जिन्होंने भारतीय सिनेमा की बुनियाद रखी
जिन लोगों ने भारत में फिल्मों की बुनियाद रखी, उनमें अग्रणी थे दादा साहब फालके। धुंडिराज गोविंद फालके उर्फ दादा साहब फालके का जन्म 30 अप्रैल 1870 को, महाराष्ट्र में नासिक के करीब त्रयंबकेश्वर में हुआ था। भारतीय फिल्मों के जनक दादा साहब फालके एक गरीब ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे। उन्हें बचपन से ही फोटोग्राफी का शौक था। हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वो फोटोग्राफी सीखने विदेश चले गये। स्वदेश लौट कर उन्होंने एक फोटोग्राफर की हैसियत से पुरातत्व विभाग में नौकरी कर ली। उन दिनों भारत में तो फिल्में बनती नहीं थीं, हां विदेशी फिल्में जरूर दिखायी जाती थीं। उन्हीं दिनों उन्होंने ऐसी ही एक विदेशी फिल्म ‘द लाइफ आफ क्राइस्ट’ देखी। इस फिल्म ने जैसे उनकी जिंदगी की धारा ही बदल दी। दादा साहब देख तो रहे थे क्राइस्ट की जिंदगी लेकिन उनके दिमाग में रह रह कर यह विचार कौंधता था कि काश! क्राइस्ट की जगह कृष्ण होते। और यह बात उनके दिमाग में घर कर गयी कि वे कृष्ण के जीवन पर ऐसी ही फिल्म बनायेंगे। यह सोचना जितना आसान था, इसे पूरा करना उतना ही मुश्किल। कारण, तब तक भारत में किसी को फिल्म तकनीक की जानकारी नहीं थी। न सिनेमा के साज-सामान थे, न उन्हें चलानेवाले कुशल तकनीशियन। लेकिन दादा साहब दृढ़प्रतिज्ञ थे।
अपना सपना पूरा करने के लिए उन्होंने कृष्ण से संबंधित साहित्य पढ़ने में दिन-रात एक कर डाला। ऐसे में उन्होंने यह परवाह भी नहीं की कि वे अपनी आंखों के साथ ज्यादती कर रहे हैं। लेकिन सिर्फ इतने से ही बात नहीं बननी थी। सिनेमा तकनीक का ज्ञान जरूरी था। दादा साहब पशोपेश में थे। तभी उनके हाथ एक किताब लग गयी ‘ द ए बी सी आफ सिनेमैटोग्राफी’। इससे ही उन्हें सिनेमा कला की पहली जानकारी मिली। इसके बाद तकनीकी ज्ञान के लिए अपनी जीवन बीमा पालिसी बंधक रख कर वे इंग्लैंड गये। वहां से वे दो माह बाद एक विलियम्सन कैमरा , एक प्रिंटिंग मशीन व अन्य यंत्र ले कर लौटे ।इन सीमित साधनों से ही उन्होंने फिल्म निर्माण की तैयारी शुरू कर दी।
मुश्किल यह थी कि उन दिनों कोई फिल्मों पर पैसा लगाने को तैयार नहीं था। किसी को यकीन नहीं था कि भारत में भी फिल्में बन सकती हैं। इस बात का यकीन दिलाने के लिए उन्होंने एक काम किया। उन्होंने गमले में सेम के कुछ बीज बोये और अपने कैमरे के जरिये बीज के अंकुरित होने से लेकर क्रमिक विकास को फिल्मा लिया। अपनी इस लघु फिल्म का नाम उन्होंने ‘द ग्रोथ आफ ए प्लांट’ रखा। इसे उन्होंने कुछ लोगों को दिखाया। लोग उनके प्रयास से बहुत प्रभावित हुए और उनकी आर्थिक मदद से दादा साहब ने अपनी पहली फीचर फिल्म बनाने की योजना शुरू की।
अपनी पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ के लिए उन्होंने धार्मिक कथा चुनी। इस मूक फिल्म को बनाने में उन्हें बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा। सबसे ज्यादा परेशानी तो उन्हें हरिश्चंद्र की पत्नी तारामती की भूमिका निभानेवाली महिला कलाकार को खोजने में हुई। उन दिनों कुलीन घराने की पढ़ी-लिखी महिलाएं नाटकों और फिल्मों में काम करने का साहस नहीं करती थीं। इस काम को बहुत तुच्छ माना जाता था। तारामती की तलाश उन्हें बंबई के वेश्याओं के मुहल्ले तक ले गयी लेकिन वे भी फिल्म में काम करने को तैयार नहीं थीं। वे भी इसे निकृष्ट काम समझती थीं। किसी ने तो यहां तक कहा कि अगर वह फिल्म में काम करेगी तो उसे उसके समाज से निकाल दिया जायेगा। एक ने तो यह भी कहा कि अगर दादा साहब उसकी बेटी से शादी कर लें तो वह उसकी बेटी फिल्म में काम कर सकती है। हार कर दादा साहब ने तय किया कि वे किसी पुरुष कलाकार को ही तारामती बनायेंगे। लेकिन यहां भी समस्या आयी। कोई अपनी मूंछ मुंडाने को तैयार नहीं था। बहुत अनुनय-विनय के बाद दादा साहब इसके लिए एक युवक को राजी कर पाये। जहां आज दादा साहब फालके रो़ड है , बंबई की उसी जगह पर दादा साहब ने अपनी इस फिल्म की शूटिंग शुरू की। फिल्म की सारी शूटिंग दिन में सूरज की रोशनी में की गयी। 3700 फुट लंबी यह फिल्म आठ महीने में पूरी हुई। उन दिनों सेट आदि बनाने का इंतजाम तो था नहीं, इसलिए किले आदि के दृश्य परदे पर बना कर ठीक उसी तरह पीछे टांग दिये जाते थे , जैसा नाटकों में किया जाता था। इसके निर्देशक, निर्माता, लेखक, कला निर्देशक, छायाकार, मेकअप मैन सभी कुछ दादा साहब ही थे। इस फिल्म में हरिश्चंद्र की भूमिका डाबके ने और तारामती की भूमिका सालुंके ने की थी। रोहित की भूमिका खुद दादा साहब के बेटे भालचंद्र ने की थी।
इस तरह साकार हुआ हिंदी फिल्मों का सपना
फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' का एक दृश्य
17 मई 1913 को बंबई के पारेख अस्पताल के अहाते में कोरोनेशन थिएटर में ‘राजा हरिश्चंद्र’ फिल्म प्रदर्शित की गयी। और इस तरह इस फिल्म से ही भारतीय फिल्मों का जन्म हुआ। यह फिल्म आठ सप्ताह चली। उन दिनों रंगमंच बेहद लोकप्रिय था , उससे इस फिल्म को कड़ी प्रतिस्पर्धा करनी पड़ी। नतीजा यह हुआ कि बंबई के बाहर यह फिल्म नहीं चली। सूरत (गुजरात) में दादा साहब ने एक व्यवसायी के साझे में यह फिल्म उस मंच पर दिखायी, जहां नाटक होते थे लेकिन यह कोशिश भी बेकार रही। पहले दिन महज तीन रुपये आये। चलती-फिरती गूंगी फिल्में देखने के बजाय लोग नाटक देखना पसंद करते थे। इसके बाद दादा साहब ने अपनी फिल्म का आकर्षक विज्ञापन देना शुरू किया। इसका काफी असर हुआ और एक शो के 300 रुपये तक आने लगे। दादा साहब बंबई छोड़ कर नासिक चले गये। वहां उन्होने ‘भस्मासुर मोहिनी’ बनायी। फिल्म विफल रही। अपनी अगली फिल्म ‘सत्यवान सावित्री’ बनाने के लिए उन्हें अपनी पत्नी के गहने तक बेचने पड़े। इस बीच उन्होंने कई वृत्तचित्र भी बनाये। ‘सत्यवान सावित्री’ बनाने के बाद वे अपनी तीनों फिल्में लेकर इंग्लैंड गये। वहां उन्होंने अपनी फिल्मों का प्रदर्शन किया। लोग उनसे बहुत प्रभावित हुए। वहां की एक फिल्म कंपनी के मालिक ने उनके सामने प्रस्ताव रखा कि उसके साथ साझे में इंग्लैंड में ही भारतीय फिल्मों का निर्माण करें लेकिन दादा के मन में तो भारतीय फिल्मों की बुनियाद पुख्ता करने की धुन थी।
स्वदेश लौट कर उन्होंने ‘लंका दहन’ बनायी जो न सिर्फ बंबई अपितु देश के अन्य भागों में भी बेहद कामयाब रही। अब तक उन्होंने सारी फिल्में अपने बैनर फालके फिल्म कंपनी के अंतर्गत बनायी थीं। इसके बाद कई धनवान लोगों ने उनके इस व्यवसाय में साझे का प्रस्ताव रखा। दादा ने यह प्रस्ताव मान लिया। इस तरह से हिंदुस्तान कंपनी का जन्म हुआ। इस कंपनी के बैनर में उन्होंने ‘कृष्म जन्म’ बनायी और अपना वर्षों पुराना सपना पूरा किया। यह फिल्म बहुत सफल रही। इसके बाद उन्होंने ‘कालिया मर्दन’ बनायी जिसमें उनकी बेटी मंदाकिनी ने बाल कृष्ण की भूमिका बड़ी खूबी से की। फिल्म लागातार 10 महीने तक चली। इसके बाद अपने साझेदारों से उनका झगड़ा हो गया । वे फिल्म छोड काशी यात्रा पर चले गये। काफी अरसे बाद वे फिल्मों में वापस आये यौर उन्होंने ‘सती महानंदा’ और ‘सेतुबंधन’ बनायी। यह उनका आखिरी मूक फिल्म थी जिसे बाद में ध्वनि से जोड़ कर सवाक कर दिया गया। दादा साहब फालके द्वारा बनायी गयी पहली और आखिरी सवाक फिल्म थी ‘गंगावतरण’ । इसके बाद उम्र अधिक हो जाने के कारण उन्होंने फिल्में छोड़ दीं। उन्होंने कुल 175 फिल्में बनायीं और खूब धन कमाया लेकिन सब कुछ गंवा दिया। उनीअपने घर में आखिरी सांस ली।क जिंदगी के आखिरी दिन बेहद तंगी में गुजरे। उन दिनों वी. शांताराम ने उनकी बड़ी आर्थिक मदद की। 16 फरवरी 1944 को भारतीय फिल्मों के इस शलाका पुरुष ने 74 वर्ष की उम्र में नासिक के अपने घर में आखिरी सांस ली।
छोटा कद, बुलंद हौसला
महबूब खान
छोटे कद और बुलंद हौसले वाले महबूब खान का जन्म गुजरात में बड़ौदा जिले के अंतर्गत एक छोटे से गांव सरार काशीपुर में 7 सितंबर 1906 को हुआ था। लिखने-पढ़ने के नाम पर वे सिर्फ उर्दू में अपना हस्ताक्षर करना भर जानते थे।चेकों पर भी वे लोगों के नाम नहीं लिख पाते थे। बस सिर्फ हस्ताक्षर कर देते थे। शायद यही वजह है कि उन्होने इतनी फिल्में बनायीं , लेकिन किसी की भी स्क्रिप्ट वे साथ नहीं रखते थे। सारा कुछ उनके दिमाग में होता था। कहते हैं कि एक बार कोई अनपढ़ उनसे काम मांगने आया तो कहीं आर काम दिलाने का वादा करते हुए उन्होंने बड़ी विनम्रता से कहा-‘मैं अपने गिर्द और अनपढ़ नहीं रखना चाहता। एक ही काफी है। ’ जाहिर है उनका इशारा अपनी ओर था।
