आत्मकथा-32
कुछ भूल गया, कुछ याद रहा
राजेश त्रिपाठी
भाग-32
हमारे गांव से हमारी तहसील बबेरू आठ किलोमीटर दूर थी। जिन दिनों की यह बात है उन दिनों हमारे यहां से बबेरू जाने का कोई संसाधन नहीं था। एक या दो बसें बबेरु और हमारे जनपद बाबा के बीच चलती थीं। ऐसे में पैदल बबेरू तक जाने-आने में जाड़े में तो कोई परेशानी नहीं होती थी लेकिन कभी-कभी गरमी के दिनों में वापस लौटने में हालत खराब हो जाती थी। परीक्षा के दिनों में दोपहर को जब हम वापस लौटते तो अप्रैल-मई की तपती सड़कें और गरम हवा के थपेड़े हालत पस्त कर देते। बीच-बीच में पेड़ों के नीचे बैठ कर सुस्ताना पड़ता था। दोपहर को जब तीखी धूप और गरमी अपने चरम पर होती तो हमें चिलचिलाती गरमी दिखाई देती। नजरों से दूर गरमी की लहरें स्पष्ट चिल-चिल करती दिखाई देती थीं। शायद इसी से रेगिस्तानी इलाकों में मृगतृष्णा की सृष्टि होती होगी जिसे पानी समझ मृग उसके पीछे तब तक भागता रहता है जब तक प्यास और थकान से थक कर दम नहीं तोड़ देता। गरमी के ये दिन हम पर बहुत भारी गुजरते थे। माता-पिता सलाह देते थे कि लू से बचने के लिए सफेद प्याज पास में जरूर रखा करो। वह कहते थे कि प्याज लू से बचाती है।
गरमी के
मौसम में एक खतरा और रहता था ओले पड़ने का। एक बार मैं इसकी चपेट में आ गया था। पिताजी
ने बताया था कि चैत-बैसाख के मौसम में अगर भूरे-भूरे बादल घिर आये हों और बादल
जांत के चलने की घुरर-घुरर आवाज लगातार करने लगें तो सावधान हो जाना चाहिए यह ओले
पड़ने का संकेत है। एक बार जब मैं कालेज से वापस घर लौट रहा था तो भूरे बादल घिरे थे
और बादल घुरर-घुरर की आवाज में लगातार गरजे जा रहे थे। मैं डर गया कि इस वक्त कहीं
ओले पड़ने लगे तो मैं क्या करूंगा, कहां छिपूंगा। मेरी यह आशंका थोड़ी देर में ही
सही साबित हो गयी। अचानक बड़े-बड़े ओले पड़ने लगे। मेरे पास छाता भी नहीं था कि
मैं ओलों से अपनी रक्षा कर पाता। मेरे पास तेज दौड़ने के अलावा और कोई चारा नहीं
था। मैं दौड़ता रहा और बायीं तरफ के गाल में
तड़ातड़ ओले गोली की तरह पड़ते
रहे। मैं जितना तेज दौड़ सकता था दौड़ा और गांव के बाहर बने खलिहान के पास पहुंचा
जहां लोग झोपड़ी बना कर वहां रहते हैं और मंडाई के पहले वहां रखी फसल की रखवाली
करते हैं। उन लोगों ने देखा कि मेरा उस तरफ का गाल सूज गया था जिधर से ओले पड़े
थे। उन लोगों ने मुझे तब तक बिठाये रखा जब तक ओले पड़ते रहे। ओले थमे तो मैं घर
वापस आया। मां ने मेरी हालत देखी तो नमक डाल कर पानी गरम किया और मेरे फूले हुए
गाल की सिंकाई की तब कहीं मेरा दर्द कम हुआ। दो-तीन दिन में तकलीफ ठीक हो गयी।
*
अब उस घटना में आते हैं जिसने मेरे जीवन की दशा
दिशा दोनों बदल दी। गरमी के दिन थे। कड़ाके की धूप और लू का मौसम था। सब कुछ
सामान्य था कि तभी अचानक एक दोपहर को वह हादसा हो गया जो पूरे गांव को रुला गया।
हमारे घर के पीछे भरोसा यादव का घर था उसके बाद रघुराज यादव का घर था जिससे लगे
चबूतरे पर नीम का एक बड़ा पेड़ था। गांव के बाहर वाले अखाड़े में मुझे ब्रह्मदेव
द्वारा उठा कर पटक देने की घटना के बाद से हम लोग इसी चबूतरे पर दंड, बैठक करने
लगे थे। जिस दोपहर की यह भयानक, दर्दनाक घटना है उस दिन पश्चिम की ओर से हवा क्या
आंधी चल रही थी। रघुराज यादव का घर गांव का आखिरी घर था। सब कुछ सामान्य था अचानक
