Sunday, March 1, 2015

जीवनगाथा डॉ. रुक्म त्रिपाठी-13

उन्होंने कभी किसी की शर्तों पर समझौता नहीं किया
भाग- (13)
राजेश त्रिपाठी

      रुक्म जी सन्मार्ग में काम करते वक्त कई पत्र-पत्रिकाओं और पत्रों का संपादन भी कर रहे थे। इनमें कुछ डाइजेस्ट थीं तो कुछ खालिस फिल्मी। फिल्मी पत्र-पत्रिकाओं के लिए सामग्री जुटाने और बड़े-बड़े सितारों से इंटरव्यू लेने के लिए वे बंबई (अब मुंबई) जाते रहते थे। इस तरह कई लोगों से उनकी गहरी पहचान हो गयी थी। धर्मेंद्र तो उनके पहले से ही मुरीद थे जिनको उन्होंने उस वक्त अपने लेखन से समर्थन दिया जब बाकी फिल्म समीक्षक उनको एक कलाकार के रूप में खारिज कर चुके थे। उनसे उनकी पहचान काफी गाढ़ी हो गयी थी और धर्मेंद्र जिन पत्रकारों से श्रद्धा करते थे उनमें रुक्म जी भी शामिल थे। रुक्म जी ने उनको उनका सचिव दीनानाथ शास्त्री दिया था जो मुंबई में रुक्म जी की सहायक थे और उनके द्वारा संपादिता हिंदी फिल्म साप्ताहिक स्क्रीन से जुड़े थे। इन लोगों की मुलाकात अक्सर मुंबई में होती रहती थी लेकिन धर्मेंद्र जब कलकत्ता (अब कोलकाता) आते तो जिस भी होटल में ठहरते रुक्म जी से जरूर मिलते थे। वे उनसे उनके दफ्तर में भी जाकर मिल सकते थे लेकिन तब तक वे स्टार हो चुके थे और किसी स्टार के लिए कोलकता जैसे महानगर में भीड़ के बीच निकलता आसान नहीं था।
      एक बार की बात है धर्मेंद्र दीनानाथ शास्त्री के साथ कोलकाता आये हुए थे और ग्रांड होटल में ठहरे हुए थे। उन्होंने दीनानाथ शास्त्री से कहा-‘यार जरा फोन करो तुम्हारे गुरु जी (दीनानाथ शास्त्री रुक्म जी को यही कह कर संबोधित करते थे) से मिलना है।‘
            धर्मेंद्र की बात सुन कर दीनानाथ शास्त्री ने रुक्म जी के कार्यालय में फोन मिलाया। दूसरी ओर से रुक्म जी की आवाज उभरते ही वे बोले-‘गुरु जी, दीनानाथ शास्त्री बोल रहा हूं। ग्रांड में ठहरे हुए हैं। साथ में धर्मेंद्र जी भी हैं जो आपसे मिलना चाहते हैं।‘
            रुक्म जी बोले-‘ अरे कब आये तुम लोग, मुंबई से कब आये?’
            ‘ गुरु जी कल ही आये हैं।‘ दीनानाथ शास्त्री ने जवाब दिया।
      ‘कल आये हो और मुझे आज फोन कर रहे हो।‘ रुक्म जी थोड़ा रुष्ट होते हुए बोले।
      ‘ अरे गुरु जी माफ कीजिए। आते ही इतना व्यस्त हो गये की टाइम ही नहीं मिला। आज धर्मेंद्र जी ने याद दिलाया तो याद आया।‘
            ‘ठीक है, बोलो कब आना है?’
            ‘ गुरु जी , शाम को आइए ना।‘
             शाम को रुक्म जी जब ग्रांड होटल में उनके कमरे में पहुंचे, दोनों बोतल खोले हुए थे और सिगरेट भी सूंट रहे थे। दीनानाथ शास्त्री ने रुक्म जी को देखते ही सिगरेट बुझा कर छिपाते हुए कहा-‘ भाई साहब, गुरु जी आ गये। ‘
           
