आत्मकथा-33
कुछ भूल गया, कुछ
याद रहा
राजेश त्रिपाठी
भाग-33
अब फिर ट्रन का सफर। जिन सहदेव भैया के साथ कलकत्ता जा रहा था वे मुझे गुमसुम देख कर
बोले-अम्मा, बाबा की याद आ रही है क्या, क्यों चुपचाप बैठे हो।
मैंने कहा-नहीं ऐसी कोई बात नहीं है।
इस पर सहदेव भैया की श्रीमती मोहिनी बोलीं-परेशान मत होना तुम्हारे भैया-भाभी
बहुत अच्छे हैं, तुम्हें जान-सा पायेंगे।
तब तक मानिकपुर स्टेशन आ गया था। सहदेव भैया ने
स्टेशन से अंकुरित चने खरीदे। एक दोना मुझे थमा कर एक बच्चियों को दिया एक मोहिनी
भाभी को थमा दिया।
मैं बेमन-सा चने चुभलाने लगा।
मुझे परेशान देख सहदेव भैया ने कलकत्ता के बारे
में बताना शुरू किया-जानते हो कलकत्ता बहुत बड़ा शहर है। सैकड़ों किलोमीटर तक फैला
है। तुम्हारे गांव जैसे सैकड़ों गांव उसमें समा जायेंगे। शहर में हजारों बसें चलती
हैं। दो डिब्बे की एक छोटी ट्रेन भी बिजली से चलती है जिसे वहां ट्राम कहते हैं।
बहुत भीड़ है दिन भर शोर-शोर और शोर। वहां बड़े-बड़े कारखाने जूट मिल हैं जिनमें
ज्यादातर पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के श्रमिक काम करते हैं। कलकत्ता में हुगली
नदी यानी गंगा की ही एक धारा पर हावड़ा स्टेशन के पास विश्व प्रसिद्ध हावड़ा पुल
है।
मैं सहदेव भैया की बातें ध्यान से सुन रहा था।हम
लोग स्टेशन दर स्टेशन आगे बढ़ते जा रहे थे।
मैंने सहदेव भैया से पूछा- भैया हम कब तक कलकत्ता पहुंच जायेंगे।
भैया बोले –अगर रास्ते में ट्रेन लेट ना हुई तो
सुबह सुबह पहुंच जायेंगे।
दिन भर स्टेशन पर स्टेशन गुजरते रहे। रात आयी तो हम सभी अपने-अपने स्लीपर
सो गये। मैं लेट तो गया पर ट्रेन की खटर-पटर में नींद तो आना दूर मुझे झपकी तक
नहीं आयी और मैं यों ही लेटा रहा।
सुबह हमारी गाड़ी हावडा स्टेशन पहुंची। मैंने पहली बार इतना बड़ा स्टेशन
देखा था। कई ट्रेन लाइने और उन पर खड़ीं तमाम ट्रेनें। कुछ ट्रेनें स्टेशन से छूट
रही थीं और कुछ स्टेशन में घुस रही थीं। चारों ओर शोर-शोर और शोर। भीड़ इतनी कि
आदमी-आदमी से टकरा जाये। हमारे पास हलका-फुलका सामान था। स्टेशन से बाहर आकर मैं
पहली बार एक अजूबे हवाड़ा पुल देखा जिसके नीचे से गंगा की एक धारा हुगली बह रही थी।
सहदेव भैया ने एक पीली कार पकड़ी उसमें हम लोग बैठ गये। सहदेव भैया ने
बताया कि कलकत्ता में इसे टैक्सी कहते हैं।
करीब आधा घंटे में हम सभी सहदेव भैया के घर
पहुंच गये। वे एक ऊंची ब्लिडिंग के छत पर बने घर में रहते थे।थोड़ी देर हम लोग
उनके घर में रुके फिर सहदेव भैया पत्नी और बच्चियों को घर पर छोड़ मुझे लेकर
भैया-भाभी से मिलाने चल पड़े। झिर-झिर कर बारिश हो रही थी। बारिश की फुहारों में
भीगते हुए पैदल ही चल पड़े। सहदेव भैया अरसे से कलकत्ता में रह रहे थे। उनका
प्लाईवुड का बिजनेस था। वे कलकत्ता की हर
गली और मोहल्ले से परिचित थे। रास्ते में फर्राटे से दौड़ती कारें, बसें और दूसरे
वाहन दिखाई दिये। पहली बार मैं दोतल्ला बस देख कर चौंक गया।
सहदेव भैया से पूछा-भैया यहां दो तल्ला बसें भी
चलती हैं।
भैया बोले-हां, यहां ऐसी बसें भी चलती
हैं।
कलक्त्ता में गगनचुंबी इमारतों, बड़ी-बड़ी
दूकानों के बीच से गुजरते हुए लगभग आधे घंटे बाद हम लोग उस कालोनी में पहुंच गये
जहां भैया-भाभी एक फ्लैट में रहते थे। हम जब पहुंचे तब भाभी घर में अकेली थीं।
भैया सन्मार्ग अखबार में रात ड्यूटी पर थे।
हमने गांव से चलने से पहले कोई चिट्ठी वगैरह नहीं भेजा था। भाभी सहदेव भैया
