रहस्य
उपन्यासिका
रूम नंबर दो सौ तेरह
-राजेश त्रिपाठी
मुंबई के होटल
ड्रीमलैंड के अपने कमरे में जब अतुल की आंख खुली, सुबह के आठ बज चुके थे। उसके मन में पिछली
शाम को अपनी प्रेमिका डांसर रोमा से हुई कहासुनी का अजीब तनाव था। आज ही उसे
नागपुर लौटना था। उसने सोचा वापस लौटने के पहले क्यों न रोमा से माफी मांग कर उसे
मना ले। उसके बगैर तो वह पल भर भी नहीं रह सकता। यह सोच वह रूम नंबर 213 की ओर बढ़
चला, जिसमें रोमा ठहरी थी।
रोमा जाग गयी
होगी यह सोच उसने दरवाजा ठेला। दरवाजा भीतर से यों ही लगा था, थोड़ा जोर देते ही खुल
गया। अतुल ने देखा रोमा अभी भी अपने बिस्तर पर एक तरफ करवट लिए औंधी सोयी है।
आमतौर पर वह छह बजे जरूर उठ जाती है। उसे लगा कि उसने उसकी आहट पा ली है और रूठ कर
पड़ी है।
वह धीरे से
बोला-‘कल की गलती के लिए
मुझे माफ कर दो रोमा। पता नहीं कल मुझे क्या हो गया था जो तुम पर बरस पड़ा। दरअसल
मैं नहीं चाहता कि तुम कहीं और फंस जाओ।’
उसकी बातों का
रोमां ने कोई जवाब नहीं दिया। वह पहले की तरह
लेटी रही।
अतुल को लगा कि
रोमा उससे बेहद नाराज है। वह उसके पास गया और उसे हिला कर उठाने लगा-‘ रोमा बहुत हुआ। अब
मान भी जाओ। मुझे आज ही नागपुर लौटना है। मैं नहीं चाहता कि तुम्हें इस तरह नाराज
छोड़ कर जाऊं।’
यह सोच कि रोमा
गहरी नींद में है उसने उसे दोनों हाथों से पकड़ कर सीधा लिटाने की कोशिश की। ऐसा
करते वक्त उसने महसूस किया कि उसके दोनों
हाथ किसी गीली चीज से सन गये हैं। उसने अपनी हथेलियां देखीं, वे खून से रंगी थीं।
उसके मुंह से अचानक चीख निकल गयी। ‘ खून ! खून! ’इसके बाद रोमा के शरीर से खिसक गयी साड़ी ठीक करते वक्त
अचानक उसकी नजर उसके सीने पर धंसे चाकू
पड़ गयी। वह चिल्लाया-‘खून!
खून! किसी ने रोमा का खून कर दिया।’
उसी वक्त वहां
वेटर चाय की ट्रे लेकर आ गया। उसने अपने सामने रोमा की लाश और खून से सने हाथ लिये
अतुल को देखा तो-‘ खून!
खून! किसी ने रोमा मैडम का खून कर दिया।’ चिल्लाता हुआ उलटे पैर वापस भागा।
शोरगुल सुन कर
रोमा का सेक्रेटरी राकेश व आसपास के कमरों में ठहरे दूसरे लोग बाहर आ गये। राकेश
रूम नंबर-213 की ओर लपका। वहां जाकर उसने जो कुछ देखा उससे दंग रह गया। रोमा की
लाश बिस्तर पर थी और उसके सामने खून सने हाथ लिए अतुल बिलख रहा था।
उसे देख राकेश
चिल्लाया-‘अतुल यह तुमने क्या
किया ! कल के झगड़े का बदला लेने के लिए मैडम का खून कर दिया।’
‘नहीं ! नहीं ! मैंने
खून नहीं किया। मैं तो यहां रोमा को मनाने आया था। सोचा था नागपुर वापस लौटने के
पहले उससे माफी मांग लूं।’ अतुल गिड़गिड़ाया।
‘और जब मैडम नहीं मानीं
तो तुमने उन्हें हमेशा के लिए खत्म कर दिया।
क्यों?’
‘नहीं यह झूठ है। राकेश
तुम मुझ पर यह इलजाम लगा रहे हो! तुम तो मेरे और रोमा के संबंध जानते हो।’
‘जानता हूं तभी तो कह रहा हूं कि
यह कोई तरीका नहीं था बात मनवाने का।’
‘मेरा
यकीन करो राकेश मैं बेकसूर हूं।’
‘यह तो
अब अदालत में साबित कीजिएगा मिस्टर जो भी आपका नाम हो। मैं आपको डांसर रोमा के कत्ल
के आरोप में हिरासत में लेता हूं।’ पुलिस इंस्पेक्टर ने कहा। वेटर ने खून की इत्तिला मैनेजर
को दी थी और उसने थाने फोन कर दिया था।
फोन पाते ही इंस्पेक्टर अजित वागले अपनी टीम के साथ आ धमके थे।
‘मेरा
नाम अतुल है सर। मैं रोमा का प्रेमी हूं और बिल्कुल बेकसूर हूं। मैं तो यहां इससे
मिलने आया था, मुझे
पता नहीं रात को कौन उसका कत्ल कर गया।’
‘सभी
कातिल अपने को बेकसूर ही कहते हैं। चलिए आप।’ इंस्पेक्टर ने अतुल को हथकड़ी पहना दी। साथ आये पुलिसवालों
ने वहां सबूत तलाशने की कोशिश शुरू कर दी। लाश के सीने में धंसा चाकू सावधानी से
निकाल लिया गया और फिंगर प्रिंट की जांच के लिए रख लिया गया। लाश के कई फोटो लिये
गये और उस कमरे के भी जिसमें रोमा ठहरी थी। इसके बाद पुलिस वालों ने लाश साथ आयी
एंबुलेंस में लादी और पुलिस जीप में अतुल को बैठा कर थाने ले गये।
जाते-जाते इंस्पेक्टर अजित वागले वहां मौजूद लोगों के
नाम-पते दर्ज कर ले गये। वे उनसे कहते गये कि-‘ आप सबकी गवाही इस तहकीकात में बड़े काम की
हो सकती है। हमें आपकी जरूरत पड़ सकती है। आप कुछ दिन यहां से कहीं बाहर न जायें।
जाना बेहद जरूरी हो तो थाने में इत्तिला देकर जायें।’
रोमा के सेक्रेटरी राकेश को भी इंस्पेक्टर साथ लेते गये।
राकेश ने थाने से ही ‘न्यूज टाइम’ के दफ्तर में पत्रकार आलोक को फोन पर सूचना दी ‘रोमा का खून हो गया है। अतुल ने उसका कत्ल कर दिया है। वह
अभी पुलिस की हिरासत में है।’
यह खबर सुन कर आलोक चौंक गया। रोमा का खून अतुल के हाथों।
उसे इस खबर पर यकीन नहीं हो रहा था। वह तुरंत आफिस से छुट्टी लेकर थाने गया।
इंस्पेक्टर अजित वागले से इजाजत ले वह सीधा वहां गया जहां अतुल कैद था।
आलोक को देखते ही अतुल बिलख उठा-‘ भैया आलोक! मैं
बिल्कुल बेकसूर हूं, मुझे
बचाओ।’
‘ मैं
जानता हूं अतुल लेकिन जिन हालात में तुम्हें रोमा की लाश के पास पाया गया, वे तुम्हारे खिलाफ
जाते हैं।’
‘यह मेरी
बदनसीबी है भैया। डरता हूं कहीं बूढ़ी मां और छोटे भाई को मेरे हिरासत में होने का
पता चला तो उन पर क्या बीतेगी?’
‘उनकी
चिंता मत करो। मैं चिट्ठी लिख दूंगा कि तुम किसी काम में उलझ गये हो दो-चार महीने
बाद वापस लौटोगे।’ अतुल
को सांत्वना दे आलोक वापस लौट गया।
दूसरे दिन आलोक दफ्तर गया तो उसे पुणे के एक नृत्य
कार्यक्रम की कवरेज के लिए असाइनमेंट मिल गया। उसने न्यूज एडीटर से मिन्नत की कि
वे किसी और को भेज दें लेकिन वे माने नहीं उन्होंने कहा-‘हम चाहते हैं कि यह
कवरेज आप ही करें।’
इसके बाद आलोक ना नुकुर नहीं कर पाया। पुणे जाने से पहले वह
अतुल से मिलना नहीं भूला। थाने जाकर उसने अतुल को समझाया कि उसे तीन दिन बाद दो
दिन के लिए बाहर जाना पड़ रहा है। वह चिंता न करे लौट कर उसके लिए जो बन पड़ेगा
करेगा।
‘लेकिन
भैया! कल तो अदालत में मेरी पेशी है।’ अतुल डरते हुए बोला।
‘डरना
मत! सच बयान करना। पहली पेशी में ही तुम्हें सजा नहीं हो जायेगी। मैंने तुम्हारा
बचाव करने के लिए एक काबिल वकील रख दिया है। अपने एक प्राइवेट जासूस दोस्त को भी
असली खूनी का पता लगाने के लिए जिम्मेदारी सौंप दी है।’
दूसरे दिन अदालत लगी आलोक भी दर्शकों की गैलरी में मौजूद
था। सामने कठघरे में सिर झुकाये खड़ा था अतुल। उसे गीता की शपथ दिलायी गयी । दबी
आवाज में बुझे मन से उसने बुदबुदा दिया कि जो कहेगा, सच कहेगा, सच के सिवा कुछ नहीं कहेगा।
सरकारी वकील ने सुनवाई की शुरुआत की-‘ जज साहब! यह अपराधी
जो कठघरे में खड़ा है,बेहद
शातिर अपराधी है। इसने उस लड़की का खून किया है जो इसे दिल की
गहराइयों से चाहती थी।’
‘नहीं यह
झूठ है। मैंने रोमा का खून नहीं किया। मैं बेकसूर हूं जज साहब!’ अतुल चिल्लाया।
‘लाश के
पास से खून सने हाथों पकड़े जाने पर भी बेकसूर होने का दावा करते हो?’
सरकारी वकील की बात सुन बचाव पक्ष के वकील ने कहा-‘मेरे काबिल दोस्त माफ
करें। खून सने हाथ पकड़ा जाना अतुल को कातिल साबित करने के लिए काफी नहीं है। क्या
किसी ने उसे रोमा कत्ल करते देखा है?’
सरकारी वकील-‘ चश्मदीद गवाह भी मिल जायेगा। अब जब गवाही शुरू हुई है तो
एक-एक कर बहुत-सी चीजें सामने आ जायेंगी।’
‘तो जनाब
पहले वही कीजिए। बिना किसी ठोस सबूत के आप एक बेकसूर को क्यों कसूरवार साबित करने
पर तुले हैं। अपने गवाह पेश कीजिए।’
‘वही कर
रहा हूं। मेरे पहले गवाह हैं डांसर रोमा के सेक्रेटरी राकेश।’
राकेश ‘विटनेस बाक्स’ में जाकर खड़ा हो गया। उसे भी सच कहने की शपथ दिलायी गयी।
सरकारी वकील ने पूठा-‘ राकेश! आपने रूम नंबर 213 में जो भी
देखा बयान कीजिए।’
राकेश बोला-‘ चीख-पुकार सुन मैं बाहर आया। मैंने रूम नंबबर 213 में खून
से लथपथ पड़ी रोमा की लाश देखी और सामने खून से सने हाथ लिए अतुल खड़ा था। मुझे यह
समझते देर नहीं लगी कि अतुल ने ही खून किया है।’
सरकारी वकील-‘ बस मुझे आपसे और कुछ नहीं पूछना। बचाव पक्ष के वकील चाहें
तो गवाह से पूछताछ कर सकते हैं।’
बचाव पक्ष के वकील ने पूछा-‘ अच्छा राकेश जी,आपने कैसे समझ लिया कि
खून अतुल ने ही किया है?’
राकेश-‘जिस रात मैडम की हत्या हुई थी उसी शाम उनसे अतुल का बहुत
झगड़ा हुआ था और वह उनके कमरे से बड़े गुस्से में बाहर निकल गया था।’
‘बस इतने
से आपने अंदाज लगा लिया कि अतुल ने ही रोमा का खून कर दिया है।’
‘हां!
