आत्मकथा-12
कुछ भूल गया, कुछ याद रहा
राजेश त्रिपाठी
(भाग-12)
आलमपुर में पढ़ तो रहा था लेकिन वहां पढ़ने से कोई लाभ नहीं था। मैं
वर्णमाला की पढ़ाई से काफी आगे अछाह की पाठशाला में ही पहुंच चुका था। उसी को
दोहराना वक्त की बरबादी ही थी इसके अलावा और कुछ नहीं। मुझे आगे की कक्षा में होना
चाहिए था। लेकिन कोई उपाय नहीं था।
उधर एक नय़ी तकलीफ सामने आ गयी
थी। पिता जी की आंखों में मोतियबिंद उतर आया था जिसके चलते उनकी नजर धीरे-धीरे
कमजोर हो रही थी। जब एक आंख से दिखना लगभग बंद हो गया तो गांव के ही एक व्यक्ति के
साथ वे चित्रकूट के सीतापुर गये जहां बहुत बड़ा आई आपरेशन कैंप लगा था। वहां उनका
आपरेशन भी हुआ लेकिन वह सफल नहीं हुआ। उस आंख से जो थोड़ा-बहुत दिखता था वह दिखना
भी बंद हो गया।
अब मां के साथ मैं खेतों पर
जाता। जो हलवाहा हमारा काम देखता था उसे मां काम समझा देतीं और मैं तब तक झड़बेरी
के मीठे बेर तोड़-तोड़ कर इकट्ठा करता। हमारे खेत में ज्वार, बाजरा, अरहर. मूंग
आदि खरीफ की फसल होती। खेत के निचले समतल हिस्से में गेहूं,चना, सरसों आदि रबी की
फसल होती थी।
*
मैं अकसर पिता जी को चुपचाप
रोते, आंसू बहाते देखता तो उनसे पूछता-बाबा क्यों रो रहे हैं।
वे-कुछ नहीं कह कर टाल देते।
अम्मा (मां) से पूछता-बाबा क्यों रोते हैं ।
अम्मा ने बताया- जब भी अपने जीजा जी और भांजे की याद आती है तो इसी
तरह चुपचाप रोते रहते हैं। फिर कलकत्ता से तेरे भैया की चिट्ठी भी कई महीने से
नहीं आयी इसलिए और परेशान हैं।
मैंने कहा-भैया को क्या हो
गया है। जानते हैं कि उनके मामा को उनकी कितनी चिता रहती है एक चिट्ठी भेज कर अपनी
खबर देने में क्या जाता है।
अम्मा कुछ नहीं बोलतीं बाबा को समझाने लगतीं-वह ठीक होगा आप परेशान ना
हों।
दूसरे दिन हमारे गांव में कहीं
से एक जादूगर आया जो मंत्र-तंत्र भी जानता था। वह हमारे गांव के एक बड़े काश्तकार
की चौपाल में चमत्कार दिखा रहा था। पहले तो उसने गांव के दो नवयुवकों को एक अंधेरी
कोठरी में जाने को कहा और यह हिदायत भी दे दी कि वे जो भी देखें उससे डरें नहीं।
वे दोनों युवक डरते-डरते अंधेरी कोठरी में गये और बाहर आये तो उनकी आंखें आश्चर्य
से फटी की फटी रह गयी थीं। सबने उनको हक्का-बक्का बना देख कर पूछा- अरे बोलती
क्यों बंद हो गयी। अंदर तुम लोगों ने क्या देखा।
उन युवकों ने जो बताया उससे
वहां उपस्थित सारे लोग दंग रह गये। उनके आश्चर्य का ठिकाना ना रहा।
उन लोगों ने बताया-हमारे
अंधेरी कोठरी में घुसने के कुछ देर बाद ही आंख चौंधिया देने वाली रोशनी प्रकट हुई।
उस रोशनी के बीच एक सुंदर छोटी कन्या लाल वस्त्र पहने, लाल चूनर ओढे खड़ी मुसकरा रही थी। उसके शरीर से
दिव्य प्रकाश निकल रहा था जिस पर निगाहें टिका पाना हमारे लिए संभव नहीं हो पा रहा
था। हम लोग उन्हें प्रणाम कर के बाहर आ गये। वे कोई देवी होंगी ऐसा लगा।
उनकी बातें सुन जादूगर
मुसकराया और बोला-दर्शन कर लिये ना।
दोनों युवकों ने स्वीकृति में
सिर हिला दिया।
इसके बाद उस जादूगर ने सामने