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इस नयी कंपनी के साथ उनकी पहली फिल्म थी ‘औरत’। यह किसानों की परेशानी दरसानेवाली ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित फिल्म थी। इसका आधार था पर्ल बुक का मशहूर उपन्यास ‘द मदर’। ‘औरत’ में प्रमुख भूमिका सरदार अख्तर ने निभायी थी, जो बाद में श्रीमती महबूब खान बन गयी थीं। अख्तर महबूब की दूसरी पत्नी थीं। ‘औरत’ फिल्म को उन्होंने 1955 में अपने बैनर महबूब प्रो़डक्शन के अंतर्गत ‘मदर इंडिया’ के नाम से बनाया। इसमें उन्होंने सरदार अख्तर वाली भूमिका नरगिस को दी। अन्य भूमिकाएं राजेंद्र कुमार, सुनील दत्त, राजकुमार, कन्हैयाला और कुमकुम को दीं। इसी फिल्म के निर्माण के दौरान सुनील दत्त और नरगिस की मुहब्बत परवान चढ़ी और ‘मदर इंडिया’ की कामयाबी के बाद ही नरगिस-सुनील ने शादी कर ली। यह फिल्म ‘आन’ के बाद बनी महबूब प्रोडक्शन की दूसरी टेकनीकलर फिल्म थी। यह विदेश में भी खूब चली।
‘औरत’ के बाद नेशनल स्टूडियो के लिए उन्होंने ‘बहन’, ‘नयी रोशनी’ ‘जवानी’, ‘निर्दोष’, ‘रोटी’ बनायी। ‘रोटी’ के क्लाइमैक्स दृश्य में चंद्रमोहन को पता लगता है कि उसके पास बक्सा भर सोने की ईंटे हैं लेकिन खाने को एक दाना नहीं। इससे वे संदेश देना चाहते थे कि अगर पैसे से रोटी न खरीदी जा सके, तो वह पैसा बेकार है। ‘रोटी’ के बाद नेशनल स्टूडियो के.के. मोदी ने ले लिया और महबूब खान ने अपनी निर्माण संस्था महबूब प्रोडक्शंस शुरू की, जिसका प्रतीक चिह्न था हंसिया –हथौड़ा। इसके अंर्गत उनके द्वारा बनायी गयी पहली फिल्म थी ‘नजमा’ जिसमें मुसलमानों की सामाजिक स्थिति का चित्रण था। इसमें नवागता वीणा को पेश किया गया था। और बांबे टाकीज के बाहर अशोक कुमार की यह पहली फिल्म थी। इसके बाद महबूब खान ने ‘तकदीर’ बनायी। यह नरगिस की पहली फिल्म थी। उस वक्त उनकी उम्र 14 साल थी। ‘तकदीर’ के बाद ऐतिहासिक फिल्म ‘ हुमायूं’ आयी। फिर उन्होंने तीन ऐसे कलाकारों-सुरेंद्र, सुरैया, नूरजहां- को लेकर ‘अनमोल घड़ी’ बनायी जो अपने गीत खुद ही गा सकते थे। इस फिल्म के गाने नौशाद ने संगीतबद्ध किये जो बहुत ही लोकप्रिय हुए।
महबूब खान ने ‘ऐलान’, ‘अनोखी अदा’, ‘ अंदाज’ ßनरगिस, दिलीप कुमार, राज कपूर) बनायी। ‘अंदाज’ के गीत भी बहुत हिट हुए। इसके बाद उन्होंने अपनी पहली पहली टेक्नीकलर फिल्म ‘आन’ बनायी। इसमें दिलीप कुमार, प्रेमनाथ, निम्मी और नादिरा (जिसकी यह पहली फिल्म थी) की प्रमुख भूमिकाएं थीं। यह फिल्म देश-विदेश में सर्वत्र बेहद कामयाब रही। इससे हुई कमाई से ही उन्होंने बांद्रा में अपना महबूब स्टूडिो खड़ा किया। इस स्टूडियो में उनकी पहली फिल्म थी ‘ अमर’ जिसमें दिलीप कुमार, मधुबाला और निम्मी की प्रमुख भूमिकाएं थीं।उन्होंने एक फिल्म ‘सन आफ इंडिया’ बनायी इसमें मास्टर साजिद, सिमी, कुमकुम व कंवलजीत की मुख्य भूमिकाएं थीं। यह फिल्म इतनी बुरी तरह फ्लाप हुई कि उनके हौसले पस्त हो गये। वे टूट गये। उनके पास स्टूडियो की साज-संभाल के लिए भी पैसे नहीं रहे। वे दिल के मरीज थे। 27 मई 1964 को पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु की खबर पाकर उन्हें गहरा सदमा पहुंचा। उन्हें तत्काल दिल का दौरा पड़ा और वे हमेशा के लिए गहरी नींद में सो गये। नरगिस, नलिनी जयवंत, वीना और शेख मुख्तार को परदे पर लाने का श्रेय उन्हें ही है। मजहब के बड़े पक्के थे और पांच वक्त नमाज पढ़ते थे।
सोहराब मोदी
नाटक से फिल्म तक
1936 में स्टेज फिल्म कंपनी मिनर्वा मूवीटोन हो गयी और इसका प्रतीक चिह्न शेर हो गया। अपने इस बैनर में उन्होंने जो फिल्में बनायीं वे थीं- आत्म तरंग (1937), खान बहादुर (1937), डाइवोर्स (1938), जेलर (1938), मीठा जहर (1938), पुकार (1939), भरोसा (1940),सिकंदर (1941), फिर मिलेंगे (1942), पृथ्वी वल्लभ ((1943).एक दिन का सुलतान (1945), मंझधार (1947), दौलत (1949), शीशमहल (1950), झांसी की रानी (1953), मिर्जा गालिब (1954), कुंदन (1955 ), राजहठ (1956), नौशेरवा-ए-आदिल (1957), जेलर (1958), मेरा घर मेरे बच्चे (1960), समय बड़ा बलवान (1969)। इसके अलावा उन्होंने सेंट्रल स्टूडियो के लिए ‘परख’ और शैली फिल्म्स के लिए ‘मीनाकुमारी की अमर कहानी’ बनायी।
भारत की पहली टेकनीकलर फिल्म ‘झांसी की रानी’ उन्होंने बनायी थी। इसके लिए वे हालीवुड से तकनीशियन और साज-सामान लाये थे। इसमें झांसी की रानी बनी थीं उनकी पत्नी महताब। सोहराब मोदी राजगुरु बने थे। इस फिल्म को उन्होंने बड़ी तबीयत से बनाया था , लेकिन फिल्म फ्लाप हो गयी। इस विफलता से उबरने के लिए उन्होंने ‘मिर्जा गालिब’ (सुरैया-भारतभूषण) बनायी। यह फिल्म व्यावसायिक तौर पर तो सफल रही ही इसे राष्ट्रपति का स्वर्ण पदक भी मिला। उन्होंने सामाजिक समस्याओं परभी कुछ यादगार फिल्में बनायीं। इनमें शराबखोरी की बुराई पर बनायी गयी फिल्म ‘मीठा जहर’ और तलाक की समस्या पर ‘डाईवोर्स’ उल्लेखनीय हैं। उनकी सर्वाधिक चर्चित और सफल ऐतिहासिक फिल्म थी ‘पुकार’। इसमें चंद्रमोहन (जहांगीर), नसीम बानो (नूरजहां), सोहराब मोदी (संग्राम सिंह) और सरदार अख्तर की प्रमुख भूमिकाएं थीं।
इस फिल्म को न सिर्फ प्रेस बल्कि दर्शकों से भी भरपूर प्रशंसा मिली। ‘सिकंदर’ में पोरस और ‘पुकार’ में संग्राम सिंह की भूमिका में सोहराब मोदी के अभिनय की बड़ी प्रशंसा हुई।
भारत में ऐतिहासिक फिल्मों को प्रतिष्ठा दिलाने का श्रेय उन्हें ही जाता है। महताब से उनकी शादी 21 अप्रैल 1946 को हुई, लेकिन मोदी का परिवार उन्हें बहू के रूप में स्वीकारने को तैयार नहीं था इसलिए कई साल उन्हें अलग रहना पड़ा। 1950 में उनके परिवार ने उनकी शादी को स्वीकार कर लिया। 1978 आते-आते 80 साल के मोदा साहब को चलने-फिरने में छड़ी का सहारा लेना पड़ गया था। 1980 में भारत सरकार ने फिल्मों में उनके महान योगदान के लिए उन्हे दादा साहब फालके पुरस्कार से सम्मानित किया। उनकी बड़ी ख्वाहिश थी ‘पुकार’ को फिर से बनाने की। लेकिन बीमारी ने ऐसा नहीं करने दिया। 1984 में डाक्टरों ने यह घोषित कर दिया कि उन्हें कैंसर है। तब तक उन्हें खाना निगलने में भी तकलीफ होने लगी थी। 1983 में उन्होंने अपनी आखिरी फिल्म ‘गुरुदक्षिणा’ का मुहूर्त किया था। उसे अधूरा छोड़ 28 जनवरी 1984 को मोदी हमेशा के लिए चिरनिद्रा में निमग्न हो गये। वे बड़े आला तबीयत के इनसान थे। उनका धैर्य भी अपार था। कई बार कलाकार कई रिटेक देते , पर मोदी साहब के चेहरे पर शिकन तक नहीं पड़ती थी।
केदार शर्मा
फिल्म जगत के एक महत्वपूर्ण स्तंभ
अमृतसर के जिले के नोरवाल में जन्मे केदार शर्मा के माता-पिता बचपन में यही समझते थे कि उनसे कुछ काम-धाम नहीं हो पायेगा। लेकिन केदार शर्मा तो किसी और धातु के बने थे। उनमें बचपन से ही संघर्ष करने का जज्बा था और थी दिल जिस चीज की हामी भरे सिर्फ वही करने की धुन। वे सपनों की दुनिया यानी फिल्म उद्योग से जुड़ने की ठान चुके थे। अपनी इस ख्वाहिश को पूरा करने के लिए पहले वे कलकत्ता आये और फिर वहां से बंबई चले गये। फिल्मों में वे हीरो बनने आये थे लेकिन उनकी बेहद पतली आवाज इस राह में रोड़ा बन गयी। हीरो बनने की अपनी इस ख्वाहिश को बाद में उन्होंने अपने बेटे अशोक शर्मा को ‘हमारी याद आयेगी’फिल्म में हीरो बना कर पूरी की। केदार शर्मा खुद भले ही हीरो न बन पाये हों लेकिन फिल्मी दुनिया को राज कपूर, मधुबाला, गीता बाली, तनूजा और माला सिन्हा जैसे अनमोल सितारे देने का श्रेय उन्हें ही है। उन्होंने ‘चित्रलेखा’, ‘जोगन’, ‘बावरे नैन’, ‘सुहागरात’, ‘हमारी याद आयेगी’ और ‘पहला कदम’ जैसी यादगार फिल्मों का निर्माण-निर्देशन, लेखन और गीत लेखन किया। स्टारमेकर केदार शर्मा की निर्देशक के रूप में पहली फिल्म ‘औलाद’ थी। संयोग से यह फिल्म ठीक उसी वक्त रिलीज हुई , जब महबूब खान की ‘औरत’ और वी. शांताराम की ‘आदमी’ रिलीज हुई थी। उस वक्त अपनी इस फिल्म के बारे में बात करते हुए वे अक्सर मजाक में कहा करते थे-‘आदमी’ और ‘औरत’ चाहे किसी के भी हों ‘औलाद’ तो मेरी है। इसके बाद आयी उनकी ‘चित्रलेखा’ इसमें प्रमुख पात्र थीं महताब। ‘चित्रलेखा’ ‘हिट’ हुई, लोग महताब को भी चाहने लगे। ‘चित्रलेखा’ के बाद शर्मा जी काफी मशहूर निर्देशक हो गये।
इसके बाद वे रंजीत स्टूडियो की यूनिट में शामिल हो गये। उन दिनों इसके मालिक चंदूलाल शाह थे। शर्मा जी ने श्री शाह से ख्वाहिश जाहिर की कि वे मोतीलाल को हीरो लेकर ‘अरमान’ फिल्म बनाना चाहते हैं। मोतीलाल उन दिनों सुपर एक स्टार थे। उन्होंने शर्मा जी के सामने तीन शर्तें रखीं। लेकिन कुछ दिन उनके साथ काम करने के बाद वे इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी शर्तें तोड़ दीं। एक बड़ा मजेदार वाकया है। एक दिन जब मोतीलाल सेट पर नहीं पहुंचे तो उन्होंने उनके घर फोन कर के उनकी माता जी के नाम संदेश दे दिया। दूसरे दिन मोतीलाल ने शर्मा जी से बताया कि किस तरह उनकी मां शर्मा जी की पतली आवाज के चलते उनको लड़की समझ बैठी थीं। यह धोखा मेरे साथ भी मुंबई में हुआ था। यह 1972 की बात है। जब उनसे मिलने के लिए मैंने
