Sunday, October 10, 2021

रामखिलावन त्रिपाठी पर टूट पड़ा दुख का पहाड़

 आत्मकथा

कुछ भूल गया, कुछ याद रहा

राजेश  त्रिपाठी

भाग-5

 जब से मंगल प्रसाद तिवारी को यह पता चला था कि उनकी बहन उम्मीद से है तभी से वे उस दिन का इंतजार कर रहे थे कि कब वह दिन आयेगा जब कोई उनसे कहे-तिवारी जी आप तो मामा बन गये।

दिन यों ही गुजरने लगे। आखिर वह शुभ घड़ी आ ही गयी जब मुखिया शिवदर्शन त्रिपाठी के घर एक बालक का जन्म हुआ। अब मुखिया के घर पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई तो खुशियों का पारावार न रहा। बधाइयां बजने लगीं, बतासे बटने लगे। मुखिया खुशी से फूले न समाये और बच्चे को लेकर तरह-तरह के सपने देखने लगे। उत्तरप्रदेश के गांवों में बच्चों के नाम ईश्वर या देवताओं के नाम के साथ जोड़ कर रखने की परंपरा थी इसलिए बच्चे का नाम रामखिलावन त्रिपाठी रखा गया। शायद इसका अर्थ यही होता है कि ऐसा बच्चा जिसे खेलाने के लिए स्वयं राम ही आ जायें। अच्छी कई एकड़ की मालवा जमीन सोने जैसी बालियों वाली गेहूं की फसल वरदान में देती थी वह शिवदर्शन जी के पास थी। गांव के मुखिया थे खूब मान-सम्मान था। ईश्वर की कृपा से किसी चीज की कमी नहीं थी। वे बड़े अच्छे स्वभाव के थे और गांव के हर व्यक्ति की मदद के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। उनके घर बेटा आया तो बेटे के मामा मंगल प्रसाद त्रिपाठी भी फूले नहीं समाये। स्वामी कृष्णानंद तो संन्यासी हो गये थे लेकिन उन तक भी खुशी की यह खबर पहुंची तो उनके हर्ष का भी ठिकाना ना रहा।

धीरे-धीरे बालक रामखिलावन बढ़ने लगे। जब वे पांच साल के हुए तो मामा मंगल प्रसाद उन्हें अपने छोटे भाई स्वामी कृष्णानंद जी से मिलाने ले गये। उसके बाद बालक रामखिलावन अपने छोटे मामा स्वामी कृष्णानंद से मिलने अक्सर उनकी कुटी पहुंच जाते थे। सब लोग बहुत खुश थे लेकिन कहते हैं ना कि खुशी और गम में कोई ज्यादा फासला नही होता। कोई नहीं जानता कि अभी जो ठहाका है वह कब कराह और क्रंदन में बदल जाये। इस सच्ची कहानी में भी सुख बहुत जल्द ही दुख में बदल गया। नन्हा बच्चा रामखिलावन अभी पिता का भरपूर प्यार पा भी न सका था कि शिवदर्शन जी को एक ऐसी बीमारी लग गयी जिसे सिर्फ और सिर्फ आपरेशन से ही ठीक किया जा सकता था। उस वक्त लोग आपरेशन से बेहद डरते थे और वह भी नाक जैसी संवेदनशील जगह का। उन्हें नाक के पॉलिप (मांस बढ़ जाने की बीमारी) बढ़ जाने की बीमारी हो गयी थी जिससे सांस लेने में बेहद तकलीफ होती थी । अब तो शायद इसे रे से जला कर या दूसरी पद्धति से ठीक कर लिया जाता है लेकिन उस वक्त पॉलिप को काटना पड़ता था। अब जीजा की बीमारी को लेकर चिंतित मंगल प्रसाद त्रिपाठी भी परेशान रहने लगे। उन्होंने जीजा जी से पूछा कि क्या किया जाये, कैसे इस बीमारी से निजात पायी जा सकती है। जीजा जी ने सुझाया कि अगर आपरेशन ही इस बीमारी का इलाज है तो फिर बांदा ले चलो मेरा आपरेशन करा दो। जीजा जी की आज्ञा पाते ही मंगल प्रसाद उनको बांदा ले गये। वहां एक सर्जन को दिखाया गया तो उसने आपरेशन कराने की सलाह दी। कोई चारा न देख कर आपरेशन के लिए हामी भर दी गयी। डॉक्टर ने आपरेशन कर पॉलिप तो निकाल दी लेकिन एक अनर्थ हो गया। उसने पॉलिप के साथ ही एक शिरा भी काट दी जिससे होनेवाले रक्तक्षय से शिवदर्शन जी की स्थिति खराब होने लगी। जब उनके बचने की कोई उम्मीद नहीं रह गयी तो उन्होंने अपने साले मंगल प्रसाद तिवारी से कहा कि वे उन्हें वापस घर (बिलबई) ले चलें। उन्होंने उनसे साफ कह दिया-गांव में प्रवेश करते वक्त मुझे गांव के बीच से नहीं किनारे से ले चलना जिससे दुश्मन यह न देख लें कि मैं खत्म हो रहा हूं।

