आत्मकथा
कुछ भूल गया, कुछ याद रहा
राजेश त्रिपाठी
भाग-23
बबेरू में हमारी शिक्षा सुचारु रूप से चल रही थी। सारे शिक्षक बहुत ही
अच्छे थे और बहुत मददगार। हम भले ऊब जायें वे हमें ज्यादा से ज्यादा पढ़ाने समझाने
से कभी नहीं ऊबते थे। वे विषय को इस तरह समझाते थे कि पूरी तरह से छात्रों की समझ
में आ जाये। वे यह निश्चय करना नहीं भूलते थे कि उनका पढ़ाया विषय सबकी समझ में
आया या नहीं। उनमें हमारे संस्कृत के अध्यापक आचार्य प्रभाकर द्विवेदी, अंग्रेजी
के अध्यापक इनायत हुसैन खान के पढ़ाने का ढंग बहुत ही प्रभावी और बोधगम्य था। खान
साहब अंग्रेजी में पद्य या गद्य जो भी पढ़ाते उसे रटाते नहीं थे। वे पढ़ाते समय
कहते कि जो भाग मैंने पढ़ाया उसमें से किस शब्द का अर्थ नहीं आता वह में बता दूंगा
पर इस पूरे पैसेज का अर्थ तुम्हें खुद निकालना है। जब अर्थ तुम रटने के बजाय उसे
खुद निकाल लोगे तो फिर वह कभी नहीं भूलेगा। अगर रट्टू तोते बन जाओगे तो जहां गाड़ी
अटक गई फिर उसके आगे नहीं बढ़ पायेगी।
हमारे प्रिंसिपल ज्वाला
प्रसाद शर्मा जी छोटे कद के पर बड़े बुद्धिमान प्रशासक थे।वे अंग्रेजों जैसा गोला
हैट लगाते थे। वे आगरा से आये थे कृषि टीचर के रूप में और उन्होंने विद्यालय को
नये ढंग से सजाया, संवारा और अपनी काबिलियत पर कुछ अरसे में ही प्रिंसिपल बन गये। वे
अपने विद्यालय के एक-एक छात्र से बहुत प्रेम करते थे लेकिन अनुशासन विरुद्ध काम
करने पर वह बहुत नाराज होते थे। बबेरू तब एक छोटा सा कस्बा था। इलाके के लिए वह
इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि वहां तहसील, सरकारी अस्पताल और थाना था।
अक्सर दोपहर में जब टिफिन की
छुट्टी होती तो आसपास के गांवों से आनेवाले छात्र अपनी साइकिल उठा कस्बे के अंदर
चल पड़ते। प्रिंसिपल ज्वाला प्रसाद शर्मा जी की खूबी यह थी कि वे एक-एक बच्चे का
चेहरा पहचानते थे। यहां तक कि कोलकाता में कुछ साल गुजारने के बाद जब मैं गांव
लौटा और अपने बड़े भैया के साथ बबेरू अपने कालेज गया तो भैया ने ज्वाला प्रसाद
शर्मा जी से पूछा-इसे पहचानते हैं शर्मा जी। शर्मा जी ने उत्तर दिया-हां यह हमारा
अच्छा छात्र रामहित है।
कालेज की ओर से छात्रों को
साइकिल पर डबल लेने की मनाही थी। अगर कोई डबल लिये पाया जाता तो उसका नाम लिख लिया
जाता था और 20 रुपये का फाइन उसकी फीस में जोड़ दिया जाता था। छात्र अपनी गलती के
लिए लगा फाइन चुपचाप दे देते। कभी किसी ने उनके इस निर्णय का विरोध नहीं किया।
ज्वाला प्रसाद शर्मा जी |
बबेरू जहां कोई शिक्षण संस्था नहीं थी वहां पहले हाई स्कूल और फिर
इंटर कालेज देने का श्रेय़ ज्वाला प्रसाद शर्मा जी को ही जाता है। बबेरू में