दादर के अरोमा होटल से उनके घर फोन किया तो उधर से पतली आवाज सुन कर मेरे मुंह से बरबस निकल गया-आप कौन बोल रही हैं, शर्मा जी को दीजिए ना। उधर से फिर उसी पतली
आवाज ने जवाब दिया-‘मैं केदार शर्मा बोल रहा हूं आप श्रीसाउंड स्टूडियो के मेरे दफ्तर में आ जाइए।’
‘गौरी’, ‘विषकन्या’ और ‘विद्यापति’ में पृथ्वीराज कपूर के साथ काम कर के वे उनके अच्छे दोस्त बन गये थे। पृथ्वीराज कपूर ने अपने बेटे राज कपूर को शर्मा जी को सौंपते हुए कहा कि वे उसे कुछ काम सिखायें। राज कपूर शर्मा जी के यहां क्लैपर ब्वाय बन गये। एक दिन वे क्लैप देना भूल कंघी से बाल संवारने लगे। केदार शर्मा को बड़ा गुस्सा आया और उन्होंने उन्हें एक थप्पड़ जड़ दिया। वैसे उस दिन शर्मा जी को यह एहसास हो गया था कि राज कैमरे के सामने आना चाहते हैं। अगले ही दिन उन्होंने राज को अपनी फिल्म ‘नीलकमल’का हीरो बना दिया। इस फिल्म की हीरोइन थीं मधुबाला। यानी शर्मा जी के एक थप्पड़ ने राज कपूर को हीरो बना दिया। मधुबाला जिन्हें वीनस आफ इंडिया कहा जाता था, उस वक्त 13 साल की थीं।
गीता बाली को पहले वे रद्द कर चुके थे क्योंकि वे संवाद शुद्ध नहीं बोल पाती थीं। बाद में वे उनकी फिल्म ‘सुहागरात’ की हीरोइन बनीं। ‘सुहागरात’ के हीरो भारतभूषण थे जो उन दिनों संघर्ष कर रहे थे। शर्मा जी फिल्मों में जमने के लिए खुद संघर्ष कर चुके थे इसलिए उनको संघर्षरत लोगों की मुसीबत का पता था। माला सिन्हा को गीता बाली शर्मा जी के पास इसलिए लायी थीं ताकि वे उनको कुछ अभिनय सिखा दें। बाद में माला उनकी फिल्म ‘रंगीन रातें’ की हीरोइन बनीं।
‘हमारी याद आयेगी’ में उन्होंने तनूजा को हीरोइन बनाया। इसमें हीरो बने उनके वकील बेटे अशोक शर्मा। कहते हैं कि अशोक फिल्म में काम नहीं करना चाहते थे लेकिन शर्मा जी की जिद
के आगे उन्हें झुकना पड़ा। तनूजा बड़ी तुनकमिजाज थीं। मां शोभना समर्थ शर्मा जी के पास उन्हें इस उम्मीद से लायी थीं कि वे उनको स्टार बना दें। तनूजा से ठीक से अभिनय कराने में उन्हें बहुत मेहनत करनी पड़ी लेकिन उन्होंने उन्हें स्टार बना ही दिया।
शर्मा जी ने सपना सारंग को हीरोइन लेकर फिल्म ‘पहला कदम’ बनायी लेकिन दुर्भाग्य से वह फिल्म सही ढंग से प्रदर्शित नहीं हो सकी। इसके बाद उसे लेकर कुछ टेली फिल्में भी बनायीं। शर्मा जी की प्रतिभा बहुआयामी थी। वे एक साथ निर्माता, निर्देशक, अभिनेता, पटकथा लेखक और गीतकार भी थे। उनकी चर्चित फिल्मों में 1950 में आयीं फिल्में ‘बावरे नैन’ और ‘जोगन’ भी हैं। इनके अलावा उनको चोराचोरी,गुनाह, नेकी और बदी, दुनिया एक सराय, चांद चकोरी, धन्ना भगत जैसी
फिल्मों के लिए भी याद किया जाता रहेगा। शर्मा जी 1998 तक फिल्मजगत से सक्रिय रूप से जुड़े रहे। 29 अप्रैल 1999 को फिल्मजगत के इस महान निर्देशक ने 89 वर्ष की उम्र में अंतिम सांस ली। बुलंद हौसले और दृढ़निश्चय वाले शर्मा जी फिल्मी किले के एक सुदृढ़ स्तंभ थे।
सामाजिक सरोकार के फिल्मकार
बिमल राय
अपनी शुरू-शुरू की फिल्मों में जमींदारी प्रथा का विरोध करने वाले विमल राय खुद जमींदार परिवार के थे। बिमलचंद्र राय का जन्म 1909 में तत्कालीन पूर्व बंगाल (अब बंगलादेश) के एक गांव के जमींदार परिवार में हुआ था। बंगाल की ग्रामीण लोकधुनों के बीच वे पले-बढ़े , जो बाद में उनकी फिल्मों के संगीत में उभरीं।बचपन से ही उनको फोटोग्राफी का शौक था। अचानक परिवार में आर्थिक संकट आया तो सातों भाई काम की तलाश में कलकत्ता चले आये।
कलकत्ता में न्यू थिएटर्स में प्रशिक्षणार्थी कैमरामैन के रूप में अपनी जिंदगी शुरू करनेवाले विमल दा कुछ ही दिनों में मशहूर निर्देशक नितन बोस के सहायक कैमरामैन बन गये। उनकी योग्यता देख कर पी सी बरुआ ने अपनी फिल्म ‘देवदास’ (कुंदनलाल सहगल, जमुना बरुआ) के छायांकन का भार सौंपा। इसके बाद उन्होंने उनकी कई फिल्मों का छायांकन किया। उन्हें पहली बार निर्देशन का भार बंगला फिल्म ‘उदयेर पथे’ में सौंपा गया।इस क्षेत्र में उन्हें लाने का श्रेय न्यू थिएटर्स के मालिक बी.एन. सरकार को है। बिमल दा ‘उदयेर पथे’ के पटकथा लेखक, छायाकार और निर्देशक थे। इस फिल्म ने अपार सफलता पायी। न्यू थिएटर्स ने जब अपनी यह महत्वाकांक्षी फिल्म हिंदी में बनाने का इरादा किया, तो निर्देशक के रूप में उनके सामने विमल दा का ही नाम आया। यह एक ऐसे आदर्शवादी की कहानी थी, जो पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करता है।
वह स्वतंत्रता संग्राम के दिन थे। सारे देश में क्रांति की लहर आयी थी। विमल दा की फिल्मों ‘अजानगढ़’ और ‘पहला आदमी’ में भी इसका प्रभाव साफ दिखा।
1950 में कलकत्ता से बंबई आ कर उन्होंने बांबे टाकीज के लिए पहली फिल्म ‘मां’ निर्देशित की। उन्होंने शहरों में गरीब तबके के लोगों की दुखभरी जिंदगी देखी थी। इस सबने उनमें प्रगतिवादी विचारधारा पैदा की। उनकी फिल्मों ने व्यवस्था में बदलाव की प्रेरणा दी। वे कम्युनिस्ट पार्टी की सांस्कृतिक शाखा से भी जुड़े थे।
1952 में इरोज थिएटर के सामने भारत का पहला फिल्म समारोह आयोजित किया गया। इसे देखने के लिए विमल दा अपनी पूरी यूनिट के साथ आये थे। वे सभी डे सिका की फिल्म ‘बाइसिकिल थीफ’ से बेहद प्रभावित हुए। उसी वक्त उन्होंने सचा कि अगर वे अपना फिल्म प्रोडक्शन शुरू करते हैं, तो उनका उद्देश्य अच्छी फिल्में बनाना होगा। इसी बीच उन्हें मोहन स्टूडियो के मालिक रमणीकलाल शाह की ओर से एक आफर मिला। वे अपने दोस्त दलीचंद शाह के लिए एक कम बजट की फिल्म बनाना चाहते थे। विमल दा ने एक शर्त रखी कि फिल्म विमल राय प्रोडक्शंस के बैनर में बनेगी और निर्माण के दौरान उनके काम में किसी तरह की दखलंदाजी नहीं की जायेगी। उनकी शर्त मान ली गयी। उनकी यूनिट में उन दिनो हृषिकेश मुखर्जी भी थे। उन्होंने सलिल चौधरी की लिखी बंगला कहानी ‘रिक्शावाला’ पढ़ी थी। वह कहानी विमल दा को बहुत भायी थी। इस पर ही ‘ दो बीघा जमीन’ बनाने का निश्चय किया गया। सलिल चौधरी ने इस फिल्म से संगीतकार के रूप में जुड़ना चाहा। वे फिल्म के कहानीकार भी थे, उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया गया।
इसके बाद शंभू महतो की भूमिका के लिए उपयुक्त कलकार के चुनाव का सवाल आया। कई नामों पर विचार करने के बाद यह भूमिका बलराज साहनी को देने का निश्चय किया गया। ‘दो बीघा जमीन’ में उन्होंने शंभू महतो की भूमिका में बहुत ही सशक्त और जीवंत अभिनय किया। उनके साथ इस फिल्म में हीरोइन थीं निरुपा राय इसके बाद आयी ‘परिणीता’( अशोक कुमार, मीना कुमारी)। यह एक प्रेमकथा थी जिसके माध्यम से जाति-वर्ग के झूठे दायरों पर चोट की गयी थी। उन्होंने ‘बिराज बहू’ , ‘बाप बेटी’ तथा ‘नौकरी’ आदि फिल्में दीं। उनके बैनर की जिन फिल्मों को दूसरे निर्देशकों ने निर्देशित किया वें थीं-‘अमानत’, ‘परिवार’, ‘अपराधी कौन’, ‘उसने कहा था’, ‘बेनजीर’, ‘काबुलीवाला’, ‘दो दूनी चार’ और ‘चैताली’।
1955 में उन्होंने बड़े सितारों दिलीप कुमार, सुचित्रा सेन, मोतीलाल और वैजंयतीमाला को लेकर ‘देवदास’ बनायी। यह फिल्म बहुत हिट रही। उनकी ‘मधुमती’ (दिलीप कुमार , वैजयंतीमाला) पुनर्जन्म की कथा पर आधारित फिल्म थी। इसने अपार सफलता पायी और इसके गीत भी बेहद हिट हुए। 1959 में उन्होंने अस्पृश्यता की कथावस्तु पर ‘सुजाता’ फिल्म बनायी। नूतन, सुनील दत्त, शशिकला और ललिता पवार की प्रमुख भूमिकाओंवाली इस फिल्म ने भी सफलता के नये कीर्तिमान बनाये। इसकी प्रशंसा पंडित जवाहरलाल नेहरू तक ने की थी। इसके बाद विमल दा की ख्याति और भी बढ़ गयी। वे विदेश फिल्मों के प्रतिनिधि मंडल के साथ जाने लगे। ‘परख’, ‘प्रेमपत्र’ बनाने के बाद उन्होंने 1963 में ‘बंदिनी’ बनायी। इसमें अशोक कुमार, नूतन और धर्मेंद्र ने यादगार अभिनय किया। यह विमल दा की अंतिम यादगार फिल्म थी। विमल दा की फिल्मों का गीत-संगीत पक्ष भी बहुत सशक्त होता था।
आज भारत विश्व में सर्वाधिक फिल्में निर्मित करनेवाला देश है लेकिन देश में सिनेमा की शुरुआत आसान नहीं रही। आज हमारा सिनेमा जिस मुकाम पर है, उसे वहां तक पहुंचने के लिए जाने कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है और कितना प्रयास करना पड़ा है। भारत में फिल्मों के जन्म से लेकर उसके निरंतर क्रमिक विकास की कहानी जानने के लिए बहुत पीछे जाना होगा।
7 जुलाई 1896,बंबई का वाटसन थिएटर। लुमीयर ब्रादर्स नामक दो फ्रांसीसी अपनी
फिल्में लेकर भारत आये। उक्त थिएटर में उनका प्रीमियर हुआ। प्रीमियर करीब 200 लोगों ने देखा। टिकट
दर थी दो रुपये प्रति व्यक्ति। यह उन दिनों एक बड़ी रकम थी। एक सप्ताह बाद इनकी ये
फिल्में बाकायादा नावेल्टी थिएटर में प्रदर्शित की गयीं। बंबई का यह थिएटर बाद में
एक्सेल्सियर सिनेमा के नाम से मशहूर हुआ। रोज इन फिल्मों के दो से तीन शो किये
जाते थे, टिकट दर थी दो आना से लेकर दो रुपये तक। इनमें 12 लघु फिल्में दिखायी
जाती थीं। इनमें ‘अराइवल आफ ए ट्रेन’,
‘द सी बाथ’
