Wednesday, June 3, 2015

जीवनगाथा डॉ. रुक्म त्रिपाठी-20


फिल्मवालों के हर ऊंच-नीच के वे साक्षी रहे
भाग (20)
रुक्म जी का कार्यक्षेत्र तो कलकत्ता (अब कोलकाता) था लेकिन उनकी मित्रमंडली बंबई (अब मुंबई ) तक फैली थी। उनकी सदाशयता और मिलनसारी की सभी तारीफ करते थे। वे किसी पुराने परिचित से भी मिलते तो इस तरह जैसे उससे उनका रोज का मिलना हो और वह उनका सगा हो। आज की भागदौड़ वाली दुनिया में लोग दूसरों को वक्त देने में कतराते हैं और हाय-हलो तक का ही संबंध रखना चाहते हैं लेकिन रुक्म जी में यह बात नहीं थी वे दिल खोल कर लोगों से मिलते और उन्हें भरपूर समय देते। कोई दूर से आता तो उससे उसके परिवार तक की कुशल-क्षेम पूछते जैसे परिवार का कोई बुजुर्ग पूछता है। यही वजह थी कि वे यारों के यार और अजातशत्रु थे। कोलकाता में उनके मित्रों में श्रीनिवास गुप्त (व्यवसायी), डॉ. नगेंद्र चौरसिया (अब स्वर्गीय), लेखक संतन कुमार पांडेय, कवि और रेडियो कार्यक्रम प्रस्तोता कुशेश्वर, कवि जितेंद्र धीर, शिक्षक और लेखक जितेंद्र जितांशु, परबंत सिंह मैहरी, डॉ. कृष्णबिहारी मिश्र, कथाकार सेराज खान बातिश आदि थे। मुंबई में संवाद लेखक ब्रजेंद्र गौड़, अभिनेता भारत भूषण, चंद्रशेखर, संजीव कुमार, धर्मेंद्र, मनोज कुमार, निर्देशक शक्ति सामंत, मोहन सहगल, राजेंद्र भाटिया, ओ पी रल्हन व अन्य।
     वे सभा-संस्थाओं या समारोह में जाने से परहेज रखते थे फिर भी कोलकाता का साहित्यिक और पत्रकारिता के क्षेत्र के नये-पुराने लोग रुक्म जी के नाम से परिचित थे। नये लेखकों के लिए तो वे गुरु और संपादक दोनों थे। उनमें से कई लोग आज भी हैं जो इस बात के गवाह हैं कि वे उन्हें जैसे हाथ पकड़ कर सिखाते थे। उनकी कहानियों, कविताओं का पुनर्लेखन करते और फिर उनको बताते कि देखो ऐसे लिखा जाता है। चूंकि फिल्म पृष्ठ का भी वे संपादन करते थे इसलिए उनका बंबई भी आना-जाना लगा रहता था। फिल्मी दुनिया को करीब से देखा था इसलिए उसके नीच-ऊंच से पूरी तरह परिचित हो गये थे। वे बताते थे कि फिल्मी दुनिया में भी थोथा चना बाजे घना वाली कहावत थी। जिसने अभी पहली फिल्म ही शुरू की है वह लोगों से ऐसे डींग हांकता जैसे महान शोमैन है। दरअसल इस तरह बढ़ा-चढ़ा कर फेंकने का मतलब होता था कुछ सीधे-साधे पैसेवाले लोगों को फसाना ताकि अगली फिल्म के लिए फाइनैंस जुटाया जा सके। फिल्मों के ग्लैमर के मायाजाल में डूबे जाने कितने लोग अपने पैसे लगाने और अक्सर गंवाने के लिए अभिशप्त होते हैं। ऐसे बहुत से लोगों को रुक्म जी ने अपने लाखों खोकर हाथ मलते देखा था। उन लोगों में से कुछ तो एक बार ठगे जाने पर संभल गये और कुछ इस लोभ में कि शायद अगली फिल्म से पैसे निकल आयें लागातार ठगे जाते रहे। वे बताते थे कि बंबई में अजीब रिवाज है। वहां चाहे संगीतकार हों, गीतकार हों, निर्देशक या फिर कोई और शुरू-शुरू में वे मुंबई आकर अपने लिए माहौल बनाते हैं।  