गुस्से में आदमी कुछ भी कर सकता है।’
‘गुस्सा
तो आपको भी आता होगा मिस्टर राकेश! आपके रोमा से कैसे संबंध थे?’
‘बहुत
मधुर, बहुत अच्छे। वे मुझ पर
बेहद यकीन करती थी।’
‘मक्कार
है, झूठा है यह। इस कमीने
से दिल की गहराई तक नफरत करती थी रोमा। उसने एक बार मुझे बताया था कि इसकी उसके धन
के साथ-साथ तन पर भी बुरी नजर है। खूनी मैं नहीं यह है। रोमा इसके भुलावे में नहीं
आयी तो इसने उसे मार ही डाला ।’ अतुल चीखा।
‘आप
कितने साल से उसके साथ काम कर रहे हैं? ’
‘कई साल
हो गये।’
‘आपको
याद आता है कि रोमा की किसी से दुश्मनी रही हो? ’
‘नहीं
मुझे नहीं याद आता।’
‘क्या
आपने अपनी आंखों से अतुल को रोमा का खून करते देखा है? ’
‘जी नही
।’
‘जज साहब!
यह प्वाइंट नोट किया जाये।मुझे इस गवाह से कुछ और नहीं पूछना।’
सरकारी वकील ने कहा-‘मेरे दूसरे गवाह हैं इंस्पेक्टर अजित वागले। उन्होंने ही
अतुल को गिरफ्तार किया है।’
इंस्पेक्टर वागले विटनेस बाक्स पर जा खड़े हुए।अदालत की
रस्मी कार्रवाई के बाद सरकारी वकील ने उनसे पूछा-‘इंस्पेक्टर साहब! आपको हत्या की सूचना कैसे
मिली। आपने जो भी देखा बयान कीजिए।’
‘होटल
ड्रीमलैंड से फोन पर इत्तिला मिलते ही मैं वहां पहुंचा। मैंने लाश के पास अतुल को
देखा । उसके हाथ रोमा के खून से सने थे। कातिल वही है यह सोच मैंने उसे गिरफ्तार
कर लिया।’
‘ठीक है। अब बचाव
पक्ष के वकील चाहें तो वे इंस्पेक्टर से
सवाल कर सकते हैं।’
बचाव पक्ष के
वकील ने पूछा-‘इंस्पेक्टर
साहब आप सिर्फ एक सवाल का जवाब दीजिए, क्या आपने अतुल को खून करते देखा है? ’
‘नहीं।’
‘जज साहब! यह प्वाइंट
नोट किया जाये। इंस्पेक्टर साहब से मुझे और कुछ नहीं पूछना।’
जज ने कहा-‘यह मुकदमा काफी उलझता
जा रहा है। जब तक फिंगर प्रिंट और पोस्टमार्टम की रिपोर्ट नहीं आ जाती तब तक के
लिए कार्रवाई स्थगित की जाती है।’
जज साहब की बात
सुन आलोक ने भी राहत की सांस ली। दूसरे दिन वह पुणे रवाना हो गया। शाम को वह ललिता
का डांस देखने के लिए पुणे के कलामंच हाल में पहुंच गया। महफिल जम गयी थी । सब
घुंघरुओं की छनछन और नृत्य की लय में डूबे थे।
अचानक
धांय-धांय की आवाज के साथ कलामंच के स्टेज पर एक युवती गिर कर छटपटाने लगी। पल भर
पहले छनकते घुंघरू, गमकती
तबले की थाप और दूसरे साज यों खामोश हो गये, जैसे काठ मार गया हो। उन्हें छोड़ साजिंदे ग्रीनरूम में जा
घुसे। थोड़ी देर पहले जहां खुशी का माहौल था, वहां कोहराम मच गया। पिस्तौल दगने की आवाज से सबके दिल दहल
गये। नृत्य की लय में डूबे दर्शकों में आपाधापी मच गयी। एक-दूसरे को रौंदते
-धकियाते लोग हाल से बाहर भागने लगे। कार्यक्रम के आयोजक घायल पड़ी युवती की ओर
लपके। पुणे शहर में यह अपने ढंग की पहली घटना थी ।
एक लड़की उस
घायल युवती से लिपट कर रो रही थी। 'यह क्या हुआ दीदी।' यह ललिता थी जिसके नृत्य का कार्यक्रम स्टेज पर चल रहा था।
गोली लगने से वह युवती बेहोश हो गयी थी। आयोजक उसे कार में लिटा नजदीकी अस्पताल ले
गये।
इस बीच वारदात
की सूचना पुलिस को दे दी गयी।आते ही पुलिस ने सारे हाल की घेराबंदी कर ली और हाल
में बाकी बचे दर्शकों से पूछताछ शुरू कर दी।
ललिता के नृत्य
कार्यक्रम की कवरेज के लिए गया आलोक भी इस अचानक हुए हादसे से सकते में आ गया। अब
उसे ललिता के परफार्मेस से ज्यादा उस युवती के बारे में जानने की उत्सुकता थी, जिस पर गोली चली थी।
आलोक ने देखा
पुलिस इंस्पेक्टर वारदात के बारे में लोगों से पूछताछ कर रहे हैं। हाल में मौजूद
दर्शकों की तलाशी भी ली जा रही है।
पुलिस
इंस्पेक्टर ने एक दर्शक से पूछा-'आपने क्या देखा,गोली किधर से चली?'
दर्शक-'साब। हम तो नाच का
आनंद ले रहे थे हमने तो सिर्फ गोली चलने की आवाज सुनी और स्टेज पर युवती को गिरते
देखा।'
इंस्पेक्टर-'आवाज किधर से आयी थी?'
दर्शक-'माफ कीजिए साब । तबले
की थाप,घुंघरुओं की रुनझुन के
बीच हम यह किस तरह से गौर करते कि गोली किस दिशा से दगी है।'
इंस्पेक्टर-'कितने फायर होने की
आवाज सुनी आपने?'
दर्शक-'दो।'
इंस्पेक्टर-'फायर की आवाज के बाद
किसी को भागते देखा?'
दर्शक-'किसी को क्या, सभी दहशत से इधर-उधर
भाग रहे थे। हम ही बदनसीब थे जो आपाधापी में भीतर ही फंस गये और आपके हत्थे चढ़
गये। दहशत में तो हैं ही ऊपर से आपके यह अटपटे सवाल।'
पास खड़े एक
दूसरे दर्शक ने चिढ़ते हुए कहा-'माफ कीजिएगा। सांप तो कब का निकल गया अब तो लकीर पीट रहे
हैं आप।'
इंस्पेक्टर ने
भौहें तरेरीं-'क्या
मतलब है आपका?'
दर्शक-'यही कि आप क्या सोचते
हैं कि गोली चलानेवाला वारदात करके इत्मीनान से यहां बैठा होगा। वह तो कब का शहर
भी छोड़ चुका होगा।'
इंस्पेक्टर-'ये भाषण झाड़ने की
बड़ी बुरी आदत लग गयी है आप लोगों को। पुलिस की मदद तो करेंगे नहीं, बैठ जाते हैं उपदेश
देने।'
इसके बाद
इंस्पेक्टर ने कार्यक्रम आयोजकों में से एक को पकड़ा।
इंस्पेक्टर-'क्या नाम है आपका?'
'जी! विकास।'
'यह कार्यक्रम आप करा
रहे थे?'
'जी हां।'
'आपने इस वारदात के
वक्त जो भी देखा बयान कीजिए।'
'कार्यक्रम पूरे जोश पर
था। हॉल में अंधेरा छाया था। अचानक दो बार गोलियां चलने की आवाज हुई और मंच पर
गिर कर एक युवती छटपटाने लगी। उसके बाद हॉल में कोहराम मच गया। जिसे जिधर जगह मिली, भागने लगा।'
इंस्पेक्टर-'क्या आप घायल होने
वाली युवती को जानते हैं?'
'जी नहीं।'
'उसके बारे में कुछ भी
जानकारी हो तो बताइए।'
'सिर्फ इतना जानते हैं
कि वह डांसर ललिता के साथ आयी थी और उसके घायल होने पर ललिता ही उससे लिपट कर रोने
लगी थी।'
'यह ललिता कहां मिलेगी?'
'वह उसी घायल युवती के
साथ अस्पताल गयी है।'
'ठीक है। अब ललिता से
ही इसका सुराग पाने की कोशिश करेंगे.'
गोली चलने की
वारदात का कोई सूत्र हाथ लगने की उम्मीद से पत्रकार आलोक भी पुलिस अधिकारी के साथ
लगा था। अब उसने भी यहां ठहरने के बजाय अस्पताल जाने की सोची। वह सोच रहा था कहां
आए थे सांस्कृतिक कार्यक्रम की रिपोर्टिंग करने और पल्ले पड़ गयी अपराध कथा।
पुलिस अधिकारी
से पहले ही आलोक अस्पताल पहुंच गया। बेड
पर बेहोश पड़ी घायल युवती के चेहरे पर नजर
पड़ते ही वह सन्न रह गया। वह जो कुछ देख रहा था, उस पर उसे यकीन नहीं हो रहा था लेकिन जो कुछ वह जागती
आंखों से देख रहा था , उसे
झुठला भी नहीं सकता था। उस युवती के चेहरे को गौर से देखने के बाद उसके दिमाग में
कई तरह के खयाल घुमड़ने लगे। बेड के पास बैठी ललिता सुबक रही थी।
उसने ललिता से
पूछा-'ये कौन है?'
'मेरी डांस टीचर शांता
दीदी।'
'इनके बारे में कुछ और
जानकारी दे सकती हैं आप।'
'आप कौन हैं जनाब?'
' मैं मुंबई के 'न्यूज टाइम' का रिपोर्टर आलोक हूं।
इस कार्यक्रम के कवरेज की खातिर आया था।'
'ओह! ठीक है लेकिन मैं
अभी बेहद विचलित हूं। कुछ बता पाने की स्थिति में नहीं हूं। मुझे माफ कीजिए प्लीज।'
आलोक अस्पताल
से नाउम्मीद हो वापस आ गया। वह रहस्य की एक ऐसी अंधेरी सुरंग में फंस गया था, जहां से कोई राह नहीं
सूझ रही थी। इस वक्त उसे अपने दोस्त अतुल की याद आ रही थी जो हत्या के आरोप में
हिरासत में है। वह शांता का रहस्य जानना चाहता था लेकिन उसके पास वक्त नहीं था। उसे
कल ही मां को कार्डियोलाजिस्ट को दिखाना है। पहले से अप्वाइंटमेंट ले रखा है। सुबह
ही उसे मुंबई वापस लौटना ही होगा।
रात होटल में
बिता सुबह ही आलोक मुंबई वापस लौट गया। पुणे शहर के नृत्य कार्यक्रम में युवती पर
गोली चलने की खबर उसने फोन पर ही दे दी थी।
वह आज उसके अखबार के पहले पेज पर छपी थी।
वह सीधे अपने
घर गया और मां को डाक्टर के पास ले गया। डाक्टर ने कुछ दवाएं लिख दीं और पूरी तरह
से आराम करने की सलाह दी। मां को घर में छोड़ आलोक ने अपने दोस्त प्राइवेट जासूस
विनोद के घर की राह ली। विनोद उसके अनुरोध पर उस ड्रीमलैंड हत्याकांड की जांच कर
रहा था, जिसके आरोप में अतुल
हिरासत में है।
विनोद किसी
उपन्यास के पन्नों में खोया था। आलोक को आया देख वह बोला-'अरे भाई आलोक आओ।'
'क्यों विनोद !ड्रीमलौंड
हत्याकांड का कोई सुराग मिला?'
