Monday, June 6, 2022

इस तरह से 'सन्मार्ग' हिंदी दैनिक में शुरू हुआ मेरा प्रशिक्षण

 

आत्मकथा-35



भाग- 35

राजेश त्रिपाठी

मेरा बांग्ला सीखने का क्रम जारी था। कलकत्ता के किसी ना किसी इलाके में घूमने उसे जानने का क्रम भी लगातार जारी था। कुछ दिन पहले डराने वाला विराट शहर अब कुछ-कुछ रास आने लगा था। फर्क यही था हम ठहरे शांत-स्वच्छ और खुले-खुले वातावरण वाले गांव के प्राणी जहां जिधर जायें हरियाली, प्रकृति की अनुपम सुषमा हाथ पसारे आपका स्वागत करने को तैयार। वहां के रंग-बिरंगे पक्षी, उनकी विविधता भरी लुभावनी बोली। अमराइयों में कोयल का कुहकना वह आनंद यहां कहां। कंक्रीट के इस जंगल में शोर-शोर और शोर। गांव में सबके अपने घर होते हैं यहां देखा आधा शहर सड़क किनारे फुटपाथों पर बसा है। टाटपट्टी को छाकर अस्थायी घर बना कर जाने कितनी जिंदगानियां पलती हैं यहां। दूसरी ओर गगनचुंबी इमारते आकाश से बातें करती हुई। कहते हैं कि कलकत्ता काली माई का नगर है यहां जो भी आता है किसी तरह उसका बसर हो ही जाता है। अगर आप ब्रिटिश काल के कलकत्ता को देखें तो वह कुछ गांवों को मिला कर बना था आज तो यह मीलों फैला है और कई जिले इसमें समाये हैं। ज्यादातर औद्योगिक इकाइयां शहर के बाहर जिलों में हैं जिसमें हजारों मजदूर काम करते हैं।

*

मैंने भैया से एक दिन कहा कि-आप तो बाकायदा स्कूल में उर्दू पढ़े हैं, मुझे उर्दू सीखना है, सिखा दीजिए ना।

भैया बोले-अरे यार मेरे पास सिखाने का टाइम कहां है। मैं उर्दू शिक्षा की एक किताब ला देता हूं उससे सीख लेना।

 दूसरे दिन भैया जब आफिस से लौटे उनके हाथों में एक पुस्तक हिंदी उर्दू शिक्षाऔर उर्दू की एक फटी-पुरानी किताब थी। दोनों किताबें उन्होंने मुझे थमा दीं और कहा-अब कोशिश करो धीरे-धीरे सीख जाओगे।

 मुझमें एक जिद है कि मैं जब भी किसी चीज को जानना-सीखना चाहता हूं तो उसमें जिद की हद तक कोशिश करता हूं। अब उर्दू सीखने में मैं जीन-जान से जुट गया। खाने-नहाने के अलावा बाकी का समय मेरा उर्दू सीखने में बीता। एक महीने में मैं टोह-टोह कर उर्दू पढ़ने लगा। अब मेरा ध्यान उर्दू की उस किताब पर गया जो भैया लाये थे। मैंने उस किताब को टोह-टोह कर पढ़ना क्या शुरू किया उसके कथानक ने मुझे बांध लिया। वह एक पादरी की जिंदगी की भावनात्मक कहानी थी। एक दिन मैंने उसे भाभी निरुपमा को क्या सुनाया वे जब भी खाली होतीं बोलतीं-देवर जी ओ पादरी वाली कहानी सुनाओ ना। वह इतनी भावनाप्रधान कहानी थी कि कभी-कभी उसे सुनते हुए भाभी रोने लगतीं। उस समय मैं किताब पढ़ना बंद कर देता। यह क्रम लगातार लंबे समय तक चलता रहा जब तक की वह पुस्तक समाप्त नहीं हो गयी।