मढ़ीदाई के मंदिर के पास के दो टीलों में जब छात्र नहीं समाने लगे और हाई स्कूल से
कक्षा बारह तक बढ़ाने की बारी आयी तो शर्मा जी ने बबेरू चौराहे और नहर के पास एक
बड़े भूखंड में इंटर कालेज बबेरू इमारतें खड़ी करवाईं। यहां एक बड़ा खेल का मैदान
भी था और विज्ञान के लिए प्रयोगशाला भी। अब तो यह और विस्तृत हो गया है। यहां नहर
किनारे एक खेत भी था जिसमें छात्र धान की खेती करते थे और उससे जो धान उपजता था
उसे बेच कर मिठाई खरीद कर छात्रों को बांटी जाती थी। नये बने इंटर कालेज का नाम
शर्मा जी को सम्मान देते हुए उनके ही नाम पर श्री जे.जी. शर्मा इंटर कालेज बबेरू
रखा गया है।
हम लोग आठवीं कक्षा तक मढ़ीदाई मंदिर के पास के टीलों में ही रहे।
वहां हमें दो खेत मिले थे जहां हम लोग टमाटर, पत्ता गोभी और फूल गोभी आदि उगाते
थे। उन खेतों के पास ही एक कुंआ था। उससे सटा हमारे प्रिंसिपल शर्मा जी का घर था
जहां वह अपनी पत्नी और बेटी के साथ रहते थे। शर्मा जी की पत्नी जिन्हें हम लोग
माता जी कहते थे हम लोगों को बहुत मानती थीं।
वहां खेत में जब हम लोग पानी
देते तो मेरे साथ मेरे सहपाठी गुलाब सिंह कभी पानी खींचते और मैं क्यारियों में
पानी देता था तो हम लोग एक चालाकी करते थे। गुलाब सिंह पानी डाल कर पका टमाटर नाली
में डाल देते और कहते ‘आये राम’ यह कोड वर्ड था
यानी टमाटार आ रहा है पा लो। मैं टमाटर मुंह में रख कर गप्प कर जाता। फिर मेरी
पानी खींचने की बारी आती तो मैं भी पानी डाल कर पका टमाटर नाली में डाल कर
चिल्लाता आये राम’ और गुलाब सिंह टमाटर गप्प कर जाते। एक दिन गजब
हो गया, अभी मैंने टमाटर मुंह में डाला ही था कि हमारे क्लास टीचर वहां आ गये। वे
शायद देखने आये थे कि हम काम ठीक से कर रहे हैं कि नहीं। अब करें तो क्या करें।
मैंने तत्काल कान में जनेऊ चढ़ाया और दीवाल की ओट में जाकर लघुशंका करने का बहाना
करने लगा। जब मुझे आभास हुआ कि क्लास टीचर मेरे सहपाठी गुलाब सिंह से पूछताछ कर
वापस लौट गये हैं तो मैं भी झूठी लघुशंका पूरी कर चुका था। उस दिन हमने शपथ ली अब
टमाटर खाना बंद। यह टमाटर, गोभी व अन्य सब्जियां संक्रांति के दिन इकट्ठी की जातीं
और सारे विद्यार्थियों में बांट दी जाती थीं।
हमारे विद्यालय में एक टीचर
रामबिलास तिवारी लखीमपुर खीरी से आये थे। वे गौर वर्ण, मृदुभाषी थे। उनका गला
थोड़ा रुंधा-सा रहता था यह उनके बात करने पर महसूस होता था। एक बार उन्होंने
बात-बात में बताया कि वे बांदा में अपने मामा के यहां रह कर पढ़ाई करते थे। यह सुन
कर मैंने कहा कि मेरे ममेरे भाई भी बांदा में ही अपने मामा के संग रह कर पढ़ाई
करते थे।
मेरे इतना कहते ही उन्होंने
पूछा-तुम्हारे भाई का क्या नाम है?