'नहीं यार। इतनी जल्दी
पता चलनेवाला नहीं है।'
'यार जल्द कुछ करो नहीं
तो बेचारा अतुल बेकसूर होतते हुए भी सजा पा जायेगा।'
'क्या करूं यार,मुझे तो खुद भी फिक्र
है लेकिन सारे सबूत,सारे
हालात उसके खिलाफ हैं, उसे
हत्यारा साबित करते हैं।'
'अरे विनोद! मैं
तुम्हें एक बात बताना भूल गया। मैं एक कार्यक्रम के कवरेज के लिए पुणे गया था।
वहां स्टेज पर एक युवती पर गोली चला दी गयी। वह जख्मी हो गयी। जानते हो उसकी शक्ल हूबहू
उस रोमा से मिलती है जिसकी हत्या के आरोप में अतुल हिरासत में है।'
'क्या?'विनोद चौका।
'हां!हूबहू रोमा जैसी
है वह युवती। मैं खुद हैरत में हूं।'
'वह बच तो गयी है?'
'हां!अस्पताल में
है।उसकी बांह में गोली लगी है।'
'तुमने उससे बात की।
उसका कुछ अता-पता पूछा?'
'बात करना तो चाहा
लेकिन कर नहीं सका।वह बेहोश थी। सिर्फ इतना जानता हूं कि वह उस ललिता की डांस टीचर
है, जिसका कार्यक्रम देखने
मैं पुणे गया था।'
'तुम्हें वहां दो -एक
दिन रुक कर उसका रहस्य जाना चाहिए था।'
'क्या करता,रुकना तो चाहता था
लेकिन डाक्टर से आज का अप्वाइंटमेंट था, मां को दिखाना था। क्या करूं भूल हो गयी।'
'भूल तो हो गयी। मुमकिन
है उस युवती पर गोली चलने और रोमा के कत्ल में कुछ संबंध हो। अब तो मुझे रोमा
हत्याकांड का रहस्य और गहराता नजर आ रहा है।'
'अब किया क्या जा सकता
है?'
'परेशान होने की कोई
बात नहीं। तुम ऐसा करो एक बार अतुल से और मिलो। उससे रोमा हत्याकांड का पूरा
ब्यौरा लो। जो उसने देखा,जो कुछ हुआ। मुमकिन है उसके बीच से ही कोई सुराग मिल जाये।'
'मैं खाक सुराग ढूंढ़
पाऊंगा। एक बात करो कल मेरे घर आ जाओ साथ चलते हैं। तुम्ही बेहतर समझ सकोगे कि
अतुल की कौन सी बात तुम्हारे काम की होगी। मैं तो सिर्फ इतना जानता हूं कि अतुल
बेकसूर है। उसने रोमा का खून नहीं किया।'
'तुम यह बात इतने यकीन
के साथ कैसे कह रहे हो। हालात आदमी से कुछ भी करवा सकते हैं। अच्छे-अच्छे का ईमान
डिगते देखा है मैंने।'
'नहीं यार!मैं दावे के
साथ कह सकता हूं कि अतुल बेकसूर है। जानते हो दो जिस्म मगर एक जान का-सा रिश्ता था
दोनों में। वह रोमा से शादी करने वाला था लेकिन उसका सुख का संसार बसने से पहले ही
उजड़ गया।'
'मुमकिन है कैरियर के
ग्लैमर ने रोमा को इरादा बदलने पर मजबूर किया हो। उसने शादी के लिए ना कर दी हो और
उसी गुस्से व जलन में अतुल हत्या जैसा संगीन अपराध कर बैठा हो।'
'यार तुम जासूस लोग
बेहद शक्की होते हो। इसीलिए तो कहता हूं कल खुद चलो और जहां जो शक-सवाल हो उसके
बारे में अतुल से जान लो।'
'ठीक है कल मै तुम्हारे
यहां पहुंच जाऊंगा।'
विनोद के घर से वापस लौट
आया आलोक। जब से उसने पुणे में रोमा की हमशक्ल शांता को देखा था,बराबर रोमा उसके
खयालों में आ रही थी। नहा-धोकर, खना खाकर वह आराम करने के लिए लेटा लेकिन आंखों में नींद का नाम न था। रह -रह कर
आता रोमा का खयाल।
उसे याद आयी वह
शाम जब नागपुर के एक मशहूर हाल में उसने पहली बार रोमा का नृत्य कार्यक्रम देखा
था। सारे हॉल में अंधेरा था और मंच पर उभरते रंग-बिरंगे उजालों के बीच थिरक रही थी
रोमा। उसके पैरों में बिजली की गति थी और अंगों में बला का लोच। उसके नृत्य के
जादू और रूप के उजाले से चौधिया गया था आलोक। उस कार्यक्रम की समीक्षा उसने बड़े
मन से लिखी थी। इतने दिनों बाद उसने देखा था कि शालीन भंगिमाओ वाला नृत्य भी
दर्शकों का मन जीत सकता है। शीर्षक भी उसने यही लगाया था।
दूसरे दिन वह
दफ्तर में आया ही था कि रिसेप्शन से फोन आया-'आलोक जी! कोई मिस रोमा आपसे मिलना चाहती हैं, भेज दें?'
पहले वह इस नाम
से चौंका,फिर कहा-'भेज दीजिए।'
थोड़ी देर बाद
उसने देखा कि सिर से पैर तक बला की खूबसूरत एक लड़की उसके ही एक सहयोगी से पूछ रही
है-'आलोक जी कहां मिलेंगे?'
जवाब मिला-'वो सामने बैठे हैं,
नीली कमीज पहने।'
इसके बाद रोमा
उसके सामने थी-'नमस्ते
आलोक जी! मैं रोमा हूं। आपकी बेहतरीन समीक्षा यहां तक खींच लायी।'
'अच्छा! अच्छा! बैठिए।
बताइए और क्या कर सकता हूं मैं आपके लिए।'
'जी मैं चाहती हूं कि
अगर आप मेरा एक छोटा इंटरव्यू निकाल दें तो बहुत बेहतर होगा। शायद उसके बाद कैरियर
को एक सही मोड़ देने की राह मिल जाए।'
'इंटरव्यू भी कर देंगे।
आप जैसे कलाकारों तो मौका मिलना ही चाहिए।'
'देखिए,आप सबकी मेहरबानी रही
तो बात बन ही जाएगी।'
चाय आ गयी थी।
रोमा चाय की चुस्कियां ले रही थी और आलोक चोर नजरों से उसकी खूबसूरती को नख-शिख तक
नाप रहा था। खूबसूरती से तराशी गयी अजंता
की मूरत-सी थी रोमा। पतले संतरे की फांकों से होंठ,हंसती आंखें,सुराहीदार गरदन और
छरहरा शरीर। कुल मिला कर हुस्न की एक मुकम्मल तसवीर।
'अच्छा तो चलूं। आज शाम
को फिर प्रोग्राम है। अब एक ही शहर में रहते हैं तो मुलाकात होगी।'
उसके बाद से
रोमा अक्सर नागपुर के 'प्रभात
संदेश' के दफ्तर में आलोक से
मिलती रही। इस तरह दोनों का परिचय लगातार बढ़ता गया। परिचय बढ़ा तो रोमा भी आलोक
के सामने खुलती गयी। कुछ अरसे में ही वह रोमा के सुख-दुख का हमराज बन गया। नागपुर
में रोमा का प्रोग्राम होता तो उसका कवरेज आलोक ही करता था।
इस बीच एक दिन
रोमा ने उसे अपने घर भी बुलाया। वहीं वह अतुल से पहली बार मिला। अतुल के बारे में
रोमा ने उसे बताया-'मेरा
सच्चा साथी है अतुल। इस शहर में मैं अकेली हूं और यह एकमात्र सहारा है। इसके लिए
आपको एक तकलीफ करनी पड़े़गी। '
'क्या?'
'आप इसके लिए कोई
छोटे-मोटे काम का इंतजाम कर दीजिए,बहुत परेशान है।'
'ठीक है। हमारे दफ्तर
भेज दीजिएगा। वहां क्लर्क की एक जगह खाली हुई है।'
उसकी कोशिश से
अतुल को नौकरी भी मिल गयी। बेहद सीधा,संकोची स्वभाव का है अतुल। रोमा को दिलोजां से चाहनेवाला
अतुल भला उसका खूनी कैसे हो सकता है? फिर सवाल के फेर में फंस गया आलोक। पुणे में शांता पर गोली
चलने के रहस्य के व्यूह को वह अब तक नहीं
भेद पाया था। रोमा हत्याकांड की समस्या तो पहले से ही थी।
वह जब तक
नागपुर में रहा, रोमा से
मुलाकात होती रही। अतुल को तो उसके आफिस में ही काम मिल गया था। रोमा खुश थी और
भविष्य के सिंदूरी सपने बुनने लगी थी। इस बीच रोमा से जुड़े एक और व्यक्ति से भी
आलोक परिचित हो चुका था। राकेश नाम का वह व्यक्ति रोमा के कार्यक्रम वगैरह की
देखरेख की जिम्मेदारी निभाता। वही आलोक के
आफिस में प्रोग्राम के कार्ड वगैरह दे आता था।
उसके बाद 'न्यूज टाइम' का अच्छा आफर पाकर
आलोक मुंबई चला आया और रोमा से उसका रिश्ता सिर्फ चिट्ठियों का ही रह गया। मुंबई
कार्यक्रम देने आने से पहले रोमा ने आलोक
को पत्र लिख कर जानकारी थी कि वह अतुल से शादी करने वाली है। मुंबई में यह
उसका पहला प्रोग्राम था, जो उसकी जिंदगी का आखिरी प्रोग्राम बन गया।
उसे वह सुबह आज
तक याद है जिस दिन वह राकेश का फोन पाकर भागा-भागा ड्रीमलैंड के रूम नंबर 213
पहुंचा था। वहां रोमा का मुर्दा जिस्म उसके सामने था।
इन सारी यादों
से उसका दिमाग बोझिल हो चला था। उसने टेप डेक पर मेंहदी हसन की गजल का एक कैसेट
लगाया और 'प्ले स्विच आन' कर दिया। 'यूं ही पहलू में बैठे
रहो,आज जाने की जिद न करो' पूरे कमरे में गूंजने लगी पुरअसर आवाज और आलोक की
खयालों से बोझिल पलकें जाने कब मुंद गयीं।
'उठिए भी। आफिस नहीं
जाना।' पत्नी सविता की आवाज
से आलोक की नींद टूट गयी।
हाथ-मुंह धोकर
उसने चाय पी और तैयार होकर आफिस चला गया। आफिस में भी यार-दोस्तों ने उससे पुणे
में हुए गोलीकांड के बारे में जानकारी चाही। वह जितना जानता था उसने बयान कर दिया।
लेकिन उसके दिमाग में रह-रह कर शांत और रोमा की शक्लें उभर रही थीं। दोनों की
शक्लों में इतनी समानता है कि एक बार तो अतुल
भी धोखा खा जाए। अतुल का ध्यान आते ही उसे याद आया उसे कल सुबह उससे मिलने
जाना है। उसने जल्द अपना काम निपटाया और न्यूज एडीटर से थोड़ा जल्द छुट्टी लेकर घर
लौट आया। सविता उसके इंतजार में देर रात चलनेवाले प्रोग्राम में समय काट रही
थी। घर पहुंच उसने खाना खाया और बिस्तार
पर लेट गया। जब तक अतुल को बेकसूर साबित नहीं कर लेता उसके मन में एक बेचैनी है।
नींद नहीं आ रही थी। रह-रह कर उसके दिमाग में रोमा हत्याकांड से जुड़े खयाल उभरते।
उसने एक उपन्यास उठा लिया और उसके पन्नों पर नजर दौड़ाने लगा। कुछ देर बाद ही उसे
नींद आ गयी।
सुबह आलोक की
नींद आठ बजे खुली । उसने बेड टी ली और बाथरूम चला गया। जब तक नहा-धो कर निकला,सविता ने नाश्ता तैयार
कर दिया था। साढ़े नौ बजते-बजते विनोद आ गया।
उसने आलोक से
बताया-'मैंने थाना प्रभारी से
फोन पर बात करके अतुल से मिलने का वक्त ले लिया है। हमें ग्यारह बजे से पहले वहां
पहुंचना है।'
'ठीक है। आओ नाश्ता कर
लो फिर चलते हैं।'
बिना किसी
हीला-हवाला के विनोद आलोक के साथ ही नाश्ता करने लगा।
आलोक के तैयार
होते-होते दस बज गये। उसके घर से टैक्सी में थाने पहुंचने में बीस-पच्चीस मिनट
लगते थे। उन्होंने टैक्सी की और थोड़ी देर बाद ही दोनों थाने के दरवाजे पर थे।
थाना प्रभारी
से इजाजत ले वे उस लाकअप में पहुंच गये जहां अतुल बंद था।
आलोक को देखते
ही अतुल फूट-फूट कर रोने लगा और बोला-'मुझे बचा लो भैया। मैं बिल्कुल बेकसूर हूं। तुम्ही बताओ
रोमा तो मेरी जिंदगी थी,भला उसे
मैं कैसे मार सकता हूं।'
आलोक-'मैं तो पूरी कोशिश कर
रहा हूं अतुल। मामले की सुनवाई आगे बढ़े उससे पहले ही मैं तुम्हारे बेकसूर होने का
ठोस सबूत जुटाना चाहता हूं। उसके बगैर तुम्हें निर्दोष साबित करना आसान नहीं। देखो
इसीलिए मैं आज अपने दोस्त विनोद को साथ लाया हूं। ये प्राइवेट जासूस हैं और रोमा
हत्याकांड की असलियत जानने की कोशिश कर रहे हैं।'
'बड़ी मेहरबानी भैया।
तुम्हारा ही तो आसरा है। मुझे कुछ हुआ तो मेरी बूढ़ी लाचार मां और छोटे भाई का
क्या होगा। वे दूर नागपुर में पता नहीं
किस हाल में होंगे। मैं यहां मुंबई में सलाखों कैद हूं।'
'तुम मां जी और सुरेश
की चिंता मत करो। तुम्हारे दिये पते पर मैंने उन्हें पैसे भेज दिये हैं।'
विनोद-'अतुल! तुम कहते हो
तुमने खून नहीं किया जबकि तुम्हें खून सने हाथों के साथ रूम नंबर 213 से रोमा की
लाश के पास से गिरफ्तार किया गया था। अगर खून तुमने नहीं किया तो फिर किसने किया।'
'मैं नहीं जानता भैया।'
'तुम रोमा को कब से
जानते हो?'विनोद ने पूछा।
'नागपुर में हम उनके
पड़ोसी थे। वहां रोमा अकेली रहती थी और नृत्य कार्यक्रम दिया करती थी। वहीं
जान-पहचान फिर प्यार हुआ। यह बात आलोक बाबू जानते हैं। आप इनसे पूछ सकते हैं।'
'तमने कहा रोमा नागपुर
में अकेली रहती थी। वह मूलतः कहां की रहने वाली थी । उसके घर में और कौन-कौन है?'
