाउस तो जैसे उनके जैसे व्यक्तित्व को काम देने को लालायित रहते थे
लेकिन उन्होंने वही काम स्वीकारा जो उन्हें मुआफिक लगा, जहां पत्रकारिता
के जरिए उन्हें कुछ करने की उम्मीद दिखायी दी। राज्यसभा टीवी के उनकी नजर
उनका शहर डाक्युमेंटरी में उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के पातेपुर गांव
में उनके जन्म से लेकर पश्चिम बंगाल के श्यामनगर कस्बे के गारुलिया आने,
शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करने, पहले बैरकपुर कालेज में हिंदी के व्य़ाखाता के
रूप में कार्य शुरू करने से लेकर धर्मयुग में प्रशिक्षु पत्रकार बनने और
फिर कोलकाता के आनंद बाजार प्रकाशन समूह की साप्ताहिक पत्रिका रविवार के
संपादक के रूप में हिंदी पत्रकारिता को सुदामा वृत्ति से उबार कर मौलिक
पत्रकारिता के रूप में शिखर तक पहुंचाने की सिलसिलेवार कहानी है। हम सब जो
रविवार से जुड़े थे और जिन्हें उनका सानिंध्य में काम करने और पत्रकारिता
के पावन कर्म के धर्म और उसकी अवधारणा व उसके आदर्श का पाठ पढ़ने का मौका
मिला, अपने को धन्य मानते हैं। हम मानते हैं कि बेलाग, बेखौफ और सामाजिक
सरोकार की पत्रकारिता के सारथी एसपी सिंह के सानिंध्य और उनकी छत्रछाया में
बिताये गये पत्रकारिता के हमारे दिन-साल हमारी पत्रकारिता के स्वर्णिम दिन
थे। उनके साथ काम करने का मतलब था कि आप उन्हें देखते, उनका लिखा पढ़ते और
उनकी कार्यशैली व उनके संपादन पर गौर करते हुए बहुत कुछ सीख सकते थे। आगे
बढ़ने से पहले मैं यहां राज्यसभा टीवी के एंकर और इस डाक्युमेंटरी के
कमेंटेटर राजेश बादल और उनकी टीम के तकनीकी पक्ष व अन्य पक्षों से जुडे
लोगों का शुक्रिया अदा करता चलूं जिन्होंने हमारे प्यारे एसपी दा के जीवन
की झलकियां, उनके वयक्तित्व, कृतित्व से इतनी खूबी से जोड़ा कि उनका विराट
व्यक्तित्व, उनकी उत्कृष्ट पत्रकारिता और संवेदनामय व्यक्तित्व जैसे हमारे
सामने जीवंत हो उठा। यह डाक्युमेंटरी यूट्यूब पर है और मैं यहां उसका लिंक
इस लेख के अंत में दे रहा हूं। इस डाक्युमेंटरी को देख कर कोई भी एसपी के
व्यक्तित्व की पूरी झलक पा सकता है। जो लोगो एसपी से जुड़े रहे हैं उनकी
आंखें इनके आखिरी दृश्यों को देखते हुए जरूर नंम होंगी, दिल रोएगा कि इस
तरह के प्यारे व्यक्ति अचानक, अकाल इस दुनिया से क्यों चले जाते हैं। अभी
तो हम लोगों को उनसे बहुत कुठ सीखना था, जमाने को उनसे बड़ी उम्मीद थी कि
वे अपनी कलम के जोर से उनके हक की लडाई लड़ेंगे, उन्हें न्याय दिलायेंगे।
एसपी का जाना इन उम्मीदों का मर जाना भी है। कहना न होगा कि उनके साथ काम
करने वाले, उनसे पत्रकारिता के गुर सीखनेवाले कई व्यक्ति आज भी पत्रकारिता
की श्रीवृद्धि अपने तरीके से कर रहे हैं। वे भी मानते हैं कि वे आज जो कुछ
हैं एसपी की बदौलत हैं लेकिन यह जरूर है कि उनकी तरह की पत्रकारिता करने
वाले अब शायद बिरले ही मिलेंगे।
