वे कभी पुरस्कारों के पीछे नहीं भागे
सम्मान उन तक चल कर आये
राजेश त्रिपाठी
डॉ. रुक्म त्रिपाठी कट्टर सिद्धांतवादी थे। उन्हें कोई किसी प्रलोभन या किसी भी कीमत पर उनके सिद्धांत और उद्देश्य से डिगा नहीं सकता था। जो बात उन्हें पसंद नहीं वे किसी से भी बेधड़क कहने में न झिझकते थे ना सकुचाते थे। किसी स्वार्थ की पूर्ति या किसी की कृपा पाने की लिए उन्हें ठकुरसुहाती कहना कभी पसंद नहीं था। उनका कहना था कि कोई भी व्यक्ति यदि इस डर से कि कड़वा सच मालिक को अच्छा नहीं लगेगा, उससे सच्चाई छिपाता है तो वह मालिक से गद्दारी और बेईमानी कर रहा होता है। उनका मानना था कि ऐसा करके वह खुद तो मालिक के सामने भला और उनका कृपापात्र बन रहा होता है लेकिन स्वयं अपने ही मालिक को पतन की काली अंधेरी सुरंग में धकेल रहा होता है। अपने उस जैसे चाटुकारों की आंखों से देखने और कानों से सुनने के आदी मालिक को जब इसका पता चलता है तब तक देर हो चुकी होती है और जो अनर्थ होना था हो चुका होता है। रुक्म जी ने कभी ऐसा नहीं किया। क्या अच्छा है और क्या बुरा यथासाध्य उस संस्थान के कर्ता-धर्ता को बताते, जताते रहे जिससे भी वे जुड़े थे। अब इससे तत्काल भले ही कर्ता-धर्ता को बात पसंद ना आयी हो लेकिन जब असलियत सामने आती तो वे कहते-रुक्म जी आपने सही आगाह किया था। वैसा ही हुआ जैसे आपने कहा था।
वे कभी किसी पुरस्कार या सम्मान के सामने नहीं भागे। ना ही कभी अपने बारे में बढ़-चढ़ कर बयान करना ही उनको पसंद था। उनका कहना था कि याचक कभी मत बनना। पुरस्कार या सम्मान की भीख किसी से मांगना तो खुद सम्मान का अपमान है फिर तुम्हारा सम्मान कहां हुआ। तुमने किसी से बार-बार याचना की और उन्होंने हार कर सम्मानित कर दिया तो यह तो भीख हुई, सम्मान कहां हुआ। तुमने भीख मांगी किसी ने तरस कर तुम्हारी झोली में डाल दी। तुम खुश हो गये कि लो हम भी सम्मानित हो गये और पीटने लगे ढिंढोरा। वे अक्सर मुझसे कहा करते थे कि जानते हो बहुत से सम्मान प्रायोजित होते हैं। या फिर किसी एक गुट विशेष की ओर से अपनी पसंद के लोगों में अंधा बांटे रेवडी की तर्ज पर बांटे जाते हैं। जाने कितने योग्य व्यक्ति स्वांत: सुखाय साहित्य सृजन करते रहते हैं लेकिन कोई सम्मान उन तक नहीं पहुंचता क्योंकि वे उस विशेष गुट के कृपापात्र नहीं होते जिनके विवेक पर सम्मान के निर्णय का भार होता है। भैया की कही इस बात पर कि सम्मान, पुरस्कार प्रायोजित भी होते हैं मुझे अपने आनंद बाजार प्रकाशन समूह की हिंदी साप्ताहिक पत्रिका ‘रविवार’ के दिनों की ऐसी ही एक रोचक बात याद आ गयी। साप्ताहिक पत्रिका थी, अक्सर जिस दिन पत्रिका छपने चली जाती हमारे पास गप-शप के लिए कुछ घड़िया बच जाती थीं। ऐसी ही एक घड़ी में हमारे एक सहयोगी ( नाम नहीं देना चाहूंगा क्योंकि नहीं चाहता कि आप उन्हें सम्मान या पुरस्कार लोभी पत्रकार या लेखक के रूप में याद करें) ने हमारे कानपुर के साथी राजशेखर मिश्र से कहा –‘अरे भाई! क्या आपके कानपुर में अक्सर सम्मान समारोह होते हैं। हमें भी सम्मानित कराइए।