 भैया उर्दू की एक फिल्मी पत्रिका कहकशां (हिंदी में इसे आकाशगंगा कहते हैं) मगाते थे जिसमें काफी रोचक फिल्मी खबरें और गजलें होती थीं। बहुत दिन से मेरी ख्वाहिश थी काश मैं भी इसे पढ़ पाता। अब उर्दू सीख लिया तो मैं कहकशां भी पढ़ने लगा।

इसी तरह दिन चल रहे थे कि एक दिन भैया ने कहा-मैंने सन्मार्ग के मालिक, संपादक रामअवतार गुप्त जी से बात कर ली है वे अपने आफिस में तुमको काम सीखने का अवसर देने को तैयार हो गये हैं। कल मेरे साथ चलना मैं उनसे तुम्हारा परिचय करा दूंगा।

 दूसरे दिन मैं भैया के साथ सन्मार्ग कार्यालय में रामअवतार गुप्त जी से मिला। उन्हें प्रणाम किया। वे मुझे साथ लेकर संपादकीय विभाग में आये और संपादकीय विभाग के सभी लोगों को संबोधित करते हुए बोले –ये अपने रामखिलावन त्रिपाठी रुक्म जी के छोटे भाई हैं। आज से यहां संपादकीय विभाग में कामकाज सीखेंगे। आप लोग इनकी मदद कीजिएगा।

 संपादकीय विभाग के सभी जनों ने हामी में सिर हिला दिया। गुप्ता जी वापस अपने चैंबर में चले गये। भैया ने संपादकीय विभाग के हर व्यक्ति से मेरा परिचय कराया। वह दिन तो परिचय में बीता। कुछ लोगों को मेरा नाम रामहित कुछ अटपटा-सा लगा। मैंने उनको बताया कि –हमारी तरफ भगवान के नाम पर बच्चों का नाम रखने का रिवाज है। बहुत दिन तक मैं अपने नाम का अर्थ नहीं जानता था। बाद में कालेज में हमारे संस्कृत के शिक्षक आचार्य प्रभाकर द्विवेदी ने बताया कि तुम्हारे का नाम का अर्थ कुछ इस तरह है-रामस्य हितू स रामहित: अर्थात जो राम से प्रेम करता है वह है रामहित।

 दूसरे दिन से मेरा पत्रकारिता का प्रशिक्षण प्रारंभ हो गया। जितना  याद आता है उस समय सन्मार्ग के संपादकीय विभाग में तारकेश्वर पाठक, रमाकांत उपाध्याय, राजीव नयन, उदयराज सिंह, मंगल पाठक, सूर्यनाथ पांडेय

राजकिशोर सिंह, मोतीलाल चौधरी, हरेंद्रनाथ झा आदि थे।

 दूसरे दिन से मुझे टेलीप्रिंटर में आनेवाले अंग्रेजी समाचार दिये जाने लगे जिनका मुझे हिंदी में अनुवाद करना था। मैंने अनुवाद किया और मोतीलाल चौधरी जी को जांचने के लिए दे दिया।

 मोतीलाल चौधरी थोड़ी देर तक मेरा अनुवाद किया मैटर पढ़ते रहे फिर मुझे पास बुला कर कहा-आपका अनुवाद एकदम सही है लेकिन जो भाषा आपने लिखी है वह अखबारी भाषा नहीं है। यह संस्कृतनिष्ठ हिंदी है। यह लोगों की समझ में नहीं आयेगी। यह सच है कि हमारा अखबार विद्वानों से लेकर मजदूर तबके, रिक्शेवाले तक जाता है वह समझे ऐसी भाषा होनी चाहिए। वैसे आपकी हिंदी बहुत शुद्ध और संस्कृत से समृद्ध है।

 मैंने अपना पक्ष रखा-  मेरी शिक्षा का प्रारंभ गुरुकुल में संस्कृत के माध्यम से हुआ इसलिए मेरी हिंदी संस्कृतनिष्ठ है।

  उन्होंने कहा-कोई बात नहीं आप कोशिश कीजिए, बोलचाल की भाषा में लिखिए कुछ दिन में आदत पड़ जायेगी।