तथा ‘ले़डीज एंड सोल्जर्स आन ह्वील’
प्रमुख थीं। लुमीयर बंधुओं ने जब
भारतीयों को पहली बार सिनेमा से परिचित कराया तो लोग बेजान तसवीरों को चलता-फिरता
देख दंग रह गये। हालांकि उन दिनों इन फिल्मों के लिए जो टिकट दर रखी गयी थी, वह काफी थी लेकिन फिर
भी लोगों ने इस अजूबे को अपार संख्या में देखा। पत्र-पत्रिकाओं ने भी इस नयी चीज
की तारीफों के पुल बांध दिये। एक बार इन फिल्मो को लोकप्रियता मिली , तो भारत में बाहर से
फिल्में आने और प्रदर्शित होने लगीं। 1904
में मणि सेठना ने भारत का पहला सिनेमाघर
बमाया, जो विशेष रूप से फिल्मों के प्रदर्शन के लिए ही बनाया गया था।
इसमें नियमित फिल्मों का प्रदर्शन होने लगा। उसमें सबसे पहले विदेश से आयी दो भागों
मे बनी फिल्म ‘द लाइफ आफ क्राइस्ट’
प्रदर्शित की गयी। यही वह फिल्म थी
जिसने भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहब फालके को भारत में सिनेमा की नींव रखने
को प्रेरित किया।
हालांकि स्वर्गीय दादा साहब फालके को
भारतीय सिनेमा का जनक होने और पूरी लंबाई के कथाचित्र बनाने का गौरव हासिल है
लेकिन उनसे पहले भी महाराष्ट्र में फिल्म निर्माण के कई प्रयास हुए। लुमीयर बंधुओं
की फिल्मों के प्रदर्शन के एक वर्ष के भीतर सखाराम भाटवाडेकर उर्फ सवे दादा ने
फिल्म बनाने की कोशिश की। उन्होंने पुंडलीक और कृष्ण नाहवी के बीच कुश्ती फिल्मायी
थी। यह कुश्ती इसी उद्देश्य से विशेष रूप से बंबई के हैंगिंग गार्डन में आयोजित की
गयी थी। शूटिंग के बाद फिल्म को प्रोसेसिंग के लिए इंग्लैंड भेजा गया। वहां से जब
वह फिल्म प्रोसेस होकर आयी तो सवे दादा अपने काम का नतीजा देख कर बहुत खुश हुए।
पहली बार यह फिल्म रात के वक्त बंबई के खुले मैदान में दिखायी गयी। उसके बाद
उन्होंने अपनी यह फिल्म पेरी थिएटर में प्रदर्शित की । टिकट की दर थी आठ आना से
तीन रुपये तक। अकसर हर शो में उनको 300
रुपये तक मिल जाते थे। उन्होने भगवान
कृष्ण के जीवन पर भी एक फिल्म बनाने का निश्चय किया था लेकिन भाई की मौत ने उन्हें
तोड़ दिया। उन्होंने अपना कैमरा बेच दिया और फिल्म निर्माण बंद कर दिया।
दौर धार्मिक फिल्मों का
इसके बाद 1911 में अनंतराम परशुराम कशंडीकर, एस एन पाटंकर और वी पी दिवाकर ने यह कोशिश जारी रखी। 1920 में इन्होंने बालगंगाधर तिलक की अंत्येष्टि की फिल्म बनायी। 1912 में उन्होंने 1000 फुट की एक फिल्म ‘ सावित्री’ बनायी। यह धार्मिक फिल्में बनाने की शुरुआत थी। नारायण गोविंद चित्रे और आर पी टिपणीस ने दादा साहब तोर्ने के निर्देशन में नाटक ‘ पुंडलीक ’ को फिल्म में ढाला और इसे 1909 में कोरोनेशन थिएटर बंबई में प्रदर्शित किया गया। कलकत्ता में हीरालाल सेन, धीरेन गांगुली, मद्रास में नटराज मुदलियार, महाराष्ट्र में बाबूराव पेंटर तथा अन्य लोग भी इस दिशा में सक्रिय थे।
तसवीरें चलती-फिरती हैं, हंसती तथा इशारे करती हैं , सुन कर लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। न बोलनेवाली उन तसवीरों को देखने के लिए लोग उतावले हो उठे। पांच दशक पूर्व ‘ टूरिंग टाकीज’ यानी चलते-फिरते सिनेमा अधिक थे। किसी बड़ी आबादी वाले शहर या कस्बे में तंबू तान दिया , दीवार कि जगह टीन लगा दी और सिनेमा शुरू । उस जमाने में एक ही प्रोज्क्टर होता था इसलिए फिल्म जितने रीलों की होती थी, उतनी बार प्रोजेक्टर रोकना पड़ता था और उतने ही मध्यांतर हुआ करते थे । परदे के पास बैठनेवाले दर्शकों के लिए काठ की फोल्डिंग कुर्सियां हुआ करती थीं। फिल्म में आवाज के सिवा सब कुछ होता था- बातचीत का हावभाव, मारपीट, घुड़सवारी वगैरह। सिनेमा की लोकप्रियता बढ़ी, तो धीरे-धीरे कुछ सिनेमाघर भी बनने लगे। चूंकि वह अवाक फिल्मों का युग था इसलिए कहीं-कहीं पर सिनेमा प्रोजेक्टर का आपरेटर दर्शकों को समझाने के लिए फिल्म की कहानी उसी तरह बताता जाता था, जिस तरह आजकल कमेंटेटर खेल का आंखों देखा हाल बताता है। जब खलनायक के चंगुल में फंसी नायिका सहायता के लिए चिल्लाती और नायक घोड़ा दौड़ाता हुआ आता, तो आपरेटर घोड़ों की टापों की आवाज सुनाते हुए बताता-अब आ रहा है नायिका का बहादुर प्रेमी, जो खलनायक को मार-मार कर भुरता बना देगा। कभी-कभी फिल्म के संवाद परदे पर लिखे दिखते थे। अगर फिल्म की कहानी आगे छलांग लगवानी होती तो बीच की घटनाएं लिख कर बता दी जाती थीं।
अवाक फिल्मों के जमाने में लोग चलती-फिरती तसवीरों का आनंद लेने जाते थे। फिल्म में कौन काम कर रहा है, इसके प्रति उनका विशेष आकर्षण नहीं था। कलाकारों की लोकप्रियता तो तब बढ़ी , जब फिल्में बोलने लगीं । प्रारंभ में धार्मिक फिल्में ही ज्यादा बनती थीं। भारत की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र ’ भी धार्मिक फिल्म थी। उस समय की कुछ प्रमुख अवाक धार्मिक फिल्में थीं फालके फिल्म कंपनी की- राजा हरिश्चंद्र, भस्मासुर मोहनी, सत्यवान-सावित्री और लंका दहन, हिंदुस्तान फिल्म कंपनी की –कृष्ण जन्म, कालिया मर्दन, बालि-सुग्रीव, नल-दमयंती, परशुराम, दक्ष प्रजापति, सत्यभामा विवाह, द्रौपदी वस्त्रहरण, जरासंध वध, शिशुपाल वध, लव-कुश, सती महानंदा और सेतुबंधन, महाराष्ट्र फिल्म कंपनी की- वत्सला हरण, गज गौरी, कृष्णावतार, सती पद्मिनी, सावित्री, मुरलीवाला तथा लंका, प्रभात फिल्म कंपनी की-गोपालकृष्ण। इसके अलावा कुछ और प्रयास हुए, जिनमें दादा साहब फालके की 1932 में बनी अवाक फिल्म ‘ श्यामसुंदर’।
उस वक्त धार्मिक फिल्मों की एक तरह से बाढ़ आ गयी थी। इसकी वजह यह थी
कि उन दिनों भारतीय मानस में धर्म बड़े गहरे तक पैठा था और उसके प्रति लोगों में गहरी आस्था थी। नाटकों और रामलीला में धार्मिक कथाएं दिखायी जाती थीं, धार्मिक कथाओं से लोगों ने एक तादाम्य-सा स्थापित कर लिया था,इसलिए ऐसी फिल्में समझने में दिक्कत नहीं होती थी। उन दिनों धार्मिक –पौराणिक फिल्में कामयाब भी होती थीं। ऐसा नहीं है कि तब अन्य किस्म की फिल्में नहीं बनती थीं, लेकिन प्रधानता धार्मिक फिल्मों की थी। यहां यह जिक्र करना जरूरी है कि महिला पात्र की भूमिका निभाने के लिए महिलाएं काफी अरसे तक नहीं मिलीं। हिंदुस्तान फिल्म कंपनी की ‘कीचक वध’ तक यह स्थिति बरकरार रही। इस फिल्म में भी कीचक की पत्नी की भूमिका सखाराम जाधव नामक एक युवक ने की थी। इन सारी मुसीबतों और अड़चनों के बावजूद धार्मिक फिल्मों की यात्रा जारी रही और बोलती फिल्मों के युग तक इनका सिलसिला चलता रहा। इनके कथानक का आधार मूलतः रामायण व महाभारत जैसे महाकाव्य होते थे। राम-कृष्ण की जीवनलीला पर फिल्में बनीं , हनुमान जी पर और संतो-देवताओं पर फिल्में बनीं।
फिर आयीं ऐतिहासिक फिल्में
फिल्म 'उदयकाल' का दृश्य
बाद में मां की भूमिकाओं के लिए
मशहूर निरुपा राय कभी धार्मिक फिल्मों की मशहूर अभिनेत्री थीं। उन्होंने कुल मिला
कर तकरीबन 40 धार्मिक-पौराणिक फिल्मों में काम
किया। वे चार फिल्मों में पार्वती और तीन में सीता की भूमिका में आयी थीं। परदे की
देवी के रूप में वे इतना ख्यात हो गयी थीं कि जब उन्होंने ‘सिंदबाद द सेलर’, ‘चालबाज’ और ‘बाजीगर’ जैसी स्टंट फिल्मों में काम किया , तो दर्शकों का उनकी इन फिल्मों के प्रति रुख अच्छा नहीं रहा।
धार्मिक फिल्मों में उनकी कितनी धूम थी , इसका पता इससे चलता है कि लोग जिन सिनेमाघरों में उनकी धार्मिक
फिल्में देखने जाते, वहां पूजा करते थे। उनकी धार्मिक
फिल्में थीं-महासती सावित्री, सती मदालसा, नवरात्रि, चक्रधारी, रामस्वामी, वामन अवतार,गौरी पूजा, शेषनाग, अप्सरा, चंडी पूजा, जय हनुमान, राम हनुमान युद्ध, नागमणि, श्री रामभक्त विभीषण, नरसी भगत, हर हर महादेव, द्वारकाधीश आदि। इसके बाद उन्होंने कई सामाजिक फिल्मों में
भूमिकाएं निभायीं और बाद में चरित्र भूमिकाएं करने लगीं। जयश्री गड़कर भी धार्मिक
फिल्मों की होरोइन के रूप में काफी ख्यात हुईं। अपने जमाने में शोभना समर्थ भी
धार्मिक फिल्म ‘रामराज्य’ की सीता के रूप में बहुत ख्यात हुईं। बाद के दिनों में अनिता गुहा, कानन कौशल आदि काफी लोकप्रिय हुईं।
बहरहाल, फिल्मों के निर्माण के शुरू के दौर में 60 प्रतिशत से भी अधिक फिल्में धार्मिक-पौराणिक कथानक पर बनती थीं।
बाद के वक्त में बेरोजगारी से पीड़ित युवा वर्ग की रुचि धर्म में नहीं रह गयी। वह
रोजी-रोटी की जुगाड़ में तबाह रहने लगा। ऐसे में धार्मिक फंतासी से उसे खुशी नहीं
मिलती थी। वह हलकी-फुलकी मनोरंजक फिल्मों की ओर मुड़ गया। धार्मिक फिल्मों से युवा
वर्ग विमुख हुआ, तो ऐसी फिल्में महज पुरानी पीढ़ी के
लोगों तक सीमित रह गयीं।
धार्मिक फिल्मों के बाद ऐतिहासिक
फिल्मों का दौर आया। यह भी काफी लंबा खिंचा। रंजीत स्टूडियो ने 1934 में ‘राजपूतानी’ पेश की। इतिहास के प्रसिद्ध चरित्रों और घटनाओं पर फिल्में बनने
लगीं। उस वक्त देश का माहौल ऐसा था , जिसमें ऐसी फिल्में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभा सकती थीं। वी.