‘ भले ही यह बात मजाक में कही गयी हो लेकिन राजशेखर मिश्र ने जो बताया वह और चौंकाने वाली बात थी। उन्होंने कहा-‘ जब कहें पुरस्कृत करा देते हैं। लेकिन एक शर्ते है।‘ इस पर वे साथी चौंके जो सम्मान की याचना कर रहे थे और बोले-‘सम्मान में भी शर्त। वह भी बता दीजिए भाई।‘ राजशेखर ने कहा-‘शर्त यह है कि मंच पर आपको शाल, श्रीफल और माला के साथ कुछ नगद नारायण भी दिये जायेंगे। श्रीफल, माला और शाल आपका मंच के पीछे उतरते ही आयोजक वहां खड़े होंगे, उनको नगद राशि वापस करनी होगी। आप सम्मानित हो गये और आयोजकों की राशि भी बच गयी।‘ हम सभी इस नायाब तरीके को सुन कर ताज्जुब में पड़
गये।
ऊपर की घटना का प्रसंगवश जिक्र कर दिया ताकि पता चल जाये कि साहित्यकारों को सम्मानित करने के नाम पर किस-किस तरह के खेल खेले जाते हैं। सच भी है किसी अनजान व्यक्ति या संस्था से आपको सम्मान मिले तो वह प्रीतिकर और पुलकित कर देनेवाला होता है। कारण, जो आपको जानते हैं, संभव है आपके लिहाज से एक अंगवस्त्र और एक स्मृतिफलक आपको दे बैठें लेकिन आप तक और दूसरों तक भी संदेश यही जायेगा कि जान-पहचान वालों ने सम्मानित कर दिया तो क्या बड़ी बात हुई। यही वजह है कि वे अक्सर बहुतों का सम्मान देने का आग्रह ठुकराते रहे। अपने मुंह मिया मिट्ठू बनना भी उन्हें नहीं भाता था। उनका कहना था कि अपने कृतित्व का ढोल खुद मत पीटो। बात तो तब है कि कोई तुम्हारे बारे में औरों से जाने और तब तुम्हारी सराहना करे। निश्चित है कि वह समय सबसे ज्यादा आनंद देने वाले होगा। मैं कहता –‘ क्या कहते हैं, आजकल जो कुछ नहीं जानते लंबी हांक कर ऊंचे-ऊंचे स्थान पा रहे हैं। जो गुमशुम से बस बैल की तरह चुपचाप काम में जुटे रहते हैं उनको बुद्धू या बेवकूफ माना जाता है।‘ वे हंस कर बोलते-‘जो थोथे चने होते हैं वे ज्यादा बजते हैं। जिनमें योग्यता नहीं वे अपनी कमी छिपाने के लिए वाक्चातुर्य से ही काम लेते हैं लेकिन –उघरे अंत ना होय निबाहू, कालिनेमि जिमि रावण राहू। जब पोल खुलती है, वे कहीं के नहीं रहते।‘ मैंने उनके चरणों में बैठ कर ही पत्रकारिता का धर्म और कर्म सीखा। जो टूटी-फूटी कवितई कर पाता हूं वह भी उन्हीं की शिक्षा का परिणाम है। अहमन्यता या आत्मश्लाघा मोह से मैं ग्रस्त नहीं हूं। कुछ लिखा किसी ने सराहना कर दी तो लगता है कि चलो कहीं से तो समर्थन को दो बोल आये। सच मानिए हम जैसों के लिए यही सबसे बड़ा सम्मान है। आपका लिखा किसी को भाया इसका मतलब आपका प्रयास सार्थक। रुक्म जी की इस कथा में गाहे-बगाहे मैं भी आ जा रहा हूं इसे इस तरह देखें कि जिनकी छत्रछाया में जिए, जिनसे सीखा उनके जिक्र के साथ हमारा संदर्भ कभी-कदा जो जुड़ना स्वाभाविक है।
उपलब्धि पा ले लेकिन एक ना एक दिन उंगलियां उठेंगी ही। सामने नहीं तो पीठ पीछे समाज में लोग उसकी बुराई करेंगे कि इसने उपलब्धि सही तरीके से नहीं गलत राह अपना कर पायी है। तुम्हारी सबसे बड़ी उपलब्धि वही है कि कोई तुम पर उंगली ना उठा सके।‘ (शेष अगले भाग में)
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