कैपशन
धर्मेंद्र ने भी सिगरेट बुझाते-छिपाते हुए व बोतल को भी ओट में रखते हुए कहा-‘ अरे तुम्हारे गुरु जी तो मेरे भी तो गुरु जी जैसे ही हैं। इनके सामने यह सब नहीं, कदापि नहीं।‘
  दीनानाथ शास्त्री और धर्मेंद्र दोनो उठे और रुक्म जी को प्रणाम कर सादर बैठाया।
 थोड़ी देर की बातचीत के बाद धर्मेंद्र ने पूछा-‘गुरु जी मेरी स्क्रीन?’
    रुक्म जी बोले-‘ मैं नहीं लाया। मैं मुंबइया पत्रकार नहीं जो अपने साथ पत्रिका लिये हुए जाते हैं और कलाकारों को सामने बिछ-से जाते हैं। नीचे न्यूज स्टैंड में ताजा अंक है, दीनानाथ को भेज कर मंगवा लीजिए।‘
  रुक्म जी की बात सुन कर धर्मेंद्र ने कहा-‘ अरे कोई बात नहीं गुरु जी मैं दीनानाथ को भेज कर मंगवा लूंगा। आप बैठिए।‘
            ऐसे थे रुक्म जी जिन्हें पत्रकार के सम्मान उसकी हैसियत का ध्यान हमेशा रहता था। यही वजह है कि किसी पत्रकार सम्मेलन में वे कभी गिफ्ट लेने के लिए लाइन में नहीं लगते थे। जो जानकारी लेनी थी लेते थे और वापस आ जाते थे जबकि आज के कई पत्रकार ऐसे पत्रकार सम्मेलनों में गिफ्ट के लिए अरसे तक इंतजार करते रहते हैं। कुछ लोगों को ऐसे प्रेस मीट का इंतजार ही इसलिए रहता है कि इसमें गिफ्ट के साथ-साथ अच्छे खाने का इंतजार रहता है। कुछ ऐसे भी होते हैं जो अपने मातहत को ऐसे प्रेस मीट में भेज देते हैं लेकिन शर्त यह रहती है कि वे वहां मिला गिफ्ट उन्हें ही लाकर दें।
      रुक्म जी ने कभी अपने कार्यस्थल पर भी किसी की शर्त से समझौता नहीं किया। उन्होंने जहां भी काम किया अपनी शर्तों पर और सम्मान के साथ काम किया। स्क्रीन में काम करते वक्त एक बार उन्होंने आर.के. पोद्दार से कहा भी था कि उनकी आदत में त्यागपत्र देना शुमार नहीं है। अगर रुक्म की कुर्सी सात दिन तक बिना किसी सूचना के खाली रहे तो समझना की उन्होंने नौकरी छोड़ दी है।
      वे जहां भी रहे, अपने सहयोगियों के प्यारे रहे। उनके समर्थन में हमेशा खड़े रहे। सनमार्ग के उनके साथी भी बताते हैं कि वे आते तो ठहाकों का दौर शुरू हो जाता था। वे चुटकुले और तरह-तरह के किस्से सुना कर सहयोगियों को खूब हंसाते थे। लोगों का कहना है कि पत्रकारिता जैसे तनाव वाले काम में उनका मनोविनोद उनके बड़े काम आता था। सन्मार्ग में उन्होंने लगभग आधी शताब्दी गुजारी थी और अपने सहयोगियों के सुख-दुख के सहभागी रहे। उनमें से कई आज भी वहां कार्यरत हैं और रुक्म जी को ऐसे व्यक्तित्व के रूप में याद करते हैं जो किसी के भी साथ मुसीबत में खड़े हो जाते थे। कहते हैं कि सन्मार्ग के प्रेस में कोई व्यक्ति था जो चोरी करते पकड़ा गया। इस पर सन्मार्ग के रामअवतार गुप्त जी उसके खिलाफ कार्रवाई करने को तत्पर हो गये। इस पर रुक्म जी उनके पास पहुंचे और उनसे अनुरोध किया कि उसे एक मौका सुधरने का दें।