शांताराम ने एक फिल्म निर्देशित की ‘उदय काल’ जिसका नाम उन्होंने ‘फ्लैग आफ फ्रीडम’ (स्वराज्य तोरण)
रखा। भला अंग्रेज सरकार को यह नाम क्यों भाने लगा। इस नाम पर एतराज हुआ और यह
फिल्म ‘थंडर आफ हिल्स’ बन गयी। यह फिल्म वी. शांताराम ने प्रभात फिल्म कंपनी के बैनर में
बनायी थी और इसमें उनकी शिवाजी की भूमिका की बड़ी प्रशंसा हुई थी। 18 नवंबर 1901 को महाराष्ट्र के कोल्हापुर में
जन्में वणकुद्रे शांताराम ने 12 वर्ष की अल्पायु
में गंधर्व नाटक मंडली कोल्हापुर में छोटी-छोटी भूमिकाओं से अपना कैरियर शुरू
किया। धीरे-धीरे अपनी मेहनत और लगन से आगे बढ़ते गये। 1929 में उन्होंने कोल्हापुर में प्रभात फिल्म कंपनी चार अन्य लोगों की
मदद से स्थापित की। इसके अंतर्गत उन्होंने ‘माई क्वीन’ (रानी साहिबा) , ‘फाइटिंग ब्लेड (खूनी खंजर), चंद्रसेना और स्टोलन ब्राइड (जुल्म) बनायी। उनकी ये सभी फिल्में
अवाक थीं।1931 में ‘आलमआरा’ से नयी क्रांति आयी। फिल्मों ने
बोलना सीख लिया। अब तक फिल्में शैशव को पीछे छोड़ किशोरावस्था में पहुंच चुकी थीं।
बोलती फिल्मों का युग आया , तो शांताराम की फिल्मों का भी नया
दौर आया। उनकी पहली बोलती फिल्म थी ‘अयोध्या का राजा’ (1932)। 1942 में उन्होंने बंबई में राजकमल कलामंदिर की स्थापना की। प्रभात
फिल्म कंपनी के बैनर में ‘जलती निशानी’, ‘सैरंध्री’, ‘अमृत मंथन’, ‘धर्मात्मा’, ‘अमर ज्योति’, के अलावा ‘दुनिया न माने’, ‘आदमी’ और ‘पड़ोसी’ जैसी सोद्देश्य फिल्में देने के बाद
उन्होंने राजकमल कलामंदिर के बैनर तले ‘शकुंतला’, ‘माली’, ‘पर्वत पर अपना डेरा’, ‘डाक्टर कोटणीस की अमर कहानी’, ‘मतवाला शायर’, ‘अंधों की दुनिया’, ‘बनवासी’, ‘भूल’, ‘अपना देश’, ‘दहेज’, ‘परछाईं’, ‘अमर भोपाली’, ‘सुंरग’, ‘सुबह का तारा’, ‘झनक झनक पायल बाजे’, ‘तूफान और दिया’, ‘दो आंखें और बारह
हाथ’, ‘नवरग’, ‘फूल और कलियां’, ‘स्त्री’, ‘सेहरा’, ‘गीत गाया पत्थरों ने’, ‘लड़की सहयाद्री की’,‘बूंद जो बन गयी मोती’, ‘जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली’ बनायी। शांताराम की फिल्मों की एक विशेषता रही है कि वे हर मायने
में औरों से अलग होतीं। प्रस्तुतीकरण में नवीनता, संगीत में नवीनता और गायन में भी नवीनता।
फिल्म 'हंटरवाली' में नाडिया (बायें)
स्टंट फिल्मों का दौर भी खूब था
‘रामशास्त्री’ प्रभात चित्र ने उस वक्त बनायी थी, जब वी. शांताराम प्रभात को छोड़ चुके थे। यह फिल्म पेशवाओं के युग
के इतिहास पर आधारित भारत की श्रेष्ठ ऐतिहासिक फिल्म थी। इतने ऊंचे स्तर की
ऐतिहासिक फिल्म उसके बाद नहीं बनायी जा सकी। इस फिल्म को देख कर ही सत्यजित राय
फिल्म निर्माण के लिए प्रेरित हुए। पेशवाओं के शासन के वक्त की सही स्थिति को
फिल्म में पेश करने का पूरी ईमानदारी से प्रयास किया गया था। कहते हैं कि निर्माता
एस फत्तेहलाल ने इसकी शूटिंग की हुई कई हजार फुट फिल्म रद्द करने की जिद की थी, क्योंकि उनका विश्वास था कि यह फिल्म उतनी व्यावसायिक नहीं बन पायी, जितना वे चाहते थे। इसकी पटकथा और संवाद शिवराम वासीकर ने लिखे थे।
कोई ऐतिहासिक चूक न रह जाये , इसके लिए पटकथा
लेखन के वक्त प्रख्यात इतिहासकारों तक से सलाह ली गयी थी। इस फिल्म में संस्कृत के
विद्वान रामशास्त्री द्वारा सत्तालोलुप पेशवा को सन्मार्ग पर लाने के प्रयास की
कहानी कही गयी थी। इस फिल्म के तीन निर्देशक थे। इसकी शुरुआती शूटिंग के कुछ अरसा
बाद ही राजा नेने ने प्रभात छोड़ दिया। इसके बाद विश्राम बेड़कर ने निर्देशन
संभाला, लेकिन उन्होंने भी यह कंपनी छोड़
दी। अंततः गजानन जागीरदार के निर्देशन में यह फिल्म पूरी हुई। गजानन जागीरदार ने
इसमें रामशास्त्री की भूमिका भी की थी। ललिता पवार आनंदीबाई बनी थीं । रामशास्त्री
के बचपन की भूमिका में अनंत मराठे ने और पत्नी की भूमिका बेबी शकुंतला ने निभायी
थी। सप्रू पेशवा माधवराव बने थे।
वैसे भारत की पहली ऐतिहासिक फिल्म ‘नूरजहां’ 1932 में बनायी गयी थी। इसका निर्माण
अर्देशीर ईरानी ने किया था। इस फिल्म का निर्देशन हालीवुड में फिल्म निर्माण का
व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने वाले एजरा मीर ने किया था। यह पहले अवाक फिल्म के
रूप में बनायी गयी थी। बाद में बोलती फिल्मों का युग आते ही इसके कुछ खास हिस्से
हिंदी और अंग्रेजी भाषा में डब कर दिये गये। इसके मुख्य कलाकार थे –मजहर खान (पुराने) जमशेदजी , जिल्लू न्यामपल्ली, मुबारक और विमला। इस फिल्म के दोनों संस्करण (हिंदी-अंग्रेजी)
बाक्स आफिस पर पिट गये। इसके बाद रमाशंकर चौधरी की फिल्म ‘अनारकली’ आयी। यह भी कोई प्रभाव नहीं छोड़
सकी।हालांकि अवाक ‘अनारकली’ खूब चली थी। ऐतिहासिक फिल्मों को नयी जान दी सोहराब मोदी की फिल्म ‘पुकार’ (1939)ने । यह फिल्म बेहद कामयाब रही। और
इसने ऐतिहासिक फिल्मों के लिए नयी राह खोल दी। मिनर्वा मूवीटोन की इस फिल्म में
चंद्रशेखर, नसीम बानो, सोहराब मोदी और सरदार अख्तर ने प्रमुख भूमिकाएं निभायी थीं। यह
फिल्म जहांगीर की इंसाफपरस्ती को दरसाती थी। सोहराब मोदी ने सर्वाधिक ऐतिहासिक
फिल्में बनायीं। इनमें –सिकंदर, पृथ्वीवल्लभ, झांसी की रानी, मिर्जा गालिब, एक दिन का सुलतान, शीशमहल तथा राजहठ शामिल हैं।
इस तरह मिली फिल्मों को जुबान
फिल्मों ने जब बोलना शुरू किया तो
दर्शकों को बड़ा अचरज हुआ। चलती-फिरती तस्वीरें बोलने भी लगीं, यह उनके लिए दुनिया का नया आश्चर्य था। फिल्में ‘हाउसफुल’ जानें लगीं। दर्शकों की लंबी क। तारें सिनेमाघरों के सामने लगने
लगीं। चलते-फिरते सिनेमा के मालिकों को अब विश्वास हो गया था कि धंधा चल जायेगा
इसलिए स्थायी पक्के सिनेमाघरों का निर्माण होने लगा और फिल्म को बिना रोके लगातार
सुचारु रूप से रील खत्म होते ही दूसरे प्रोजेक्टर से अगली रील चलायी जा सके।
शुरू-शुरू में तस्वीरों को
चलते-फिरते और बोलते देख कर अनपढ़ और बोलते देक कर अनपढ़ भोले-भाले देहाती मुंह
फाड़ कर रह जाते। परदे पर रेलगाड़ी, सांप या शेर को देख उसको वास्तविक मान बैठते। इस संदर्भ में एक
दिलचस्प घटना का जिक्र अप्रासंगिक नहीं होगा। एक फिल्म बनी थीं ‘पंजाब मेल’। इसमें नायिका
सुलोचना (रूबी मेयर्स) एक तालाब में नहाने जाती है और एक-एक कर कपड़े खोलने लगती
है। तभी पंजाब मेल धड़धड़ाती हुई आ जाती है, जिससे वह दिखाई नहीं देती। इस दृश्य को देखने के लिए कुछ दर्शक
बार-बार सिनेमाहाल में यह सोच कर जाते थे कि किसी न किसी दिन तो गाड़ी अवश्य लेट
होगी। किंतु सैकड़ों ‘शो’ देखने के बाद भी गाड़ी लेट नहीं हुई और न ही सुलोचना को नग्न देखने
की दर्शकों की लालसा ही पूरी हुई।
पुराने दिनों में देश में पारसी थिएटर और नायक-नौटंकी की धूम थी।
यही वजह है कि वर्षों तक तब की फिल्मों में ऐसी नाटकीयता देखने को मिलती थी, जैसे कोई नाटक या नौटंकी देख रहे हों। संवादों और अभिनय में नाटकों
की छाप स्पष्ट नजर आती। शायद उस जमाने में निर्माता-निर्देशक दर्शकों के दिल-दिमाग
में बसी अभिनय शैली से हट कर कुछ ‘नया’ करने का जोखिम
नहीं उठाना चाहते थे या फिर वे फिल्मों में मौलिकता-स्वाभाविकता लाने की बात सोच
भी नहीं पाते थे। संवाद ही नहीं , फिल्म के गाने भी ऐसे गाये जाते थे, जैसे नाटकों में गाये जाते थे। आर्केस्ट्रा के नाम पर तब तबला, हारमोनियम, सारंगी, मंजीरा और बांसुरी ही हुआ करते थे और संगीत को कम तथा गायक-गायिका
के स्वर को अधिक उभारा जाता था।
तब कलाकार वेतनभोगी होते थे और दोपहर में शूटिंग पैक-अप होने के बाद मिल-जुल कर स्वयं स्टूडियो में ही खाना बनाते थे। उन्हें यह चिंता नहीं थी कि लोग यह सब सुनेंगे, तो क्या कहेंगे क्योंकि वे सब ग्लैमर की दुनिया और व्यक्तिगत प्रचार से दूर, अच्छी फिल्में बनाने के लिए पूर्णतः समर्पित थे।भारत में जिस पहली बोलती फिल्म का प्रदर्शन हुआ वह थी 'मेलॉडी ऑफ लव' ।यह 1929 में कलकत्ता के एलफिन्सटन पिक्चर पैलेस में प्रदर्शित की गयी थी। वैसे भारत की प्रथम बोलती फिल्म : 'आलम आरा' आर्देशिर ईरानी द्वारा निर्मित यह फिल्म 14 मार्च, 1931 को बंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में प्रदर्शित हुई थी। फिल्मों को जुबान मिली तो फिल्म निर्माण में भी एक नयी क्रांति आ गयी।
उन दिनों अखबारों में फिल्म के
समाचारों को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता था। चित्र छपने की भी गुंजाइश नहीं थी।
फिर भी कलाकारों के रोमांस के चर्चे गाहे-बगाहे पढ़ने-सुनने को मिल ही जाते थे।
