कुछ इस तरह हुई भेंट निराला जी से
(भाग-8)
राजेश त्रिपाठी
जैसे कि पहले बता आये हैं उन दिनों कलकत्ता साहित्यिक
मनीषियों का गढ़ था। या तो ये साहित्य मनीषी बाहर से आकर कलकत्ता में प्रवास करते
थे या फिर किसी पत्र के संपादक के रूप में कलकत्ता में ही पत्रकारिता के माध्यम से
साहित्य की सेवा करते थे। शहर में कई ऐसी संस्थाएं भी थीं जो साहित्याकारों का
सम्मान करती थीं। ऐसी ही किसी संस्था ने एक बार तय किया कि वह उस वक्त के महान
साहित्याकर कवि निराला जी को कलकत्ता आमंत्रित कर उनका शहर में सम्मान करेंगे। भाव
और भावना दोनों बहुत अच्छी थी लेकिन समस्या यह थी कि हावभाव और विचारों से भी
निराला कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को क्या कलकत्ता लाना सहज होगा। उन दिनों
तक उनके बारे में ख्यात हो गया था कि वे
बहुत ही मनमौजी हैं और एक बार मन में जो तय कर लें उनको उस ध्येय से डिगाने की
ताकत किसी में नहीं थी। कहते हैं मनमौजी तो वे पहले से थे लेकिन अपनी प्यारी
बिटिया सरोज के निधन के बाद जिद्दी और गुस्सैल भी हो गये थे।
खैर संस्था के कुछ सदस्यों ने तय किया कि वे इलाहाबाद जाकर निराला
जी को कलकत्ता आने के लिए राजी करेंगे। कुछ लोग इसी उद्देश्य से इलाहाबाद पहुंचे। निराला
जी के पास जाकर उन्होंने कहा कि वे उनको कलकत्ता आने का आमंत्रण देने आये हैं।
उनकी हार्दिक इच्छा है कि वे उनके जैसे साहित्य मनीषी का कलकत्ता में सम्मान करें।
उन लोगों की बात सुनते ही निराला जी भड़क उठे-‘तुम्हारे कहने से मैं कलकत्ता क्यों जाऊं?’
‘पंडित जी, हम वहां आपका स्वागत करना चाहते हैं।‘ संस्था के एक व्यक्ति ने कहा।
‘मुझे स्वागत नहीं कराना।‘
संस्था के सदस्यों ने बहुत समझाया लेकिन निराला जी नहीं
माने। कहते हैं कि उन दिनों उनकी आदत वैसे बच्चों की तरह हो गयी थी जो अगर जिद में
अड़ गये तो फिर उससे उन्हें अलग कर पाना मुश्किल हो जाता है।
संस्था के सदस्य जब परेशान होकर निराला जी के घर से बाहर
निकले तो वहां किसी ने उनसे पूछा-‘ओह निराला जी से मिलने आये थे। मिल लिये?’
सदस्यों में से एक ने कहा-‘क्या मिल लिये, उनका स्वागत करने के लिए कलकत्ता का
निमंत्रण देने आये थे। वे माने ही नहीं। कह रहे हैं –नहीं कराना स्वागत।‘
उस व्यक्ति ने कहा-‘ बस इतनी सी बात!’
‘ आप इसे इतनी सी बात कह रहे हैं, हम उतनी दूर से आये और
निराशा ही हाथ लगी।‘
‘आप चाहें तो आपकी आशा पूरी हो सकती है।‘
‘वो कैसे?’
‘आप महादेवी वर्मा जी के पास जाइए, उन्हें अपनी इच्छा बताइए।
निराला उन्हें अपनी बड़ी बहन मानते हैं उनका कहा कभी नहीं टाल सकते।‘।‘
संस्थावालों
को अंधेरे में प्रकाश की एक किरण नजर आयी। वे लोग वहीं इलाहाबाद में रह रहीं
कवियत्री महादेवी के घर गये। उनसे उन्होंने अपनी इच्छा बतायी।
उनकी बात
सुन कर महादेवी वर्मा उनके साथ निराला जी के घर आयीं और बोलीं-‘निराला! ये लोग दूर कलकत्ता से तुम्हें लेने आये हैं, तुम्हारा
सम्मान करना चाहते हैं, तुम इनको निराश वापस लौटा देना चाहते हो।‘
‘तुम
क्या कहती हो बहन?’