एसपी ने जिस पत्रकारिता को प्रोत्साहित, पल्लवित. पुष्पित किया उसके केद्र में शुचिता, साफगोई, साहस और सरोकार था। शायद इसीलिए एसपी जन-जन के प्रिय जननायक से हो गये थे। मैं उनके साथ जुड़ा था रविवार से जुड़ा था इस नाते नहीं बल्कि गर्व और विश्वास के साथ कहता हूं कि उनकी जैसी पत्रकारिता करना आसान और सबके बस की बात नहीं है। इसके लिए जिगरा चाहिए और चाहिए अपने कार्य के प्रति सच्ची निष्टा, समर्पण। सच के लिए बड़ी से बड़ी कुरबानी करने का जज्बा ही किसी को एसपी सिंह बनाता है। उनका हृदय संवेदनशील था, बेहद भावुक थे हमारे एसपी। उनकी यह भावुकता ही उन्हें असमय संसार से छीन ले गयी। दिल्ली के उपहार अग्निकांड में मारे गये लोगों, बच्चों के परिजनों का विलाप, उनका दिल दहला देने वाला रुदन उनके अंतर तक को भेद गया। जिन लोगों ने आज तक न्यूज चैनल में उपहार कांड पर आधारित वह उनका आखिरी बुलेटिन देखा है वह उनकी उस दिन की बेचैन मनस्थिति के गवाह अवश्य बने होंगे। एसपी उस दिन बेहद असहज और बेचैन थे। उनके चेहरे से चिर-परिचित मुसकान गायब धी, आंखें नम थीं और समाचार पढ़ते वक्त उनका गला रुंध रहा था। इतने बेचैन, इतने असहज एसपी बड़ी-से बड़ी उलझन में भी नहीं दिखे। लग रहा था मृत लोगों के परिजनों का दर्द जैसे वे भी खुद झेल रहे हैं और उस पीड़ा का मानसिक दबाव उनके दिल-दिमाग को झकझोर और बेचैन कर रहा है। यह बेचैनी, भीतर का यह दर्द ही उन्हें ले गया। रुंधे गले से उन्होंने किसी तरह वह विशेष बुलेटिन पूरा किया, अपना चिर परिचित वाक्य दोहराया- ये थीं खबरें आज तक, इंतजार कीजिए सोमावर तक। लेकिन वह सोमवार कभी नही आया। बड़ी-बड़ी मुसीबतों और चुनौतियों से लड़ने और जीतनेवाले एसपी दर्द की जंग हार गये। उन्हें उस रात बेचैनी में नींद नहीं आयी और दूसरी सुबह उनकी जिंदगी की आखिरी सुबह बन गयी। उन्हे ब्रेन हैमरेज हुआ और वे कोमा में चले गये। फिर वे कोमा से उबर नहीं पाये और अचेतन की निंद्रा से ही उस चिरनिद्रा में चले गये जो हर व्यक्ति का आखिरी पड़ाव होता है। इसके साथ ही थम गयी वह सशक्त कलम जो हर मजलूम के हक की लड़ाई लड़ती थी, हर अंधकार में रोशनी की चमक के लिए जद्दोजहद करती थी और खामोश हो गयी वह आवाज जो दबे-कुचले सताये गये लोगों के पक्ष में उठती थी। हमारे सामने से ओझल हो गया वह जाना-पहचाना, नितांत अपना-सा हल्की दाढीं वाला चेहरा और मुसकाती-सी आंखें। पत्रकारिता का दामन जैसे सूना हो गया, उससे जैसे बेशकीमती हीरा छिन गया। वह हीरा जिसकी चमक कोई फीकी नहीं कर सका, न समय न समय के राजनीति के तथाकथित आका, महाबली।
यह दुखद खबर दिल्ली से मेरे अभिन्न मित्र और रविवार पत्रिका के मेंरे साथी निर्मलेंदु साहा ने मुझे दी, मैं दोपहर के भोजन के लिए बस बैठा ही था। यह खबर सुनते ही दिल बैठ-सा गया, मुझसे एक कौर भी खाया न गया और मैं देर तक सुबकता रहा। यह हम सब लोगों के लिए जीवन का सबसे बड़ा आघात था। जिस व्यक्ति से इतना प्यार मिला, इतना सीखा वह इतनी कम उम्र और इस तरह अकाल काल के गाल में चला जायेगा, यह बात हम सब पचा नहीं पा रहे थे। एसपी को मैं इस कदर श्रद्धा इसलिए भी करता हूं कि मेरे बड़े भैया के बाद पत्रकारिता के मेरे दूसरे गुरु वही थे। उन्होने ही पत्रकारिता के आदर्श, इसके मर्म और धर्म को समझाया। उनका यह उसूल की हमेशा सच के साथ चलो, पत्रकारिता को पेशा नहीं मिशन मानो, ऐसा मिशन जिसके केंद्र में जन कल्याण और अनाचार के विरुद्ध लड़ने का जज्बा हो। रविवार का उनके संपादन में निकला हर अंक इस बात का गवाह है कि एसपी ने ऐसी ही पत्रकारिता की और दूसरों को भी ऐसा करने को प्रेरित किया। यही कारण है कि उस वक्त की पत्रिकाओं में रविवार का कोई सानी नहीं था। किसी ने व्यवस्था.और अनाचार, भ्राष्टाचार विरोधी पत्रकारिता करने का वैसा साहस नहीं किया जैसा एसपी ने किया। इसे अत्युक्ति ना माना जाये तो एक वाक्य में यही कह सकता हूं कि उस वक्त सामाजिक सरोकार, सशक्त और साहसिक व सोद्देश्य पत्रकारिता के पर्याय बन गये थे एसपी। वे किसी अनाचार या अन्याय पर रोने वालों, उससे हार मान जाने वालों पर बहुत खफा होते थे। इसके लिए वे एक शब्द प्रयोग करते थे- विधवा विलाप करने से कुछ नहीं होगा, अन्याय से लड़ना होगा।