इन्हें लोग चटखारे लेकर पढ़ते-सुनते और दूसरों को सुनाते। अशोक कुमार के साथ
देविका रानी, लीला चिटणीस ओर
नलिनी जयवंत के रोमांस के चर्चे उन दिनों आम थे।
कभी भोंपू बजा कर होता था फिल्मों का प्रचार
पहले
सम्मानित घराने की युवतियां फिल्मों में नहीं आती थीं। इस पेशे को बहुत बुरा माना
जाता था। तब नाचने गाने वालियां ही फिल्मों में काम करती थीं। बाद में इसमें बदलाव
आया और देविका रानी, दुर्गा
खोटे, लीला
चिटणीस, ललिता
पवार, शांता
आप्टे जैसी कुलीन घराने की युवतियां फिल्मों में आयीं। इसके बाद धीरे-धीरे
फिल्मों-फिल्म कलाकारों को इज्जत मिलने लगी, जो आज बुलंदी पर है। आज हर
नगर, हर
कस्बे में फिल्मी कलाकारों के भक्त-दीवाने मिल जायेंगे। युवा पीढ़ी ने तो जैसे
फिल्मी हाव-भाव को अपनी जीवन-शैली बना लिया है।
फिल्मों
की शुरुआत के काफी अरसे बाद तक उनके प्रचार के लिए न तो आज जैसे बड़े-बड़े पोस्टर
या बैनर थे और न ही अखबारों में विज्ञापन ही छपते थे। शहरों और कस्बों में इक्का
या तांगा के अगल-बगल फिल्म, सिनेमाघर
का नाम तथा शो का समय लिखा बोर्ड लटका दिया जाता था। जोकर के मेकअप में बैठा
प्रचारक भोंपू के चिल्ला-चिल्ला कर लोगों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए वह सब
सुनाता, जो
बोर्ड पर लिखा होता था, इसके
अलावा दीवारों पर पैंफलेट चिपकाये जाते थे।
तकीनीकी
कुशलता के क्षेत्र में भी तब की फिल्में बहुत-बहुत पीछे थीं। तब की फिल्मों की
फोटोग्राफी देख कर ऐसा लगता है, जैसे कैमरा एक स्थान पर स्थिर कर दिया जाता था और उसके
सामने कलाकार अपने संवाद उपदेशात्मक शैली में वैसे ही बोल कर छुट्टी पा जाते थे, जैसे पारसी रंगमंचके कलाकार
करते थे। कैमरा जैसे एक दर्शक की तरह सब कुछ देखता और सिर्फ फिल्म पर आंकता जाता।
तब तरह-तरह के लेंस नहीं बने थे, इसलिए क्लोज-अप शाट आदि लेने में बड़ी दिक्कत होती थी। तब
कैमरे के सुविधाजनक संचालन के लिए ट्राली भी नहीं थी। ट्रिक फोटोग्राफी में भी आज
जैसी उन्नति नहीं हुई थी और न ही मल्टीमीडिया का सहारा था। तब ऐसे किसी दृश्य के
लिए फोटोग्राफर को बड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। किसी कलाकार को आकाश में उड़ते
दिखाने के लिए फर्श पर आसमान का दृश्य रंग-रोगन से बनाया जाता था। उसमें बादल और
चांद-सितारे आंके जाते थे और कलाकार उस पर पेट के बल फिसलता था। कैमरा ऊंचाई पर
किसी मचान पर चला जाता था और वहां से उस कलाकार की तस्वीरें लेता रहता था। जब यह
दृश्य परदे पर आता तो लगता जैसे कलाकार वाकई आसमान में उड़ रहा है।
सेट
की जगह पर शुरू-शुरू में नाटकवाले परदों का इस्तेमाल किया जाता था। बाद में काठ, टाट, बांस की खपच्चियों और
रंग-रोगन के माध्यम से भव्य भवनों का निर्माण किया जाने लगा। आज बंबई के स्टूडियो
में ऐसे सेट कम ही नजर आते हैं। अब इसकी जगह काठ या प्लाईवुड ने ले ली है। वैसे तो
आजकल निजी बंगलों में शूटिंग होने लगी है इसलिए सेट वगैरह का झमेला भी खत्म होता
जा रहा है। जब ट्राली आयी तो , तो ट्राली पर घूमता कैमरा फोटोग्राफी के नये-नये गुल
खिलाने लगा। बाद में तरह-तरह के लेंस आये, क्लोज य्प शाट, हाई एंगल शाट, लांग शाट, लो एंगल शाट, जूम शाट, पैन साट, हाई शाट, मीडियम शाट, मीडियम क्लोज शाट, मीडियम लांग शाट, लो शाट आदि आसानी से लिये
जाने लगे और फिल्म के दृश्य और भी प्रभावी होने लगे। पोर्टेबल कैमरे आने के बाद
फिल्म की आउटडोर शूटिंग में भी आसानी होने लगी। फिल्म निर्माण मुनाफे का धंधा माना
जाने लगा। शिक्षित युवक विदेश से फिल्म कला की नयी जानकारी लेकर फिल्मों में
नवीनता लाने लगे। धीरे-धीरे फिल्मों से पारसी रंगमंच की छाप मिट गयी और संवाद
सहजता से आम बोलचाल के लहजे में बोले जाने लगे। पहले कलाकार खुद ही गाते थे। बाद
में पार्श्वगायन शुरू होने के बाद कुंदनलाल सहगल,नूरजहां, सुरैया, सुरेंद्र जैसे
गायक-कलाकारों की मांग बढ़ी।
जब देवताओं की तरह पूजे जाने लगे थे फिल्मी स्टार
आरंभ से ही हिंदी फिल्मों के निर्माण में अहिंदीभाषी क्षेत्रों के
लोगों का वर्चस्व रहा। मिसाल के तौर पर दादा साहब फालके, चंदूलाल सेठ, भवनानी, वी. शांताराम, वाडिया ब्रादर्स, विजय भट्ट, शशिधर मुखर्जी, सोहराब मोदी, महबूब खान, एस.एस. वासन, श्रीधर, एल वी प्रसाद, शक्ति सामंत, राज कपूर, जी.पी. सिप्पी, नाडियाडवाला आदि। शुरू-शुरू
में दर्शकों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए सीता, अनुसूया, सावित्री आदि सन्नारियों के
जीवन चरित्र पर फिल्में बनायी जाती थीं। श्रेष्ठ कहानियों पर शिक्षाप्रद साफ-सुथरी
सामाजिक फिल्में भी बनने लगी थीं, जो खूब सराही जाती थीं किंतु जैसे ही सिनेमा दर्शकों पर
हावी हो गया और वेतनभोगी कलाकारों की जगह लाखों रुपये लेने वाले कलाकारों का बोलबाला
हो गया, फिल्में
मौलिक और अच्छी कहानियों से वंचित होने लगीं। पैसे कमाने के लिए निर्माता हालीवुड
फिल्मों की अंधाधुंध नकल करने लगे। ढिशुंग-ढिशुंग कैबरे और नायिका के अंग-प्रदर्शन
को फिल्म की कामयाबी की कसौटी माना जाने लगा और इस तरह से शुरू हुआ फार्मूला फिल्मों
का अंतहीन सिलसिला। वक्त ने ऐसा मोड़ लिया कि पहले जहां लोग फिल्मों में काम करना
बेइज्जती समझते थे, वहीं
फिल्मी कलाकारों की एक झलक पाने के लिए बेताब रहने लगे। फिल्मी ‘स्टार’ देवताओं की तरह पूजे जाने
लगे। आज स्थिति यह है कि सभ्य और संपन्न घराने के युवक-युवतियां भी ‘स्टार’ बनने ख्वाब आंखों में संजो
कर चोरी-छिपे बंबई (अब मुंबई) भाग जाते हैं और वहां ठोकरे खाते हैं और जिंदगी तबाह
कर लेते हैं, तब
कहीं जाकर सिर पर चढ़ा फिल्मी भूत उतरता है।
शुरू-शुरू
की भारतीय ऐक्शन फिल्में विदेशी फिल्मों से ज्यादा प्रभावित थीं। सेक्सी और ऐक्शन
फिल्मों में आलिंगन, चुंबन
तथा अंग प्रदर्शन की भरमार होती थी। इस तरह के दृश्यों को निर्माता बड़े शौक से
रखते थे। आर.एस. चौधरी द्वारा निर्देशित ‘सच है’ कि नायिका मिस रोजी थी, जो अछूत कन्या बनी थी। एक
दृश्य में वह जांघ तक कपड़ा उतार कर पूछती है-‘बोलो तुम्हारी और मेरी
चमड़ी में क्या फर्क है? इस
दृश्य की वजह से यह फिल्म खूब चली। उन दिनों भारत में अंग्रेजों का शासन था।
उन्हें फिल्मों मे सेक्सी दृश्य दिखाने में कोई आपत्ति नहीं थी। स्वाधीनता के
पूर्व तक सेंसर की उदारता, उस
समय के निर्माताओं के लिए वरदान थी और उसका उन लोगों ने भरपूर फायदा उठाया।
सुलोचना (रूबी मेयर्स) ऐसी पहली भारतीय अभिनेत्री थीं, जिन्होंने परदे पर अपने
हीरो जाल मर्चेंट का चुंबन लिया था। यह चुंबन दृश्य अर्देशिर इरानी की फिल्म ‘हमरा हिंदुस्तान के लिए
फिल्माया गया था। हिमांशु राय और देविका रानी के बीच फिल्माया गया चुंबन दृश्य भी
काफी मशहूर हुआ था। 1947 में आजादी के बाद कांग्रेस की सरकार बनी, तो चुंबन और अश्लील दृश्यों
पर अंकुश लगाने के बारे में सोचा जाने लगा। 1952 में केंद्रीय सेंसर बोर्ड
के गठन के बाद इस पर कारगर ढंग से रोक लगायी जा सकी।
तकनीकी
दृष्टि में तब की फिल्में, आज
की फिल्मों की तुलना में उन्नीस बैठती हैं। शुरू-शुरू में शूटिंग के लिए जिस कैमरे
का प्रयोग किया जाता था, वह
हाथ से चलाया जाता था इसलिए फिल्म की गति में एकरूपता नहीं रह पाती थी। बाद मे
बिजली से चलनेवाले कैमरे आये और फिल्मों की गति भी सामान्य होने लगी। बोलती
फिल्मों का युग आने पर पहले दृश्य और ध्वनि एक साथ निगेटिव फिल्म में ही लेने की
व्यवस्था थी। ऐसी स्थिति में फिल्म संपादक को बड़ी परेशानी उठानी पड़ती थी। खासतौर
से गानेवाले दृश्यों को कैंची छू नहीं पाती थी। कारण, जरा-सा अंश कटने से गाने के
बोल या संगीत की लय में विघ्न पड़ने का अंदेशा रहता था। यदि कलाकारों के संवाद
उच्चारण में गड़बड़ी हो जाती तो उस दृश्य को फिर से फिल्माया जाता था, क्योंकि तब डबिंग की
व्यवस्था नहीं थी। आजकल आउटडोर शूटिंग में बोले गये संवाद बाद में डबिंग थिएटर में
डब कर लिये जाते हैं।
पुराने समय में भी हिट थीं फिल्मी जोड़ियां
पुराने जमाने में फिल्मों के प्रमुख
कलाकारों के चयन के वक्त इस बात का ध्यान रखा जाता था कि वह घुड़सवारी, तैरना, गाना और कार चलाना अच्छी तरह से
जानता हो। क्योंकि शुरू-शुरू में न तो खतरनाक दृश्यों के लिए ‘डमी’ या स्टंट आर्टिस्ट की व्यवस्था थी
और न ही पार्श्व गायक-गायिका की। मारधाड़ और घुड़सवारी के दृश्यों में खुद हीरो को
जोखिम उठाना पड़ता था। तब फाइट कंपोजर भी नहीं थे। मारपीट और घुड़सवारी के दृश्य