मैंने बताया- उनका नाम रामखिलावन त्रिपाठी है।
नाम सुनते ही उनका चेहरा खिल गया। वे बोले- अरे तुम्हारे भैया तो
हमारे सहपाठी थे।
मैंने खुश होते हुए कहा-सर मैं अपने भैया को पत्र में आपका जिक्र
करूंगा।
वे बोले रामहित तुम मुझको सर
नहीं तिवारी जी कह कर बुला सकते हो।
मैंने भैया को लिखे पत्र में रामविलास तिवारी जी का जिक्र किया तो
उन्होंने पत्र में लिखा-हां हम लोग साथ-साथ पढ़ते थे और यह भी सच है कि मैं अपने
मामा के यहां रह कर पढ़ता था और वे अपने मामा के यहां रह कर।
मैंने तिवारी जी को वह पत्र
दिखाया तो वे बोले-एकदम सही इनकी राइटिंग भी मेरी जानी-पहचानी है।
रामबिलास तिवारी जी बहुत
संकोची स्वभाव के थे और बहुत कम बोलते थे। वे अक्सर हम लोगों से कहा करते थे वही
टीचर अपने छात्रों को पीटते हैं जो खुद अपने छात्र जीवन में अध्यापकों के हाथों
पिट चुके होते हैं। मेरा तो यही विचार है कि अगर आपको अपनी बात समझाने-मनवाने के
लिए बलप्रयोग करना पड़ता है तो आप सफल अध्यापक नहीं हैं।
ऐसी बात हमने अब तक किसी भी
अध्यापक से नहीं सुनी थी। लेकिन कहते हैं ना कि कब क्या हो जाये कोई कह नहीं सकता।
तिवारी जी को यह बताये कि जो अध्यापक छात्र
जीवन में पिटते हैं वही छात्रों को पीटते हैं अभी पंद्रह दिन ही गुजरे थे
कि एक दुर्घटना हो गयी।
हमारे साथ एक फेरन सिंह नामक
छात्र था जो बड़ा ही हंसोड़ और मसखरा था। वह क्लास चलते समय भी बातचीत करता रहता था।
एक दिन जब रामविलास तिवारी जी पढ़ा रहे थे फेरन सिंह अपने बगल में बैठे छात्र से
जोर-जोर से बात कर रहे और बीच-बीच में ठहाका लगा रहा था। तिवारी जी ने कई बार उनको
टोंका-फेरन सिंह शांत रहिए, मैं पढ़ा रहा हूं।
फेरन सिंह कई बार अनुरोध करने पर भी नहीं माना तो तिवारी जी को गुस्सा
आ गया। उन्होंने उसे एक थप्पड़ मारा और वह बेहोश होकर गिर गया और कांपने लगा। पता
नहीं उसे मिर्गी का रोग था या क्या। उसकी दशा देख कर तिवारी जी के चेहरे पर
हवाइयां उड़ने लगीं वे फेरन तक आये उसे पंखा झलने लगे और पुचकारते हुए बोले-बेटा
मैं तुमको मारना नहीं चाहता था तुमने मुझे बाध्य किया। मैं जो स्वयं मारपीट का
विरोधी हूं उसे वही करने को बाध्य होना पड़ा। तिवारी जी बिलख रहे थे। हमने फेरन के
चेहरे पर पानी डाला थोडी देर में उसको होश आया गया और वह तिवारी जी को धमकी देने
लगा। तिवारी जी बार-बार उससे माफी मांह रहे थे-बेटा गलती हुई मुझे माफ कर दो।
हम लोगों ने फेरन को समझाया –गलती
तुम्हारी थी तिवारी जी ने बार-बार मना किया। कक्षा में अच्छा नहीं लग रहा था तो
बाहर चले जाते। तुम्हारे चलते दूसरे छात्रों का भी नुकसान हुआ।
हमने देखा रामविलास तिवारी जी
की आंखें अब भी नम थीं और चेहरा उतरा हुआ था।
कक्षा समाप्त हुई तो
रामविलास तिवारी जी ने मुझे उस कक्ष में बुलाया जहां अध्यापक विश्राम करते थे।
मेरे वहां पहुंचते ही उनके दुख का बांध जैसे फूट पड़ा। उस वक्त वहां उनके और मेरे
अलावा कोई नहीं था।
वे बिलख बिलख कर रोते हुए बोले-मुझे उसे मारने का दुख तो है ही इस बात
का सबसे ज्यादा दुख है कि मैं जिस बात का उपदेश दे रहा था उसी के विपरीत काम करने
