Thursday, May 26, 2022

गांव का लड़का कलकत्ता महानगर में भौंचक रह गया

आत्मकथा-भाग-34


कलकत्ता पहुंच कर मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे किसी छोटे तालाब की मछली को किसी समुद्र में फेंक दिया गया हो। मैं भीड़-भड़क्का, शोरगुल देख-सुन कर हैरान था। कहां हमारे गांव की शांति और कहां यहां का कोलाहल। बड़ा अजीब लग रहा था। हमारा 50-60 घरों का हमारा गांव और कहां सैकड़ों किलीमीटर तक फैला महानगर कलकत्ता। भैया ने बताया कि –इस महानगर के एक मोहल्ले में हमारे गांव जैसे चार-पांच गांव समा जायेंगे। मुझे याद आया कि मैं कलकत्ता तो पहुंच गया अम्मा-बाबा तक पहुंचने की खबर नहीं भेजी। मैंने भैया से अनुरोध किया की गांव के लिए चिट्ठी भेज दें कि मैं ठीक-ठाक पहुंच गया। भैया ने तुरत चिट्ठी लिखी और कहा कि वे चिट्ठी डाल देंगे। भैया ने इतने बड़े महानगर में बाहर निकलने पर संभल कर चलने और भाभी के साथ ही रहने की बात समझा दी। उन्होंने रास्ते में गाड़ियों से संभल कर रास्ता चलने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि यहां चलनेवाली ट्राम तुम्हारे लिए एकदम नयी है। तुम देखोगे कि शहर में चारों ओर ट्राम लाइनें बिछी हैं जिस पर दिन भर और देर रात तक ट्रामें चलती हैं। इनमें कार या बस की तरह हार्न नहीं है घंटा बजता है। ट्राम के संदर्भ में उन्होंने एक घटना बतायी। उन्होंने कहा कि शुरु-शुरू में तुम्हारी भाभी निरुपमा त्रिपाठी घूंघट डाल कर चला करती थी। एक दिन भैया भाभी शहर में कहीं निकले थे। भाभी ट्राम लाइन के ऊपर से चल रही थीं तभी पीछे से ट्राम आ गयी। ड्राइवर काफी देर तक घंटा बजाता रहा लेकिन भाभी ने सोचा कि पास के किसी मंदिर का घंटा बज रहा होगा। भैया ने देखा भाभी ट्राम से कुछ फुट दूर ही रह गयीं थीं उन्होंने तत्काल उनका हाथ पकड़ कर ट्राम लाइन से दूर खींच लिया। थोड़ी और देर होती तो अनर्थ हो जाता। कलकत्ता में मेरे लिए सबसे परेशानी की बात यह थी कि यहां बहुसंख्यक लोग बांग्लाभाषी थे और हमें बांग्ला का ‘ब’तक नहीं आता था। कई-कई शब्द ऐसे जो मैंने जीवन में पहली बार सुने थे। ऐसा ही एक शब्द था ‘सुतरांग’। महीनों बाद किसी ने बताया कि इसका मतलब होता है इसलिए। और चाहे जो कुछ रहा हो भैया-भाभी का कालोनी में व्यवहार इतना अच्छा था कि सभी लोग मुझे भी काफी स्नेह देने लगे। मैं उनकी बात समझ नहीं सकूंगा इसलिए वे टूटी-फूटी हिंदी में सही मुझसे बातें करने लगे। मैंने जाना बांग्ला में लिंग भेद नहीं है। यहां मेये खाच्छे (लड़की खाती है) और छेले खाच्छे (लड़का खाता है)। यहां पानी पिया नहीं खाया जाता है। हिंदी में तरल पदार्थ पिये और ठोस पदार्थ खाये जाते हैं। यहां सिगरेट भी खायी जाती है। यह देख कर अटपटा तो लगा लेकिन भारत विविध रंगी, विविध आचार-विचार व्यवहार और भाषाओं का एक मनोहर गुलदस्ता है। इसकी खूबसूरती यही है कि विविध रंगों में भी यहां एकता है। कलकत्ता मेरे लिए अनजाना शहर, छोटे से गांव में रहनेवाला मैं पहली-पहली बार बड़ी-बड़ी इमारते देख कर हैरान था। यहां सबसे बड़ा बंधन भाषा का था। आप किसी से तभी अच्छी तरह से अपने भाव व्यक्त कर सकते हैं जब आप उसकी भाषा को अच्छी तरह जानते हों। मैंने ठान लिया कि पहले बांग्ला भाषा पढ़नी और बोलनी सीखनी चाहिए। अक्सर फिल्मों के जो पोस्टर लगाये जाते थे उनमें अंग्रेजी के अक्षरों के साथ बांग्ला के शब्द होते थे। इनके सहारे मैं अक्षर ज्ञान की कोशिश करने लगा। मेरी इस कोशिश को देख भैया ‘हिंदी बंगला शिक्षक’ पुस्तक ले आये जिससे काम थोड़ा आसान हो गया। एक तरफ बांग्ला सीखना और दूसरी तरफ कलकत्ता को पहचानने का क्रम जारी रहा। एक दिन भाभी और हमारे पड़ोसी चटर्जी बाबू हमें महान साधक रामकृष्ण परमहंस की साधना स्थली और मां दक्षिणेश्वर काली का दर्शन कराने ले गये। पिछली बार कालीघाट की यात्रा के दौरान बस में मेरे साथ गुंडों की झड़प को याद कर इस बार यात्रा के लिए एक टैक्सी कर ली गयी थी। 
दक्षिणेश्वर का काली मंदिर