बैठे घर के मालिक से उनकी बंदूक और कारतूस का पट्टा लिया और आगे चल दिया। पास ही
एक कुएं में उसने बंदूक और कारतूस का पट्टा फेंक दिया और लौट आया।
घर के मालिक ने कहा-अरे भाई
मेरी बंदूक और कारतूस कहां गयी।
जादूगर ने कहा-वह तो मैंने
आपके कुएं में फेंक दिया।
घर का मालिक गुस्सा होने लगा
उसने कहा-कल ही नये कारतूस लाये थे उनको पानी में फेंक दिया, वे तो बरबाद हो गये।
जादूगर ने कहा- परेशान मत
होइए अभी मंगाये देता हूं।
इतना कह कर जादूगर ने ऊपर
हाथ उठाया और मन ही मन कुछ बुदबुदाया।
हम लोगों ने देखा कि थोड़ी
देर में ही पानी की बौछार रोकने के लिए बने घासफूस के छप्पर के ऊपर से बंदूक और
कारतूस का पट्टा नीचे आ गिरा। दोनो एकदम सूखे थे उनमें एक बूंद पानी नहीं था। हम
सभी अवाक हो गये कि आखिर हमारी नजरों के सामने कुएं में फेंकी गयी बंदूक और कारतूस
का पट्टा कौन शक्ति कुएं से लाकर जादूगर को दे गयी।
जादूगर का यह चमत्कार देख मैं
घर जाकर अम्मा को भी ले आया।
मैंने अम्मा के सामने ही
जादूगर से कहा- मेरे भैया कलकत्ते में हैं। कई महीने से उनकी खबर ना आने से
माता-पिता परेशान हैं क्या आप कुछ कर सकते हैं जिससे वे यहां आयें या फिर अपनी खबर
दें।
इस पर जादूगर ने कहा- हां
में ऐसा कर सकता हूं। हम लोग इसके लिए उच्चाटन मंत्र का प्रयोग करते हैं लेकिन
इसमें परेशानी यह है कि जिस वक्त से मैं किसी व्यक्ति पर इस मंत्र का प्रयोग
करूंगा वह यहां आने के लिए बेचैन हो जायेगा। उसे ना खाना अच्छा लगेगा ना सोना। वह
जब तक यहां नहीं पहुंचेगा बहुत परेशान रहेगा।
अम्मा ने यह सुन कर कहा- नहीं, नहीं रहने दीजिए। हम नहीं चाहते कि
उसे कोई तकलीफ हो।
घर लौटने से पहले अम्मा को
अचानक याद आ गया कि मुझे अक्सर नजर लग जाती है इसका उपचार इन जादूगर से पूछ लेते
हैं। उन्होंने उनसे कहा-मेरे बेटे को अक्सर नजर लग जाती है आप इसे कुछ दे सकें तो
बहुत अच्छा हो।
यह सुन कर जादूगर ने अपने
थैले से एक ताबीज निकाल कर देते हुए कहा-यह ताबीद इसे पहना दीजिए इससे कोई नजर
नहीं लगेगी। यह ताबीज अगर खो गयी तो तीन बार यह इसके बिस्तर के नीचे मिल जायेगी
उसके बाद खोयी तो फिर नहीं मिलेगी। सचमुच वैसा ही हुआ मुझे अक्सर लगनेवाली नजर बद
हो गयी। ताबीज तीन बार खोने पर बिस्तर के नीचे मिली चौथी बार खोयी तो फिर मिली
नहीं।
*
हमारे गांव के वरिष्ठ और गणमान्य व्यक्ति थे काशीप्रसाद दुबे जिन्हें
हम प्यार से काका जी कहते थे। एक बार उनकी इच्छा हुई कि क्यों ना गांव के लड़कों
और कुछ लोगों को लेकर नाटक किया जाये। तय किया गया कि ‘कंस वध’ नाटक खेला जायेगा। काका जी ने सबको सबके संवाद
दे दिये और रिहर्सल शुरू हो गया। मेरे हिस्से कृष्ण की भूमिका आयी और हमारे मित्र
बाबूलाल यादव (अब सेवानिवृत जज) के हिस्से बलराम, किसी के हिस्से मनसुखा, सुदामा
और इसी तरह की भूमिकाएं आयीं। कंस की भूमिका साधौप्रसाद कुर्मी को दी गयी जिन्हें
हम प्यार से काका कहते थे।
सबने अपने-अपने संवाद रटने
से शुरू कर दिये। इस काम में मैं और बाबूलाल सबसे आगे रहे बाकी लोग याद नहीं कर पाये