वे अपने एजेंटों के जरिये फिल्मी हलकों में यह संदेश पहुंचाते हैं कि साब क्या कमाल का आदमी आया है। अब तक फिल्म इंडस्ट्री में इतना पावरफुल (संगीतकार, गीतकार, गायक, निर्देशक या कुछ और) शख्स आया है कि साब उसे अगर आपने लिया तो वह तूफान मचा देगा। फिल्म जुबली पर जुबली मनायेगी और इतिहास रच देगी। जाहिर है इस तरह की पब्लिसिटी में कोई ना कोई फंस जायेगा और अगर उस नये शख्स की कोई फिल्म हिट हो गयी तो फिर उसका फिल्मी सफर शानदार ढंग से शुरू हो गया। फिल्मी दुनिया में जो जमे हुए हैं वे अपने आगे किसी को टिकने नहीं देना चाहते और ना ही किसी नये का आसानी से प्रवेश ही होने देना चाहते थे। एक युग था जब प्रतिष्ठित गायिकाओं का दबदबा था और कोई संगीतकार नयी गायिकाओं को लेकर उनके रोष का भाजन नहीं बनना चाहता था लेकिन बाद में कुछ लोगों ने साहस किया और इस तरह से नये गायक-गायिकाओं  को प्रवेश मिला और उनमें से कुछ बेहद लोकप्रिय हुईं।
     बांदा के जिन कन्हैयालाल गुप्त निरंकार का जिक्र पहले कर आये हैं वे बांदा में रुक्म जी के बालसखा थे और बाद में मुंबई चले आये। उन्हीं निरंकार जी के एक भाई  रमेश गुप्त कवि और गीतकार थे। एक नये गीतकार जब मुंबई में आये जो पहले पहल वे उनके माधव निवास में ही ठहरे। कहते हैं कि उनको सही ढंग से गीत लिखना नहीं आता था और रमेश गुप्त ने उनको प्यार से गीत लिखना सिखाया। बाद में वे एक सफल फिल्मी गीतकार के रूप में प्रतिष्ठित हुए। कहते हैं कि एक बार एक नवयुवक मंबई आया और उस गीतकार से मिला जो तब तक मशहूर हो चुका था। उसने उससे कहा कि वह भी गीत लिखता है और चाहता है फिल्मों में भी लिखे। उसने उस गीतकार से कहा कि  वे अगर उसकी इस बारे में मदद कर सकें तो बड़ी कृपा होगी। गीतकार ने बड़ी उदासीनता से कहा-रख जाओ, देखते हैं क्या किया जा सकता है। बाद में उस नवोदित गीतकार ने अपना सिर पीट लिया जब उस गीतकार ने उसके गीत को अपने नाम से एक फिल्म में चला दिया।  वह फिल्म बहुत सफल रही और उससे भी सफल रहा उसका वह गीत जिसका क्रेडिट तो उस सफल गीतकार ने ले लिया लेकिन जिसका रचयिता वह नवोदित गीतकार था जिसका गीत लूट लिया गया था। ऐसे एक नहीं हजार मिसालें फिल्मी दुनिया की वे सुनाते थे। फिल्मी कलाकार कितने अंधविश्वासी होते हैं इसकी कहानी भी वे अक्सर सुनाते थे। इसी बारे में एक बार उन्होंने बताया कि मुंबई के पास ही एक पहाड़ी में अचानक एक साधु प्रकट हुए। प्रकट हुए और कुछ अरसे में फिल्म कलाकारों में इतने लोकप्रिय हुए कि वे उनको भगवान की तरह पूजने लगे। उस वक्त के बड़े-बड़े स्टार तक उनकी सेवा में पहुंचने लगे। जिनकी एक झलक पाना लोगों के