दक्षिणेश्वर काली मंदिर दक्षिणेश्वर इलाके में गंगा तट पर बना काली जी का विशाल मंदिर है। मंदिर परिसर में ही रामकृष्ण परमहंस का साधना कक्ष भी है। विशाल मंदिर परिसर में गंगा से आते ठंड़ी हवा के झोंके स्पष्ट महसूस किये जा सकते हैं। मां काली के दर्शन कर मन तृप्त हो गया। कहते हैं यहीं रामकृष्ण परमहंस को मां काली के साक्षात दर्शन हुए थे। रामकृष्ण सहज स्वभाव के सीधे-साधे थे लोग उनको पगला ठाकुर भी कहते थे। उनका बचपन का नाम गदाधर था। उस वक्त उनके बारे में मुझे कुछ भी पता नहीं था। हमारे साथ गये चटर्जी जी बताया कि रामकृष्ण को नरेंद्र दत्त को विवेकानंद बनाने का श्रेय जाता है। वही स्वामी विवेकानंद जिन्होंने शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन के अपने उद्बोधन से विदेश की धरती पर भारत का धर्म ध्वज फहरा दिया था। यह उनका विश्व प्रसिद्ध उद्बोधन था। बंगाल के बारे में हमारी जानकारी एकदम नहीं थी। हमारी दूसरी कक्षा की हिंदी की पोथी में सुभाषचंद्र बोस पर एक लेख था जिसमें बंगाल के बारे में कुछ वर्णन था। बस उतना भर ज्ञान था। दक्षिणेश्वर काली मंदिर के परिसर में घूमते हुए चटर्जी बाबू ने वह विवरण सुनाया था जो मैंने यहां दिया है। रामकृष्ण परमहंस के बारे में यह प्रसिद्ध है की शादी के बाद उन्होंने गृहस्थ जीवन नहीं जिया और पत्नी शारदा को भी मां की तरह मानते रहे। मां शारदा को भी यह श्रेय जाता है कि पति के साथ वह भी तपस्वनी का सा जीवन बिताती रहीं। दक्षिणेश्वर मंदिर की इस यात्रा ने रामकृष्ण परमहंस और मां शारदा के बारे में सुन कर मेरा हृदय उनके प्रति श्रद्धा और भक्ति से भर गया। दक्षिणेश्वर से लौटने के बाद मैंने बंगाल के संतों और साधकों के बारे में जानने की कोशिश की तो पाया कि यह प्रांत बड़े-बड़े साधकों, साध्वियों की धरती रही है। प्रभु कृष्ण के अनन्य भक्त चैतन्य महाप्रभु जिनका वास्तविक नाम गौरांग था वे भी बंगाल के ही थे। इस्कन या अंतरराष्ट्रीय कृष्ण संचेतना संघ के प्रतिष्ठाता भक्ति वेदांत श्रील प्रभुपाद, परम साधक योगानंद परमहृंस, श्यामाचरण लाहिड़ी जैसे महान साधक और संत बंगाल की धरती से ही बाहप गये और अत्यंत सिद्धि और लोकप्रियता हासिल की। कुछ दिन बाद ही मैं अटक-अटक कर बांग्ला बोलने की कोशिश करने लगा। परेशानी यह थी कि जिनसे मैं बांग्ला बोलता वे अपनी टूटी-फूटी हिंदी में जवाब देते। मैंने सबसे अनुरोध किया कि इस तरह तो मैं बांग्ला बोलना सीख नहीं पाऊंगा। आप बांग्ला में ही बोलें जब समझ नहीं आयेगा तो मैं अवश्य आपसे उसकी हिंदी पूछ लूंगा। (क्रमश:)।

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