Sunday, December 18, 2022

बाबा के निधन के बाद हम अम्मा को कोलकाता ले आये

 आत्मकथा-50

जिस दिन पिता जी के श्राद्ध कर्म और ब्राह्मण व गांव भर के लोगों के भोजन का दिन था उस दिन हमारे घर-आंगन में सुबह से ही बड़ी गहमागहमी थी। गांव की महिलाएं पूड़ियां बेलने के लिए जुट गयी थीं। और भोजन बनाने वाले ब्राह्मण भी अपने काम में लग गये थे। मुझे प्रसन्नता इस बात की थी कि मान्यवर काशीप्रसाद काका के समझाने पर गांव वालों ने सारे भेदभाव भुला कर मेरे आमंत्रण को स्वीकार कर लिया था। एक और बड़ी खुशी यह भी थी कि बिलबई से भैया रामखिलावन त्रिपाठी के चचेरे भाई और उनके घर की बहुए आ गयी थीं और काम में हाथ बंटा रही थीं।

हमारा आंगन बहुत बड़ा था। उसी के एक किनारे मैं उस पूजा में बैठा था जो मेरे बाबा (पिता जी) की आत्मा की शांति के लिए की जा रही थी। दोपहर होते ही गांव के निमंत्रित लोग आने लगे। तब तक पूजा भी समाप्त हो गयी थी। लोगों को जीमने के लिए पंगत में बैठाना शुरू किया जा चुका था। पूजा करानेवाले ब्राह्मण पहले ही भोजन ग्रहण कर जा चुके थे। शाम आते-आते सभी कार्य संपन्न हो गया। बिलबई से आये रिश्तेदार उसी दिन लौटने वाले थे लेकिन उन्हें रोक लिया गया। सुबह होते ही वह वापस लौट गये। पूजा आदि हो जाने के बाद हमारे बेटे की बधाई पूजने का रास्ता साफ हो गया। एक दिन बाद यह शुभ कार्य भी कर लिया गया। ग्राम देवी व अन्य देवताओं के यहां मत्था टेकने के बाद हमने अपने पूर्वजों के उस घर की दहलीज भी पूजी जो कभी हमारे दादा मुखराम शर्मा जी का हुआ करता था। जब मेरे बाबा (पिता जी) अपने जीजा शिवदर्शन तिवारी की मदद के लिए बिलबई चले गये और फिर जीजा के निधन के बाद भांजे रामखिलावन की परवरिश के लिए पहले बिलबई और फिर बांदा चले गये और वर्षों गांव जुगरेहली नहीं लौटे तो गांव के लोगों ने कई एकड़ खेतों और पैतृक मकान पर कब्जा कर लिया था। बाद में जब बाबा जुगरेहली लौटे तो उन्हें रहने के लिए घर गंगाप्रसाद द्विवेदी जी ने दिया था।

देवी-देवताओं की पूजा के बाद घर के द्वार पर बधाई बजने लगी। गांव के लोगों ने आग्रह किया-बधाई के दिन बेटे की मां को भी नाचना पड़ता है। गांव में मेरी पत्नी वंदना को घूंघट डाले रहना पड़ता था। उसने सिर हिला कर मना कर दिया कि वह नहीं नाचेगी। खुशी में लोगों ने खूब बंदूकें दागीं। अब का नहीं जानता पहले हमारे बुंदेलखंड में खुशी के किसी भी आयोजन में बंदूकें दागी जाती थीं।

हमारे सभी कार्य पूरे हो चुके थे अब लौटने की बारी थी लेकिन उससे पहले और भी कुछ काम निपटाने थे जिनमें बचे हुए खेत बेचना और एकमात्र जो गाय थी उसे किसी को देना था। बबेरू जाकर कचहरी में मैंने गांव के ही एक व्यक्ति के नाम अपने खेत रजिस्टर करा दिये। एक गाय थी तो भाई बाबूलाल यादव जी को दे दी क्योंकि हमारी गायें पहले उनकी गायों के साथ चरती थीं। मां को गांव में छोड़ने का कोई मतलब नहीं था। हमें चौबीस घंटे उनकी फ्रिक लगी रहती। कोलकाता इतना नजदीक भी नहीं था कि दो-चार घंटे में हम उनकी मदद के लिए पहुंच सकें। उन्हें कोलकाता ले आना ही ठीक था। भैया रामखिलावन त्रिपाठी और भाभी निरुपमा त्रिपाठी का भी यही मत था। अम्मा भी राजी हो गयीं क्योंकि अकेले रहना उनके लिए भी ठीक नहीं था।