हीरो फिल्म के निर्देशक के निर्देशानुसार करते थे। ऐसे दृश्यों में वे चोट भी खा
जाते थे। फिल्म ‘शबिस्तान’ की शूटिंग के दौरान तो उस जमाने के सुपरस्टार श्याम घोड़े से गिर
कर अपनी जान ही गंवा बैठे थे।
उस जमाने की सबसे महंगी अभिनेत्री
सागर मूवीटोन की सविता देवी थीं, जिन्हें चार हजार
रुपये मासिक वेतन मिलता था। नायकों में सर्वाधिक वेतन पानेवाले थे उस जमाने के
लोकप्रिय अभिनेता मोतीलाल, उन्हें ढाई हजार रुपये मासिक वेतन
के रूप में मिलते थे। फिल्मी कलाकारों से मिलने के लियए उस जमाने में भी लोग
लालायित रहते थे।
आजकल हिट फिल्मी जोड़ियों की धूम है
लेकिन उस समय भी ऐसी जोड़ियों की कमी नहीं थी। गायिका-अभिनेत्री बिब्बो और मास्टर
निसार के गाने सुनने के लिए लोग उनकी फिल्में बार-बार देखते थे। सुरेंद्र-बिब्बो
की जोड़ी भी खूब चली थी। इनकी हिट फिल्में थीं-रंगीला राजपूत, मायाजाल, सैरे परिस्तान, जागीरदार, मनमोहन,डायनामाइट, लेडीज ओनली, ग्रामोफोन सिंगर और सेवा समाज आदि। 1942 तक यह जोड़ी खूब चली थी। लीला चिटणीस और अशोक कुमार की जोड़ी हिट
सामाजिक फिल्मों की पर्याय मानी जाती थी। ‘झूला’, ‘कंगन’, ‘बंधन’ इस जोड़ी की बेहतरीन फिल्में थीं। ‘मदर इंडिया’, ‘महामाया’, ‘सहेली’, ‘डार्लिंग डाटर’ आदि फिल्मों की प्रमिला और कुमार की जोड़ी 1937 से 1939 तक खूब चली थी। अभिनेत्री नंदा के
पिता मास्टर विनायक भी जवानी में फिल्मों में नायक हुआ करते थे। 1938 के आसपास उनकी जोड़ी मीनाक्षी के साथ बनी। मीनाक्षी बहुत खूबसूरत
थी। उसका असली नाम रतन शिरोड़कर था। मीनाक्षी की पहली फिल्म थी ‘ब्रह्मचारी’ जिसमें उसने स्वीमिंग कास्ट्यूम
पहना था। उसके इस रूप को देखने के लिए दर्शकों ने ‘ब्रह्मचारी’ फिल्म बार-बार देखी थी। यही नहीं
उसने फिल्म में दो चोटियां कीं, तो सारे देश में
दो चोटियों का रिवाज चल गया। इस जोड़ी की हिट फिल्में थीं-‘ब्रांडी की बोतल’, ‘अमृत’, ‘संगम’, ‘मेरी अमानत’ , ‘पन्ना दाई’, ‘देवता’, ‘बड़ी मां’, ‘सुभद्रा’ आदि।
बोलती फिल्मों का युग भी विविधता लाया
फिल्मी दुनिया में रोमांस और बाद
में शादी नये युग की देन नहीं है। 1931 में ‘वसंत सेना’ में पहली बार नायिका की भूमिका करनेवाली दक्षिण भारत की एम ए पास
एनाक्षी रामराव निर्माता-निर्देशक एम भवनानी को दिल दे बैठीं और बाद में दोनो ने
शादी कर ली। संभ्रांत घराने से आयी एनाक्षी मद्रास के एक पूर्व न्यायाधीश की बेटी
थीं। इतिहास की स्नातक प्रमिला ने 1937 में प्रदर्शित फिल्म ‘मेरे लाल’ में नायिका की भूमिका की थी। वह 1939 में ‘मिस इंडिया’ चुनी गयी थीं। वे अपनी फिल्मों के नायक कुमार को प्रेम करने लगीं
और बाद में उन्हीं से शादी कर ली। 1934 में कलकत्ता में एक फिल्म बनी थी ‘रूपलेखा’ (बंगला) इसमें देश में पहली बार
फ्लैश बैक का प्रयोग किया गया था। प्रमथेशचंद्र बरुआ के निर्देशन में बनी इस फिल्म
में एक छोटी-सी भूमिका थी जमुना दास नाम की एक किशोरी ने, जो बाद में कुंदनलाल सहगल अभिनीत ‘देवदास’ की नायिका के रूप में चर्चित हुई।
बरुआ के साथ उसका रोमांस भी खूब चला, जो बाद में शादी में बदल गया।
बोलती फिल्मों का युग आया तो
फिल्मों के विषय में भी विविधता आयी। प्रेमकथाओं पर ‘हीर रांझा’, ‘सोहनी महिवाल’, ‘मिर्जा साहिबां’, ‘ढोला मारूं’ और ‘लैला मजनूं’ जैसी फिल्में बनीं। पैरामाउंट मूवीटोन के कीकूभाई देसाई ने
शुरू-शुरू में कई फंतासी और जादुई फिल्में बनायीं। बाद में उनके उत्तराधिकारी
सुभाष देसाई और मनमोहन देसाई ने मल्टीस्टारर फिल्में बनायीं। अलीबाबा, अलादीन, सिकंदर द सेलर तथा थीफ आफ बगदाद
जैसी फंतासी फिल्मे कापी लोकप्रिय हुई थीं। 1948 में आयी जेमिनी स्टूडियो मद्रास की कास्ट्यूम फिल्म ‘चंद्रलेखा’ भी काफी सफल रही।
जीवनीमूलक फिल्मों में संत तुकाराम, संत ज्ञानेश्वर, संत तुलसीदास आदि
प्रमुख हैं। बंगला भाषा में ऐसी अनेक फिल्में बनीं, जिनमें अधिकांश सुभाष बोस, रामकृष्ण परमहंस, विद्यासागर, भगिनी निवेदिता, राजा राममोहन राय
तथा खुदीराम पर थीं। देशभक्ति की विषयवस्तु पर- हकीकत, शहीद (फिल्मिस्तान की) चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, आनंदमठ, अंजनगढ़, पहला आदमी, हिंदुस्तान की कसम आदि फिल्में बनायी गयीं। इसके बाद आधुनिक
रोमांटिक फिल्मों का युग आया और ऐंग्री यंग मैन का प्रवेश हुआ।
विफल प्रेम के कथानक पर ‘मेला’, ‘रतन’, ‘आर पार’, ‘दीदार’,‘अनमोल घड़ी’, ‘बरसात’, ‘ बैजू बावरा’, ‘लव स्टोरी’, ‘अंखियों के झरोखे से’, ‘आनंद’ तथा ‘मिली’ बनी और काफी सफल भी रहीं। पूर्व
जन्म के कथानक पर ‘ मधुमती’ बनी और बहुत सफल रही। सुनील दत्त की ‘यादें’ भारतीय फिल्म के इतिहास में हमेशा
याद की जाती रहेगी। यह अकेली ऐसी फिल्म है जिसमें केवल एक पात्र (सुनील दत्त) था।
फ्रैंकफर्ट के फिल्म समारोह में इसे श्रेष्ठ फिल्म के रूप में पुरस्कृत किया गया
था। इसी तरह ‘नया दिन नयी रात’ को लोग भूल नहीं पायेंगे क्योंकि इसमें संजीव कुमार ने नौ भूमिकाएं
निभायी थीं। इस फिल्म में सरोश मोदी ने अपने मेकअप का चमत्कार दिखाया था।
ऐसे तो फिल्मों में जानवरों की
भूमिकाएं पहले भी होती थीं ( इस संदर्भ में फिल्म ‘इनसानियत’ उल्लेखनीय है), पर फिल्मों में पशुओं की भूमिका को प्रमुखता देने का श्रेय दक्षिण
भारत के फिल्म निर्माता सैंडो एम एम चिनप्पा देवर (अब स्वर्गीय) को है। उनकी
फिल्मों ‘हाथी मेरे साथी’, ‘गाय और गोरी’, ‘मां’ के बाद तो यह सिलसिला ही शुरू हो गया। कुत्ते, बंदर और सांप भी स्टार बनने लगे। ‘शुभ दिन’, ‘कर्तव्य’, ‘तेरी मेहरबानियां’, ‘परिवार’ फिल्में इसकी उदाहरण हैं और यह क्रम जारी है।
मानवीय रिश्ते भी बने कथानक का आधार
नृत्य पर आधारित फिल्मों में उदयशंकर की ‘कल्पना’ और वी. शांताराम की ‘झनक झनक पायल बाजे’ काफी चर्चित रहीं।
पारिवारिक समस्याओं को लेकर बनी फिल्मों में गजानन जागीरदार द्वारा निर्देशित
फिल्म ‘ चरणों
की दासी सास-बहू के बीच तकरार पर आधारित थी तो बासु चटर्जी निर्देशित फिल्म ‘सारा आकाश’ में एक नव वधू अपने पति के
साथ, जो
अपने परिवार से बुरी तरह बंधा-जकड़ा है, तादाम्य स्थापित करने की
कोशिश करती है। मां, बहन
के रिश्तों और घर-परिवार के कथानक पर अनेक फिल्में बनीं। इनमें 1948 में बनी एस एम यूसुफ की ‘गृहस्थी’ भी एक थी। अवाक फिल्मों के
युग में चंदूलाल शाह ने ‘गुण
सुंदरी’ बनायी।
वी. शांताराम की ‘नवरंग’ (सवाक), बी.आर चोपड़ा की ‘गुमराह’ ( एक युवती के वृद्ध से
ब्याहे जाने की समस्या पर), ‘ये रास्ते हैं प्यार के’, ‘अनुभव’, ‘अविष्कार’ तथा ‘गृहप्रवेश’ आदि के नाम भी इस संदर्भ
में उल्लेखनीय हैं।
अपराध
की पृष्ठभूमि पर आधारित फिल्मों का दौर अवाक फिल्मों के युग से ‘काला नाग’ से शुरू हो गया था। इसके
निर्देशक थे होमी मास्टर, जिन्होंने
इस फिल्म में मुख्य भूमिका भी निभायी थी। सवाक युग में ‘किस्मत’ ( हीरो अशोक कुमार, हीरोइन मुमताज शांति। यह
फिल्म कलकत्ता में तकरीबन चार साल तक चली थी, जो एक रिकार्ड है) के गीत
भी बहुत हिट हुए थे। ‘दुनिया
क्या है’, ‘बाजी’, ‘आर पार’, ‘सीआईडी’, ‘दो आंखे बारह हाथ’ (वी. शांताराम), ‘गंगा यमुना’, ‘मुझे जीने दो’ (डाकुओं की समस्या पर), ‘डॉन’, ‘शोले’ (70
एम.
एम. स्टीरियोफोनिक साउंड में बनी भारत की पहली फिल्म।
जी.
पी. सिप्पी की रमेश सिप्पी द्वारा निर्देशित इस फिल्म ने कामयाबी के नये कीर्तिमान
बनाये) आदि फिल्मों का एक सिलसिला ही चल पड़ा जो आज तक बरकरार है।
फिल्मों
ने हिंदू-मुसलिम एकता के विषय को भी आधार बनाया। इस दृष्टि से वी.शांताराम की ‘पड़ोसी’ एक उल्लेखनीय फिल्म थी।
इसमें मुसलिम कलाकार को हिंदू की और गजानन जागीरदार को मुसलिम पात्र की भूमिका
देकर एक नया प्रयोग किया गया था। सामाजिक समस्याओं भी फिल्मों ने मुंह नहीं
चुराया। 1941 में बनी ‘आदमी’ में वेश्यावृत्ति के पेशे
को मानवीय नजरिये से देखने का पहला प्रयास किया गया। इसके बाद भी समाज की कुछ
ज्वलंत समस्याओं पर फिल्में बनाने का सिलसिला जारी रहा।
सामाजिक-पारिवारिक समस्याओं पर भी फिल्में बनीं
महिलाओं
पर केंद्रित कथाओं पर हृषिकेश मुखर्जी की ‘ अनुपमा’, ‘अनुराधा’, सत्यजित राय की ‘चारुलता’, वी. शांताराम की ‘ अमर ज्योति’
(1936) उल्लेखनीय
फिल्में कही जायेंगी। ‘बॉबी’ (किशोर प्रेम की किशोर वय
कलाकार जोड़ी की फिल्म), ‘तराना’ (एक बनजारन और एक रईस युवक की प्रेमकथा), नासिर हुसेन की ‘ जब प्यार किसी से होता है’, ‘हम किसी से कम नहीं’(1978),
बाल
विवाह पर कारदार की ‘शारदा’
(1942), वी.
