Thursday, March 31, 2022

जब मेरे पिता का अपमान करना एक व्यक्ति को पड़ा भारी

 आत्मकथा

कुछ भूल गया कुछ याद रहा
राजेश त्रिपाठी
भाग-29

मेरे बाबा (पिता जी) मंगल प्रसाद तिवारी को सभी गांव वाले और उनके परिचित तिवारी बाबा कहते थे। उनके लिए यही संबोधन सुनते हुए मैं बड़ा हुआ तो मुझे भी उनको बाबा कहने की आदत पड़ गयी। मां को लोग तिवारिन दाई कहते थे लेकिन मुझे उनको अम्मा नाम से संबोधित करने की आदत कब और कैसे पड़ गयी याद नहीं आता। मेरे बाबा की आदत थी कि ब्राह्म  मुहूर्त में उठ जाते और माला लेकर घंटों प्रभु का नाम जाप करते रहते थे। कभी-कभी वह बाहर के चबूतरे पर बैठ कर ध्यान लगाया करते थे। जिस घटना का मैं यहां जिक्र करना चाहता हूं वह मेरे जन्म के पहले की है जिसकी जानकारी मेरे बड़े और समझदार होने पर मुझे मेरी मां ने दी थी।

 घटना कुछ इस प्रकार है-एक शाम पिता जी घर के बाहर चबूतरे पर ध्यान लगा कर प्रभु का स्मरण कर रहे थे। तभी वहां कहीं से वह दबंग कुर्मी आया जिसका घर हमारे घर के सामने ही था। वह बहुत ही दबंग, अक्खड़ और असभ्य था। वह जब-तब किसी का भी अपमान कर देता था। किसी का सम्मान करना तो वह जानता ही नहीं था। वह आंखें बंद किये ध्यान कर रहे पिता जी के पास पहुंचा और जोर से चिल्लाया-ऐ तिवारी। पिता जी ने हाथ के संकेत से  उन्हें रुकने को कहा और इशारे से बताया कि वे ध्यान कर रहे हैं। इस पर भी वह नहीं रुका और –ऐ ढोंगी कहते हुए उनको धक्का मार दिया। पिता जी गिरते बचे पर वे कुछ नहीं बोले।

  अब जिस दंभी व्यक्ति ने पिता जी का अपमान किया था उसके मन में आशंका और भय का भाव उपजा की ध्यान में लीन एक ब्राह्मण का मैंने अपमान कर दिया कहीं मेरे साथ कुछ अनर्थ ना हो जाये। वह दौड़ा-दौड़ा हमारे पूज्य और आदरणीय गांव के गणमान्य काशीप्रसाद दुबे जी के पास गया। उसने सारी घटना कह सुनाई कि किस तरह से उसने एक ध्यान में डूबे ब्राह्मण मंगल प्रसाद तिवारी को अपशब्द कहे और धक्का दिया। इसके साथ ही उनसे पूछा कि कहीं उसका कोई नुकसान तो नहीं होगा। काशीप्रसाद जी ने उसकी बात को सुन कर कहा कि- तुमने तो अनर्थ कर डाला पहले तो ब्राह्मण का कभी अपमान नहीं करना चाहिए तुमने तो उस समय अपमान कर डाला जब वह प्रभु के चिंतन में ध्यानमग्न था। अब तुम्हें अपनी भलाई चाहिए तो जाकर उनसे माफी मांग लो।

  वह व्यक्ति दुबे जी के पास से वापस लौटा। पिता जी का ध्यान तब तक खत्म हो चुका था। अपने अपमान से वे बहुत दुखी थे। उनकी आंखें भर आयी थीं। उस घमंडी व्यक्ति ने बिना किसी पछतावे के सीधे ऊंची आवाज में कहा-गलती हुई माफ कर दो।

 पिता जी ने आसमान की ओर हाथ उठाते हुए बस इतना कहा-भगवान भला करें, मैंने अपनी बात उन तक पहुंचा दी है।