      रुक्म जी की बात सुन कर रामअवतार गुप्त जी ने जो शब्द कहे वह शायद उनके जैसे सहृदय मालिक ही कह सकते थे। उन्होंने कहा-‘ रुक्म जी, मैं किसी को नौकरी से निकालना नहीं चाहता। मुझे ऐसी किसी भी कार्रवाई से दुख होता है। जब मैं किसी के खिलाफ कार्रवाई करने की सोचता हूं तो मेरे सामने उसके बच्चे और परिवार को सदस्यों के चेहरे आ जाते हैं और यह सवाल भी कि अगर इसे निकाला तो उन लोगों का क्या होगा।‘
       रुक्म जी के कहने पर गुप्त जी ने उस चोर को एक मौका दे दिया। लेकिन कहते हैं ना कि जिसे जो लत लग जाती है, वह कभी जाती नहीं। वह दूसरी और तीसरी बार भी जब चोरी करते पकडा गया तो इस बार खुद रुक्म जी रामअवतार जी के कक्ष में गये और कहा-‘पिछली बार मैं इसे बचाने के लिए आया था। अब यह प्रार्थना करने आया हूं कि जितना जल्द हो सके इसे निकाल दीजिए।‘
      रामअवतार गुप्त जी बोले-‘रुक्म जी,आप बहुत सीधे हैं इसलिए लोगों पर विश्वास कर लेते हैं। अब लोग बहुत चालाक और मतलबी हो गये हैं। देखा आपने, उसको बचाया पर वह चोरी से बाज नहीं आया, आखिर कोई कब तक सहेगा।‘
      रुक्म जी को भी य़ह एहसास हो गया कि जमाना बदल गया है जहां लोग सीधे व्यक्ति की सिधाई का फायदा उठाने लगे हैं। वैसे कई बार ऐसे भी मौके आये जब रुक्म जी किसी निर्दोष को बचाने के लिए त्यागपत्र तक देने को तैयार हो गये।
      उन्होंने कभी किसी गलत शर्त पर समझौता नहीं किया। वे कई जगह शीर्ष पदों पर रहे और अगर मालिकों या संबंधित व्यक्तियों से समझौते करते जाते, अपने जमीर को मार कर वह काम करने को तैयार होते जो वे चाहते थे तो पैसों से खेल सकते थे। लेकिन उनको इस बात पर अंत तक संतोष रहा कि कोई उनकी ओर उंगली नहीं उठा सकता कि रुक्म जी ने उनका दो पैसा भी अनुचित ढंग से लिया है। वे अक्सर कहा करते थे-‘ किसी की सबसे बड़ी कमाई यही है कि वह ईमानदारी से जो मिले उसे स्वीकार करे, उसी में खुश रहे। यह याद रखे कि किसी को भी भाग्य से ज्यादा और वक्त से पहले कुछ मिलता नहीं है। अगर अनुचित ढंग से पैसा नहीं कमाया तो किसी की हिम्मत नहीं कि कोई किसी पर उंगली उठा सके। सम्मान की जिंदगी से बड़ी कोई दौलत नहीं हो सकती।‘
           