लिए मुश्किल होता था वे साधु बाबा की सेवा में साधारण आदमी की तरह जुट जाते थे। इस सेवा में आश्रम को साफ करना पानी भर कर लाना और वहां पहुंचे भक्तों की सेवा करना तक शामिल था। कभी किसी के लिए साधु बाबा की की भविष्यवाणी सच हो जाती तो वह फिर जैसे उनका गुलाम बन जाता। कहते हैं कि उस वक्त की एक बहुत ही खूबसूरत अदाकारा तक जो बेहद बीमार थी वहां सेवाकार्य करने जाती थी। रुक्म जी भी एक बार अपने कलाकार दोस्त के साथ उस साधु बाबा के पास पहुंचे थे। कहते हैं कि बाद में अचानक वह साधु बाबा उस पहाड़ी से गायब हुए तो फिर किसी को नजर नहीं आये। किसी को नहीं पता चला कि वह कौन थे, कहां से आये थे और कहां चले गये। कुछ उन्हें दक्षिण भारत का मानते थे तो कुछ उनके बारे में और भी कयास लगाते थे।
कोलकाता में एक फिल्म के प्रीमियर शो के दौरान अभिनेत्री वहीदा रहमान से बात करते रुक्म जी


फिल्मी दुनिया के कई पक्षों के बारे में वे वाकिफ थे। वे अकसर बताया करते थे कि वहां कुछ लोग लाखों-करोड़ों में खेलते हैं और कुछ सारी योग्यता रखते हुए भी मारे-मारे फिरते हैं या तंगी की हालात में जीते हैं। उन्होंने बताया था कि किस तरह से एक प्रसिद्ध गीतकार को अपना प्रारंभिक जीवन मुंबई की एक चाल में बिताना पड़ा था। इस गीतकार ( जो अब इस दुनिया में नहीं है) के कई गीत बेहद लोकप्रिय हुए और पुरस्कृत भी हुए थे। 

 मुंबई आते-जाते उनका परिचय कई बड़े सितारों से हो गया था। इनमें से राजेश खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा और हेमा मालिनी की जीवनी पर उनकी किताबें आयीं। वे बताते थे कि कुछ कलाकार ऐसे थे जो काफी हिट रहे लेकिन उन्होंने अपनी पूंजी का सही निवेश नहीं किया और जिंदगी के आखिरी क्षणों में दाने-दाने को मोहताज हो गये। जीने के लिए धारावाहिकों और फिल्मों में उनको छोटी-छोटी भूमिकाएं तक करने को मजबूर होना पड़ा। कुछ को तो शराब की बुरी लत ने कहीं का नहीं छोड़ा। वे अपनी सारी कमाई गंवा बैठे। उगते सूरज को सलाम करने वाली फिल्मी दुनिया ने ढलते कैरियर में उनका साथ ही नहीं दिया। आज भले ही स्टार सिस्टम चल गया हो और कलाकार 60-70 यहां तक कि 100 करोड़ तक पारिश्रमिक लेने लगे हैं। फिल्मों का बजट भी अब कई सौ करोड़ तक पहुंच गया है लेकिन एक वक्त था जब कलाकार वेतनभोगी हुआ करते थे और स्टूडियो में ही खाना बना कर पूरी यूनिट के साथ खाते  थे। तब स्पाटब्वाय या सहायक कलाकारों व यूनिट के दूसरे लोगों में कोई भेदभाव नहीं होता था। आजकल तो बड़े स्टारों की छोड़ दें उनके साथ आये उनके रिश्तेदारों तक के लंच फाइव स्टार होटलों से आते हैं। उन कलाकारों के नखरों में ही निर्माता के लाखों स्वाहा हो जाते हैं।  (शेष अगले भाग में)
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