Friday, November 12, 2021

संतान पाकर मंगलप्रसाद,उनकी पत्नी खुशी से झूम उठे

आत्मकथा कुछ भूल गया, कुछ याद रहा

राजेश त्रिपाठी
 (भाग-9) 

मंगलप्रसाद अब अपनी गृहस्थी और खेती संवारने में व्यस्त हो गये थे। उनकी जमीन का जो ऊंचा भूखंड बबेरू-बादा रोड से लगा था वहां खरीफ की फसल ज्वार, बाजरा, मूंग, अरहर आदि होती और नीचेवाले हिस्से में रबी की फसल चना, गेंहू, सरसों आदि होती। मंगलप्रसाद की पत्नी फिर उम्मीद से थी। दो संतानें खो चुकी मीरा त्रिपाठी गर्भवती थी और जल्द की संतान का प्रसव होने वाला था। मंगलप्रसाद उन्हें कोई भारी काम नहीं करने देते थे। उन्होंने कह रखा कि ऐसा कोई काम आये तो उनके लिए छोड़ दिया करें वह खुद ना करने बैठ जायें। 
उनके यहां के गौवंश की भी वृद्धि हुई थी। एक गाय ने बहुत ही अच्छे बछड़े को जन्म दिया था। वह बछड़ा दो साल का हो गया था और मंगलप्रसाद उसे बहुत चाहते थे। ऐसा कोई दिन नहीं जाता था जब उसकी पीठ ना सहलाते रहे हों । एक तरह से वह उनका चहेता बछड़ा बन गया था। कहते हैं ना कि खुशी और गम में ज्यादा दूरी नहीं होती। कब गम अचानक आकर खुशी को म्लान कर दे कोई नहीं जानता। कुछ दिन बाद ही मंगलप्रसाद के प्यारे बछड़े को एक ऐसा रोग लग गया जो लाख कोशिश करने के बावजूद ठीक नहीं हुआ। मंगलप्रसाद की पत्नी जो दवाएं जानती थीं वह भी आजमा ली गयीं लेकिन उस बछ़ड़े को ना बचना था ना बचा। बछड़े के मरने से मंगलप्रसाद इतना दुखी हुए कि उन्होंने खाना छोड़ दिया।
 जब किसी ने यह खबर गांव के मुखिया गंगाप्रसाद तक पहुंचायी तो वे बहुत दुखी हुए। उन्होंने तुरत मंगलप्रसाद को अपने घर बुलवाया। वे उनसे बोले-‘मेरे रहते गांव में ब्राह्मण भूखा रह जाये यह मैं देख नहीं सकता। जाओ मेरी गोरुहाई (गौशाला) में और जो बछड़ा पसंद आये ले जाओ। दुखी मत हो जो जितनी जिंदगी लेकर आया है उसके बाद उसका जाना तय है। तुम मेरे यहां से बछड़ा ले जाओ।
’ मंगलप्रसाद ने गंगाप्रसाद को प्रणाम किया और बोले-‘मालिक बछड़ा लेने की कोई जरूरत नहीं है, मैं आपकी बात समझ गया। अब मैं दुखी नहीं हूंगा।’ 
 घर आकार मंगलप्रसाद ने पत्नी को भी गंगाप्रसाद जी की बात बतायी तो वह भी उनके स्नेह और दयाशीलता की प्रशंसा करने लगी। 
  जाने कहां से एक मादा नेवला मीरा त्रिपाठी को मिल गयी थी और उन्होंने उसे प्यार से पाल लिया था। उसका नाम उन्होंने बुधिया रखा था। बुधिया हमेशा उनके आगे पीछे होती रहती थी। वह उछल कर उनके कंधे पर कभी गोद में बैठ जाती फिर कभी कूद कर कहीं छिप जाती। इसके बाद जब भी मीरा त्रिपाठी ‘बुधिया’ कह कर पुकारतीं वह दौड़ कर आती और उनकी गोद में आ बैठती। बुधिया के लिए कोई रोक-टोक नहीं थी। वह गांव भर में घूमती रहती पर शाम ढलने से पहले घर लौट आती। 
 एक बार ऐसा हुआ की गांव में घूमते-घामते बुधिय़ा गंगाप्रसाद जी के घर में तिजोरी पर जाकर बैठ गयी। घर के सभी लोग उसे हस्स, हुस्स कह कर डरा कर भगाने की कोशिश करने लगे लेकिन वह टस्स से मस्स ना हुई। जब गंगाप्रसाद जी को इसका पता चला वे बोले –‘जिसका बंदर उसी से नाचेगा, तिवारिन को बुलाओ उसी का कहा मानेगी बुधिया।’ 
 तुरत गंगाप्रसाद जी का एक आदमी मंगलप्रसाद तिवारी के घर आया और मीरा त्रिपाठी को सारा हाल बता कर कहा-‘आपको मालिक ने बुलाया है, बुधिया को ले आइए।’ बुधिया मुखिया के घर में है यह जानकर मीरा त्रिपाठी बहुत परेशान हुईं। वे तुरत वहां गयीं और जाते ही बुधिया से बोलीं-बुधिया यह क्या तुम यहां, चलो अपने घर चलो। मीरा त्रिपाठी की बात सुन कर बुधिया फुदक कर उनके कंधे पर बैठ गयी। मीरा त्रिपाठी ने गंगाप्रसाद जी और घर के दूसरे लोगों से उन्हें हुई परेशानी के लिए माफी मांगी। गंगाप्रसाद बोले-‘नहीं कोई बात नहीं ये सब कोशिश कर रहे थे तब मैंने कहा तिवारिन को बुलाओ बुधिया और किसी की सुननेवाली नहीं। * 