उनकी पुण्य स्मृति को जीवित रखने, उनके आदर्शों को आगे बढ़ाने के लिए कुछ संस्थाएं सचेष्ट हैं। इनमें पटना का सुरेद्र प्रताप सिंह इंस्टीट्यूट आफ जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन प्रमुख है। यहां तैयार किये जा रहे पत्रकारों को एसपी के आदर्श का अनुकरण करने और वैसी ही पत्रकारिता करने का पाठ पढ़ाया जा रहा है। लखनऊ की इंस्टीट्यूट पाऱ रिसर्च एंड डाक्युमेंटेशन इन सोशल साइंसेज संस्था इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए एस पी सिंह सम्मान देकर उनकी जैसी पत्रकारिता को प्रोत्साहित कर रही है।
एसपी सिंह के तराशे पत्रकारिता के कुछ हीरे आज भी शीर्ष स्थानों पर हैं और अपने तईं उनकी पत्रकारिता की धारा, उनके आदर्शों को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। उनके प्रति आभार कि वे उस महान आत्मा के विचारों का संवाहक बनने का गौरव पा रहे हैं। एसीपी सिंह की पत्रकारिता में न दैन्य था ना पलायन, सच को सच की तरह प्रमुखता से पेश करना ही उनकी पत्रकारिता का धर्म था। लोग उन्हें किसी भी वाद से जोड़ें लेकिन वे अगर किसी वाद के पक्षधर थे तो वह था मानवतावाद और उन्हें इस पथ से कोई किसी भी प्रलोभन या शर्त पर डिगा नहीं सकता था। उन्हें जहां-जहां अनुकूल वातावरण मिला, उन्होंने अपना उत्ष्कृत कर दिखाय़ा। यहां यह स्पष्ट कर दूं सच्ची, सोद्देश्य और सामािजक सरोकार की पत्रकारिता
वहीं पनपती हैं जहां किसी सुविधा के लिए चाटुकारिता या अनुगत्यता का भाव न हो। पत्रकारिता आज मिशन तो नहीं विशुद्ध व्यापार बन गयी है जहां कई जगह संपादक संपादक कम बल्कि मैनेजर बन कर रह गये हैं। उन्हें हर चीज मैनेज करनी पड़ रही है राजनीतिक आकाओं से संबंध सुधार या संबंध जोड़ने से लेकर विज्ञापन के लिए जन संपर्क तक। ऐसे में सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता कितनी हो सकती है कहा नहीं जा सकता लेकिन जहां राह नहीं वहां भी राह निकाल लेने वाले लोगों की कमी अभी भी नही, बस उन्हें अपने मुआफिक जमीन और माहौल मिलना चाहिए, सशक्त और सोद्देश्य पत्रकारिता की फसल फिर लहलहा उठेगी। आइए हम और आप वा एसपी को प्यार, श्रद्धा करनेवाले सभी लोग उसी सुबह का इंतजार करें। हमें यकीन है कि जहा-जहां सोद्देश्य पत्रकारिता होगी, एसपी वहां-वहां होंगे। अपने कार्य और अपनी विचारधारा के बल पर वह तब तक जीवित रहेंगे जब तक धरा पर पत्रकारिता है, सूरज-चांद हैं।