मेरी अम्मा मीरा त्रिपाठी मेरी पत्नी वंदना त्रिपाठी के साथ

भैया बांदा जाकर सबके ट्रेन टिकट ले आये। नियत दिन  घर की चाबी हमने काशीप्रसाद काका को सौंप दी और अम्मां को लेकर बस पकड़ने के लिए गांव से चल पड़े। हमारे साथ गांव के आधे लोग रोते-बिलखते सड़क की ओर बढ़ चले।

वे सभी कह रहे थे-आप हमारे प्राण लिये  जा रहे हैं। एक तिवारिन दाई (मेरी अम्मा को गांव वाले इसी नाम से पुकारते थे) ही हैं जो हर किसी के दुख-दर्द में मदद करने में सबसे आगे रहती हैं। इनको दवाओं का भी अच्छा ज्ञान है सरकारी अस्पताल से लौटे लोगों तक को ये अपनी दवाई से ठीक कर देती थीं। अब हमें हमारे बच्चों को कौन दवा देगा।

हमारे पास उनको ढाढस बंधाने के लिए शब्द नहीं थे। हम बस यही कहते –यहां हम इनको अकेले किसके भरोसे छोड़ें। इनको जब भी गांव की याद आयेगी हम इन्हें आपसे मिलाने ले आया करेंगे।

हमारे आश्वासन से भी उन्हें संतोष नहीं हुआ। वे रोते-बिलखते रहे। बांदा जाने वाली हमारी बस आ गयी थी। हमने सबको हाथ जोड़ कर बस पकड़ ली। मुझे पूरा यकीन है कि गांव वाले अपनी तिवारिन दाई के लिए बहुत रोये होंगे, कई दिन तक रोये होंगे। खासकर तब जब गांव में कोई बीमार पड़ा होगा और उसे तिवारिन दायी कि याद आयी होगी। हमारे पास कोई चारा नहीं था, अम्मा को यों लावारिस छोड़ना ना न्याय संगत होता और ना मानवता की दृष्टि से उचित। उन्हें गांव छोड़ कर हम भी कोलकाता में चैन से नहीं रह पाते।

बांदा पहुंच कर हमने कोलकाता के हावड़ा जाने वाली ट्रेन पकड़ ली। मैंने गौर किया कि ट्रेन के छूटते ही मां ने हाथ जोड़ कर प्रणाम किया। मेरी समझ में यही आया कि उन्होंने उस ग्राम देवता को प्रणाम किया जो इतने वर्षों तक उनका सहारा रहा। जिसका उन्होंने अन्न जल खाया पिया। जहां अपनी एक संतान गर्भ में खोने के बाद संतान के रूप में मैं मिला। अम्मा को गांव से लाते समय मैं सोच रहा था कि जैसे मैं अपनी उस बहुमूल्य निधि को ला रहा हूं जो अब तक मुझसे दूर थी और जिसकी चिंता हमें बराबर सगी रहती थी। सोचा हमारे साथ जैसे रहेंगी हमारे नजरों के सामने तो रहेंगी। मां को साथ लाते वक्त गांव से जुड़ी एक-एक यादें मस्तिष्क में एक-एक कर उभरने लगीं। वह हमारी गोरुहाई (गायें बांधने की जगह) उसमें रजनी और दूसरी गायें जो उनका नाम पुकारने से ही रंभाने कर जवाब देती थीं। उनकी गरदन सहलाओ तो आंख बंद कर आनंद का संकेत देती थीं। बचपन में मां बहुत जिद करती थीं पर मैं गाय का दूध नहीं  पीता था। वे जब दही मथने बैठती तो कटोरा लेकर उनके पास जा बैठता था। वे कहतीं-दूध नहीं पियोगे आ गये मक्खन, मट्ठे की तलाश में। मां झिड़कती जरूर थीं पर बाद में आधा कटोरे मट्ठे में ताजे मक्खन का लोंदा डालने से नहीं भूलती थीं। मैं चाव से उसे पाता था। भगवान  की कृपा से घर में दूध, घी सब होता था। जब घर में नहीं होता तो मां खरीद कर मुझे खिलाती थीं। मेरे लिए फिक्र इतनी कि थोड़ी-सी खरोंच भी लग जाये तो परेशान हो जाती थीं। बाबा का प्यार ज्यादा दिनों तक मुझे नहीं मिल सका क्योंकि जब मैं छोटा ही था उनकी आंखें खराब हो गयी थीं। जब उन्हें दिखता था तो वे मुझे खेतों तक ले जाते और वहां मेरे नन्हें कदम छुला कर कहते- ये हमारे खेत हैं।  बाबा (मेरे पिता जी) की आंखें जब ठीक थीं गांव में उनकी तरह का साहसी व्यक्ति दूसरा नहीं था। वे बंदूक, तमंचा (वन शाटर),भाला आदि तमाम तरह के हथियार चलाना जानते थे। स्पष्टवादी इतने कि हर झूठा और छल प्रपंच वाला व्यक्ति उनके सामने कुछ बोलने से पहले सौ बार सोचता था।  उनकी आंखें खराब होने के बाद अम्मा ने ही मुझे पाला। यह पहले ही बता आये हैं कि मेरे ममेरे भाई रामखिलावन त्रिपाठी रुक्म जी को मेरे बाबा और अम्मा का प्यार पहले मिला जब वे सभी हमारे जिले बांदा में रहते थे। मेरा जन्म बाद में हुआ जब मेरे बाबा और अम्मा बांदा छोड़ कर बबेरू प्रखंड के अपने पैतृक गांव जुगरेहली आ गये। जुगरेहली नाम का अर्थ यों तो समझ नहीं आया पर हमने यही अर्थ लगा लिया कि जो जुगों (युगों) से रही वह जुगरेहली। वैसे यहां बता दें की कुर्मी जाति के लोग हमारे गांव को श्रेष्ठ मानते हैं। ऐसी मान्यता है कि कुर्मियों के जो बारह गांव हैं वहां के लोग अपनी बेटियों का ब्याह जुगरेहली में करना अच्छा समझते हैं।