  पहले ही बता आये हैं कि बांदा में रहते हुए मीरा त्रिपाठी ने यूनानी,हकीमी दवाएं सीख ली थीं। जुगरेहली गांव से गांव से अस्पातल 8 किलोमीटर दूर था ऐसे में छोटी-मोटी परेशानियों से छुटकारा पाने के लिए लोग तिवारिन दाई के पास ही आते। वे कई गंभीर बीमारियों का भी इलाज कर देती थीं। एक बार गांव में किसी को बैल ने सींग मार दी आंख के किनारे गहरा घाव लग गया। वह दौड़ा-दौड़ा उनके पास आया। तिवारिन दाई ने उसका प्राथमिक उपचार किया और कहा कि प्याज को पीस कर घी में तल कर कपड़े के सहारे उसकी पुलटिस हलकी गरम होने पर बांध दें। दो-तीन दिन में उस आदमी का जख्म ठीक हो गया। 
   वे ऐसा पाक बनाती थीं जो खून तो शुद्ध ही करता था कई संतानहीनों को इसके सेवन से संतान की प्राप्ति हुई। वे वायुगोला की दवा बनाने के साथ ही जहरवात, नासूर, सेप्टिक घाव आदि ठीक करने के लिए विविध प्रकार के मलहम बनाती थीं। किसी भी तरह के फोड़े को ठीक करने के लिए उनका काला मलहम अमोघ था। त्वचा के अपरस आदि रोगों के लिए भी वे अलग मलहम बनाती थीं। एक मलहम तो ऐसा बनाती थीं जिसमें बंदर की हड्डी लगती थी। लोग ठीक होते तो दूसरे को बताते। इस तरह आस-पास कई गांवों में उनकी ख्याति फैल चुकी थी। कई ऐसे लोगों की भी उन्होंने जिंदगी और अंग बचाये जिन्हें सरकारी अस्पताल से यह कह कर लौटा दिया गया कि जिंदा रहना है तो पैर काटना होगा। ऐसा ही एक आदमी जुगरेहली से कुछ दूर स्थित ब्यौंजा गांव से आया था। उसे उसके घर वाले बैलगाड़ी में लाद कर लाये थे। बबेरू के सरकारी अस्पताल ने उसे यह कर लौटा दिया था कि इसका कोई इलाज नहीं है। तुम्हारे पैर सड़ गये हैं बांदा के बड़ सरकारी अस्पताल में जाकर कटवा दो देखो शायद जिंदगी बच जाये। 
    मीरा त्रिपाठी के हाथ जोड कर वह व्यक्ति गिड़गिड़ने लगा-‘महाराजिन आपके पांव पड़ूं, मेरी जिंदगी बचा लो। सरकारी अस्पताल वाले इलाज नहीं कर सके बोले बड़े अस्पताल बांदा जाओ और अपने पैर कटवा लो नहीं तो पूरा शरीर सड़ जायेगा।’ मीरा त्रिपाठी ने उसके पैरों को देखा जो वाकई बुरी तरह सड़ गये थे। उनसे लगातार पानी बह रहा था।
 थोड़ी देर उसे देखने के बाद मीरा त्रिपाठी बोलीं-‘डरो मत, तुम ठीक हो जाओगे, पैर नहीं काटने पड़ेंगे। मैं एक मलहम बना के देती हूं। एक महीने लगाओ और फिर तुम अपने पैरों पर चल कर आओगे।’ मीरा त्रिपाठी ने थोड़ी देर में मलहम बना कर और उसे लगाने का तरीका बता कर उस व्यक्ति को दे दिया। उसके साथ आया व्यक्ति उन्हें पैसा देने लगा तो वे बोलीं में पैसा नहीं लेती। ये ठीक हो जायें यही मेरे लिए बड़ी बात है। वे उनका धन्यवाद देकर वापस चले गये। समय बीतता गया एक महीने बाद ब्यौंजा वाला वह आदमी जो सड़ा पांव लेकर बैलगाड़ी पर लद कर आया था वह हैदल चल कर आया। वह अपने साथ एक बोरे आंवले लेकर आया था। आंवला लाना है इसलिए बैलगाड़ी लाया था पर थोड़ी दूर से वह पैदल की आया था क्योंकि उसे महराजिन को बताना था कि उनकी दवा काम कर गयी। आंवले का बोरा मीरा त्रिपाठी के सामने रखते हुए उसने कहा- मैं यह जानता हूं कि आप पैसे नहीं लेतीं लेकिन यह आंवले मेरे पेड़ के हैं इन्हें लेने से इनकार मत कीजिए। मीरा त्रिपाठी ने आंवले से भरा बोरा रख लिया। ब्यौंजा से आया यह आदमी उनका आभार जतीत् अघा नहीं रहा था। वह बोला-मैंने तो अपनी जिंदगी की आस ही छोड़ दी थी। आप तो मेरे लिए भगवान हो गयीं, मुझे नयी जिंदगी दी आपने। आसपास के गांवों में भी उनकी ख्याति फैल गयी थी और लोग अपनी परेशानी लेकर उनके पास आने लगे और ठीक होने लगे थे। वे किसी से पैसे नहीं लेती थीं , अगर दवा महंगी हो तो उन्हें लिखवा देती थीं और कहतीं कि इसे ले आओ दवा मैं बना दूंगी। उनके अपने गांव जुगरेहली में भी किसी को कोई कष्ट होत तो वे उसकी मदद के लिए सबसे पहले पहुंच जाती थीं। * दिन बीतते गये, आखिर वह शुभ सुबह आ गयी जब दिये की टिमटिमाती रोशनी के बीच नवागत बच्चे की किलकारी गूंजी। मीरा त्रिपाठी को प्रसव पीड़ा हो रही है यह खबर पाकर पास पड़ोस की बड़ी-बूढ़ी महिलाएं उस कोठरी में जुट गयी थीं। उनमें से किसी ने मंगल प्रसाद को खबर दी-तिवारी बाबा लड़का हुआ है। 