एसपी ने जिस पत्रकारिता को प्रोत्साहित, पल्लवित. पुष्पित किया उसके केद्र में शुचिता, साफगोई, साहस और सरोकार था। शायद इसीलिए एसपी जन-जन के प्रिय जननायक से हो गये थे। मैं उनके साथ जुड़ा था रविवार से जुड़ा था इस नाते नहीं बल्कि गर्व और विश्वास के साथ कहता हूं कि उनकी जैसी पत्रकारिता करना आसान और सबके बस की बात नहीं है। इसके लिए जिगरा चाहिए और चाहिए अपने कार्य के प्रति सच्ची निष्टा, समर्पण। सच के लिए बड़ी से बड़ी कुरबानी करने का जज्बा ही किसी को एसपी सिंह बनाता है। उनका हृदय संवेदनशील था, बेहद भावुक थे हमारे एसपी। उनकी यह भावुकता ही उन्हें असमय संसार से छीन ले गयी। दिल्ली के उपहार अग्निकांड में मारे गये लोगों, बच्चों के परिजनों का विलाप, उनका दिल दहला देने वाला रुदन उनके अंतर तक को भेद गया। जिन लोगों ने आज तक न्यूज चैनल में उपहार कांड पर आधारित वह उनका आखिरी बुलेटिन देखा है वह उनकी उस दिन की बेचैन मनस्थिति के गवाह अवश्य बने होंगे। एसपी उस दिन बेहद असहज और बेचैन थे। उनके चेहरे से चिर-परिचित मुसकान गायब धी, आंखें नम थीं और समाचार पढ़ते वक्त उनका गला रुंध रहा था। इतने बेचैन, इतने असहज एसपी बड़ी-से बड़ी उलझन में भी नहीं दिखे। लग रहा था मृत लोगों के परिजनों का दर्द जैसे वे भी खुद झेल रहे हैं और उस पीड़ा का मानसिक दबाव उनके दिल-दिमाग को झकझोर और बेचैन कर रहा है। यह बेचैनी, भीतर का यह दर्द ही उन्हें ले गया। रुंधे गले से उन्होंने किसी तरह वह विशेष बुलेटिन पूरा किया, अपना चिर परिचित वाक्य दोहराया- ये थीं खबरें आज तक, इंतजार कीजिए सोमावर तक। लेकिन वह सोमवार कभी नही आया। बड़ी-बड़ी मुसीबतों और चुनौतियों से लड़ने और जीतनेवाले एसपी दर्द की जंग हार गये। उन्हें उस रात बेचैनी में नींद नहीं आयी और दूसरी सुबह उनकी जिंदगी की आखिरी सुबह बन गयी। उन्हे ब्रेन हैमरेज हुआ और वे कोमा में चले गये। फिर वे कोमा से उबर नहीं पाये और अचेतन की निंद्रा से ही उस चिरनिद्रा में चले गये जो हर व्यक्ति का आखिरी पड़ाव होता है। इसके साथ ही थम गयी वह सशक्त कलम जो हर मजलूम के हक की लड़ाई लड़ती थी, हर अंधकार में रोशनी की चमक के लिए जद्दोजहद करती थी और खामोश हो गयी वह आवाज जो दबे-कुचले सताये गये लोगों के पक्ष में उठती थी। हमारे सामने से ओझल हो गया वह जाना-पहचाना, नितांत अपना-सा हल्की दाढीं वाला चेहरा और मुसकाती-सी आंखें। पत्रकारिता का दामन जैसे सूना हो गया, उससे जैसे बेशकीमती हीरा छिन गया। वह हीरा जिसकी चमक कोई फीकी नहीं कर सका, न समय न समय के राजनीति के तथाकथित आका, महाबली।
यह दुखद खबर दिल्ली से मेरे अभिन्न मित्र और रविवार पत्रिका के मेंरे साथी निर्मलेंदु साहा ने मुझे दी, मैं दोपहर के भोजन के लिए बस बैठा ही था। यह खबर सुनते ही दिल बैठ-सा गया, मुझसे एक कौर भी खाया न गया और मैं देर तक सुबकता रहा। यह हम सब लोगों के लिए जीवन का सबसे बड़ा आघात था। जिस व्यक्ति से इतना प्यार मिला, इतना सीखा वह इतनी कम उम्र और इस तरह अकाल काल के गाल में चला जायेगा, यह बात हम सब पचा नहीं पा रहे थे। एसपी को मैं इस कदर श्रद्धा इसलिए भी करता हूं कि मेरे बड़े भैया के बाद पत्रकारिता के मेरे दूसरे गुरु वही थे। उन्होने ही पत्रकारिता के आदर्श, इसके मर्म और धर्म को समझाया। उनका यह उसूल की हमेशा सच के साथ चलो, पत्रकारिता को पेशा नहीं मिशन मानो, ऐसा मिशन जिसके केंद्र में जन कल्याण और अनाचार के विरुद्ध लड़ने का जज्बा हो। रविवार का उनके संपादन में निकला हर अंक इस बात का गवाह है कि एसपी ने ऐसी ही पत्रकारिता की और दूसरों को भी ऐसा करने को प्रेरित किया। यही कारण है कि उस वक्त की पत्रिकाओं में रविवार का कोई सानी नहीं था। किसी ने व्यवस्था.और अनाचार, भ्राष्टाचार विरोधी पत्रकारिता करने का वैसा साहस नहीं किया जैसा एसपी ने किया। इसे अत्युक्ति ना माना जाये तो एक वाक्य में यही कह सकता हूं कि उस वक्त सामाजिक सरोकार, सशक्त और साहसिक व सोद्देश्य पत्रकारिता के पर्याय बन गये थे एसपी। वे किसी अनाचार या अन्याय पर रोने वालों, उससे हार मान जाने वालों पर बहुत खफा होते थे। इसके लिए वे एक शब्द प्रयोग करते थे- विधवा विलाप करने से कुछ नहीं होगा, अन्याय से लड़ना होगा।
