आत्मकथा
कुछ
भूल गया कुछ याद रहा
राजेश त्रिपाठी
भाग-28
आगे ही बता चुका हूं कि मेरी मां
आयुर्वेदिक औषधियों की जानकार थीं। जिन बीमारों को डाक्टर या सरकारी अस्पताल यह कह
कर लौटा देते थे कि इस बीमारी का कोई इलाज नहीं उन्हें भी मां अपनी दवाओं से ठीक
कर देती थीं । मां घर में घृतकुमारी लगाये हुए थीं। इसे हमारी तरफ घीग्वार भी कहते
हैं। आंगन के एक कोने में यह खूब फैल रहा
था। कभी धोखे से हमारा हाथ वगैरह जल जाये तो मां घृतकुमारी का एक पत्ता तोड़ कर
उसके अंदर का गूदा जले स्थान पर लगा कर बांध देती थीं और जलन तुरत ठीक हो जाती थी,
फफोले भी नहीं पड़ते थे। घृतकुमारी से मां एक बहुत स्वादिष्ट व्यंजन बनाती थीं। वे
घृतकुमारी के पत्ते तोड़ कर उसका गूदा (पल्प) निकाल लेतीं और उससे ही आटा गूंथ कर पराठा बनातीं और उसे मसल
कर, चीनी मिला कर चूरमा जैसा बना कर हम लोगों को खिलाती थीं। वह बहुत ही स्वादिष्ट
होता था। इसके अलावा यह यकृत (लीवर), पेट की किसी भी तरह की तकलीफ में बहुत लाभ
करता था। सदा यह ध्यान रखना चाहिए की घृतकुमारी कड़वा ना हो।
हमारे आंगन के एक कोने में अनार का विशाल वृक्ष था जो जब फलता था खूब फलता
था। पूरा पेड़ फलों से लद जाता था। हम लोग तीन जन थे कितना फल खाते पूरे गांव में
फल बांट दिये जाते थे। उस पेड़ से हमें बहुत मोह था। वह जड़ होते हुए भी घर के
सदस्य की तरह था। जब वह फलों से लद जाता तो जैसे मुसकराता-सा लगता। उसकी उपस्थिति
में बहुत सुंदर और भरा-भरा लगता था आंगन। उस पर फुदकती रंग बिरंगियों चिड़ियों की
चहचहाहट भी वातारण में मधुरता घोलती थी। एक दिन हमारे गांव के एक चाचा केशवप्रसाद
दुबे जी हमारे घर आये। उन्होंने घर के आंगन में फल से लदे अनार को देखा। कुछ देर
पेड़ को घूरने के बाद मां से बोले-यह क्या अनर्थ कर डाला तुमने।
मां ने पूछा-अनर्थ, कैसा अनर्थ।
केशवप्रसाद दुबे-अरे किसी के आंगन में
अनार का पेड़ देखा है?
आंगन में अनार का पेड़ मतलब वंशनाश। इसे जितना जल्द हो हटा दो अगर अपने बेटे और
पति का भला चाहती हो।
उनकी बात सुन मां अंदर तक कांप गयी। दो संतानें तो गर्भ में ही खो चुकी थीं
अब प्रभु ने एक को सही सलामत रखा है तो उसे वह उस तरह सहेज कर रखती थी जैसे पलकें आंखों
को रखती हैं। मां ने यह निर्णय लिया कि भले ही अनार के इस पेड़ से उसका
अटूट नाता है पर उससे यह प्यार अपने परिवार की कीमत पर नहीं कर सकती। दूसरे दिन
मजदूर बुला कर अनार का वह पेड़ कटवा दिया गया। कुल्हाड़ी उस पेड़ के तने पर लग रही
थी पर उसकी पीड़ा की कसक मैं अपने दिल में महसूस कर रहा था। पेड़ कट गया तो आंगन
सूना-सूना और उचाट सा लगने लगा। अब उस कोने की तरफ देखा नहीं जाता था। मैं इतना
उदास था कि उस दिन मुझसे खाना नहीं खाया गया।
मेरे बाबा (पिता जी) ने मां को बहुत
समझाया कि किसी के कहने पर अनर्थ ना करो। यह पेड़ नहीं हमारे घर का सदस्य. है पर
मां नहीं मानीं। उन्हें अपने परिवार से
बड़ा प्यार था वे उसके लिए उस पेड़ को भी काटने को तैयार हो गयीं जिसे खुद
उन्होंने पानी देकर प्यार से सहेजा और पाला था जैसे कोई मां एक बच्चे को पालती है।
*
पिता जी हमेशा पूजा-पाठ और भजन में
तल्लीन रहते थे। आशु कवि थे, जमाने भर की कहानियां उन्हें याद थीं।
अंग्रेजों के शासनकाल में बांदा में कैनाल सेक्शन में अंग्रेज अधिकारियों के साथ
काम कर चुके थे। उस वक्त की स्मृतियां वे अक्सर हम लोगों से उस वक्त साझा करते थे
जब हम शैशवकाल में थे। हमने तो अंग्रेजों के शासन को देखा नहीं पर उनके मुंह से
सुना कि भले ही हम गुलाम थे, पराधीन थे लेकिन उस समय का शासन
अपराधियों के लिए बहुत सख्त था इसलिए आपराधिक घटनाएं कम होती थीं।