यह है मेरा पैतृक घर  है इसमें पीले रंग का तीर का जो चिह्न है उस दीवाल के पीछे की कोठरी में मेरा जन्म हुआ था
 मंगलप्रसाद तिवारी के कानों में ये शब्द मिश्री से घोल गये। उनकी खुशी का ठिकाना ना रहा। प्रसव पीड़ा से छटपटाती मीरा त्रिपाठी के होठों में भी मुसकान तैर गयी। किसी बुजुर्ग महिला ने कहा-अरे भाई बच्चे का नाम भी तो सुझाओ। दूसरी बोली-रामहेती कैसा रहेगा। बाकी महिलाओं ने भी इस नाम पर स्वीकृति दे दी इस तरह नवजात का नाम रामहेती हो गया। यहां यह बताते चले कि उत्तर प्रदेश और खासकर हमारे बुंदेलखंड में बच्चों के नाम राम या किसी अन्य देवताओं, अवतारों पर रखने की प्रथा है। इस तरह से आपके इस अकिंचन राजेश त्रिपाठी का जन्म हुआ जिसका नाम रामहेती रखा गया। जिस दिन से मीरा त्रिपाठी के बेटे का जन्म हुआ उनकी मादा नेवला बुधिया कुछ उदास उदास सी रहने लगी थी। आश्चर्यजनक घटना तो उस दिन हुई जिस दिन नवजात रामहेती की छठी थी। मां ने मुझे बाद में बताया था कि छठी के दिन बुधिया उस खाट के परिक्रमा लगाती रही जिसमें मुझे लिटाया गया था। उसने मुझे चूमा और थोड़ी देर तक मुझे देखने के बाद जो घर से निकल गयी तो फिर किसी को नहीं मिली। पशु, पक्षी बहुत समझदार होते हैं। बुधिया ने बच्चे को देख कर शायद सोचा होगा कि अब इनके घर वे जो आया है इनका प्यार उस पर केंद्रित हो जायेगा। अब मुझे चलना चाहिए। मीरा त्रिपाठी बुधिया को बहुत चाहती थीं उन्होंने गांव और आसपास के जंगल में बहुत खोजा पर बुधिया नहीं मिली। शायद वह अपने प्यार में किसी और का हिस्सा नहीं चाहती थी। मीरा त्रिपाठी उससे इतना हिल-मिल गयी थीं कि काफी दिनों तक उन्हें उसकी कमी खलती रही लेकिन फिर वे अपने नवजात बेटे की सेवा में जुट गयी(क्रमश: }

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