  मोतीलाल चौधरी खाने-पीने के काफी शौकीन थे। शाम को जब वे निकलने लगे तो मुझसे बोले-चलिए घर चलते हैं।

 मैंने संपादकीय विभाग के सभी लोगों को प्रणाम किया और मोतीलाल चौधरी जी के साथ चल दिया। यहां यह बताता चलूं कि उनका घर हमारे इलाके के पास ही था। तब तो लोकेशन का ज्ञान नहीं था लेकिन अब बता सकता हूं कि हमारा घर नगर के कांकुड़गाछी इलाके में था। मोतीलाल चौधरी जी का फूलबागान से पहले पड़नेवाली लोकल रेल लाइन से संटी गली में था। रेललाइन क्रास कर षष्ठीतला और फिर फूलबागान पार कर हमारा इलाका कांकुड़गाछी।

  मैंने सोचा था कि चौधरी नीचे उतर कर बस पकड़ लेंगे लेकिन वे पैदल ही चल पड़े मैंने कहा-कोई बस पकड़ लेते हैं। उन्होंने कहा-आइए ना शहर देखते हुए चलते हैं।

  अब मैं करता तो क्या करता उनके साथ हो लिया। मैं ऊब ना जाऊं इसलिए वे मुझे बंगाल के बारे में बताने लगे। उन्होंने बताया कि-राजा बल्लाल सेन यज्ञादि कार्य के लिए उत्तर प्रदेश से कुछ कान्यकुब्ज ब्राह्मणों को लाये थे। बाद में वे यहीं बस गये।

 अभी यह चर्चा चल ही रही थी कि उनको सामने फुटपाथ पर पकौड़ियां तलती हुई दिखाई दीं। वहां उनके कदम अचानक ठिठक गये। उन्होंने पकौड़ीवाले को दो जनों के लिए पकौड़ी का आर्डर दिया। मैंने हाथ जोड़ते हुए कहा- आप अपने लिए बनवा लीजिए, मैं बाहर की चीजें नहीं खाता। उनके बार-बार आग्रह करने पर भी मैंने माफी मांग ली। वे तो हंस कर रह गये लेकिन पकौड़ीवाले ने मुझे कुछ ऐसी नजर से देखा जैसे कहना चाह रहा हो-यह कैसा आदमी है जो पकौड़ी नहीं खाता।

 पकौड़ियां खत्म हुईं तो चौधरी जी के कदम आगे बढ़े। अभी आधा मील ही चल पाये थे कि चौधरी जी के कदम फिर रुक गये। फिर पकौड़ी की दूकान जो मिल गयी थी यहां भी उन्होंने पकौड़ी खायीं फिर आगे बढ़े। मैं मन ही मन मना रहा था कि अब पकौड़ी की दूकान ना मिले। खैर रेल लाइन के पास हम लोग आ गये।

 वे बायीं तरफ अपने घर की ओर जाने वाली गली में मुड़ने वाली गली की ओर बढ़ते हुए बोले-बस में आने से यह मजा मिलता।

 मैंने कोई उत्तर नहीं दिया, बस मुसकरा कर रह गया।

 वे बोले- आप सीधे चले जाइए, आगे फूलबागान मिलेगा वहां से बायें मुड़ जाइएगा कुछ दूर बाद आपका मुहल्ला आ जायेगा।

 मैंने कहा-इधर का रास्ता मैं जानता हूं।

 थोड़ी देर में मैं अपने घर पहुंच गया।

 मोतीलाल चौधरी जी के बारे में यह बताता चलूं कि आध्यात्मिक चर्चाओं में वे बहुत रुचि लेते थे। उनका आध्यात्मिक ज्ञान भी काफी था। सन्मार्ग कार्यालय में जब खबरों से थोड़ा अवकाश मिलता तो मैं और वह आध्यात्मिक चर्चाओं में जुट जाते थे। चौधरी जी मैथिल थे और बांग्ला भाषा भी जानते थे। वे बंगाल के बारे में,वहां के संतों, साधकों और कला, संस्कृति के बारे में जानकारी रखते थे।

  दूसरे दिन मैं सन्मार्ग कार्यालय पहुंचा तो लोगों ने बताया –जरा गुप्ता जी से उनके चैंबर में मिल लीजिए वे आपको खोज रहे थे।

 मैं दोड़ा-दौड़ा गुप्ता जी के चैंबर पहुंचा, उनको नमस्कार कर मैंने पूछा-सर आप मुझे खोज रहे थे,कुछ काम है क्या है?