‘तुम्हें
इनके साथ जाना चाहिए।‘
’बहन
तुम कह रही हो।‘
‘हां,
जाओ।‘
‘ठीक
है भाई, बहन ने कह दिया तो जाना ही होगा। चलो।‘
निराला
जी उस समय एक मैली-कुचैली मिरजई पहने थे जिस पर पान की पीक के दाग थे। संस्थावालों
में से एक ने कहा-‘जरा
कपड़ा..।‘
‘ वो
जैसा है वैसे ही ले जाइए, कुछ टोंका-टाकी की तो फिर उसका खयाल बदल सकता है।‘ महादेवी वर्मा ने सावधान किया।
संस्थावाले
चुपचाप निराला जी को लेकर ट्रेन से कलकत्ता के लिए रवाना हो गये।
संस्था महान कवि निराला जी को सम्मानित करना
चाहती है यह खबर कलकत्ता के मीडिया जगत को मिल गयी थी। सन्मार्ग के पत्रकार भी
निराला जी के दर्शन करना चाहते थे। रुक्म जी साहित्यकार थे इसलिए उनको यह जिम्मेदारी
सौंपी गयी कि वे हावड़ा स्टेशन से ही निराला जी के साथ लग जायें और किसी भी तरह से
उन्हें सन्मार्ग कार्यालय आने के लिए राजी कर लें।
निराला जी की ट्रेन हावड़ा स्टेशन पहुंचे इससे
पहले संस्था के कुछ लोग फूलमाला लेकर स्टेशन पहुंच गये थे। उन लोगों में रुक्म जी
भी थे।
ट्रेन हावड़ा स्टेशन पहुंची तो गाड़ी से उतरते
ही लोगों ने निराला जी को घेर लिया और उनको फूलमाला पहनाने की होड़ लग गयी। जब
स्टेशन में माला पहना कर उनका स्वागत पूरा हुआ तो निराला फिर अपने निरालेपन में आ
गये।
वे ट्रेन के ड्राइवर के पास जाकर बोले-‘ लो भाई हो गया स्वागत। बहन महादेवी की आज्ञा भी
पूरी कर ली अब वापस चलो इलाहाबाद।‘
निराला जी की बात सुन कर संस्थावालों का माथा
ठनक गया। निराला जी की आदत से वे इलाहाबाद में बखूबी परिचित हो गये थे। अब अगर
उन्होंने तुरत इलाहाबाद वापसी की ठान ली
है तो फिर उन्हें रोक पाना आसान नहीं है। उनमें से एक सदस्य तुरत ट्रेन ड्राइवर के
पास गया और उसको सारा किस्सा समझाया और कहा कि वही कुछ जुगत भिड़ाये जिससे निराला
जी को कलकत्ता ले जाया जा सके और उनके स्वागत की उनकी इच्छा पूरी हो सके।
ड्राइवर सारी बात समझ गया। वह निराला जी के पास
गया और उनके चरण स्पर्श कर बोला –‘पंडित जी प्रणाम।‘
निराला जी |
निराला जी बोले-‘भाई
तुम भी संस्थावाले हो क्या?’