'जितना उसने मुझे बताया
था वह जबलपुर की रहनेवाली थी। वहां से रोजी-रोटी की तलाश में नागपुर आ गयी। कुछ
काम न मिला तो नृत्य ही शुरू कर दिया जिसकी बाकायदा तालीम उसने ली थी। जहां तक
उसके परिवार का जिक्र है तो उसने मुझे सिर्फ अपने बूढे़ मां-बाप भर के बारे में
बताया है। वह उन्हें लगातार पैसे भेजा करती थी। उनके अलावा परिवार में और कोई है
इसकी मुझे जानकारी नहीं है। मैंने कभी इस बारे में कुछ पूछने की जरूरत नहीं महसूस
की।'
'क्या रोमा की किसी से
दुश्मनी थी?'
'जहां तक मुझे पता है
ऐसा कुछ नहीं था। रोमा जैसी निश्छल-प्यारी सी लड़की दे सकती है तो सिर्फ प्यार। वह
किसी से लड़ाई-झगड़ा या नफरत करती रही हो ऐसा मुझे नहीं याद आता।'
'रोमा का मुंबई आना
कैसे हुआ और उसका खून किस तरह हुआ?'
'नागपुर में नृत्य
कार्यक्रम देकर रोमा ने काफी नाम कमा लिया था। उसका सेक्रेटरी राकेश उसे लेकर
बड़े-ब़ड़े सपने देख रहा था। वह चाहता था कि रोमा नाम कमाये। मुंबई के फिल्म जगत
में कदम जमाये। हीरोइन बना देना चाहता था वह उसे। चाहता था कि वह अनाप-शनाप पैसे
कमाये तो उसे भी अपनी जेब भरने का मौका मिले। यहां एक संस्था ने रोमा को नृत्य
कार्यक्रम के लिए बुलाया था। नगर में यह उसका पहला कार्यक्रम था और इसी बार राकेश
ने उसे फिल्म निर्माताओं से मिलाने की ठान ली थी।'
'राकेश कैसा आदमी है?'
'मैं कोर्ट में अपने
पहले बयान में ही कह चुका हूं,बेहद लालची,लंपट और कमीना है वह। उसकी नजर न सिर्फ रोमा के पैसे बल्कि
उस पर भी थी। पैसे तो वह अक्सर मारता था। इसे लेकर रोमा से उसकी चखचख भी खूब होती
थी। रोमा मुझसे कुछ नहीं छुपाती थी। उसकी हर बदमाशी बयान करती थी। अभी दो दिन पहले
ही शराब के नशे में वह रूम नंबर 213 में घुस गया था। नशे में धुत राकेश अंट-शंट
बकने लगा था और अजीब हरकतें करने लगा था। रोमा ने उसे डांटा और बाहर निकल जाने को
कहा। बाहर निकलते-निकलते राकेश ने धमकी दी थी-देख लूंगा तुझे जलील लड़की। तेरा
कैरियर बनाने के लिए दिन का चैन रातों की नींद हराम कर दी। तू मुझ पर ही ऐंठ रही
है। फिल्मी परदे की जीनत बनने की तुम्हारी ख्वाहिश को पूरा करने के लिए मैंने
कितने लोगों के दर पर नाक रगड़ी। बड़ी मुश्किल से कुछ फिल्म निर्माताओं को मना
पाया हूं। खैर। मैं भी देख लूंगा तुझे। बहुत उड़ने लगी है, तेरे पर कतरने ही
होंगे।'
'राकेश की ऐसी हरकत के
बाद भी रोमा ने उसे निकाला क्यों नहीं?'विनोद ने पूछा।
'बहुत चालाक है राकेश।
उसने दूसरे दिन ही रोमा के पैर पकड़ कर माफी मांग ली। मैडम शराब के नशे में जो
बदतमीजी हुई उसके लिए माफ कर दें। यकीन दिलाता हूं फिर ऐसी गलती कभी नहीं करूंगा।
सीधी-सादी रोमा मान भी गयी। उसकी मजबूरी थी। यहां परदेश में राकेश के अलावा दूसरा
आदमी तुरत उसे मिलता भी कहां जो उसके सेक्रेचरी का काम संभाल लेता। मैं भी नागपुर
लौटने वाला था। राकेश को हटा देती तो इतने बड़े नगर में रोमा अकेली रह जाती।'
'अच्छा आलोक ने मुझे
बताया है कि राकेश ने अपने बयान में कहा है कि जिस रात रोमा की हत्या हुई उस शाम
तुम्हारा उससे काफी झगड़ा हुआ था। क्या यह सच है?'
'हां यह सच है।'
'किस बात पर हुआ था
झगड़ा?'
'रोमा अपने नृत्य कार्यक्रम
के बाद भी दो-चार दिन मुंबई में रुकना चाहती थी। राकेश ने फिल्म निर्माताओं से उसे
मिलवाने का इंतजाम किया था। मुझे यह कतई पसंद नहीं कि रोमा फिल्मों में जाए। मैं
डर रहा था कि ग्लैमर की यह दुनिया कहीं मेरी रोमा को मुझसे छीन न ले। अतुल भैया
जानते हैं उसने घर बसाने का मन बना लिया था और जल्द ही हम शादी करने वाले थे। ऐसे
में उसका यह बदलाव मुझे कतई गवारा नहीं हुआ। मैं उसे समझाने उस शाम ड्रीमलैंड के
रूम नंबर 213 में गया था। उसे समझाने की लाख कोशिश की कि फिल्मों के चक्कर में न
पड़े चुपचाप कार्यक्रम दे और नागपुर लौट चले लेकिन वह उलटे मुझे उपदेश देने लगी कि एक कलाकार क्या
चाहता है,अपनी कला का
प्रचार-प्रसार। वही उसकी भी तमन्ना है और फिल्में कभी उसके प्यार के बीच दीवार
नहीं बनेंगी। मुमकिन है कैरियर के मद्देनजर उसे शादी कुछ दिन के लिए टालनी पड़े।
इसी पर मुझे तैश आ गया। मैं न जाने क्या कुछ बक गया -रोमा तुम्हें पैसा-शोहरत ही
प्यारी है।,
मेरी
भावनाओं की कोई कद्र नहीं। बड़ी खुदगर्ज हो तुम। एक सीधे-सादे शख्स का दिल दुखा कर
तुम्हें सुख नहीं मिलेगा। तुम्हें लेकर एक सुखद जिंदगी का सपना देखा था उसे तुम
फिल्मी मोह से चकनाचूर कर रही हो। यही सब कह मैं गुस्से में बाहर निकल आया था।
मुझे क्या पता था कि रोमा माफी मांगने का भी मौका नहीं देगी। दूसरी सुबह जब उसे
मनाने उसके रूम में गया तो देखा मेरे अरमानों का खून हो चुका था। बाद का वाकया तो
आप जानते ही हैं।' रोमा की
याद आते ही अतुल की आंखें फिर नम हो गयीं।
अतुल ने जितना
कुछ बताया था उसे सुन कर विनोद आलोक से बोला-'अब तो राकेश से मिलना भी जरूरी है। शायद वह
इस रहस्यमय हादसे पर कुछ रोशनी डाल सके। कहां मिलेगा वह?'
'ड्रीमलैंड होटल में।'
'चलो अभी चलते हैं।'
विनोद की बात
सुन आलोक चुपचाप उसके साथ हो लिया। जब वे दोनों होटल पहुंचे राकेश अपने रूम में
किसी मैगजीन के पन्नों में खोया था।
आलोक को वह
पहचानता ही था। उसका नाम लेकर ही बोला-'आइए आलोक बाबू। क्या बात है आज मेरी याद कैसे आ गयी। आपके
साथ ये जनाब कौन हैं?'
'यों ही चले आये हैं।
रोमा हत्याकांड के बारे में कुछ जानकारी चाहिए। ये मेरे दोस्त विनोद हैं,प्राइवेट जासूस। इस
हत्याकांड का रहस्य जानने में भी ये दिलचस्पी ले रहे हैं।'
'रहस्य आपको लगता होगा।
मुझे तो पूरा यकीन है कि खून अतुल के हाथों हुआ है। उसे ही सजा होनी चाहिए।
'लेकिन अतुल तो तुम्हें
कातिल मानता है। उसने तो तुम पर यह इलजाम भी लगाया है कि तुम रोमा के पैसे मारते
थे। उस पर तुम्हारी बुरी नजर थी। उसका तो यहां तक कहना है कि रोमा की मौत के दो
दिन पहले इसी बात को लेकर तुम्हारा उससे झगड़ा भी हुआ था। शराब के नशे में तुम रोमा से ऊल-जलूल बक गये थे और रोमा ने
तुम्हें डांट कर भगा दिया था। क्या यह सच है?' विनोद ने एक साथ बहुत कुछ कह डाला।
'अतुल ने यह सब कहा है।
अच्छी कहानियां गढ़ लेता है वह। लेकिन ऐसी कोई भी कहानी उसे बेगुनाह नहीं साबित कर
सकती। उसे सजा होकर रहेगी।'
अभी विनोद और
आलोक राकेश के पास बैठे बैठे उसकी बातें सुन रहे थे कि अचानक खिड़की के परदे के
पार हलचल हुई। विनोद को लगा कि कोई वहां छिप कर उनकी बातें सुन रहा है। उसने सोफे से उठ कर ज्योंही खिड़की के
पार झांकना चाहा झीने परदे के बाहर की ओर कोई
साया तेजी से सीढि़यों की ओर बढ़ता नजर आया। विनोद बिना कुछ बोले झट बाहर निकल गया। उसने देखा एक वेटर तेज कदमों
से नीचे उतर रहा है। विनोद एक खंभे की ओट में छिप गया। वह उस वेटर को तब तक देखता रहा, जब तक वह सीढ़ियां
नहीं उतर गया। उसे यह देख ताज्जुब हुआ कि वह दो सीढी उतरता और ठिठक कर शंकित
निगाहों से पीछे देखने लगता जैसे उसे यह डर हो कि कहीं कोई उसे देख न ले। यह देख
कर विनोद को बहुत आश्चर्य हुआ कि आखिर इसे किस बात का खौफ है। यह हमारी बातें छिप
कर क्यों सुन रहा था। इन्हीं सवालों से घिरा विनोद वापस कमरे में लौट आया।
आलोक ने पूछा-'क्या बात है विनोद तुम
अचानक इस तरह बाहर क्यों निकल गये थे?'