गुप्ता जी ने मेरी ओर दो पेज बढ़ाते हुए बोले-इसे जरा हिंदी में ट्रांसलेट कर के मुझे दे देना।

 मैं संपादकीय डेस्क में वापस आया और डेस्क इंचार्ज से पूछा- भाई साहब, गुप्ता जी ने एक काम दिया है आपकी आज्ञा हो तो मैं गुप्ता जी का काम कर दूं।

डेस्क इंचार्ज ने कहा-हां, हां कर दीजिए इससे भी तो आपका अनुवाद का अभ्यास हो जायेगा।

मैंने अनुवाद कर दिया और गुप्ता जी के चैंबर में जाकर उनको दे दिया और उन्हें प्रणाम कर वापस लौटने को हुआ तो उन्होंने कहा –ठहरो।

 इसके बाद उन्होंने अपने ड्रावर से कुछ निकाल कर दिया, मैंने बिना देखे जेब में रख लिया।

 घर वापस आया तो मैंने जेब टटोली, देखा पांच सौ रुपये थे। मुझे अच्छा नहीं लगा। मैंने सोचा मैं तो वहां सीख रहा हूं और गुप्ता जी का काम भी उसी सीखने के क्रम का हिस्सा है उसके लिए मुझे पैसा नहीं लेना चाहिए। मैंने तय किया कि दूसरे दिन उनसे क्षमा मांगते हुए रुपया लौटा दूंगा।

 मैं दूसरे दिन सन्मार्ग कार्यालय पहुंचते ही गुप्ता जी के चैंबर पहुंचा और रुपया लौटाते हुए बोला-सर यह रुपया आपने क्यों दिया, अरे आफिस में मैं अनुवाद का ही काम तो सीख रहा हूं उसके बीच इसे भी कर दिया यह भी तो मेरे सीखने के क्रम में है इसके लिए रुपया क्यों लूं।

 गुप्ता जी बोले-बड़े कुछ दें तो उसे आशीर्वाद मान कर रख लेना चाहिए। उसे वापस करना बड़ों का अपमान होता है।

इसके बाद मेरे पास कहने को कुछ नहीं था। मैं उन्हें प्रणाम कर संपादकीय डेस्क में वापस लौट आया।

 संपादकीय डेस्क के सभी लोग उम्र में मुझसे बड़े थे और मुझे छोटे भाई सा स्नेह करते थे। कुछ शायद इसलिए भी कि मैं उनके सहकर्मी रामखिलावन त्रिपाठी रुक्म का भाई हूं।

 सभी लोग भुने चने मंगवाते तो मुझे भी देते। मैं संकोच में नहीं लेता तो कहते –हम भी रुक्म जी की तरह तुम्हारे भाई ही हैं हमसे संकोच कैसा।

  इसके बाद मैं ना नहीं कर पाता था। वे जो कुछ मंगवाते मुझे देते, जो चीजें मुझे पसंद नहीं होती थीं मैंने लेने से मना कर देता था।

 मंगल पाठक जी कलकत्ता में ट्यूशन पढ़ाते थे। बीच-बीच में भैया से मिलने सन्मार्ग कार्यालय आते थे। एक बार उन्होंने पाठक जी से कहा- ट्यूशन पढ़ाने से क्या होगा कोई नौकरी क्यों नहीं कर लेते।