रुक्म जी पुरी के समुद्र तट पर
वे किफायत और बचत पर बहुत जोर देते थे। वे हमेशा इस बारे में अपने मामा मंगल प्रसाद त्रिपाठी की सीख को दोहराते थे। वे कहते कि शहर में गुजर-बसर करना कितना कठिन है इस बारे में दशकों पूर्व मामा जी कहते थे-शहर में या रहे हजारी, या रहे कबारी (कारोबार करनेवाला)। यह दशकों पहले की बात है अब हजारी तो दूर लाख कमाने वालों का गुडर-बसर बड़ी मुश्किल में होता है।
      कोलकाता में रुक्म जी योग आदि से बी जुड़े रहे। वे यौगिक संघ के योग शिविरों में भी हिस्सा लेते रहे। ऐसे शिविरों में अक्सर बाहर से योग के ज्ञाता और कई बार मशहूर व्यक्ति भी आया करते थे। रुक्म जी जहां भी मौजूद होते. कभी अन्याय या उपेक्षा को बरदाश्त नहीं करते थे और उसके खिलाफ जरूर बोलते थे। यहां एक प्रसंग योगिक शिविर का उनके ही शब्दों में पेश है-“ प्रसंग पचास के अर्धदशक का है। वैष्णव देवी कटरा स्थित विश्वायतन योगाश्रम से स्वामी कार्तिकेय के शिष्य स्वामी हरि भक्त चैतन्य तथा धीरेंद्र ब्रह्मचारी योग का प्रचार करने कलकत्ता आये थे। उन्होंने रेड रोड के बगल में स्थित मोहम्मडन स्पोर्टिंग क्लब के निकट विश्वायतन     योगशिविर    आरंभ  किया।
  स्वामी हरिभक्त जितने गंभीर थे, उनके गुरु भाई धीरेंद्र उतने ही मुखर। योग प्रशिक्षण धीरेंद्र जी ही देते थे। हरिभक्त जी केवल प्रशिक्षणार्थियों को देखते रहते थे। चूंकि कलकत्ता का फेफड़ा कहलाने वाले विक्टोरिया मेमोरियल के मैदान जानेवाले वायु सेवनार्थी रेड रोड से गुजरते थे, इसलिए उनमें से योग के प्रति रुचि रखनेवाले शिविर में प्रशिक्षणार्थ आने लगे। 
उस शिविर में योगिक क्रिया देखने के लिए बहुतों के कदम रुक जाते।
एक दिन प्रसिद्ध नेता मोरारजी भाई देसाई भी जब वहां पधारे तो प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे, धनाढ्य परिवार के दो नन्हें बच्चे अपनी आटोग्राफ बुक उनकी ओर बढ़ाते हुए आटोग्राफ मांगने लगे। तो मोरारजी ने उन्हें लंगोट और गंजी पहने देख कर कहा-‘पहले खद्दर पहन कर आओ।’
उनकी शर्त   सुनते  ही    बच्चे  निराशहो      गये। 
  उन दिनों मैं खद्दर ही पहनता था। मैंने खद्दर का पाजामा और कुर्ता पहन कर दोनों की आटोग्राफ बुक लेकर मोरारजी से कहा-‘मैं खादी ग्रामोद्योग भवन के शुद्ध खद्दर से बने कुर्ता, पाजामा पहने हूं, कृपया अब तो आप आटोग्राफ देने से इनकार नहीं करेंगे।’
उन्होंने मेरा कुर्ता-पाजामा देखा और दोनों आटोग्राफ बुक में आटोग्राफ दे दिया। मैंने बच्चों को उनकी बुक लौटाने के बाद हाथ जोड़ कर मोरारजी से प्रार्थना की,‘आप राष्ट्रीय स्तर के सर्वमान्य नेता हैं , रईस घरों के नन्हें बच्चे खद्दर क्यों पहनने लगे? अपनी शर्त में इन नन्हें- मुन्नों को छूट  दे     दी    होती,  तो    वे     उदास  न     होते,आपके      चरण  छू    लेते। ’
  मोरारजी ने कोई उत्तर नहीं दिया। अन्यमनस्क हो मैदान की ओर वायु सेवन के लिए चल दिये।
कालांतर में जब वे प्रधानमंत्री बने, तो जापान की एक युवती जब उनसे मिलने गयी, तो उन्होंने उसे सहर्ष आटोग्राफ दे दिया। तब सिंथेटिक कपड़े पहने उस युवती को उन्होंने खादी पहन कर आने को    नहीं   कहा।
 जब यह समाचार अखबारों में उछाला गया, तो मैंने एक शिकायती पत्र मोरारजी के पास भेजा था, जिसमें उन नन्हें मुन्नों को आटोग्राफ देने से इनकार करने का जिक्र था। मैंने अपने पत्र में पूछा था , -‘उस जापानी युवती को आपने शर्त में छूट क्यों दी?’ किंतु अफसोस, उन्होंने मेरे उस पत्र का उत्तर कभी नहीं दिया।
      यह प्रसंग उनके ही शब्दों में देने जरूरत इसलिए महसूस की कि यह उनकी जिंदगी से जुड़ा प्रसंग है जिसे उन्होंने हूबूहू अपने ब्लाग में इसी तरह पेश किया था। उनकी आधी शताब्दी से भी अधिक पत्रकारिता और कोलकाता-मुबई के उनके प्रवास की कई कहानियां हैं। जो जैसे याद आती जायेंगी इस आलेख का हिस्सा बनती जायेंगी।(शेष अगले भाग में)


No comments:

Post a Comment