उनकी पुण्य स्मृति को जीवित रखने, उनके आदर्शों को आगे बढ़ाने के लिए कुछ संस्थाएं सचेष्ट हैं। इनमें पटना का सुरेद्र प्रताप सिंह इंस्टीट्यूट आफ जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन प्रमुख है। यहां तैयार किये जा रहे पत्रकारों को एसपी के आदर्श का अनुकरण करने और वैसी ही पत्रकारिता करने का पाठ पढ़ाया जा रहा है। लखनऊ की इंस्टीट्यूट पाऱ रिसर्च एंड डाक्युमेंटेशन इन सोशल साइंसेज संस्था इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए एस पी सिंह सम्मान देकर उनकी जैसी पत्रकारिता को प्रोत्साहित कर रही है।
एसपी सिंह के तराशे पत्रकारिता के कुछ हीरे आज भी शीर्ष स्थानों पर हैं और अपने तईं उनकी पत्रकारिता की धारा, उनके आदर्शों को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। उनके प्रति आभार कि वे उस महान आत्मा के विचारों का संवाहक बनने का गौरव पा रहे हैं। एसीपी सिंह की पत्रकारिता में न दैन्य था ना पलायन, सच को सच की तरह प्रमुखता से पेश करना ही उनकी पत्रकारिता का धर्म था। लोग उन्हें किसी भी वाद से जोड़ें लेकिन वे अगर किसी वाद के पक्षधर थे तो वह था मानवतावाद और उन्हें इस पथ से कोई किसी भी प्रलोभन या शर्त पर डिगा नहीं सकता था। उन्हें जहां-जहां अनुकूल वातावरण मिला, उन्होंने अपना उत्ष्कृत कर दिखाय़ा। यहां यह स्पष्ट कर दूं सच्ची, सोद्देश्य और सामािजक सरोकार की पत्रकारिता
वहीं पनपती हैं जहां किसी सुविधा के लिए चाटुकारिता या अनुगत्यता का भाव न हो। पत्रकारिता आज मिशन तो नहीं विशुद्ध व्यापार बन गयी है जहां कई जगह संपादक संपादक कम बल्कि मैनेजर बन कर रह गये हैं। उन्हें हर चीज मैनेज करनी पड़ रही है राजनीतिक आकाओं से संबंध सुधार या संबंध जोड़ने से लेकर विज्ञापन के लिए जन संपर्क तक। ऐसे में सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता कितनी हो सकती है कहा नहीं जा सकता लेकिन जहां राह नहीं वहां भी राह निकाल लेने वाले लोगों की कमी अभी भी नही, बस उन्हें अपने मुआफिक जमीन और माहौल मिलना चाहिए, सशक्त और सोद्देश्य पत्रकारिता की फसल फिर लहलहा उठेगी। आइए हम और आप वा एसपी को प्यार, श्रद्धा करनेवाले सभी लोग उसी सुबह का इंतजार करें। हमें यकीन है कि जहा-जहां सोद्देश्य पत्रकारिता होगी, एसपी वहां-वहां होंगे। अपने कार्य और अपनी विचारधारा के बल पर वह तब तक जीवित रहेंगे जब तक धरा पर पत्रकारिता है, सूरज-चांद हैं।
नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक कर आप राज्यसभा टीवी की उनकी नजर उनका शहर शृंखला के अंतर्गत एसपी पर बनायी डाक्युमेंटरी देख सकते हैं जिसे यहां राज्यसभा टीवी से साभार दिया जा रहा है।
कृपया इस लिंक पर क्लिक करें http://www.youtube.com/watch?v=pOkf4MeHMTs
श्रद्धा सुमन!
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