‘नहीं पंडित जी, मैं आपकी ट्रेन का ड्राइवर हूं।‘
‘अच्छा, अच्छा तुम लाये हो हमें, बोलो क्या बात है।‘
‘पंडित जी, यह ट्रेन सैकड़ों मील का सफर कर के आयी
है। थक गयी है, इंजन गरम हो गया है। यह आराम कर ले, इंजन भी ठंडा होले फिर मैं
आपको वापस ले चलूंगा। तब तक आप भी शहर कलकत्ता जाकर आराम कर लीजिए।‘
‘अच्छा ये बात है, तब तो यही ठीक रहेगा। चलो भाई।‘
निराला जी चल पड़े। रुक्म जी भी उनके पीछे-पीछे चल पड़े। मौका देख कर उन्होंने
कहा-‘पंडित जी मैं
सन्मार्ग अखबार से हूं। हमारे सभी साथी पत्रकार आपका दर्शन करना चाहते हैं। बड़ी
कृपा हो अगर आप हमारे कार्यालय में पधारने की कृपा करें।‘
निराला जी का मिजाज तब तक कुछ अच्छा हो गया था। उन्होने कहा-‘अरे भाई कृपा की क्या बात है। अखबार का कार्यालय
यानी सरस्वती का मंदिर मैं अवश्य आऊंगा।‘
रुक्म जी ने कार्यालय आकर लोगों को खबर दी कि निराला जी कल कार्यालय में आने
वाले हैं। सभी बहुत खुश हुए और सोचा की दोपहर तक जब निराला जी आयेंगे फूलमाला और
मिठाई आदि ले आयी जायेगी ताकि उनके स्वागत में किसी तरह की कमी न रह जाये। यह सब
सोच कर लोग रात ड्यूटी करने के बाद सो गये।
लोगों की नींद तड़के एक गुरु-गंभीर आवाज से टूटी-‘लो भाई आ गया निराला । कर लो दर्शन।‘
सभी अकबका कर उठ गये। सब भौंचक रह गये। रात की ड्यूटी से थके-थकाये पत्रकार
जैसे-तैसे सो गये थे। किसी ने ढंग के कपड़े तक नही पहने थे।
सबको भौंचक देख निराला जी बोले-‘संकोच की कोई बात नहीं। मैं यह सोच कर तड़के आ गया
कि आप लोग मिठाई, माला वगैरह मंगायेंगे, बेवजह खर्च करेंगे। अरे यह सरस्वती का
मंदिर है। आप लोगों से मिल लिया, यहां आ गया यही बहुत है। स्वागत वगैरह क्या करना।
अब आप आराम कीजिए।‘इतना
कह कर' वे जैसे तूफान की
तरह आये थे वैसे ही वापस लौट गये।
सब रुक्म
जी बोले-‘अरे भाई निराला जी को
सुबह आना है यह आपने बताया क्यों नही?’
रुक्म जी ने जी कहा-‘ अरे भाई , मैंने समय पूछा था पर उन्होंने यह कह कर
टाल दिया कि-आऊंगा जरूर, समय का क्या है जब भी वक्त मिलेगा आ जाऊंगा। मुझे क्या
पता कि वे तड़के ही धमक पड़ेंगे।‘
साथियों ने कहा –‘चलो कोई बात नहीं, वे आये तो।‘
तब तक रुक्म जी एक कथाकार और सफल संपादक के रूप में
ख्यात हो चुके थे। उन्होंने जिस भी पत्र-पत्रिका का संपादन किया वह सफल हुई। उनकी
कहानियों की शैली अनोखी और अलग ढंग की होती थी। किसी ने कभी उनकी कहानियों के बारे
में कहा था कि ये कहानियां पाठक को अपने साथ अंत तक बांधे रहती हैं और इनका अंत
उनको कुछ सोचने को मजबूर कर देता है। कहानियां ऐसी जो जिंदगी के बेहद करीब लगें।
कलकत्ता में एक लेखक थे जेमिनी कौशिक बरुआ। वे
महात्मा गांधी रोड के माधव भवन में रहते थे और लेखन कार्य करते थे। वे जीवनी लेखक
और स्मारिका संपादक व व्यक्तियों के जीवन चरित्र लिखने के लिए जाने जाते थे।
उन्होंने कलकत्ता के साहित्यिक और औद्योगिक जगत से जुड़े व्यक्तियों पर खूब लिखा।
उनकी एक पुस्तक थी ‘कलकत्ता
के कथाकार’ जिसमें उन्होंने
रुक्म जी का वर्णन कुछ इस प्रकार किया था-‘दोपहर बाद ढाई बजे के करीब लक-दक खादी कुरते और
पाजामे में लैस सांवले रंग का कोई लंबा-सा शख्स पांडे की पान दूकान पर पान खाता
मिल जाये तो समझें कि यह मशहूर कथाकार रुक्म हैं।‘ (शेष अगले भाग में)
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