दुश्मन को भी अस्पताल न जाना पड़े
जिस
अस्पताल का जिक्र पिछली किस्त में किया था उससे मेरा घर टैक्सी से मुश्किल से 10
मिनट का रास्ता था। मैंने जब डाक्टरों से
भाई को टैक्सी से ले जाने की बात कही तो उनमें से एक बोला-‘ नहीं, नहीं! बहुत बड़ा खतरा मोल ले रहे हैं आप। रास्ते के झटकों से इनकी स्थिति
और खराब हो सकती है। आप हमारी एंबुलेंस में ले जाइए।‘ पता किया चार्ज कितना है
तो पता चला शायद 300 रुपये था। अब मेरी समझ में आया कि अचानक उन लोगों को मेरे भाई
की चिंता क्यों होने लगी। उस भाई को जिसे उन लोगों ने दो सप्ताह तक केवल
ट्रैंक्वेलाइजर और पेन किलर दे कर रखा था। जिस शिकायत को लेकर वे गये थे उसका कोई
इलाज नहीं हुआ था। यहां यह बता देना अप्रसांगिक नहीं होगा कि इसी अस्पताल के एक
बड़े विशेषज्ञ को जब मेरे बड़े बेटे अनुराग का रोग समझ नहीं आया था तो उसने कह
दिया था-‘बीमारी इसके शरीर
में नहीं सोच में है। यह दिमाग से सोच लेता है कि यह बीमार है बस और कुछ नहीं।‘ बड़े बेटे की बीमारी के
चलते मेरी श्रीमती वंदना त्रिपाठी उन दिनों भुवनेश्वर (जहां मैं सन्मार्ग के
ओड़िशा संस्करण का रेजिडेंट एडीटर था) से कोलकाता चली आयी थी। बेटे की तबीयत जब
कभी बिगड़ती मुझे भुवनेश्वर से भाग कर कोलकाता आना पड़ता। बार-बार मुझे कोलकाता
आते और परेशान रहते देख कर हमारे सन्मार्ग के डाइरेक्टर श्री विवेक गुप्त ने मुझे
एक दिन बुला कर पूछा-‘ राजेश जी! बेटे को ऐसी क्या
बीमारी है जो ठीक ही नहीं हो रही।‘ मैंने सारे
लक्षण बताये तो उन्होंने कहा-‘कोठारी हास्पिटल में डाक्टर एस महापात्र हैं। वे
पेट की बीमारियों के बहुत मशहूर डाक्टर हैं। उन्हें दिखाइए, अवश्य फायदा होगा।‘ डाक्टर पटनायक के बारे में
पता किया तो मालूम हुआ कि उनका अप्वाइंटमेंट तीन-चार महीने से पहले नहीं मिलता।
बेटे की तबीयत काफी खराब थी। हम भगवान को मनाने लगे कि किसी तरह से अप्वाइंटमेंट
मिल जाये। खैर वहां रिसेप्शन पर लोगों को बताया तो उन्होंने किसी तरह अप्वाइंटमेंट
दिलवा दिया। उनसे मिले तो डाक्टर पटनायक ने बताया कि वे भुवनेश्वर से हैं और अब भी
महीने में एक दिन भुवनेश्वर जाते हैं और गरीब मरीजों का मुफ्त इलाज करते हैं।
उन्होंने बताया कि उनकी मां ने कहा था कि वे चाहे जितने बड़े डाक्टर बन जाएं लेकिन
अपने यहां के गरीबों की मदद करना ना भूलें। जब मैंने बताया कि मैं भुवनेश्वर में पूर्वी
भारत के सर्वाधिक प्रसारित और लोकप्रिय हिंदी दैनिक सन्मार्ग में काम करता हूं तो
उन्होंने बताया कि उनके बड़े भाई भी भुवनेश्वर में एक न्यूज एजेंसी के मैनेजर हैं।
मैंने नाम पूछा तो पाया कि उनके बड़े भाई मेंरे परिचित निकले। उसके बाद तो
उन्होंने बेटे को अस्पताल में भर्ती कर उसका इलाज शुरू कर दिया। वे उसके केबिन आते
तो दूसरे मरीजों के पहले मेरे बेटे अनुराग त्रिपाठी को देखने जाते और कहते –‘भाई अनुराग तो मेरे बड़े
भैया के दोस्त राजेश जी के बेटे हैं, मैं पहले उन्हें ही देखूंगा।‘ डाक्टर पटनायक के हाथों के
यश और प्रभु की कृपा से मेरा बेटा अच्छा हो गया। जिस बीमारी को किसी दूसरे अस्पताल
के डाक्टर ने दिमागी फितूर बताया था उसका इलाज एक दूसरे डाक्टर ने कर दिया।
यह
प्रसंग सिर्फ डाक्टर-डाक्टर में फर्क बताने के लिए लिखना पड़ा। भाई को मैं घर ले
आया और लोकल डाक्टर से उनका इलाज शुरू करवा दिया। उन्हें स्ट्रेचर से अस्पताल ले
गया था और स्ट्रेचर पर ही वापस लाया। वहां उनका कोई इलाज नहीं हुआ था। वे तो किडनी
काटने की ताक में थे ताकि उनकी स्थिति और खराब हो जाये और हम लोगों से ज्यादा से