'मुझे लगा बाहर कोई है।'
'कौन था?'राकेश ने पूछा।
'कोई नहीं। मेरा भ्रम
था।'
'वाकई रहस्य की ऐसी
अंधेरी सुरंग में फंस गये हैं हम कि कुछ सूझता ही नहीं। हालात अतुल के कातिल होने
के संकेत देते हैं,अतुल
राकेश पर शक करता है पर असली कातिल है कौन?'आलोक ने कहा।
'एक न एक दिन पता चल ही
जाएगा आलोक । अभी तो हमें राकेश जी का शुक्रिया अदा करना चाहिए जिन्होंने हमारी
इतनी मदद की। इनसे विदा लेनी चाहिए। इन्हें ज्यादा डिस्टर्ब करना अच्छा नहीं।'
'नहीं, नहीं, ऐसी कोई बात नहीं ।
आलोक जी मेरे अपने हैं। आप उनके मित्र हैं
तो आप भी पराये नहीं। आप लोगों के रहने से डिस्टर्ब होने का भला क्या सवाल है।'
'नहीं अब चलते हैं। इस
केस के बारे में मदद की जरूरत पड़ी तो आपको फिर तकलीफ देंगे। 'आलोक ने कहा।
'नहीं इसमें तकलीफ की
क्या बात है। रोमा के कातिल को सजा दिलाना तो मेरा भी फर्ज है। जब जरूरत महसूस
करें आप बेखटके आ जाइए। फिलहाल कुछ दिन तो मुझे यहीं रुकना पड़ेगा। देखना है यह
केस क्या मोड लेता है।'
'ठीक है चलते हैं।' कह कर आलोक विनोद के
साथ होटल ड्रीमलैंड से बाहर आ गया। होटल के लॉज में और बाहर खूब चहल-पहल थी। उसे देख कर ऐसा लगता ही नहीं था कि वहां कुछ
दिन पहले कोई हादसा हुआ है। आलोक सोचने लगा धीरे-धीरे यादमी कितना संवेदनहीन होता
जा रहा है। अब उसे कोई भी हादसा उतना विचलित नहीं करता। दो दिन पहले यहां एक निर्दोष युवती ने जान
गंवायी और आज दर्द का कोई निशां नहीं। फिर उसने खुद ही जैसे अपने सवाल का जवाब दे
डाला। ठीक ही तो है । इस तरह किसी के जाने से दुनिया थमने लगे तो उसका कारोबार ही
ठप हो जायेगा।
रास्ते में
विनोद ने आलोक से कहा-'आलोक!
हम परसों ही पुणे चलेंगे। हमें हर हाल में शांता से मिलना चाहिए। मुमकिन है रहस्य
की इस पर्त से कुछ परदा हट सके।'
'ठीक है। मैं तैयार
रहूंगा । तुम मेरे घर आ जाना वहीं से चलेंगे।'
'ठीक है।' कह कर विनोद अपने घर
चला गया और आलोक ने अपने घर की राह ली।
घर पहुंच कर
विनोद ने सबसे पहले अपने निजी सहायक विवेक से फोन पर बात की।
विनोद का फोन
पाकर विवेक चहका-'गुरु
जी! बहुत दिन से ऊंघते , ताश
खेलते दिन काट रहा हूं। कोई काम बताइए ना।'
'काम है और बेहद जरूरी।'
'क्या है फौरन से पेशतर
बताइए।'
'होटल ड्रीमलैंड में एक
वेटर है, रंग सांवला, ऊंचाई तकरीबन पांच फुट, कंजी आंखें और काफी
स्मार्ट दिखनेवाला। उसके बारे में पूरी जानकारी चाहिए। दो दिन के अंदर यह काम हो
जाना चाहिए। वह कहां रहता है, किससे मिलता है पूरा-पूरा ब्यौरा। सारा काम होशियारी से
होना चाहिए। किसी को भनक तक न मिले। मैं परसों पुणे जा रहा हूं। एक दिन बाद
लौटूंगा।'
'आप बेफिक्र रहिए गुरु
जी! वेटर तो क्या उसकी सात पीढ़ियों की जन्मपत्री मैं आपके सामने खोल दूंगा। सारा
कच्चा चिट्ठा आप जान जायेंगे। शुक्रिया उदास बैठा था, आपने कोई काम तो दिया।
अब वेटर की खुल जाएगी हर काली करतूत। भागे बच न पायेंगे बेटा हो या पूत।'
'बस भी करो विवेक यह
कविता बंद करो। कभी तो बात को गंभीरता से लिया करो।'
'गुरु जी! जिस दिन मैं
गंभीर हो गया समझो गया। शायद आप भी यह नहीं चाहेंगे। वैसे काम के वक्त मैं वक्त की
नजाकत देख कर रंग बदल ही लेता हूं।'
'ठीक है बाबा जो मन आये
करो। मेरा काम होना चाहिए।'
'हो जाएगा।'
एक दिन बाद ही विनोद और
आलोक पुणे के लिए रवाना हो गये। स्टेशन पर उतर कर विनोद ने पूछा-'यार आलोक तुम्हारे पास
ललिता का पता है तो?'
'नहीं यार! वह अस्पताल
में इतनी दुखी थी कि मैं उसका पता पूछना ही भूल गया। अब क्या करें। ललिता का पता
मिले बगैर शांता तक पहुंचना मुश्किल है।'
'एक उपाय है सीधे
कलामंच चलते हैं। वहां से नृत्य कार्यक्रम आयोजकों का पता मिल जायेगा। वे तो ललिता
का पता जरूर जानते होंगे।'विनोद ने सुझाया।
'हां, यही ठीक रहेगा।'कह कर आलोक ने एक
रिक्शा किया । दोनों उसमें बैठ गये। आलोक ने रिक्शा वाले को कलामंच ले चलने को
कहा।
पंद्रह -बीस
मिनट में वो कलामंच हाल के सामने थे। अंदर जाकर आलोक ने मैनेजर से सारी बातें कीं
और ललिता के कार्यक्रम आयोजकों का पता मांगा।
उसकी बातें सुन
कर मैनेजर बोला'आप
पत्रकार हैं आपकी मदद करने में हमें खुशी ही होगी लेकिन देखिएगा कहीं हम किसी
लफड़े में न पड़ जाएं। जब से हॉल में गोली चली है हम वैसे भी बेहद परेशान हैं फिर
पुलिस का झमेला तो और भी झंझट पैदा करता है।'
'नहीं आपको डरने की कोई
जरूरत नहीं। हम कहीं किसी से आपका जिक्र ही नहीं करेंगे।'आलोक ने मैनेजर को
आश्वस्त किया।
मैनेजर ने आलोक
को आयोजकों का पता दे दिया। दोनों ने कलामंच के बाहर से एक रिक्शा पकड़ा और
कार्यक्रम आयोजकों के घर पहुंचे। आलोक पत्रकार है यह सुन कर उन्होंने ललिता का पता
दे दिया।
ललिता की कोठी
के सामने रिक्शा रुका। आलोक ने देखा सामने विशाल कोठी है। उसके द्वार पर एक बड़ा
फाटक है जिसमें एक दरबान मुस्तैदी से बैठा है।
आलोक ने उसके
पास जाकर कहा-'ललिता
जी से मिलना है।'
'आप कौन हैं, कहां से आये हैं?'
आलोक ने अपना
विजिटिंग कार्ड निकाल कर दरबान को थमा दिया। दरबान ने कहा-'आप यहीं रुकिए. देखते
हैं।'
उसने आवाज दी-'रामचरण! जरा बाहर आना।'
घर के भीतर से
एक आदमी आया और दरबान से बोला-'क्या बात है बिसेसर भाई।'
'देखो यह कार्ड भीतर
बेबी को दो, कहना ये बाबू साब उनसे मिलना चाहते हैं।'
रामचरण भीतर
गया और थोड़ी देर बाद बाहर आकर आलोक और विनोद से बोला-'बेबी जी आपको बुला रही
हैं।'
आलोक को देख कर
ललिता बोली-'आपको तो
पहचान रही हूं आप तो मेरे कार्यक्रम में आये थे। शांता दीदी को देखने अस्पताल भी
गये थे।, लेकिन ये कौन हैं?'
'ये मेरे दोस्त हैं
विनोद।'आलोक ने परिचय दिया।
'कहिए मैं आपके लिए
क्या कर सकती हूं?'
'आप अपनी शांता दीदी से
मिलवा दीजिए।, बहुत
जरूरी बात है।'
'लेकिन शांता दीदी तो
बाहरी आदमी से मिलती नहीं।'
'पर हमारा उनसे मिलना
बेहद जरूरी है। किसी की जिंदगी-मौत का सवाल है।'
'ठीक है,बुलाती हूं।'कह कर ललिता ने नौकर
रामचरण को आवाज दी और शांता को बुला लाने को कहा।
कुछ ही देर बाद
ही शांता वहां आ गयी। आलोक तो उसे पहले देख चुका था लेकिन विनोद ने नहीं देखा था।
उसने रोमा की तस्वीर देखी थी और अपने सामने हूबहू रोमा को खड़ा देख हैरान था।'
शांता ललिता के
पास ही सोफे पर बैठ गयी। और उसने आलोक से पूछा-'कौन है आप लोग, मुझसे क्या चाहते हैं।'
आलोक बोले इससे
पहले ही ललिता ने बताया-'दीदी!ये मेरा कार्यक्रम देखने आये थे। पत्रकार हैं।,आलोक नाम है। ये उस
वक्त अस्पताल भी गये थे आपसे मिलने लेकिन गोली चलने के सदमे से आप बेहोश थीं इसलिए
आपसे बात नहीं कर पाये।'
'मेरे पास आप क्या
उम्मीद लेकर आये हैं?'
'हमारे लिए आपकी जिंदगी
की पूरी कहानी जानना बहुत जरूरी है।'
'क्या मैं जान सकती हूं
कि मेरी जिंदगी से अचानक आपको इतनी दिलचस्पी क्यों हो गयी है। मैं वर्तमान को जीती
हूं अतीत इतिहास बन चुका है जिसे याद करना मेरी फितरत में नहीं है।'
'लेकिन यह किसी की
जिंदगी-मौत का सवाल है।'
'कौन है वह?'
'मेरा दोस्त अतुल।'
'लेकिन मैं इस नाम के
किसी व्यक्ति को नहीं जानती। कौन है वह,क्या हुआ उसे?'
'वह कत्ल के इंतजाम में
हिरासत में बंद है। इस लड़की का उसने कत्ल कर दिया है।'यह कह कर विनोद ने जेब
से निकाल कर रोमा की फोटो शांता के सामने कर दी।
फोटो देखते ही
शांता चौक गयी। वह बोली-' कब कहां हुआ इसका खून?'
'अभी कुछ दिन पहले।
मुंबई के होटल ड्रीमलैंड के रूम नंबर 213 में। लेकिन आप यह फोटो देख कर चौंकी
क्यों?'
'यह तो मेरी छोटी बहन
है रोमा।'
'क्या रोमा आपकी बहन थी?'