दोपहर बाद खबर आयी कि रघुराज यादव के घर में आग लग गयी है। पश्चिम की ओर से चलती
आंधी के चलते कुछ देर में ही आग ने भयानक रूप ले लिया एक तरह से पूरा घर उसकी चपेट
में आ गया। सारे गांव में हाहाकार मच गया। जिसे जो मिला बाल्टी, घड़ा उसे लेकर
कुएं की ओर दौड़ा और अपनी तरफ से आग बुझाने की कोशिश करने लगा लेकिन पल-पल प्रचंड
हो रही आग में वह पानी ऊंट के मुंह में जीरा साबित हो रहा था।जब कोई चारा नहीं चला
तो लोगों ने देवी, देवताओं का नाम लेकर आग पर नारियल, बतासे फेंकने शुरू कर दिये।
लोगों ने देखा कि आग के प्रचंड जोर से कई नारियल वापस लौट आये। आग का ताप इतना
बढ़ता जा रहा था कि लोगों का वहां खड़ा होना मुश्किल हो रहा था। रघुराज यादव के घर
आग लगी है यह खबर उस छोटे से गांव में जल्द ही फैल गयी। सारा गांव दौड़ा आया और
जिससे जो बन पड़ा मदद करने लगा लेकिन आग थी कि पल-पल और प्रचंड होती जा रही थी।
खबर पाकर हमारे अमरनाथ भैया के पिता जी हमारे श्रद्धेय काशीप्रसाद काका जी भी आ गये
थे और हमारे घर के सामने रामलाल कुर्मी के घर के सामने वाले कमरे में बैठे थे। आग
लगने के बाद लोगों को याद आया कि रघुराज यादव की बिटिया और उनका बेटा दोनों बच्चे
कहीं नहीं दिख रहे। उन लोगों की खोज शुरू की गयी। जितने मुंह उतनी बातें। किसी ने
कहा उन दोनो को तालाब की ओर जाते देखा है। गांव का बड़ा तालाब गांव के प्रवेश
द्वार की ओर पूर्व दिशा पर है। लोग उधर दौड़ पड़े, किसी ने कहां उन्हें अमुक जगह
देखा है। लोगों ने चारों ओर खोज लिया पर बच्चे नहीं मिले। इधर हमारे काशीप्रसाद
काका को भी किसी ने बता दिया कि रघुराज यादव के दो बच्चे नहीं मिल रहे। काका भी
रोने लगे, वे बच्चों के लिए बेचैन हो गये। उन्हें संभालने के लिए मैं उनके पास ही
बैठा था। मैंने उन्हें ढांढस बंधाया- काका,बच्चे मिल जायेंगे। लोग खोज रहे हैं।
उन्होंने कहा बच्चे मिलने की खबर मिले तो मुझे तुरत बताना। मैंने देखा कि वे दुख
से कांप रहे थे। इसी बीच जब आग थोड़ी धीमी हुई तो किसी ने सुझाव दिया कि घर के
भीतर भी देख लिया जाये कि कहीं बच्चे वहां ना फंस गये हों। लोगों का सुझाव मान कर
बचते बचाते लोग अंदर गये तो थोड़ी देर की खोजबीन के बाद दोनो बच्चे आनाज रखने के मिट्टी से बने कोठलों के बीच एक –दूसरे
से चिपके हुए मृत पाये गये। दोनों बच्चे छह.सात साल की उम्र के रहे होंगे। जब आग
लगी तो डर के मारे वे भीतर की ओर भागे और फिर आग से ऐसे घिर गये कि बाहर निकल नहीं
पाये। आग के प्रचंड ताप और धुएं से दम घुटने के कारण उनकी मौत हो गयी। बच्चों के
शव बाहर आये तो सब दहाड़ें मार कर रोने लगे। काशीप्रसाद काका बराबर बच्चों के बारे
में पूछे जा रहे थे। मैं उनसे सच्चाई बताने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। मैंने
उनसे झूठ बोल दिया- लोग खोज रहे हैं मिल जायेंगे आप चलिए आपको आपके बैठके तक छोड़
आता हूं आप यहां कब से परेशान हो रहे हैं।
काका ने मेरी बात मान ली मैं उन्हें उनके बैठके
तक छोड़ आया और घर के लोगों को उनका ध्यान रखने के लिए बोल दिया। उन्हें छोड़ कर
वापस लौटा तो देखा कि कुछ देर पहले थोड़ा काबू में आयी आग फिर जोरों से धधक उठी
है। रघुराज भैया के घर के ठीक बाद भरोसा यादव का घर था और उससे लगा हुआ हमारा घर
था। रघुराज यादव के घर से उड़ा आग का कोई गोला भरोसा यादव के घर गिरा तो उसका