को फेरन में मुझे बाध्य कर दिया।
मैंने समझाया-तिवारी जी आपकी
इसमें कोई गलती नहीं। उस लड़के ने बदमाशी की। लगता है उसके परिवार ने उसे यह नहीं
सिखाया कि कहां कैसा व्यवहार करना चाहिए। आप अपने को क्यों अपराधी मानते हैं,
अपराधी तो फेरन ही है। आप बेकार में मत सोचिए।
तिवारी जी बोले- नहीं नहीं अब मैं एक दिन भी यहां नहीं रहूंगा, मेरा
मन उचट गया है।
दूसरे दिन जब हम विद्यालय पहुंचे तो पूरे स्कूल में इस बात का शोर था
कि तिवारी जी इस्तीफा देकर चले गये हैं।
मेरे लिए तो यह बहुत दुख की बात थी कि जो रामविलास तिवारी जी मुझे
बहुत मानने लगे थे उनसे हम कभी नहीं मिल पायेंगे।
*
हमारे विद्यालय में बीटीसी की ट्रेनिंग भी होती थी जिसमें शिक्षक बनने
के इच्छुक इस ट्रेनिंग को करने आते थे। वे
हम लोगों का एक-दो क्लास लेते थे। मैं उन दिनों अपनी कक्षा का मानीटर था। जो
शिक्षक बनने का अभ्यार्थी हमारी कक्षा में पढ़ाने आता था वह मुझसे बहुत चिढ़ता था।
इसका कारण यह था कि मैं उससे ज्यादा सवाल पूछता था। वह कक्षा में घुसते ही मुझसे
बोलता-आप तशरीफ का टुकड़ा बाहर ले जाइए। बाहर जाइए। मैं उसके कहने पर निकल जाता और
लाइब्रेरी में बैठ जाता।
मैं कई दिन तक यह बर्दाश्त करता रहा फिर अपनी पूरी कक्षा से बात कर
हमने एक योजना बनायी। उन दिनों ऐसे पेन मिलते थे जिनमें काफी मात्रा में स्याही
भरी जा सकती थी। मेरी योजना के अनुसार सारे सहपाठी अपने हथियारों के साथ तैयार थे।
उस दिन पता नहीं क्यों उस बीटीसी ट्रेनिंग वाले ने मुझे बाहर जाने को नहीं कहा। उस
दिन वह लक्क दक्क सफेद शर्ट पहन कर आया था। जब वह पढ़ा कर जाने लगा तो मेरे इशारे
पर सारे छात्रों ने अपने-अपने पेनों की स्याही उसकी शर्ट पर खाली कर दी।
वह जब शिक्षकों के विश्राम
करने के कक्ष में पहुंचा तो वहां मौजूद सभी शिक्षक उसे देख हंसने लगे। उन लोगों ने
उससे कहा –अरे तुम्हारी शर्ट किसने रंग दी।
इतनी बात सुनते ही उसने शर्ट उतार कर देखा तो दंग रह गया पूरी शर्ट हम
लोगों के पेन की स्याही से नीली हो गयी थी। उसका शक सीधे मुझ पर गया और उसने तुरत
मेरी शिकायत इनायत हुसैन खान साहब से कर दी। मैं खान साहब को बहुत मानता था और वे
भी मेरा बहुत खयाल रखते थे। उनके कहने पर ही मैंने एससी ज्वाइन किया था। उस बीटीसी
ट्रेनिंग वाले खान साहब से बताया कि तिवारी ने अपने साथियों से कह कर मेरी यह हालत
कर दी है।
खान साहब ने एक छात्र को भेज
कर मुझे बुलाया। मैंने नमस्कार किया तो वे बोले- क्या भाई आपने इनके साथ क्या
किया। कोई छात्र ऐसा करता है?
मैं समझ गया कि अगले ने जम कर मेरी शिकायत खान
साहब से की है।
मैं बोला- सर जी यह नुझे गाली
देते हैं।
खान साहब ने पूछा- कैसी गाली?
मैंने कहा-यह हमारे क्लास में घुसते ही बोलते हैं –आप तशरीफ का टुकड़ा
बाहर ले जाइए।
खान साहब मुसकरा कर बोले-यह गाली नहीं है उर्दू में कही बात है।
मैंने कहा –अगर गाली नहीं है तो भूल हुई मैं माफी मांगता हूं। इन्हें
कहिए जो कहें हिंदी में कहें ताकि हमारी समझ में आ जाये।
खान साहब मुसकरा कर बोले जाइए। (क्रमश:)
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