'हां, मुझ बदनसीब की ही बहन
थी यह। बहुत भोली, निश्छल।
पता नही इससे किसे क्या तकलीफ थी?'
विनोद ने कहा-'देखिए हम हर हाल में
रोमा के कातिलों तक पहुंचना चाहते हैं। आप पर भी तो स्टेज कार्यक्रम के दौरान गोली
चली थी। अपनी जिंदगी के बारे में बताइए शायद हमें उसमें से कोई राह मिल जाए। आपको
यह यकीन तो हो ही गया होगा कि हम आपके दुश्मन नहीं।'
'क्यों शर्मिंदा करते
हैं। दरअसल मेरी जिंदगी का कोई पहलू ऐसा नहीं जिसे याद कर मुझे खुशी हो या मैं फख्र महसूस कर सकूं। इसीलिए सब कुछ भूली
रहना चाहती हूं। पर अब लगता है फिर उन डरावनी यादों से गुजरना होगा। खुशियों से
भरा था हमारा बचपन। पिता जी अच्छी नौकरी
में थे। उन्होंने खुशी-खुशी हम दोनों बहनों को नृत्य की तालीम दिलायी। उनकी आंखों
की दो पुतलियों की तरह थीं मैं और रोमा। मुझे याद है मैं तब सोलह-सत्रह की रही
हूंगी,जब पिताजी रिटायर हो
गये। उनकी पीएफ, ग्रैच्युटी
के जो पैसे मिले उनसे ठीक-ठाक गुजारा हो रहा था कि अचानक हम पर तकदीर की मार
पड़ी। पिता जी को एक रात अचानक लकवा मार
गया। तुरंत अस्पताल ले जाने और इलाज होने से उनकी जिंदगी तो बच गयी लेकिन वे पूरी
तरह से अपाहिज हो गये और उनकी सांसें डाक्टरी गोलियों की मोहताज। घर का जो पैसा था
धीरे-धीरे उनके इलाज में खप गया। मां बेहद चिंतित रहने लगी कि आखिर परिवार का खर्च
कैसे चलेगा। अपने शहर जबलपुर में मैंने काम की बड़ी तलाश की पर कहीं कोई काम नहीं मिला। सोचा जो नृत्य सीखा
है वह कब काम आयेगा। मन में कुछ ठान कर
मां को दिलासा दिया और रायपुर आ गयी। वहां
कुछ दिन के संघर्ष के बाद ही मेरे कदम जम गये। मैं नृत्य कार्यक्रम देने लगी और घर
पैसा भेजती रही। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था । वहीं रायपुर में मेरी जोसेफ नाम के एक
लड़के से पहचान हुई जो धीरे-धीरे दोस्ती में बदल गयी। हम दोनों एक-दूसरे को बेहद
चाहने लगे। एक दिन जोसेफ मेरे पास आया और बोला-'मैं मुंबई जा रहा हूं। वहां कुछ बनने की
कोशिश करूंगा। कुछ बन पाया तो तुम्हें भी बुला लूंगा और अपन शादी बना लेंगे।'मुझे दिलासा देकर वह
चला गया । दो महीने बाद उसका खत आया जिसमें लिखा था -'फौरन मुंबई चली आओ। अब
सोचती हूं कि मैं उसकी बात न मानतो तो अच्छा होता।'
'क्यों क्या हुआ उसके
बाद?'आलोक ने पूछा।
'उसके बाद मैं रायपुर
से मुंबई चली गयी। जोसेफ से मिली। उसने मुझ कभी यह नहीं बताया था कि वह मुंबई में
क्या काम करता है। उसके साथ कुछ दिन रहने के बाद ही मै यह जान गयी वह अपराध जगत की
कीचड़ में गहरे धंस गया है और मैं उस गिरोह का हिस्सा बन गयी हूं जिसके लिए वह काम
करता है।'
'लेकिन आप तो नर्तकी
हैं आप नृत्य कार्यक्रम देती थीं फिर मुंबई में क्या करने लगीं। अपराध जगत में
कैसे फंसी?'
'वहां भी मैं नृ्त्य
कार्यक्रम ही देती थी। जोसेफ ने मुझे खत में दिलासा दिया था कि वह मुझे फिल्मों
में काम दिलाने की कोशिश करेगा और बात बन गयी तो फिर चैन से जिंदगी गुजारेंगे।
लेकिन हुआ कुछ और। देश भर में मैं अपने नृत्य कार्यक्रम देने लगी। ये नृत्य कार्यक्रम तो छलावा थे इसके
दौरान तस्करी के माल की अदला-बदली होती, बाहर से आये सोने को देश में खपाने की योजनाएं बनतीं।
बड़े-बड़े तस्कर और दूसरे लोग दर्शक के रूप में आते और उन्हें भेंट किये गये
गुलदस्तों में या तो सोने के बिस्कुट होते या फिर हीरोइन या हशीश। रुपयों का लेन-देन ग्रीन रूम में हो जाता था।
हम उन शहरों में जिन होटलों में ठहरते थे वहां भी बड़े-बड़े व्यापारी और कुछ लोग
नेता आते थे। हमारे साथ के लोगों से उनकी खूब छनती थी।हमारे साथ जो लोग ते उनमें
से सिर्फ एक का नाम हम जानते थे-जग्गू दादा। जोसेफ, मुझे और हमारे जैसे दूसरे लोगों को वही हिदायत देता था। दूर विदेश
तक फैला है इन लोगों का कारोबार।'
'क्या काम करता था यह
अपराधी गिरोह। इसका प्रधान कौन था?'विनोद ने पूछा।
'हत्या, अपहरण,तस्करी और दूसरे कई
अपराध। बहुत ही संगठित है उनका गिरोह। वे आसानी से अपना काम कर जाते हैं। पुलिस को
उसका सुराग तक नहीं मिलता। मिलता भी है तो उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाता क्योंकि
बड़े-बड़े नेताओं तक उनकी पहुंच है। वे सब
उनसे मिलने वाली माहवार भेंट के एवज में बिके हुए हैं। गिरोह का प्रधान कौन है हमें पता नहीं। हमारे सामने
सिर्फ इतना कहा जाता था-बॉस नाराज हो जायेंगे। हमें कभी उससे मिलवाया भी नहीं गया।
हम तो बस जग्गू दादा का हुक्म बजाते थे। मुझे इस पाप में डूबी जिंदगी से बेहद नफरत
थी। मैं अक्सर जोसेफ को कोसती कि वह मुझे किस नरक में ले आया।
'हद तो तब हो गयी जब
मुझसे होटल में आने वाले असरदार लोगों का मनोरंजन करने के लिए कहा गया। मैंने इस
पर सख्त एतराज किया और कहा-मरते मर जांऊंगी जिस्म नहीं बेचूंगी। दूसरे ही दिन
जग्गू ने मुझसे छेड़खानी करने की कोशिश की। जोसेफ उस वक्त था नहीं। वापस आया तो
मैं उस पर बरस पड़ी-क्या मुझे बेचने के लिए मुंबई बुलाया था ।अब मुझे तुम्हारे लिए
जिस्म का धंधा भी करना होगा।'
'यह सब सुन कर जोसेफ
बहुत खफा हुआ और बोला-क्या बकती हो!मेरे जीते जी कोई तुम पर नजर उठा कर तो देखे, आंखें नोच
लूंगा।' इल पर मैंने कहा-'आंखें ही नहीं, हाथ भी उठा दिया है।
वह
चीखा-'किसने?'
'जग्गू दादा ने। वे चाहते हैं कि मैं उन सबका
मनोरंजन करूं जिनकी मदद से वे बेखौफ अपराध जगत में राज करते हैं।'
'उसकी ये मजाल! अभी
देखता हूं। कह कर 'जोसेफ निकल गया।
'थोड़ी देर बाद
लौट कर आया तो उसके हाथों में खून लगा था। मैं डर गयी।
उसने समझाया-'डरो मत मैंने खून नहीं किया हां जग्गू
की इतनी मरम्मत जरूर कर दी है कि वह अब तुम पर आंख नहीं उठा पायेगा। मुझे धमकी दे
रहा था कि बॉस से शिकायत कर देगा कि मैं दगाबाजी कर रहा हूं, उसके दुश्मनों से मिल
गया हूं। मुझे तबाह कर देने की बात कह रहा था। अरे मर गये तबाह करने वाले।'
मैंने जोसेफ को
समझाया-'अब तो यह नरक छोड़ दो। यहां तो मेरी आबरू पर भी बन आयी है। देखो इस दुनिया से जुड़ गयी तो अपने घर-परिवार से ही
कट गयी हूं मैं। पता नहीं मां-बाप, बहन का क्या हाल है। अब तो उनके लिए मैं मर
चुकी। जो जी रही है उस तरह की शांता की तो उन्होंने कभी कल्पना नहीं की थी। ' मेरे
समझाने का जोसेफ पर असर पड़ा। वह न सिर्फ यह धंधा बल्कि मुंबई छोड़ने को भी राजी
हो गया।
'उस दोपहर हम
वीटी स्टेशन से गुजर रहे थे। हम ट्रेन पकड़ कर नागपुर आने वाले थे। अभी हम स्टेशन
की ओर बढ़ रहे थे कि तेजी से गुजरती एक काली कार हम पर गोलियों की बौछार करती गुजर
गयी। जोसेफ का शरीर गोलियों से छलनी हो गया और वह वहीं पर ढेर हो गया। मैं एक खंभे
की ओट में आ गयी थी फिर भी बांह में गोली लग गयी। दहशत के मारे जोसेफ की लाश वहीं
छोड़ मैं बेतहाशा एक गली की ओर भागी। बांह से झर-झर खून बह रहा था । पास ही एक
क्लीनिक देख मैं धड़धड़ाती हुई वहां घुस गयी। वहां बैठे डाक्टर दिनेश मिश्र मुझे
पहचानते थे। मेरा कार्यक्रम देख चुके थे।
वह बोले -'ये
क्या हुआ ?'
'डाक्टर
साहब! अपराधी गिरोह मेरे पीछे पड़ा है। वे मुझे मार डालना चाहते हैं। मुझे
बचाइए।मैं किसी भी तरह से आज ही मुंबई छोड़ कर जाना चाहती हूं।'
'ठीक
है। ठीक है पहले यह तो देखने दो कि जख्म कितना गहरा है।' यह कह कर उन्होंने बांह
देखी और बोले-'भगवान का लाख-लाख शुक्रिया कि गोली तुम्हारी हड्डी में धंसी नहीं,
खरोंचते हुए निकल गयी। घाव मामूली है मैं दो टांके लगाये देता हूं। कुछ दवाइयां
साथ दे दूंगा, दो-चार दिन में घाव सूख जाएगा।'
'
मैं यहां से निकल कर गुमनाम जिंदगी जीना चाहती हूं।'
'ठीक
है मेरी चिट्ठी लेकर पुणे चली जाओ। वहां रामप्रसाद सिन्हा को अपनी बेटी ललिता के
लिए एक डांस टीचर की जरूरत है। मैं लिखे देता हूं कि वे हमेशा के लिए तुम्हें अपने
यहां रख लें।'
'डाक्टर
साहब की चिट्ठी लेकर मैं यहां चली आयी। सोचा था कि जिंदगी चैन से गुजर जाएगी लेकिन
उन हत्यारों के लोग देश-विदेश के जर्रे-जर्रे में फैले हैं। उनमें से किसी की नजर
मुझ पर पड़ गयी और एक बार फिर मुझे खत्म करने की कोशिश की गयी। मेरी तकदीर अच्छी
थी कि मैं बच गयी।'
आलोक
ने कहा-'बहुत-बहुत शुक्रिया। मुमकिन है आपने जो बताया है उससे हमें कुछ मदद मिल सके। अब चलते हैं। अगर जरूरत
महसूस हुई तो फिर तकलीफ देंगे।'
'इसमें
तकलीफ की क्या बात है। मैं तो खुद चाहूंगी कि मेरी बहन के कातिल पकड़े जायें। इससे
बड़ी खुशी मेरे लिए क्या हो सकती है।'
शांता
की कहानी सुनने के बाद आलोक और विनोद मुंबई वापस लौटने के लिए स्टेशन की ओर बढ़ लिये। उसी शाम वे मुंबई पहुंच गये। घर पहुंचते ही विनोद
ने अपने सहायक विवेक को फोन किया-'क्यों कवि महाराज!जो कविता लिखने की जिम्मेदारी
मैंने तुम्हें सौंपी थी उसके कितने बंद रचे हैं?'