 मंगल  पाठक बोले-और कोई काम आता नहीं कहां क्या नौकरी करें।

 भैया बोले –कुछ जुगत  भिड़ाते हैं, बस मैं जैसा कहूं करते जाइएगा।

पाठक जी ने हामी भर ली।

भैया उस समय सूर्यनाथ पांडेय जी के पास गये । सूर्यनाथ पांडेय संत स्वभाव के थे और गीता पर अंग्रेजी और हिंदी में व्याख्या करते और प्रवचन देते थे। उनके बारे में एक और मुख्य और उल्लेखनीय बात यह थी कि वे केवल गंगाजल का ही प्रयोग करते थे पीने और खाना बनाने के लिए। भैया रुक्म जी को वह बहुत मानते थो।

 भैया रुक्म जी पांडेय जी के पास गये और उनसे कहा-पंडित जी अपने एक ब्राह्मण हैं उनके पास कोई काम नहीं है आप कहें तो उनको प्रूफरीडर के रूप में रख लिया जाये।

पांडेय जी  बोले-रुक्म जी अगर आप समझते हैं कि काम के आदमी हैं तो रख लीजिए देख लीजिए प्रूफ वगरह देखना जानते हैं ना। आप उन्हें मेरे पास भेज दीजिए।

  भैया लौट कर आये और मंगल पाठक जी से बोले-आपसे पूछेंगे कि प्रूफ देखना जानते हैं तो आप हां बोल दीजिएगा।

 पाठक जी सकुचाते हुए बोले-लेकिन मैं तो नहीं जानता।

भैया बोले-हम सिखा लेंगे।

पाठक जी पांडेय जी के पास गये और सन्मार्ग में उनकी नौकरी हो गयी।

यही बात है कि वे भैया को और मुझको बहुत मानते थे। जब तक सन्मार्ग में रहे भैया को पूरा सम्मान देते रहे। बाद में वापस गांव लौट गये। वृद्धावस्था में जब छड़ी लेकर चलने लगे थे तो कलकत्ता आये और हावड़ा से अपने नाती को साथ लेकर भैया से मिलने आये थे।

यहां मैं बताता चलूं कि मैं बचपन से ही बहुत संकोची हूं। पहले तो मैं किसी निमंत्रण में नहीं जाता था और जाता भी था तो एक बार जो परोस दिया गया उसके बाद दोबारा नहीं मांगता था। घर जाकर मां से खाना मांगता था। मां पूछती -निमंत्रण में गया था वहां नहीं खाया। मैं कहता मुझे मांगने में संकोच होता है। इस संदर्भ में एक रोचक प्रसंग बताता चलूं। हमारे गांव के एक कुर्मी थे जिन्हें पता था कि मैं संकोची हूं निमंत्रण में कुछ मांगता नहीं। वह अक्सर पंगत में मेरे बगल में बैठते और कहते दादू (हमारे यहां बच्चों को इसी नाम से बुलाते हैं) जो भी परोसने आये मना मत करना, मैं हूं ना सब संभाल लूंगा। सचमुच वे बखूबी संभाल लेते। मेरे पत्तल में जो भी आता वह उनके पेट में जाता। इसी तरह मुझे किसी से कुछ भी मांगने में संकोच होता है यह आदत अब तक नहीं गयी।

  इसके चलते मैंने एक दिन अच्छी-खासी परेशानी झेली। जिस पैंट में पर्स था उसे भूल मैं दूसरा पैंट पहन गया। घर से काफी दूर पैदल निकल गया तो पता चला कि पैंट की जेब में तो पर्स ही नहीं है क्या करता पैदल ही आफिस चला गया। वापस लौटते वक्त भी मैं सन्मार्ग कार्यालय में भी संकोच से कियी से पैसे ना मांग सका और पैदल ही घर लौटा। घर में भैया से इसका जिक्र किया तो उन्होंने दूसरे दिन सबको सन्मार्ग में बता दिया।

 अगले दिन मंगल पाठक जी, राजीव नयन ने मुझे जम कर झाड़ा और पूछा-तुम हमें अपना बड़ा भाई नहीं मानते क्या। क्या हमसे पैसा नहीं मांग सकते थे।

  मैंने सिर झुका कर उनसे माफी मांग ली। (क्रमश:)

No comments:

Post a Comment