 कोई श्राप पर विश्वास करे या ना करे पर मेरा दृढ़ विश्वास है कि दिल से निकली आह कभी-कभी विनाश कर देती है। कहा भी है- तुलसी हाय गरीब की , कबहूं ना निष्फल जाए मुए जीव के चाम से लौह भस्म हो जाये।

 अभी मैं जो लिखने जा रहा हूं उस पर आप में से बहुत लोगों को

 विश्वास नहीं हो सकता लेकिन यह घटना अक्षरश: सत्य है। कुछ

 ऐसा संयोग बना कि वह घमंडी व्यक्ति जो पूरी तरह स्वस्थ था अचानक बीमार हो गया। उसे खून के दस्त होने लगे और तीन-चार दिन में ही उसने खाट पकड़ ली। तमाम वैद्य, डाक्टरों को दिखाया लेकिन कोई दवा काम ना आयी। उस आदमी ने बारहवें दिन दम तोड़ दिया। उनके परिवार वालों को उसके द्वारा किये गये मेरे पिता जी के अपमान के बारे में पता था। वे मन में यहीं गांठ बांध कर बैठ गये कि उनके परिवार के मुखिया की मृत्यु मेरे पिता जी के श्राप से हुई है।

 जब यह घटना हुई थी तब मेरी अम्मा उम्मीद से थीं। उस घमंड़ी व्यक्ति की मृत्यु के एक महीने बाद मेरा जन्म हुआ। दो संतानें गर्भ में ही खोने के बाद अम्मा को मेरे रूप में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई तो बधाव बजाया जाने लगा। ढोल, शहनाई और बीन बजाने वाले आये और हमारे दरवाजे पर बधाव बजाने लगे। ढोल की आवाज सुन कर उस व्यक्ति के परिवार वाले बाहर आ गये और बधाव बजवाना बंद करवा दिया। वे बोले- जिसके बाप के श्राप से हमारा आदमी मारा गया उसके बेटे के जन्म पर हम खुशी मनाने, बधाव बजाने नहीं देंगे। उनके दबाव के चलते बधाव बंद कर दिया गया।

दूसरे दिन पिता जी ने यह बात काशीप्रसाद दुबे जी को बतायी कि किस तरह उनके बेटे के जन्म पर बधाव नहीं बजाने दिया गया। वे भी दुखी हुए और बोले- छोड़ो तिवारी क्या करोगे कुछ लोग ऐसे भी हैं जो चोट खाकर भी नहीं चेतते।

*

मैं थोड़ा बड़ा हुआ। अम्मा रोज सुबह-सुबह जांत में गेहूं पीसने बैठ जातीं और साथ-साथ प्रभाती राग की यह पंक्तियां दोहराती जातीं-जागिए रघुनाथ कुंवर पंक्षी बन बोले, रवि की किरण उदय भयी पल्लव दृग डोले। जांत की घर्र-घर्र और अम्मा के गीत के स्वर हमारे कानों में पड़ते। हम उनींदी आखें मलते और फिर करवट बदल सो जाते। गेहूं पीस कर, गायें दुह कर मां जब दही बिलोने बैठतीं तब तक मैं भी एक कटोरा लेकर उनके पास जा बैठता। वे झिड़कतीं –तुम्हें इतना कहा कि दूध पिया करो पर तुम्हें दूध भाता ही नहीं, आ गये मट्ठा और मक्खन की लालच में। मैं चुपचाप मुसकरा कर रह जाता।

बचपन की कई यादें दिमाग पर जोर डालने पर एक के बाद एक उभरती जाती हैं। हमारे घर से संटा हुआ जो घर था उस परिवार की हालत अच्छी नहीं थी। किसी किसी दिन तो उनके घर चूल्हा ही नहीं जलता था। उस दिन सन्नाटा छाया रहता था सिर्फ थोड़ी-थोड़ी देर बाद बच्चों के रोने की आवाज भर आती थी जो शायद खाना ना मिलने के कारण भूख से रोते थे। बड़े लोग पानी पीकर अपनी भूख शांत करने का निष्फल प्रयास करते थे लेकिन बच्चे भूख नहीं सहन कर पाते थे। कई बार ऐसी स्थिति को भांप कर मां उनके यहां खाना दे आती थी तब कहीं हमें खिलाती थी।