      खैर शिवदर्शन जी को बचना नहीं था और अतिरिक्त रक्तक्षय से उनका निधन हो गया। बालक रामखिलावन के सिर पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा। अभी वह पिता की बांह पकड़ चलना भी न सीख पाया था कि उन बांहों का सहारा उससे हमेशा के लिए छिन गया। वह उस अबोध उम्र में था जब उसे पिता की मृत्यु का अहसास भी नहीं हो पाया था। पिता जब आखिरी सांसें ले रहे थे लोगों ने उसे भी लाकर उनकी खाट के पास  खड़ा कर दिया था। सभी  रो-बिलख रहे थे तो बालक रामखिलावन की भी आंखों में आंसू आ गये। आंखों में आंसू आये और उधऱ उसकी जिंदगी में खौफ और दहशत का साया उतर आया। पिता के जाने के बाद उसके सबसे करीबी परिजन उसकी जान के दुश्मन बन गये। उनकी  योजना थी कि अगर यह बच्चा नहीं रहे तो शिवदर्शन की जमीन के वारिस भी वही हो जायेंगे। रामखिलावन के मामा मंगल प्रसाद को उनकी इस मंशा की भनक लग गयी। वे कुछ दिन तक छोटे रामखिलावन को पीठ में बांध कर उसके खेतों आदि का काम देखने लगे और  जब खतरा बढ़ता देखा तो अपना सुख-चैन, अपने गांव की जमीन सब त्याग कर शहर बांदा चले गये। तब तक मंगल प्रसाद ने शादी नहीं की थी। अब बांदा आये तो पहले किसी काम  की तलाश में जुट गये ताकि बच्चे का पालन-पोषण और उसका रख-रखाव सही ढंग से किया जा सके। पहले उन्हें नहर विभाग में काम मिला जहां अंग्रेज ओवरसियर से उनकी खूब पटती थी। रामखिलावन थोड़े बड़े हुए तो उनको स्कूल में दाखिल कराया गया लेकिन बच्चे को सभालना और नौकरी करना एक साथ संभव नहीं हो पा रहा था इसलिए लोगों की सलाह पर मंगल प्रसाद शादी के लिए राजी हो गये। उनकी शादी मध्यप्रदेश की गौरिहार की गोरीबाई से हुई जिनका नाम बाद में मीरा त्रिपाठी हो गया। शादी हुई तो उनकी पत्नी ने रामखिलावन के पालन-पोषण का सारा जिम्मा अपने  सिर पर ले लिया। उनके प्यार-दुलार ने बालक रामखिलावन को पिता की कमी महसूस नहीं होने दी। जब किशोर वय में आये तो शहर की रामलीला में लक्ष्मण की भूमिका करने लगे। उत्तर प्रदेश में उन दिनों रामलीला का बहुत चलन था। जन-जन के हृदय में बसी रामायण की गाथा का सजीव मंचन सबका मन मोह लेता था। रामखिलावन का लक्ष्मण के रूप में अभिनय भी लोगों को बहुत भाता था। उन दिनों वे बड़े-बड़े घुंघराले बाल ऱखते थे। रामलीला का श्रीगणेश मुकुट पूजन से और समापन भरत मिलाप से होता था। रामलीला के कुछ प्रसंग स्थायी रामलीला मंच के अलावा तालाब आदि में भी होते थे। इस तरह रामखिलावन की जिंदगी का सफर आगे बढ़ता रहा। उनका लगाव साहित्य से भी था और 13 वर्ष की उम्र से ही उन्होंने कविताएं व कहानियां लिखना शुरू कर दिया था। कुछ और बड़े हुए तो कहानियां और कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगीं। एक लेखक के रूप में उनकी पहचान बन गयी। कवि सम्मेलनों में उन्हें बुलाया जोने लगा। बड़े-बड़े कवियों के साथ वे मंच साझा  करने लगे। उन दिनों  स्वाधीनता  आंदोलन चल  रहा  था  जिसमें बढ़ चढ़ कर 


उन दिनों ऐसे दिखते थे रामखिलावन त्रिपाठी

हिस्सा लिया। कविताओं के जरिये भी विदेशी शासन पर हमला करते रहे। कई बार लाठियां खायीं, यातनाएं सहीं। तब वे व्यथित” उपनाम से कविताएं लिखा करते थे। उन दिनों बांदा के कलेक्टर बालकृष्ण राव थे जो खुद भी अच्छे कवि थे और हिंदी में गीत लिखते थे। वे अपने बंगले पर कवि सम्मेलन करवाते थे जिसमें कवि व्यथित यानी रामखिलावन भी प्रमुखता से हिस्सा लेते थे। राव साहब उनकी कविताओं से बहुत प्रभावित थे और उन्होने व्यथित को रुक्म” बना दिया। रुक्म यानी स्वर्ण और इसका एक अर्थ रुक्मिणी का भाई भी होता है। उस दिन कलेक्टर ने उन्हें फूलमाला पहना कर, हाथी में बैठा कर पूरे शहर में घुमा कर सम्मान भी किया था।

उसके बाद से ही वे रुक्म नाम से ख्यात हो गये। इस नाम की प्रसिद्धि में उनका वास्तविक नाम (रामखिलावन) कहीं छिप गया। बांदा में जिये उनके कालखंड में कई घटनाएं-दुर्घटनाएं, कभी खुशी कभी गम जैसी स्थितियां भी हैं। एक बार तो वे बांदा की केन नदी में डूबते बचे थे जहां उन्हें उनके मामा मंगल प्रसाद ने ही बचाया। (क्रमश:)

 

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