'गुरु आप लौट आये। सारे बंद तैयार
हैं, आप कहें तो अभी आकर सुना दूं।'
'नहीं,
नहीं, रात में तकलीफ करे की जरूरत नहीं. अभी थका हूं कविता सुनने का मूड नहीं, कल
ही पधारें।'
'जो आज्ञा गुरुवर।'
फोन रख कर विनोद ने रात का खाना खाया
और बिस्तर पर लेट गया। पुणे में शांता ने अपनी जो कहानी सुनाय़ी थी , वह अब तक उसके
दिमाग में चक्कर काट रही थी। वह उससे कोई सूत्र खोजने की कोशिश कर रहा था। तरह-तरह
के सवाल दिमाग में उठ रहे थे। सवालों के इ भंवरों के बीच पलकें कब झपक गयीं, उसे
पता ही नहीं चला।
उधर आलोक भी बहुत परेशान था। रोमा
को वह अरसे से जानता था । इतने दिनों के परिचय के बाद उससे उसका सिर्फ एक पत्रकार
और कलाकार भर का नाता नहीं रह गया था।
दोनों में गहरी आत्मीयता हो चुकी थी। फिर रोमा उसके दोस्त अतुल की प्रेमिका भी
थी।रह-रह कर उसके खयालों में रोमा व शांता की शक्लें उभरने-मिटने लगीं। उसे अतुल की
चिंता थी। शांता से मिलने के बाद से उसे यह उम्मीद बंध रही थी कि शायद विनोद असली
हत्यारे का पता लगाने में कामयाब हो सकेगा और अतुल बेकसूर साबित हो सकेगा। यही सब
सोचते-सोचते उसे नींद आ गयी।
सुबह विनोद नाश्ता वगैरह करके बैठा ही था तभी विवेक आ गया।
'गुरुवर
के चरणों में प्रणाम। कहिए अब तो मूड है कविता सुनने का?'
'अरे यार मजाक
छोड़ो। वह तो फोन पर यों ही कहा था कि
कहीं क्रास कनेक्शन होकर हमारी गुफ्तगू दुश्मन के कानों में न पहुंच जाए। अब सब
कुछ सीधे और साफ लहजे में कहो।'
'तो सुनिए। आपने जिस वेटर के बारे में पता लगाने के लिए कहा था उसका सारा कच्चा चिट्ठा मैंने
जुटा लिया है। आपने
जो कद –काठी बतायी थी, उसके आधार पर ही मैंने उसे खोज निकाला।'
'लेकिन तुम्हें
कामयाबी मिली कैसे?'
'आपका
हुक्म पाने के बाद मै दूसरे दिन ही होटल ड्रीमलैंड के इर्द-गिर्द चक्कर काटते हुए उस वेटर के बाहर
निकलने का इंतजार करने लगा। वह निकला तो मैं दबे पांव उसके पीछे हो लिया। मैं बहुत
सावधान था कि कहीं वह मेरी मंशा न ताड़ जाए। वह थोड़ी दूर की एक बस्ती की पतली
गंदी गली में घुस गया। मैं भी उससे कुछ फासला रखते हुए गली में उसके पीछे चलने
लगा। वह एक नुक्कड में देशी शराब के ठेके में घुस गया। मैं भी चुपचाप अंदर हो
लिया। '
'उस
शराब के ठेके में तुमने क्या देखा-सुना?'
'वही
तो बताने जा रहा हूं। मुझे लगता है, हम असली अपराधी तक पहुंच गये हैं।'
'कैसे?'
'वहां मैंने वेटर को एक पेशेवर हत्यारे रग्घू से बात करते देखा। रग्घू को उसके
मुहल्ले के लोग गुंडा और पैसे लेकर कत्ल करे वाले आदमी के रूप में जानते हैं।
हिस्ट्रीशीटर है वह। उसका एक पैर थाने में ही रहता है। वैसे है किस्मत का धनी। अब
तक कोई उसके खिलाफ गवाही देने की हिम्मत नहीं जुटा पाया इसलिए वह बचता आया है। सब
डरते हैं कि गवाही दी तो वह या उसके लोग मार डालेंगे।'
'वेटर
ने रग्घू से क्या बातें कीं?'
'वह
बोला यार रग्घू वो रूम नंबर 213 वाला लफड़ा तो बहुत तूल पकड़ता जा रहा है। आज ही
दो आदमी रोमा के सेक्रेटरी राकेश से मिलने आये थे और काफी पूछताछ कर रहे थे। यार
मैं तो समझता था कि उस डांसर के प्रेमी अतुल ने ही खून किया होगा लेकिन वे लोग अभी
भी खोजबीन कर रहे हैं।'
'इस
पर रग्घू ने क्या कहा?' विनोद ने पूछा।
रग्घू
बोला-'करने दे खोजबीन। तेरी जान क्यों निकली जा रही है, तूने हत्या की है क्या?'
वेटर-'हत्या
मैने!नहीं, नहीं। रग्घू तुम नशे में हो लेकिन मेरी एक बात का सच-सच जवाब दो। जिस
रात हत्या हुई थी, मुझे घूस देकर तुम भी तो रोमा के कमरे में गये थे। कहीं ये
हत्या तुमने तो नहीं की?'
'क्या
बकते हो, मैं भला क्यों हत्या करने लगा। मुझे तो बस उससे एक जरूरी चीज लेनी थी जो
मेरे बड़े काम की थी। वह ली और वापस लौट आया। तुमने भी तो मुझे तुरत वापस लौटते
देखा था।'
'हां
देखा तो था लेकिन...।'
रग्घू-'सुरेश
लेकिन-वेकिन कुछ नहीं रूम नंबर 213 और रोमा को मारो गोली। गटको अंगूर की बेटी और
भूलो सारे गम।'
इतना
हाल सुना कर विवेक बोला-'उनकी ये सारी बातें सुन कर मैंने यह अंदाज लगाया है कि हो
न हो खून रग्घू ने किया है और वेटर ने इसमें उसकी मदद की है। अब आप जो मुनासिब समझें करें। वैसे मेरे खयाल से
जितना जल्द हो वेटर और रग्घू को पुलिस हिरासत में लिया जाना चाहिए।'
'तुम
ठीक कहते हो विवेक ! मैं आज ही इंस्पेक्टर वागले से बात करता हूं।'
विवेक
ने विनोद की परेशानी काफी हद तक हल कर दी थी। उसे रग्घू और वेटर पर शक था। शक की
बिना पर उन्हें गिरफ्तार करवा कर रहस्य अगलवाया जा सकता है यह सोच उसने पोन पर
इंस्पेक्टर वागले से बात करनी चाही।
संयोग
से फोन इंस्पेक्टर वागले ने ही उठाया और बोला-'हैलो! इंस्पेक्टर वागले हियर।'
'वागले
साब नमस्कार। मैं विनोद बोल रहा हूं। रोमा हत्याकांड के सिलसिले में दो आदमियों पर
शक जाता है। मुझे उम्मीद उन्हें गिरफ्तार कर उन पर दबिश डालने से बात बन सकती है।'
'आप
कहते हैं तो यह भी कर देखते हैं। मुझे उनका पता-हुलिया बता दीजिए।'
'एक
तो ड्रीमलैंड का वेटर है सुरेश और दूसरा
शहर के उत्तर में स्थित बस्ती का गुंडा रग्घू।'
'रग्घू
तो हमारा जाना-पहचाना आसामी है। वेटर सुरेश का पता आपने दे दिया। बस अभी दोनों को
दबोच लेते हैं। '
'धन्यवाद।
दरअसल मैं अपने दोस्त आलोक के लिए चिंतित हूं जो अतुल को बेकसूर साबित करना चाहता
है। वह इस सबको लेकर बेहद परेशान है।'
'हमसे
जो बन पड़ेगा करेंगे मिस्टर विनोद। हम भी नहीं चाहते कि किसी निर्दोष को सजा
मिले।'
दोनों को सीधे इंटेरोगेशन चेंबर में ले जाया
गया क्योंकि सीधे ढंग से उनसे कुछ भी नहीं उगलवाया जा सकता था।
वेटर
सुरेश तो पुलिस के दो-चार बेंतों से ही कांप गया। उसने बताया-'खून किसने किया मुझे
पता नहीं। मैंने पैसे लेकर रग्घू को अंदर जाने दिया था बस । इसके अलावा मैं कुछ
नहीं जानता।'
रग्घू
पर बेंतों का कोई असर नहीं पड़ा। वह कहता रहा-'मैं कुछ नहीं जानता। मैं तो एक
जरूरी बात के लिए रोमा के पास गया था बस।'
उससे
पूछताछ करने वाले पुलिस आफीसर ने कहा-'सीधे से अपने जुर्म का इकबाल कर लो नहीं तो
थर्ड डिग्री लगायी तो जिंदगी बर्बाद हो जायेगी।'
'मैं
कह तो रहा हूं कि खून के बारे में मुझे कुछ भी नहीं मालूम।'
'ओह तुम्हारी
चमड़ी तो थाने में बेंत खाते-खाते गैंडे की हो गयी है, तुम सीधे से सच्चाई उगलने
वाले नहीं। अब तो हमें अपना आखिरी उपाय इस्तेमाल ही करना होगा। देखना तुम तो क्या
तुम्हारी रूह कांप जायेगी।'
इसके बाद रग्घू
को उलटा लटका दिया गया और तलवों, कूल्हे और हाथों पर बेंतों की बौछार शुरू हो गयी।
हर बेंत पर वह चीख पड़ता। कुछ देर बाद उसका सारा शरीर इस कदर झन्नाने लगा जैसे
हजारों बिच्छुओं ने डंस लिया हो। वह बेहोश हो गया।
पूछताछ करने वाले आफीसर ने पास खड़े अपने सहायक से कहा-'पानी डालो। इसे होश
में लाओ। यह क्या इसकी रूह तक बोलेगी।'
सिर पर पानी के छपाके पड़ते ही रग्घू को होश
आ गया। वह हांफ रहा था।
पास खड़े एक पुलिस वाले ने कहा-' साब! ये
कहीं मर न जाये। यह हमारे बड़े काम हा है।'
'मरता है तो मरे। चलो, अब इसे उतारो।
इलेक्ट्रिक शॉक देना है।'
रग्घू गिड़गिड़ाया-' मुझे मत मारिए।'
पुलिस आफीसर-' अभी भी सच उगल दो इसी में
तुम्हारी भलाई है। हत्या भी की होगी तो उम्र कैद मिलेगी। हमसे उस्तादी की तो हम
यहीं तुम्हारा कचूमर निकाल देंगे।'
'मैं इकबाल करता हूं कि उस डांसर की हत्या
मैंने की है। यह भी कि वेटर सुरेश ने देर रात को उसके कमरे में घुसने में मेरी मदद
की।'
'तुमने हत्या क्यों की?'
'हत्या करना मेरा पेशा है। मुझे पैसे मिले
मैंने मार दिया।'
'ठीक है। लेकिन पैसे किसने दिये थे?'
'जग्गू दादा ने।'
'लेकिन जग्गू दादा है कौन? उसने रोमा की हत्या क्यों करवायी?'
'मैं कसम खाकर कहता हूं जग्गू दादा के बारे में मैं कुछ नहीं जानता। उसने
मुझसे सिर्फ इतना भर कहा था कि वह डांसर पहले उसकी प्रेमिका थी, बाद में उसने उसके
साथ दगा की उसकी सजा ही उसने दिलायी।'
'क्या वाकई तुम जग्गू के बारे में कुछ भी नहीं जानते या बन रहे हो?'