इस परिवार के बड़े बेटे के सिर पर हफ्ते दो हफ्ते में देवी आती थीं जो नारियल और बतासा लिये बगैर नहीं जाती थीं। जिस परिवार को खाने के लाले हों वह भला नारियल और बतासा कहां से और कैसे जुटाये वह भी हर दूसरे हफ्ते। यहां यह बता दें कि यह परिवार पहले से कर्ज में डूबा था और उसे पटाने के लिए बाबू लोगों के यहां काम करता था।

  हमारे ही मुहल्ले में रहनेवाले स्वयंबर यादव ने मेरे बाबा को इस बारे में बताया और कहा कि –कुछ उपाय बताइए उसका गरीब बाप बहुत परेशान है मुझसे रोता है। मेरे बाबा ने उसके बारे में कुछ और जानकारी ली कि जब देवी आती हैं तो क्या सचमुच  कुछ चमत्कार होता है। स्वयंबर ने बताया कि एक बार उसने यह बताया भक्तो लालटेन के पास बिच्छू है। लोगों ने देखा सचमुच वहां बिच्छू थी।  लोग इससे मान गये कि यह देवी का ही चमत्कार है।

मेरे बाबा ने पूछा कि- जब देवी प्रचंड रूप में आती हैं तो क्या होता है।

 स्वयंबर बोला-मत पूछिए देवी बहुत जोर से उछलने लगती हैं और मुझे ही पकड़ कर संभालना पड़ता है।

बाबा ने पूछा-जहां देवी बैठती हैं उसके आसपास क्या है।

स्वयंबर ने बताया –पास ही मसाला पीसने वाली सिल रखी है।

बाबा ने कहा-अब जिस दिन देवी आयें और प्रचंड रूप में पहुंच कर उछल कूद रही हों तो तुम अपने हाथ थोड़े ढीले कर देना।

अगली बार जब देवी आयीं और प्रचंड रूप में उछलने लगीं तो स्वयंबर ने हाथ ढीले कर दिये और जिस पर देवी आती थीं वह सिल पर जा गिरा उसके सिर पर काफी चोट आयी। उस दिन के बाद फिर देवी उस पर नहीं लौटीं।

 यह घटना अक्षरश: सत्य है इसका उल्लेख करने का मतलब यह नहीं कि हम ईश निंदा कर रहे हैं। हमारा तो मानना है कि देवी या देवता किसी के शरीर पर आ ही नहीं सकते। किसमें शक्ति है कि कोई अपने ऊपर देवी या देवता की शक्ति को सह सके।   

*

मेरे पिता जी बहुत कुछ सहन करते थे लेकिन जब उन्हें गुस्सा आता तो वे अलग ही हो जाते थे। उन्हें यह कतई पसंद नहीं था कि किसी के चलते उनका नाम बदनाम हो भले ही वह उनका अपना बेटा ही क्यों ना हो। उन्होंने बार-बार मुझे सावधान किया था कि-कभी किसी को गाली मत देना चाहे जो भी हो जाये। कोई तुम्हें कुछ कहे तो मुझसे आकर बताना खुद ही कोई कदम ना उठाना में जैसे निपटना है निपट लूंगा। मैं छोटा ही था तभी एक लड़के से मेरा झगड़ा हो गया। झगड़े में वह मेरे माता-पिता को लगातार गाली दिये जा रहा था। बचपन ही था मैं भी कितना बरदाश्त करता गुस्से में आकर मैंने भी उसे मां की गाली दे दी। उस समय पता नहीं था कि मैंने बैठे-ठाले एक मुसीबत मोल ले ली है। उस लड़के को मेरे खिलाफ एक कारण मिल गया और घर जाकर उसने अपनी मां से कह दिया कि-तिवारी बाबा के लड़के ने मुझे मां की गाली दी है।