चूंकि पिता जी धार्मिक प्रकृति के थे
तो उनका हम से भी यह आग्रह रहता था कि हम धर्म के आस्था के पथ पर चलें। जितना हो
सके ईश वंदना, अर्चना और धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन मनन करें,
उनके
पावन, जनहितकारी संदेशों का जीवन में उतारें और तदनुसार जीवन जीएं। जब हम
प्राथमिक शाला में थे तभी से हमारे लिए सुबह के नाश्ते से पहले स्नान और हनुमान
चालीसा का पाठ अनिवार्य कर दिया गया था। पिता जी कहते थे कि जिस घर में पूजा होती
है और शंख की ध्वनि होती है वहां प्रभु की कृपा से बाधाएं नहीं आतीं। कुछ
प्रगतिशील और पाश्चात्य भावनाओं से जीवन जीने वाले इसमें आडंबर और ढोंग देखें हमें
कोई दुख नहीं, हम इस बात की गारंटी भी नहीं देते कि सचमुच शंख
बजाने या पूजा करने से भवबाधाओं से बचा जा सकता है। हां इतना जरूर कह सकते हैं कि
पूजा करने, धर्मग्रंथों को पढ़ने से मानसिक शांति और
सात्विक, सुंदर और उत्तम जीवन जीने का संदेश अवश्य मिलता है। अपनी आस्थाओं,
धार्मिक
प्रवृत्तियों और आचरणों से जुड़े रहने की प्रेरणा माता-पिता जी से मिली। पिता जी
ब्राह्म मुहूर्त में उठ कर माला लेकर रामनाम का जाप करने बैठ जाते थे। मां ग्राम
देवी के स्थान में शाम को दीपक जलाना कभी नहीं भूलती थीं। उनके साथ शंख लेकर मैं
भी जाता था। मेरा काम शंख बजाना था। जो चतुर्मुखी शंख हमारे पास है वह आम शंखों से
कुछ बड़ा है और उसे बजाने के लिए अच्छा-खासा जोर लगाना पड़ता था।
शंख का धार्मिक अनुष्ठानों में बड़ा
महत्व है। इसकी ध्वनि से वातावरण शुद्ध होता है। पूजा के समय शंख में जल भर कर रख
दें, पूजा संपन्न होने के बाद घर में उसे छिड़क दें वातावरण शुद्ध होगा,
सकारात्मक
ऊर्जा का सृजन होगा। पिताजी कहा करते थे कि अगर शंख के पिछले हिस्से को कान में
लगाओ तो राम-राम की ध्वनि सुनायी देती है। हमने कई बार ऐसा करके देखा लेकिन
राम-राम तो नहीं लेकिन ऐसा करते वक्त निरंतर हवा की एक अविरत ध्वनि अवश्य सुनायी
देती रही। एक शतक प्राचीन इस शंख का प्रयोग आज भी हमारे यहां छोटी-बड़ी पूजाओं में
होता है। मिथ्या भाषण नहीं करूंगा, अब नित्य तो इसे बजा नहीं पाता।
जब मैं अपने गांव से तकरीबन आठ किलोमीटर दूर बबेरू के कॉलेज में पढ़ता था, तब भी अपने गांव के विशाल तालाब में एक चबूतरे में पीपल के पेड़ के नीचे स्थापित हनुमान जी की प्रतिमा के पास रोज शाम दीपक जलाता था। अब वह चबूतरा ध्वस्त हो गया है वह पीपल का पेड़ भी अब बूढ़ा हो चुका है जिसके नीचे हनुमान जी विराजते थे। उसकी हालत कैसी है इसकी गवाह है यह तस्वीर जो यहां दे रहा हूं जो मुझे मेरे सहपाठी और ग्रामवासी सखा बाबूलाज जी यादव( सेवानिवृत जज) के सौजन्य से मिली है।
दीपक जलाने के बाद मैं काफी
देर तक शंख बजाता था। शाम के सन्नाटे में वह ध्वनि आठ किलोमीटर तक का फासला तय कर लेती
है इसका पता मुझे अपने कॉलेज के होस्टल में रहनेवाले कुछ साथियों से चला। उनमें से
किसी ने एक दिन पूछा की रोज शाम को आपके गांव की ओर से शंख की ध्वनि आती है। पता
नहीं कौन नियमित शाम को शंख ध्वनि करता है। मैंने मुस्करा कर कहा भाई –‘मैं
ही हनुमान जी के स्थान पर दीपक जला कर शंख ध्वनि करता हूं।‘ उनमें से एक
साथी बोला-‘यार आपकी शंख ध्वनि तो आठ किलोमीटर दूर तक सुनी
जाती है। संभव है इससे दूर भी जाती हो।’
उस शंख से मुझे इतना लगाव है। उसे हाथ
से स्पर्श करते और बजाते वक्त बरबस पिता जी की स्मृति ताजा हो जाती है। एहसास होता
है कि कभी इसे उनका स्पर्श मिला था। यह शंख मेरे लिए मात्र एक शंख नहीं उस कालखंड
की अमोल धरोहर है। (क्रमश:)
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