'मेरा यकीन मानिए मैं उसके बारे में
कुछ नहीं जानता। हम लोग पैसे के लिए काम करते हैं। हमें हुक्म देनेवाला मंत्री है,
संतरी है या माफिया हम नहीं देखते।'
'ठीक है। कोर्ट में तुम्हें सच-सच, साफ-साफ बयान देना है। याद रखो, चालाकी की
तो खैर नहीं।'
'ठीक है साब।'
पूछताछ करनेवाले आफीसर ने रग्घू की बतायी बातें इंस्पेक्टर वागले से कह दीं।
इंस्पेक्टर वागले ने विनोद को थाने बुलाया और रग्घू की कही बातें बता दीं।
उधर जग्गू का पता करने के लिए शहर के कई
हिस्सों में पुलिस पार्टियां भेज दीं।
जग्गू का नाम सुनते ही विनोद बोला-'इंस्पेक्टर साहब! जग्गू पुणे में हो सकता
है। रोमा की बहन शांता वहां रहती है। उस पर भी वहां एक बार गोली चल चुकी है। वह बच गयी। मुमकिन है जग्गू उसे खत्म करने की
ताक में वहीं कहीं हो। उसे जल्द पकड़िए। उसकी पैठ अपराध जगत तक में है। उसे रग्घू
के पकड़े जाने की भनक मिल गयी तो वह आपकी पहुंच से दूर निकल जायेगा।'
'जानकारी देने के लिए शुक्रिया। आप हम पर भरोसा रखिए हम अभी पुणे पुलिस को
इत्तिला किये देते हैं। उम्मीद है कल सुबह तक वह हमारे हाथ आ जायेगा।'
वही हुआ भी। जग्गू इन सारी बातों से बेखबर पुणे में था। मुंबई पुलिस से पुणे
वालों को उसका हुलिया मिल गया था। उन्होंने उसे रात को ही धर दबोचा। सुबह दस
बजते-बजते वह वागले के थाने में था।
उसे थाने लाये अभी दो घंटे ही हुए थे कि वहां फोन घनघनाने लगे। कई बेनामी फोन
वागले के नाम आये जिनमें उसे जग्गू को छोड़ने के लिए कहा गया। न छोड़ने पर देख
लेने की धमकी भी दी गयी। वागले ने किसी से ज्यादा बात नहीं की। वे सोच रहे थे
कि एक अपराधी अचानक
इतना महत्वपूर्ण कैसे हो गया?
अभी वे यह सोच ही रहे थे कि एक वकील धड़धड़ाता हुआ उनके कमरे में आया और
बोला-'इंस्पेक्टर वागले आप हैं?'
'हां, मगर आप कौन है, यहां क्या काम है?'
' मैं वकील हू, जग्गू की जमानत लेने आया हूं।'
'लेकिन उसको जमानत तो किसी हाल में नहीं दी जा सकती। उसकी गवाही हमारे लिए
बहुत महत्वपूर्ण है। कल उसे कोर्ट में हाजिर करना है। हम उसकी जमानत कैसे दे दें?'
'मेरी बात आप मान लेते तो अच्छा था।'
'नहीं हर्गिज नहीं, यह नहीं हो सकता।'
'अच्छा मैं यहां से एक बार फोन कर सकता हूं?'
'हां, कीजिए।'
वकील ने नंबर डायल किया। उधर से हलो होते ही बोला-'साब! इस्पेक्टर मान नहीं
रहे। कहते हैं जमानत नहीं होगी। क्या आप खुद बात करेंगे। ठीक है।' कह कर वकील ने
रिसीवर इंस्पेक्टर की ओर बढ़ाते हुए कहा-'लीजिए, अब आप ही जवाब दीजिए।'
'मगर हैं कौन?'
'बात कीजिए, खुद जान जाएंगे।'
'हलो इंस्पेक्टर वागले बोल रहा हूं।'
'मैं मंत्री बोल रहा हूं। वो जग्गू को छोड़ दीजिए, हमारा आदमी है।'
'एक अपराधी को छोड़ दें। लेकिन उसकी गवाही हमारे लिए बहुत जरूरी है। उसे हम किसी
भी हाल में नहीं छोड़ सकते।'
'इसे हमारा हुक्म समझो।उसे छोड़ दो वरना मुसीबत में फंस जाओगे।'
'एक जिम्मेदार मंत्री होकर आप अपराधी की तरफदारी कर रहे हैं सर?'
'उपदेश मत दो। 'हां' या 'ना' में जवाब दो। उसे जमानत पर छोड़ोगे या नही?'
'नहीं।'
उधर से फोन पटक दिया गया। वकील वहीं खड़ा था। वागले ने कहा-'अब दफा हो जाइए।
आपके मंत्री जी को भी मैंने जवाब दे दिया है।'
वकील वहां से चला गया। वागले को अब जाकर इस बात का एहसास हुआ कि रोमा
हत्याकांड से जुड़े लोगों की पहुंच कितनी ऊंची है। मंत्री की बातें याद आते ही
उसका मन ग्लानि से भर गया। वह सोचने लगा जब व्यवस्था में ही खोट है तो उसके जैसे
ईमानदार आफीसर कब तक अपने मकसद में कामयाब होंगे।
दूसरे दिन पुलिस की कड़ी सुरक्षा के
बीच एक वैन में बैठा कर जग्गू को कोर्ट ले जाने के लिए निकाला गया। वैन के आगे
करीब दस मीटर की दूरी पर इंस्पेक्टर वागले की जीप थी। कोर्ट कुछ दूर ही रह गया था
कि अजीब हादसा हुआ। पता नहीं
आसपास की किस छत से एक शक्तिशाली बम वैन की छत पर गिरा। एक कान फाड़ देने वाले
धमाके की आवाज के साथ वैन के परखचे उड़ गये। सड़क भर में लाशों के चीथड़े उड़ गये। जग्गू के साथ-साथ वैन में बैठे
पुलिस वाले भी मारे गये। आसपास की दूकानों के शीशे टूट गये। वैन के परखचे
इंस्पेक्टर वागले की जीप तक पहुंचे। धमाके से वे दंग रह गये। उन्होंने तुरंत
वायरलेस से थाने में इस हादसे की खबर दी। कुछ ही देर में वहां ढेरों पुलिस आ गयी।
उसने पूरा इलाका घेर लिया और सर्च करने लगी।
इस्पेक्टर वागले जीप से कोर्ट की ओर बढ़े जहां रग्घू और सुरेश को गवाही के लिए
पहले ही ले जाया गया था।
कोर्ट में विनोद, आलोक और राकेश भी हाजिर थे।
सुनवाई शुरू हुई। अब तक पोस्टमार्टम की रिपोर्ट कोर्ट में आ चुकी थी। उसमें यह
साबित हो चुका था कि रोमा की हत्या रात एक-दो बजे के बीच हुई थी। जिस चाकू से
हत्या हुई थी उस पर कोई निशान नहीं पाये गये थे। लगता है कि हत्या करनेवाले ने दस्ताने पहन कर
हत्या की हो।
सरकारी वकील ने पहले सुरेश को कठघरे में बुलाया। वह कठघरे में आ गया तो उसने
पूछा-'तुम रग्घू को जानते हो?'
'हां।'
'हत्या के दिन क्या हुआ। साफ-साफ बयान करो।'
'रात डेढ़ बजे के करीब रग्घू होटल आया। उसने पता किया कि रोमा के कमरे मे किस
वेटर की ड्यूटी है। उसके बाद उसने मुझसे मदद मांगी कि उसे रोमा से हर हाल में बात
करनी है। उसने मेरे हाथों में नोटों का एक बंडल रख दिया। मैंने उसे डुप्लीकेट चाबी
थमा दी जिसे खोल कर वह अंदर गया और फिर थोड़ी देर में लौट गया। मुझे पता नहीं उसने
भीतर क्या किया। सुबह जब मैं चाय लेकर गया
तो मैंने वहां रोमा की लाश देखी और देखा की अतुल खून रंगे हाथों से खड़ा है। बस
इसके अलावा मैं कुछ नहीं जानता।'
सरकारी वकील ने कहा-'बस मुझे कुछ नहीं पूछना। बचाव पक्ष के वकील चाहें तो गवाह
से सवाल कर सकते हैं।'
बचाव पक्ष के वकील ने कहा-'नहीं मुझे गवाह से कुछ नहीं पूछना।'
इसके बाद सरकारी वकील ने रग्घू को कठघरे में बुलाया और शपथ आदि की रस्म के बाद
पूछा-'तुम इस हत्याकांड के बारे में जो कुछ जानते हो सच-सच बताओ।'
'यह खून मैंने किया है साब! इसके लिए जग्गू ने मुझे पैसे दिये थे। उसका कहना
था कि वह उस डांसर से बदला लेना चाहता है क्योंकि वह उससे प्यार करता था लेकिन
उसने उससे दगाबाजी की। उसी ने मुझे बताया कि वह डांसर होटल ड्रीमलैंड के रूम नंबर
213 में ठहरी है। मैंने वेटर सुरेश की मदद ली।
रूम का ताला खोला। रोमा गहरी नींद में थी। मैं हाथों में दस्ताने पहने था। एक
हाथ से मैंने उसका मुंह दबाया और दूसरे हाथ से चाकू सीधा सीने में उतार दिया। वह
छटपटायी, 'ऊं', 'आह' किया और शांत पड़ गयी। मैं जल्दबाजी में दरवाजा खुला छोड़
वापस लौट आया।'
वकील, 'उसके बाद तुम जग्गू से मिले?'
'हां, मैं दो एक हफ्ते बाद मिला तो जग्गू ने कहा कि धोखा हो गया। जिस लड़की को
मारना था वह तो पुणे में देखी गयी है। इसमें मेरा कोई कसूर नहीं था। मैंने तो उसी
लड़की का खून किया था जिसकी फोटो मुझे जग्गू ने दी थी। मैं अपने जुर्म का इकबाल
करता हूं। मुझे जो चाहें सजा दें।'
सरकारी वकील, 'और मुझे कुछ नहीं पूछना। बचाव पक्ष के वकील चाहें तो गवाह से
पूछताछ कर सते हैं।'
बचाव पक्ष के वकील ने कहा, 'जब अपराधी ने जुर्म का इकबाल कर लिया है तो मैं
सिर्फ यही कहना चाहूंगा कि अतुल बेकसूर है, उसे छोड़ दिया जाये।'
अतुल को बाइज्जत रिहा कर दिया गया। जग्गू को उम्र कैद और हत्या में मददगार
वेटर सुरेश को छह साल की कैद की सजा हुई।
अतुल अदालत के दरवाजे में ही आलोक से लिपट गया। उसकी आंखों में खुशी के आंसू
थे।
दूसरे दिन आलोक और
विनोद इंस्पेक्टर वागले को धन्यवाद देने पहुंचे। अब तक उन्हें भी विस्फोट में
रग्घू के मारे जाने की खबर मिल चुकी थी।
आलोक ने
कहा-'इंस्पेक्टर साहब बहुत-बहुत धन्यवाद। आपने मेरे दोस्त को बचा लिया। अच्छा क्या
पता चला जग्गू किस गिरोह का आदमी था।'
'नहीं लेकिन आपको
इस सब से क्या मतलब। आपका दोस्त छूट गया। अब इस झमेले में न पड़ें तो ही अच्छा। यह
समझ लें कि उसका तल्लुक उनसे है जिनके हाथ बहुत लंबे हैं। उनसे न उलझने में ही
भलाई है। बहुत ऊपर तक पहुंच है उनकी। रोमा तो अपनी बहन शांता के धोखे में मारी गयी
। अब आप लोग अपनी जान मुसीबत में न डालें।'
'होने दीजिए
पहुंच, वे आपका क्या कर लेंगे?' आलोक बोला।
'कर लेंगे नहीं,
कर लिया है। मुझे इस केस में ईमानदारी बरतने, मंत्री जी के कहने पर शातिर अपराधी
जगगू को न छोड़ने का ईनाम मिला है। मेरा ट्रांसफर हो गया है। मेरी बात मानिए अपनी
और बाल-बच्चों की भलाई चाहते हैं तो यिस सबको येक
बुरे सपने की तरह भूल जाइए।'
(जनसत्ता दीपावली विशेषांक 1993
से साभार)
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