थे।तय किया गया उनके डायलाग प्राम्ट करके चलाये जायेंगे।
संवाद जल्द याद करने के
पुरस्कार के रूप में काशीप्रसाद काका ने मुझे और बाबूलाल यादव को बतासे बांटे।
रिहर्सल शुरू हुआ। जब कंस के
केश पकड़ कर सिंहासन से नीचे पटकने की बारी आयी तो मैं संकोच करने लगा कि
साधैप्रसाद काका को कैसे बाल पकड़ कर नीचे पटकूं।
मेरा संकोच देख हमारे
निर्देशक काशीप्रसाद काका ने कहा-अरे वह कंस है साधौ नहीं उसे पटक दो, मारो।
कहना ना होगा कि मुझे अपने निर्देशक
का कहा मानना पड़ा।
*
हर साल हमारी तहसील बबेरू में दशहरे का एक माह व्यापी मेला लगता था।
यह हम लोगों के लिए सबसे बड़ा मेला होता। बबेरू में माह भर रामलीला होती और
विजयादशमी के दिन सरकारी अस्पताल के पास के मैदान में रावण दहन होता। मैं भी अम्मा
के साथ मेला देखने गया था।वहां से कुछ खिलौने लाया था जिसमें एक गेंद भी थी।
एक दिन की बात है अम्मा घर से
बाहर थीं और बाबा सो रहे थे। मै अपने घर के बाहर वाले मैदान पर आ गया। जिसके सामने
से गांव के पूर्व से पश्चिम के आखिरी छोर तक गली निकलती थी। मैं अपनी खुशी में
खोया गेंद सामने वाली दीवाल में पटकता और वह वहां से वापस उछल कर आती और मैं उसे पकड़
कर फिर उधर ही फेंक देता। दायीं ओर से अंधी गली थी यानी उधर से कौन कब आ रहा है
पता नहीं चलता था। मैं अभी गेंद फेंक ही रहा था कि अंधी गली की दायी ओर से अचानक
एक कुत्ता भूंकता हुआ आया उसने मेरी दायीं कलाई काट ली। हाथ से खून बहने लगा मैं
जोर से चिल्लाया-बचाओ, बचाओ।
मेरी चीख सुन कर बगल के घर से
एक बुजुर्ग महिला आयी। उसके हाथ में किवाड़ बंद करके पीछे लगानेवाला काठ का हटका
था। वह मेरे पास पहुंची तब तक कुत्ता कलाई छोड़ मेरी छाती पर चढ़ गया था और गला
काटने वाला था उस बुजुर्ग महिला ने उसकी पीठ पर जोर से हटके से वार किया तब कहीं
वह मुझे छोड़ बायीं तरफ से जंगल की ओर भाग गया। तब तक शोर सुन कर बाबा भी जाग गये
थे। वे बाहर निकल कर चबूतरे में बैठ गये थे। लोगों से सारी बात जान कर वे भी बहुत
दुखी हुए और रोने लगे। उस दिन वह बुजुर्ग महिला मेरे लिए प्राण रक्षक बन गयी वरना
उस दिन वह कुत्ता मेरी जान ही ले लेता। गला तो वह पकड़ ही चुका था।
उसी वक्त कई लोग लाठी, भाला
लिये दौड़ते नजर आये। जब उन्होंने सुना कि कुत्ते ने मुझे काट लिया है तो बोले-यह
गांव में एक बैल को काट कर आया है। हम उसे मारने जा रहे हैं। आखिर उन्होंने जंगल
में घेर कर उसे मार डाला।
अम्मा खेतों से लौट कर आयी
तो सब कुछ जान कर वह भी रोने लगी। उसके पास जो भी मलहम वगैरह था वह उसने लगाया और
लोगों से पूछा कि क्या करना होगा। किसी ने सलाह दी सात कुओं में सींक डलवा दीजिए
कुछ नहीं होगा। हमारे गांव में कुल मिला कर तीन कुएं ही थे। उनमें सींक डालने के
बाद दूसरे दिन हम पास के गांव आलमपुर में गये जहां कई चाची लोगों से अम्मा का
अच्छा परिचय था।
उन लोगों ने जब सारा हाल सुना
तो कुएं में सींक तो डलवा दी फिर अम्मा से पूछा-माटी मिले को मार दिया ना।