छप्पर भी जलने लगा। आनन-फानन में लोगों ने उसे बुझाया और उसका छप्पर खोल दिया वरना
उससे होती हुई आग हमारे घर को भी चपेट में ले लेती। रघुराज यादव के घर में
रोना-धोना लगा था। जिसके घर के दो बच्चे पल भर में उनसे छिन गये हों उनके दुख की
कोई सीमा नहीं थी। इस घटना ने पूरे गांव को रुला दिया। चारों ओर बस एक ही चर्चा थी
कि लोगों ने गलत जानकारी ना दी होती तो शायद बच्चों को बचा लिया गया होता। लोग
अलग-अलग ठिकानों में उन बच्चों के होने की खबर देते रहे और घर-परिवार के लोग वहां-वहां
खोजने में उलझे रहे और बच्चे घर के अंदर ही छिपे थे। इस घटना के बाद से पूरे गांव
में मरघट का-सा सन्नाटा छा गया।
गरमी के
दिन थे हम लोग रात को आंगन में सोते थे। रात को जब भी कभी आंख खुलती तो रघुराज
यादव के घर की ओर देखा नहीं जा रहा था। उघड़ा हुआ छप्पड़ और जला हुआ घर उस दिन की
भयावह घटना की याद दिला देते। बाद में सुना गया कि आग अपने आप नहीं लगी किसी ने
लगायी थी पर किसने लगायी .यह जाहिर नहीं हो पाया।
उस दिन
से पूरा गांव उदास और दुख में डूबा रहने लगा। मुझे भी जब कभी उस घटना की याद आती
तो दिल दहल जाता था। रघुराज यादव के घर-परिवार वालों के तो रोते-रोते आंसू सूख गये
थे।
इन्हीं
दिनों एक ऐसी घटना हुई जिसने मेरी दशा-दिशा बदलने में बड़ी भूमिका निभायी। हमारे
गांव से पश्चिम एक मील दूर बसे आलमपुर गांव के सहदेव साहू अचानक एक दिन हमारे घर
आये। वे कलकत्ता में रहते थे और मेरे भैया रामखिलावन त्रिपाठी ‘रुक्म’ से भलीभांति परिचित
थे। वे आये उन्होंने मेरे बाबा और अम्मा को प्रणाम किया और उनको भैया की खबर
सुनाने लगे। भैया की बात बताने के बाद वे अचानक मेरी अम्मा से बोले- दादू (मेरे
लिए) तो अब बड़ा हो गया है। मैं वापस लौट रहा हूं इसे भेज दीजिए ना अपने भैया-भाभी
से मिल लेगा।‘यहां बताते चलें हमारी तरफ बच्चों को प्यार से
दादू कहते हैं।
उनकी
बात सुनते ही अम्मा सन्न रह गयी। एकमात्र बेटा उसे भी नजरों से दूर कर दें। कोसों
दूर भेज दें।
अम्मा
ने साफ मना कर दिया-नहीं भैया।हम दोनों का यही तो एक आसरा है उसे दूर भेज दें तो
हमें कौन देखेगा।
सहदेव
साहू ने कहा-मैं कौन कहता हूं कि यह वह रह जाये। भैया, भाभी से मिल लेगा, कुछ दिन
रह लेगा फिर जब मैं अपने गांव आलमपुर लौटूंगा तो तुम्हारे दादू को भी लेता आऊंगा।
अम्मा ने
मेरे बाबा से पूछा। उन्हें बहुत दिनों से भैया की चिट्ठी नहीं मिली थी वे परेशान
थे वे भारी मन से बोले- हो आने दो, हमारे साथ तो सारे पड़ोसी, गांव वाले हैं।
मेरा
कलकत्ता जाना तय हो गया। सहदेव साहू यह कह कर अपने गांव आलमपुर लौट गये कि-कल
तैयार रहना, कल ही हम कलकत्ता के लिए रवाना होंगे।
दूसरे
दिन तय समय में सहदेव साहू आ गये अपने परिवार के साथ। उनकी पत्नी मोहिनी और दो
बच्चियां बिट्टू और मिट्ठू साथ थीं दोनों काफी छोटी थीं।
मां ने
रोते हुए मुझे किया। मैंने अम्मा और बाबा के चरण छुए और सहदेव साहू जी के साथ अपने
डाननरिया के पास वाले खेतों के पास से बबेरू से बांदा जानेवाली बस पकड़ ली। हमारे
गांव से बीस किलोमीटर दूर बांदा पहुंच कर हमने कलकत्ता के हावडा स्टेशन की ओर जाने
वाली गाड़ी पकड़ ली जो हमें लेकर कलकत्ता की ओर दौड़ पड़ी। जन्मभूमि को प्रणाम,सफर
कलकत्ता की ओर। (क्रमश:)
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