को पहचानती थीं क्योंकि वे अक्सर उनके यहां आया-जाया करते थे। उनके साथ एक अजनबी
युवक को देख उनके चेहरे पर तमाम तरह के प्रश्न उभरने लगे।
सहदेव भैया ने उनके चेहरे को पढ़ लिया और बोले-पहचानों भाभी यह कौन है।
भाभी ने मुझे कभी देखा नहीं था। उनके पास मेरा
जो फोटो भी था वह बहुत छोटी उम्र का था।
थोड़ी देर तक मुझे पहचानने की कोशिश करने के बाद
वे सहदेव भैया से बोलीं –लाला (हमारी तरफ देवर के लिए यही संबोधन किया जाता है)
नहीं पहचान पायी आप ही बता दो।
सहदेव भैया मुसकराते हुए बोले –हार गयी ना। अरे
यह तुम्हारा देवर है रामहित तिवारी जुगरेहली वाला।
भाभी ने यह सुना तो उनके चेहरे पर एक मुसकान
दौड़ गयी।
मैंने भाभी को चरण स्पर्श किया। उन्होंने पास रखी एक गद्देदार कुर्सी पर
बैठने को कहा।
मैं ज्यों ही कुर्सी पर बैठा कई बार चट-चट की
आवाज हुई। मेरी समझ में नहीं आया कि ऐसा क्यों हुआ।
भाभी बोलीं-देवर जी आते ही मेरी स्प्रिंग वाली
कुर्सी तोड़ दी।
वे मुसकुरा रही थीं। क्रोधित नहीं थीं।
सहदेव भैया ने कहा अरे यह तो गांव में पहलवानी
करता था। कुश्ती लड़ता था और खूब व्यायाम करता था इसीलिए शरीर से मजबूत है।
भाभी बोलीं –कोई बात नहीं कुर्सी भी पुरानी हो चुकी थी।
भाभी ने चाय बनायी और बिस्किट के साथ मुझे
और सहदेव भैया को भी दिया।
चाय पीकर सहदेव भैया जाने को हुए तो भाभी ने
कहा-थोड़ा रुक जाओ तुम्हारे भैया आते ही होंगे।
सहदेव भैया रुक गये। थोड़ी देर में ही भैया आ गये। मैंने आगे बढ़ कर उनके
चरण स्पर्श किये तो उन्होंने कहा-अरे तुम अचानक, अरे चिट्ठी तो भेज देते।
उत्तर सहदेव भैया ने दिया-अरे यह आना थोड़े चाहता था, अम्मा-बाबा भी तैयार
नहीं थे। मैं यह कर लाया हूं कि भैया-भाभी से मिला कर लौटा लाऊंगा।
भैया ने
कहा-अच्छा किया, जब इसे कुत्ते ने काटा था तो मैं इसे देखने गांव गया था।
मैं बोल आया कि थोड़े बड़े हो जाओ फिर मैं तुम्हें कलकत्ता ले जाऊंगा।
भैया से थोड़ी देर बात कर के सहदेव भैया वापस
लौट गये। भैया-भाभी मेरे पहुंचने से बहुत खुश थे। थोड़ी देर में मुझे नाश्ते में
मक्खन लगी पावरोटी दी गयी। पैकेट में बंद
रोटी भी मिलती है यह मैं पहली बार देख रहा था।
जिस कालोनी में भैया-भाबी रहते थे उसमें नौ बिल्डिंगें हैं। हर ब्लिडिंग
चार तल्ले की है।
भाभी पास-पड़ोस के लोगों से मेरा परिचय कराने
लगीं। भैया-भाभी एकाकी रहते थे उनके घर कोई रिश्तेदार आया है यह सुन कर आस-पास के
लोग, महिलाएं देखने आने लगीं। वह दिन लोगों से मिलते-मिलाते बीता।
शाम को भैया रामखिलावन त्रिपाठी ‘रुक्म’ रात ड्यूटी में
सन्मार्ग अखबार चले गये।
*
कलकत्ता में रहते हुए मुझे एक सप्ताह ही
बीता था। भैया-भाभी के फ्लैट का नंबर दो था। एक नंबर फ्लैट में एक बंगाली सज्जन
चटर्जी बाबू रहते थे। वे एक दिन भाभी से बोले-भाभी तुम्हारा ठाकुरपो (पता चला देवर
को बांग्ला भाषा में ठाकुरपो कहते हैं) को काली जी का दर्शन नहीं करायेगा।
भाभी बोलीं-आप साथ चलिए तो दिखा लाते हैं।
चटर्जी बाबू बोले-कल चलो।
दूसरे दिन सुबह ही हम लोग बस में सवार होकर काली
जी के मंदिर की ओर चल पड़े। कलकत्ता में यह मेरी पहली बस यात्रा थी। बस में भारी
भीड़ थी। चटर्जी बाबू और भाभी आगे की तरफ चढ़ गये। मै पिछले दरवाजे से चढ़ गया।
यही गलती हो गयी। कलकत्ता में पहली बस यात्रा वह भी मैं अपनों से अलग हो गया। वे लोग बस के अगले
हिस्से में थे और भीड़ भरी बस में पिछली