अम्मा ने कहा –हां लोगों ने जंगल में घेर कर मार दिया।
हम लोग गांव लौट आये अब कुछ लोग हमें डराने लगे कि कुत्ते को मारना
नहीं चाहिए था कुछ दिन उस पर नजर रखनी थी कि उसमें क्या परिवर्तन होता है। हमारे
सामने कोई चारा नहीं था।कुत्ता तो मार दिया गया था अब जो होना होगा होगा।
मेरी जिंदगी को नयी राह देने
और मैं आज जो हूं उसका एक पुख्ता आधार देने में जिनकी सबसे बड़ी भूमिका है वे हैं
मेरे प्यारे भैया अमरनाथ द्विवेदी जो मुझे इतना प्यार करते थे जितना शायद अपना कोई
सगा भी नहीं करता। यह जब की घटना है तब वे इलाहाबाद में पढ़ते थे। वे छुट्टियों
में गांव आये थे।उन्हें किसी ने बता दिया कि रामहेती को पागल कुत्ते ने काट लिया
है और उनकी अम्मा कुएं में सींक डालती फिर रही हैं।
यह बात सुनते ही वे
दौड़े-दौड़े हमारे घर-घर आये और अम्मा को डांटते हुए बोले-काकी पगला गयी हौ का
लड़का का मार डरिहै का। (काकी पागल हो गयी हो क्या,लड़के को मार डालोगी) कुआं में
सींक डालने से कुत्ता काटे का असर नहीं जायेगा। मैं चिट्ठी लिख देता हूं कल इसे
सरकारी अस्पताल बबेरू ले जाओ और इंजेक्शन लगवाओ।
कोई और होता तो उसकी बात टाल
दी जाती लेकिन अपने मुन्नू भैया (हम सब अमरनाथ जी को प्यार से इसी नाम से पुकारते
थे) की बात ना अम्मा ने कभी टाली थी और ना अब टालनेवाली थी।
दूसरे दिन अम्मा मुझे सरकारी
अस्पताल ले गयी। वहां मोटे डाक्टर थे जहां
तक याद आता है उनका नाम राधाकृष्ण द्विवेदी था। उनका कंपाउंडर बेला भी उनकी तरह ही
मोटा ताजा था।
मैं पहले ही बता आया हूं कि
इंजेक्शन से मुझे बड़ा डर लगता है लेकिन अब इससे बचने का कोई उपाय नहीं था। पहले
तो मुन्नू भैया का आदेश दूसरे मोटा-ताजा डाक्टर वैसा ही कंपाउंडर मैं विरोध करता
भी तो वे जबरन इंजेक्शन भोंक देते। मुझे एक बेंच में लिटा दिया गया मैंने डर के
मारे आंखें बंद कर लीं। अचानक मेरे पेट में तेजी से कुछ चुभने का दर्द और पेट में
ऐसी जलन हुई जैसे किसी ने तेजाब डाल दिया हो। मैं पल भर में बेहोश हो गया। बेहोश
होते-होते मुझे सुनायी दिया, डाक्टर कंपाउंडर को चिल्लाये-बेला पानी लाओ, बच्चा बेहोश
हो गया।
बेला घड़े का ठंडा पानी लाया
और मेरे सिर पर उंडेल दिया। थोड़ी देर में मुझे होश तो आ गया लेकिन पेट की जलन
नहीं गयी। अम्मा को बताया तो उन्होंने डाक्टर से पूछा तो डाक्टर ने कहा यह थोड़ी
देर में ठीक हो जाय़ेगी। कुल चौदह इंजेक्शन लगेंगे रोज नियम से लगवा लीजिएगा।
कुल चौदह इंजेक्शन लगने हैं यह सुन कर मेरी आत्मा कांप गयी। पहले
इंजेक्शन ने ही बेहोश कर दिया क्या बाकी इंजेक्शन लगवाते वक्त भी यही होगा। मैंने
अपनी यह शंका डाक्टर से जाहिर की तो उन्होंने आश्वस्त किया कि अब ऐसा नहीं होगा।
मुन्नू भैया ने उनके नाम चिट्ठी लिख दी थी इसलिए डाक्टर ने काफी सहयोग किया और
मैंने वह चौदह इंजेक्शन झेल लिये। मेरे इंजेक्शन लेने से जिस व्यक्ति को सबसे
ज्यादा खुशी हुई वे मेरे प्यारे भैया अमरनाथ जी थे हमारे प्यारे मुन्नू भैया। (क्रमश:)
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