शांताराम की 1937 में बनी ‘दुनिया
न माने’ (वृद्ध व्यक्ति से युवा लड़की के विवाह के कथानक पर),अज्ञातयौवना की कहानी ‘बालिका वधू’, ‘उपहार’, दहेज प्रथा पर वी. शांताराम
की ‘दहेज’
(1950) भी
यादगार फिल्में हैं। इसके अलावा बी. आर. चोपड़ा की गीतविहीन फिल्में ‘कानून’, और ‘इत्तिफाक’ सस्पेंस फिल्म के रूप में व
राजश्री प्रोडक्शंस की ‘तपस्या’ बड़ी बहन के त्याग की कहानी
के लिए याद की जाती रहेंगी। राज कपूर की ‘श्री 420’ में चार्ली चैपलिन की तर्ज
पर व्यंग्य करने की कोशिश की गयी थी। 1947 में बनी ‘दूसरी शादी’ दूसरी पत्नी की सांसत झेलती
पहली पत्नी की व्यथा-कथा थी। ‘बूटपालिश’ राज कपूर द्वारा निर्मित सफल बाल फिल्म थी। ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ और ‘सौतन’ बलिदान होनेवाली दूसरी औरत
की कहानी थी। अवैध संतान की कहानी पर 1959 में बी.आर. चोपड़ा की यश
चोपड़ा निर्देशित फिल्म ‘धूल
का फूल’ आयी , जिसका मोहम्मद रफी द्वारा
गाया गीत- तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इनसान की औलाद है इनसान
बनेगा’ काफी
लोकप्रिय हआ था। ‘कुआंरा
बाप’ और ‘मस्ताना’ में भी यही कथानक दोहराया
गया।
बहुचर्चित समांतर सिनेमा की भी हुई अकाल मौत
सफल बाल फिल्मों में ‘मुन्ना’ , ‘अब दिल्ली दूर नहीं’, ‘बाप बेटी’, ‘किताब’ (1970, निर्देशकगुलजार) और ‘जागृति’ (निर्देशक सत्येन बोस) का नाम लिया जा सकता है। गुलजार ने जहां एक ओर ‘परिचय’ जैसी साफ-सुथरी फिल्म दी, वहीं उन्होंने ‘कोशिश’ में गूंगे-बहरों की समस्या को उभारने की ईमानदार कोशिश की। इस फिल्म में संजीव कुमार और जया भादुड़ी का अभिनय बहुत ही प्रशंसनीय रहा। गुलजार ने युवा-विद्यार्थी असंतोष पर ‘ मेरे अपने’ फिल्म बनायी। इसी कथानक पर पहले तपन सिन्हा बंगला में ‘अपनजन’ के नाम फिल्म बनायी थी।
नशीली चीजों की तस्करी और इनके
इस्तेमाल पर रामानंद सागर की फिल्म ‘चरस’ और देव आनंद की ‘हरे राम हरे कृष्ण’ का नाम लिया जा सकता है। सेक्स की थीम पर वी. शांतराम की ‘पर्वत पर अपना डेरा’, देवकी बोस की ‘नर्तकी’
(1940), केदार शर्मा ‘जोगन’ (1950) और बाद में उनकी
ही ‘चित्रलेखा’
(1941, 1964), न्यू थिएटर्स की ‘मुक्ति’ आदि फिल्में बनीं। सेक्स शिक्षा के
नाम पर बी. के. आदर्श ने ‘गुप्त ज्ञान’, ‘गुप्त शास्त्र‘ जैसी फूहड़ फिल्में
पेश कीं, तो पैसा कमाने के लिए ऐसी फिल्मों
का सिलसिला शुरू हो गया, जिनकी कड़ी थीं ‘कामशास्त्र’ , ‘स्त्री पुरुष’ और ‘मन का आंगन’ आदि।
ग्रामीण समाज में व्याप्त सूदखोरों
के जुल्म पर महबूब खान की ‘औरत’, ‘रोटी’ और ‘मदर इंडिया’ बनी। निहित स्वार्थों के खिलाफ एक
पत्रकार के संघर्ष की गाथा बांबे टॉकीज की ‘नया संसार’ में देखने को मिली।
मृणाल सेन की ‘भुवन शोम’ और मणि कौल की ‘उसकी रोटी’ ने फिल्मों को एक नयी लीक दी। इस
लीक को नाम दिया गया कला फिल्म या समांतर सिनेमा। इन फिल्मों ने फिल्म के सशक्त
माध्यम के सही उपयोग का रास्ता खोल दिया। फिल्में सम
सामयिक समाज की जुबान बन गयीं। अब
वह सिर्फ मनोरंजन तक ही सीमित नहीं रह गयीं। वे सामाजिक संदेश भी देने लगीं। इन
फिल्मों में फंतासी के बजाय वास्तविकता पर ज्यादा जोर दिया जाने लगा। दर्शकों को
लगने लगा कि फिल्म के रूप में वे अपने गिर्द घिरी समस्याओं, कुरीतियों और भ्रष्टाचार से साक्षात्कार कर रहे हैं। अब फिल्म उनके
लिए महज मनोरंजन का जरिया भर नहीं, बल्कि उस समाज का आईना बन गयी जिसमें वे रहते हैं। इस आईने ने
उन्हें श्याम बेनेगल की ‘अंकुर’ , ‘मंथन’, गोविंद निहलानी की ‘आक्रोश’, ‘अर्धसत्य’ से समाज की कई ज्वलंत समस्याओं से रूबरू कराया। इस लिहाज से स्मिता
पाटील अभिनीत ‘चक्र’ (निर्देशक-रवींद्र धर्मराज) भी मील का पत्थर साबित हुई।इस तरह के
सिनेमा को समांतर सिनेमा का नाम दिया गया जहां वास्तविकता को ज्यादा महत्व दिया
गया। जीवन के काफी करीब लगने वाली और समय से सही तादात्म्य स्थापित करने वाली इन
फिल्मों का दौर लंबं समय तक नहीं चल पाया। तड़क-भड़क, नाच-गाने और ढिशुंग-ढिशंग से भरी फिल्मों के आगे ये असमय ही मृत्यु
को प्राप्त हुईं। जीवंत सिनेमा कही जाने वाली इन फिल्मों की वित्तीय मदद के लिए
राष्ट्रीय फिल्म वित्त निगम आगे आया, जो बाद में फिल्म विकास निगम बन गया।
घुमंतू सिनेमाघरों से मल्टीप्लेक्स तक का सफर
कई
पड़ावों से गुजरता भारतीय सिनेमा ‘छोटा चेतन’ और ‘शिवा का इंसाफ’ में थ्री डी (त्रिआयामी)
पद्धति को भी आजमा चुका है। इनमें ‘छोटा चेतन’ ने कामयाबी पायी और ‘शिवा का इंसाफ’ की विफलता ने इन फिल्मों की
राह रोक दी। बहरहाल , आज
एक फिल्म को बनाने में एक वर्ष से भी अधिक वक्त लग जाता है। बहुचर्चित फिल्म ‘मुगले आजम’ को पूरा होने में 12 वर्ष से भी अधिक वक्त लग
गया था। जब यह फिल्म पूरी होने को आयी, तब तक रंगीन फिल्मों की धूम
मच गयी थी। मजबूरन के. आसिफ को इसका शीशमहलवाला दृश्य रंगीन करना पड़ा था। ‘पाकीजा’ भी 10 साल आसानी से खींच ले गयी।
लेकिन पहले के दिनों में साल में तीन-चार फिल्में बन जाती थीं। कारण न तो रिटेक ही
ज्यादा होते थे न डबिंग के लिए सितारों का इंतजार ही करना पड़ता था। दर्शक किसी
फिल्म को बार-बार देखने के बजाय नयी फिल्म देखना पसंद करते थे। उन दिनों सबसे कम
समय में बननेवाली फिल्म थी मोहन स्टूडियो की ‘ ईद का चांद’, जिसके निर्देशक ए.एम. खान
थे।
फिल्मों
के निर्माण में प्रतिस्पर्धा तब से शुरू हुई जब से स्टूडियो पद्धति समाप्त
हुई।पहले वही फिल्में बनाने के धंधा करते थे, जिनके पास अपने स्टूडियो
होते थे। कलाकार और तकनीशियन उस स्टूडियो के वेतनभोगी कर्मचारी हुआ करते थे। इस
पद्धति को तब धक्का लगा, जब
सी.एन. त्रिवेदी नाम के एक निर्माता ने अभिनेता मोतीलाल को अनुबंधित किया और
स्टूडियो भाड़े पर लेकर फिल्म बनाना शुरू कर दिया। त्रिवेदी से प्रेरणा पाकर ऐसे
और लोग भी इस धंधे में आ गये, जिनके पास पैसे तो थो, पर अपने स्टूडियो नहीं थे।
ये लोग कलाकारों का चयन करते, स्टूडियो भाड़े पर लेते और फिल्म बना डालते। इसका प्रभाव
अन्य निर्माताओं पर भी पड़ा। कलाकारों के लिए फ्रीलांसिंग का सिलसिला शुरू करने का
श्रेय पृथ्वीराज कपूर को जाता है। उसके बाद से कलाकार एक फिल्म कंपनी के बंधे हुए
कर्मचारी न होकर बाहरी पिल्म कंपनियों की फिल्मों में भी काम करने लगे। वे जितनी
चाहे पिल्में करने को स्वतंत्र हो गये। इसका प्रभाव फिल्मों के स्तर पर भी पड़ा।
तभी से कहानी गौण हो गयी और मनोरंजन प्रधान हो गया।
स्वाधीनता
संग्राम के वक्त भी फिल्मों में कुछ बदलाव आया था। अंग्रेजी शासन के कारण पहले
फिल्मों में शराबखोरी तथा पथभ्रष्ट करने वाले जो दृश्य दिखाये जाते थे, वे बंद हो गये थे। यह देश
में नव जागरण के परिप्रेक्ष्य में जनाक्रोश उमड़ने की आशंका से हुआ था। 1942 के आंदोलन का प्रभाव भी
फिल्मों पर पड़े बगैर नहीं रहा। दूसरा परिवर्तन आजादी के बाद देखा गया। 1947 के आसपास निर्माताओं ने देश
भक्ति पर जितनी फिल्में बनायीं थीं, उतनी फिर कभी नहीं बनीं।
आजादी
के पहले तक देश की फिल्मों मे जहां अपनी संस्कृति, सभ्यता और परंपरा की छाप थी, वहीं बाद की फिल्मों में यह
सब गायब हो गयी। हमारी फिल्मों में पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति ऐसी हावी हो गयी
कि अब तो फिल्में पूरी तरह से उसी रंग में रंग गयी हैं।
श्वेत-श्याम
फिल्मों के बाद 1937 में पहली रंगीन फिल्म ‘किसान कन्या’ बनी। इसके निर्माता
निर्देशक अर्देशिर ईरानी इसके बाद सोहराब मोदी ने टेक्नीकलर में ‘झांसी की रानी’ का निर्माण किया। यह फिल्म
बुरी तरह से फ्लाप हुई। भारत की तीसरी रंगीन फिल्म महबूब खान की ‘आन’ थी, जो काफी हिट रही। इन दोनों
फिल्मों की प्रोसेसिंग विदेश में हुई थी। इसके बाद गेवाकलर , फूजीकलर और इस्टमैनकलर आया।
इन
पड़ावों से गुजरता वयस्क होता भारतीय सिनेमा अब एक उद्योग का रूप धारण कर चुका है
और इसके लिए उद्योग के दर्जे की मांग भी की जा रही है। यह मांग वर्षों से की जा
रही है क्योंकि अगर यह मांग मान ली जाती है तो इसकी समस्याओं को देखने के लिए एक
अलग मंत्रालय की व्यवस्था हो सकेगी। केंद्रीय फिल्म सेंसर बोर्ड अब केंद्रीय फिल्म
प्रमाणन बोर्ड हो गया है। कई फिल्में अब यहां भी अटकती हैं ।आज फिल्म उद्योग
चौतरफा मुसीबत से घिरा है। एक ओर फिल्म का बढ़ता व्यय उसकी रीढ़ तोड़ रहा है तो
दूसरी ओर वीडियो कैसेट की तस्करी और वीडियो के प्रसार के चलते मल्टीस्टारर फिल्में
तक बाक्स आफिस में मुंह की खा रही हैं। टेलीविजन चैनलों के प्रसार से भी फिल्मों
के व्यवसाय को फर्क पड़ा है लेकिन सच यह भी है कि 51 सेंटीमीटर का
परदा
सिनेमाघरों का विकल्प नहीं हो सकता। फिल्में आज भी हैं और आने वाले दिनों में भी
इनका वजूद रहेगा। अब तो मल्टीप्लेक्सों का चलन है जहां आप एक जगह एक साथ कई
फिल्में देख सकते हैं। फिल्मों में भी अब नयी तकनीक का दिनोंदिन प्रचलन होने लगा
है।
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