ओर रह गया। वहां कुछ शोहदे या कहें गुंड्डे टाइप के आठ-दस लड़के इस तरह खड़े थे कि
उनसे पार जाना मुश्किल था। मैं इस बात के लिए घबड़ा रहा था कि पता नहीं भाभी लोग
कब उतर जायें और मैं बस में फंसा रह जाऊं।
अनजान शहर, अनजान डगर उनसे ना मिल पाया तो मेरा क्या होगा। उस पर बांग्ला भाषा जो
मेरी समझ में नहीं आती।
कुछ देर बाद भाभी की आवाज सुनाई दी-उतरो, उतरो हमारा स्टापिज आ गया।
भाभी की आवाज सुन मैंने उन बदमाश लड़कों से कहा
जाने दीजिए। वे हंसने लगे और बदमाशी कर के और रास्ता रोक कर खड़े हो गये। वे टस से
मस नहीं हो रहे थे और मेरी घबराहट बढ़ती जा रही थी। मुझे यह पता चल गया था कि भाभी
और चटर्जी बाबू उतर गये हैं। मैंने अचानक अपने दोनो हाथों को जोरदार झटके के साथ
फैलाया और उसके धक्के से वे सभी भरभरा कर इधर उधर हो गये। बस थोड़ी धीमी हुई थी
रास्ता पाते ही मैं बस से कूद गया। वे लड़के खिड़की से चिल्लाये-देखे नेबो। मेरी
समझ में कुछ नहीं आया। मैं बस की उलटी दिशा में दौड़ पड़ा कि भाभी और चट्रर्जी
बाबू पीछे ही बस से उतरे हैं। वे भी मेरे लिए दौड़े आ रहे होंगे।
वही हुआ जो मैंने सोचा था। मैं दौड़ता चला जा
रहा था उधर भाभी और चटर्जी बाबू मेरी ओर दौड़े आ रहे थे।
जब पास आये तो चटर्जी बाबू बोले-तुम कहां रह गया
था।
मैंने कहा-कुछ गुंडों ने मुझे घेर लिया था। वे
बस से उतरने ही नहीं दे रहे थे।
चट्रर्जी बाबू बोले-फिर कैसे उतरा।
मैंने उन लोगों को धक्का मारा तो सभी बस
में ही गिर गये और मुझे निकलने की जगह मिल गयी।
भाभी बोलीं-हम लोग तो बहुत डर गये थे कि तुम इस
शहर से एकदम अनजान हो पता नहीं कहां चले जाओगे।
मैंने चटर्जी बाबू से पूछा- दादा, मेंने जब उन लोगों को गिरा दिया तो उनमें
से एक चिल्लाया- देखे नेबो। इसका मतलब क्या है।
चटर्जी बाबू बोले-तुमको देख लेने का धमकी दिया
वो लोग।
मैंने मुसकरा कर कहा-दादा आपके यहां बदला
उधार रखा जाता है। हम बुंदलखंडी इसे उधार नहीं रखते। दुश्मन सामने हो तो तत्काल
उससे निपट लेते हैं पता नहीं कल मिले ना मिले इसलिए तुरत उचित जवाब दे देना ही
उचित है। इस तरह कलकत्ता का मेरा बस यात्रा का पहला अनुभव ही बहुत कड़वा रहा।(क्रमश:)
-----------------------------------------------------------------------------------
अपनों से अपनी बात
अपनी आत्मकथा की तैंतीसवीं किश्त आपसे साझा करते हुए मैं कुछ कहना चाहता हूं। मैं बहुत ही सामान्य व्यक्ति हूं, मैं नहीं मानता कि मैंने कोई ऐसा तीर मारा है कि अपनी कहानी औरों को सुनाऊं। इस उम्मीद से कि लोग इससे प्रेरणा लें। इसे लिखने का सिर्फ और सिर्फ यही उद्देश्य है कि एक व्यक्ति को जीवन में कितना संघर्ष करना पड़ता है वह भी आज के स्वार्थी युग में जहां आपकी बांह थाम आगे बढ़ने में मदद करनेवाले कम आपकी प्रगति की रफ्तार में टांग अड़ाने वाले ज्यादा हैं। मैंने जब इसकी पहली किश्त डाली तो जनसत्ता में मेरे सहकर्मी रहे भाई मांधाता सिंह ने यह कह कर मेरा हौसला बढ़ाया-इसे जारी रखिए आखिरकार आज की पीढ़ी यह तो जाने हम लोगों ने कितना संघर्ष किया है। सच कहता हूं उनके इस प्रोत्साहन ने ही दशकों बाद यादों के गलियारे में लौटने का हौसला मुझे दिया। जो कुछ याद रहा उसे ही आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं। आप इसे पसंद कर रहे हैं यह मेरे लिए आशीष की तरह है। इसके लिए आपका अंतरतम से आभार।
No comments:
Post a Comment