ज्यादा पैसा ऐंठ सकें। लोकल डाक्टर के इलाज ने असर दिखाना शुरू किया और एक महीने
बाद भाई वाकर की मदद से चलने लगे। उनकी रीढ़ की चोट का दर्द भी काफी कम हो गया। हालांकि
मैं बांड भर कर उनको अस्पताल से वापस लाया था और उनके कहने पर हामी भर दी थी कि
किडनी काट कर परीक्षा के लिए उनको वापस लाऊंगा लेकिन जिस भाई को मैं अब चलता-फिरता
देख रहा हूं उनको अपंग करने या मौत के मुंह में झोंकने की ताकत मैं नहीं जुटा
पाया। अस्पताल के उन डाक्टरों को जरूर अफसोस हुआ होगा कि एक शिकार हाथ से निकल
गया। मुझे माफ करें लेकिन आजकल कई अस्पताल ऐसे हैं जो अपने यहां आये मरीज को शिकार
की तरह ही मानते हैं। जिसे लंबे अरसे तक अस्पताल में रख कर लाखों का बिल बनाया जा
सके। अगर आपने कहीं कह दिया कि आपका मेडिक्लेम है तो फिर बिल में वृद्धि का जैसे
आपने निमंत्रण दे दिया। कुछ ऐसे अस्पताल हैं जिनके फर्श इतना साफ और चिकने हैं कि
आप अपना चेहरा देख सकें लेकिन यहां इलाज के नाम पर क्या होता है यह किसी भुक्तबोगी
से पूछिए। ऐसा नहीं कि पूरे कुएं में भांग घुली हो। अभी भी कुछ अस्पताल ऐसे हैं जो
मरीज को ठीक करने के प्रति गंभीर हैं। ना करें कि कभी दुश्मन को भी अस्पताल जाना
पड़े क्योंकि वहां जाते ही उसे कुछ लोग मरीज की तरह नहीं नोट से भरी तिजोरी की तरह
देखने लगते हैं जिससे जितना नोंचा, खींचा जा सके खींचने में कोई संकोच नहीं करते। दिन
पर दिन महंगी होती जा रही चिकित्सा सुविधाएं अब आम आदमी की पहुंच से दूर होती जा
रही हैं। अब उसका भरोसा सिर्फ और सिर्फ
सरकारी चिकित्सा सुविधाएं ही रह गयी हैं। बड़े-बड़े अस्पतालों में तो इतने तरह के
टेस्ट कराये जाते हैं कि उसमें ही 25-30 हजार की चपत लग जाती है। पहले के जमाने
में वैद्य नाड़ी और आंखों व चेहरे का रंग देख कर रोग भांप लेते थे और ऐसी दवाएं
देते थे कि रोग जड़ से ठीक हो जाता था। आज तो डाक्टर टेस्ट के भरोसे रहते हैं
टेस्ट नहीं कराया तो वे मर्ज ही नहीं पकड़
पायेंगे। यहां भी एक सच्ची घटना का जिक्र कर रहा हूं जो राजस्थान के किसी भाई ने
अपने फेसबुक में शेयर किया था। उस भाई को पेट की कोई तकलीफ थी जो ठीक ही नहीं हो
रही थी। उसने देश के एक बड़े अस्पताल में दिखाया जहां से तकरीबन 15 हजार के टेस्ट
कराये गये और एक माह की दवा दी गयी लेकिन उसे कोई फायदा नहीं हुआ। वह अपने प्रांत
राजस्थान लौटा तो किसी ने उसे 90 वर्षीय एक वैद्य से मिलने की सलाह दी। वह भाई उन
वैद्य जी के पास गया और अपने 15 हजार के टेस्ट के डाक्युमेंट्स दिखाने लगा। वैद्य
जी ने कहा-‘ इसे अपने पास रखो,
बस अपना हाथ बढ़ाओ।‘ वैद्य जी ने तीन-चार मिनट तक नाड़ी की तरंगों का अध्ययन
किया और उस भाई को वह सब बता दिया जिसके लिए उसने टेस्ट में 15 हजार रुपये जाया
किये थे। उन्होंने उसको एक चूर्ण दिया और कहा-‘इसे गुनगुने जल से ले लिया करना।‘ उस भाई ने कहा-‘फिर कब आना होगा।‘ वैद्य जी ने कहा-‘कभी नहीं। इससे ही ठीक हो
जायेगा और यह कष्ट फिर जीवन भर नहीं होगा।‘ वाकई वही हुआ।
यहां
इस प्रसंग का जिक्र करने का आशय यह बताना था कि हम अपनी प्राचीन चिकित्सा
पद्धतियों को कितना भी हेय समझें चिकित्सा का आधार वही थीं। चरक जैसे मनीषियों ने
इस क्षेत्र में जो कार्य किया वह स्तुत्य और साधुवाद का प्रतीक है। कौन भूल सकता
है सुश्रुत जैसे शल्यचिकित्सा में प्रवीन चिकित्सक या माधवकर जैसे डाइगनोस्टिक
(नैदानिक) को जिनका माधव निदान रोग निर्णय के लिए एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। (शेष
अगले भाग में)
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