 *

दूसरे दिन सुबह –सुबह ट्रेन हावड़ा पहुंत गयी। अम्मा की यह पहली इतनी लंबी ट्रेन यात्रा थी। ईश्वर की कृपा से उन्हें किसी तरह की तकलीफ नहीं हुई। हम कोलकाता के कांकुड़गाछी इलाके के अपने फ्लैट पहुंचे तो अम्मा के रहने का उचित प्रबंध कर दिया गया। मां को कुछ दिन तो अटपटा लगा फिर वे वहां के माहौल से सहज हो गयीं और बांग्ला भाषा ना जानते हुए भी पास-पड़ोस के लोगों से बुंदेली मिश्रित खड़ी बोली में बात करने लगीं। कुछ दिन तक उन्हें गांव की बहुत याद आयी लेकिन फिर यह सोच कर कि अब अपने बच्चों के बीच रहने के अलावा उनके पास और कोई चारा नहीं वे कोलकाता के हमारे फ्लैट में रहने लगीं। हिस्टीरिया के दौरों ने उन्हें यहां भी नहीं छोड़ा था। वैसे वे अब जल्दी नहीं देर से आते थे लेकिन जिस दिन आते उन्हें बेसुध और बेचैन कर जाते। काफी दवा करायी गयी लेकिन इसमें कोई फर्क नहीं आया।

बताया ना कि बांग्ला भाषा ना जानते हुए भी वे आस-पड़ोस के लोगों को अपनी बात समझाने में सफल रहती थीं। उन्हें वे अपनी औषधियों के बारे में भी बताती थीं। इसके बारे में मुझे तब पता चला जब आसपास के लोगों ने मुझसे बताया कि-आपकी मां तो बहुत गुणी हैं कितनी तरह की औषधियां जानती हैं।

 तब मैं उन्हें बताता कि जिस व्यक्ति को बैलगाड़ी में सरकारी अस्पताल ले जाया गया और डाक्टरों ने कहा कि इसके पैर सेप्टिक हो गया है इसे काटना पड़ेगा नहीं तो यह पूरे शरीर में फैल जायेगा। आस-पास के कई गांवों में अम्मा की ख्याति थी यही सुन कर उसके लोग बैलगाड़ी में लाद कर अम्मा के पास लाये। अम्मा ने उसे देख कर कहा-पैर काटने की जरूरत नहीं, दवा और मलहम दिये दे रहे हैं एक महीने बाद तुम चल कर आओगे। उस व्यक्ति ने पूछा- कितना पैसा देना होगा।

अम्मा ने कहा –बस दवा का। मैं लोगों से इलाज का पैसा नहीं लेती।

वह आदमी दवा और मलहम बनवा कर ले गया। एक महीने बाद वह बैलगाड़ी में दो बोरे आंवले लाद कर लाया और बैलगाड़ी से उतर कर पैदल चलते हुए अम्मा के पास आया और उनके चरण छूकर बोला-आपने मेरा पैर कटने से बचा लिया। अब मेरी भी एक विनती आपको माननी होगी। आप पैसा नहीं लेतीं यह मैंने सुना है पर मैं अपने पेड़ के आंवले लाया हूं यह तो आपको लेने ही होंगे। अम्मा फिर मना नही कर सकीं और उस व्यक्ति के दो बोरे आंवले स्वीकार कर लिये। (क्रमश:)

 

 

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