 उस लड़के की मां हमारे घर आयी। उस समय मेरी अम्मा घर पर नहीं थी। उसने बाबा से खूब बढ़ा-चढ़ा कर मेरी गलती का बयान किया और कहा-आपके बेटे ने मेरे बेटे को मां की गाली दी। वह आग लगा कर चली गयी जिसकी आंच मुझे पल भर में महसूस हो गयी। पिता ने मुझे पकड़ लिया और मुझ पर तड़ातड़ थप्पड़,घूंसे जमाने लगे। मैं रोता, चिल्लाता रहा पर वे कहां रुकने वाले थे। वे बार-बार यही चिल्ला रहे थे-गाली तूने दी और देखो सबसे पहले मेरा नाम आया कि-तिवारी के लड़के ने गाली दी।

 संयोग से तभी अम्मा आ गयी और पिता जी के चंगुल से मुझे छुड़ाते हुए बोली-कसाई हो क्या, मार ही डालोगे लड़के को। कितनी मन्नतों के बाद यह मिला है। इतना कह कर वह बिलख-बिलख कर रोने लगी। उनके हाथ की पकड़ थोड़ी ढीली हुई तो मैं अपना हाथ छुड़ा कर घर के बाहर भागा। मैंने उस दिन अपने को बहुत अपमानित महसूस किया और सोचा कि ऐसी जिंदगी को खत्म कर देना ही अच्छा होगा। मैं गांव के प्रवेश पर तालाब के किनारे बने बड़े कुएं की ओर भागा कि चलो उसी में डूब कर जान दे देते हैं।

  अम्मा भी मेरे पीछे-पीछे भागी लेकिन मैं इतना जोर से भाग रहा था कि पल भर में उसकी नजरों से ओझल हो गया। मां रास्ते में सबसे पूछती- मेरे दादू (बाबा और अम्मा मुझे इसी नाम से बुलाते थे) को देखा है।

 किसी औरत ने बताया-बड़े कुआं की ओर गया है। खूब रो रहा था और कह रहा था-आज कुएं में डूब कर जान दे दूंगा सब झमेला खत्म।

 अम्मा ने जब यह सुना कि लड़का मरने गया है तो लोगों से चिल्ला-चिल्ला कर बोली –कोई मेरे दादू को बचाओ वह कुएं में डूबने गया है।

  अम्मा की बात सुनते ही आसपास के कुछ लोग दौड़े, मैं कुएं किनारे तक ही पहुंचा था कि मुझे लपक कर पकड़ लिया और अम्मा को सौंप दिया। अम्मा मुझे हृदय से लगा कर विलाप करने लगी-क्या करने जा रहे थे। ऐसा करते हुए अम्मा का खयाल नहीं आया कि वह तेरे बिना विलाप कर कर के मर जायेगी। अब दोबारा कभी ऐसा ना करना।

  यह एक घटना आज भी याद आती है तो अंदर तक कांप जाता हूं अगर कुछ लोगों ने उस समय बचा ना लिया होता तो अपनी कहानी का तो तभी द एंड हो जाता।

 पिता जी की सजा पर उस वक्त भले ही बहुत गुस्सा आया हो लेकिन मुझे जीवन भर के लिए एक शिक्षा मिल गयी कि कभी किसी के लिए अपशब्द ना प्रयोग करना। उस सजा की वह सीख अब तक मन-मानस में रची-बसी  है और चाहे कुछ भी रहा हो मैंने अपनी शालीनता नहीं छोड़ी। कई तरह के छल प्रपंच लोगों ने मेरे साथ किये लेकिन मैंने सब भगवान पर छोड़ दिया स्वयं उनके लिए अपशब्द प्रयोग कर के अपना स्वभाव मलिन नहीं किया। जो आचरण, जो शालीनता जीवन में है वह सब कुछ माता-पिता का दिया है। इस पर हमें गर्व है। हमसे कोई दुर्व्यहार करता है तो हम यही सोच कर उसे जवाब नहीं देते कि हम क्यों अपना मुंह गंदा करें उसका जो स्वभाव है उससे उसे जवाब आज नहीं तो कल किसी से मिल ही जायेगा। (क्रमश:)


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