आत्मकथा-30
कुछ भूल गया, कुछ
याद रहा
राजेश त्रिपाठी
भाग-30
पहले की किस्त में बता चुका हूं कि मेरे पिता मंगलप्रसाद तिवारी बहुत
ही साहसी थे। वे किसी से डरते नहीं थे। छह फुट का गठीला बदन। एक साथ सात जनों से
मुकाबला कर उन्हें हरा देने की कूवत। उनमें एक और गुण भी था वे किसी का भी कष्ट
सुनते तो मदद के लिए दौड़े जाते थे। अपनी इसी आदत के चलते एक बार वे कानूनी पचड़े
में फंसते बचे।
हुआ यह कि रात हमारे घर के
पीछे एक घर छोड़ कर गंगवा नाम का एक व्यक्ति रहता था। जिस घटना का मैं जिक्र कर
रहा हूं वह मेरे गांव की है पर मेरे जन्म से पहले की। एक रात कहीं से आये कुछ
बदमाशों ने उस पर भाले से हमला कर दिया। भाला उसके गले में लगा था और वह मदद के
लिए चिल्ला रहा था। दर्द के मारे उससे बोला ना जा रहा था और वह कटे-कटे स्वर में
कराहते हुए मदद के लिए पुकार रहा था। मदद के लिए कोई ना आ सका क्योंकि बदमाशों ने
पूरे मोहल्ले के दरवाजों की सांकल बाहर से बंद कर दी थी। संयोग से वे हमारे घर की शांकल
बाहर से लगाना भूल गये थे। पिता जी ने दरवाजा खोला और गंगवा के घर की ओर दौड़े वह
दर्द से कराह और छटपटा रहा था। मेरे पिता जी ने आसपास के कुछ लोगों की बाहर से लगी
शांकल खोली और उन लोगों की मदद से गंगवा को बैलगाड़ी में लाद कर बबेरू के सरकारी
अस्पताल ले जाया गया जहां उसकी जान बच गयी। अब इस घटना की शिकायत गांव के चौकीदार
ने बबेरू थाने में दर्ज करा दी। दूसरे दिन थानेदार तहकीकात करने आये तो वहां मेरे
पिता जी भी पहुंच गये।
थानेदार ने वहां जुटे लोगों
से पूछा-जब हमला हुआ तो सबसे पहले यहां कौन आया था।
पिता जी ने बड़ी बहादुरी
दिखाते हुए कहा-साहब सबसे पहले मैं आया था।
थानेदार बोले- आपका नाम ।
पिता जी ने कहा-जी मंगलप्रसाद तिवारी।
थानेदार-आप ही क्यों आये बाकी लोग तो नहीं आये।
पिता जी-साहब हमला करनेवालों ने सभी के दरवाजों की शांकल बाहर से बंद
कर दी थी। हमारे घर की शांकल बंद करना भूल गये थे। गंगवा के चिल्लाने की आवाज सुनी
तो मैं दौड़ा आया।
इस पर थानेदार उनको एक तरफ ले
गये और बोले-पंडित जी ऐसा मत किया कीजिए। अब अगर मैं चश्मदीद गवाह के रूप में आपका
नाम लिख लूं तो आप कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटते-काटते परेशान हो जायेंगे। अब से यह
गांठ बांध लीजिए कि ऐसी किसी वारदात में दौड़े-दौड़े नहीं आयेंगे और आ भी गये तो
उत्साह में बताने ना बैठ जाइएगा।
पिता जी ने कहा-जी साहब गलती
हुई अब ऐसा नहीं होगा।
वह भगवान का धन्यवाद कर रहे थे कि बेवजह कानून के पच़ड़े में फंसने से
बच गये। थानेदार अच्छे थे वरना अगर उनको चश्मदीद गवाह के रूप में लिख लेते तो
अदालत के चक्कर लगाते वे परेशान हो जाते।
जो भी हो इतना अवश्य था कि गंगवा को किसी से पता चल गया था कि अगर
मंगलप्रसाद तिवारी ना आते तो शायद वह जिंदा ना बच पाता। जो बदमाश उसे मारने आये थे
उन्होंने आसपास के घरों के दरवाजों की शांकल बाहर से बंद कर दी थी। केवल भूल से
मंगलप्रसाद तिवारी के घर की शांकल लगाना वे भूल गये थे। अगर तिवारी बाबा नहीं आते
तो गंगवा का बच पाना मुश्किल था। उसके बाद से गंगवा पिता जी को बहुत मानने लगा था।
*
हमारे बुंदेलखंड में चैत्र नवरात्रि का पर्व भी बड़े धूमधाम से मनाया
जाता है। सभी देवी मंदिरों नौ दिन तक श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है। कुछ लोग घर
में जवारा बोकर मां की आराधना करते हैं। हमारे यहां एक व्यक्ति थे जिन्होंने अपनी
छाती पर मिट्टी का पात्र रख कर जवारा बोकर मां की आराधना की। उनकी तपस्या बड़ी
कड़ी थी। उन्हें नौ दिन बिना हिले-डुले लेटे रहना पड़ा। नौरात्रि में हमारी तरफ
सांग लेने की प्रथा थी।इसमें एक गुरु होते थे जो बड़ों से लेकर युवाओं को सांग लगा
देते थे। लांग लगाते वक्त वे देवी के हवन की विभूति लगा कर सांग गाल या शरीर के
दूसरे किसी संग को छेद कर लगा देते और उसकी नोंक के बाहरी छोर पर एक नीबू लगा देते
थे। जिसे सांग लगायी जाती उसे ना दर्द होता ना खून निकलता वह घंटों सांग को लगाये
पूरे गांव में झूमता कूदता रहता। बाद में शाम को जब सांग निकाली जाती तो ना खून
निकलता ना ही घाव में कोई सूजन होती। यह कैसे होता था ईश्वर जाने। जो सांगें लगायी
जाती थीं उनमें कुछ तो 20-25 किलो तक भारी होती थी। वे खुले आसमान के नीची किसी
पीपल के पेड़ के पास देवी चौरा में गड़ी रहती थीं। पूरी बारिश का पानी यह झेलती
थीं। इनमें जंग लगी होती थी पर सांग लेने वाले किसी व्यक्ति को हमने टिटनिस से
मरते नहीं देखा। जब वे सांग लिये रहते थे उन पर एक आवेश सा छाया रहता था। वहीं एक
व्यक्ति था जो मिट्टी के खप्पर में आग जला कर उसमें लोहे के गोले खूब गरम कर लेता
फिर उन्हें हाथ में लेकर करतब दिखाता। उसके हाथ पर ना छाले पड़ते ना ही उसे कोई
तकलीफ होती। यह कैसे होता था आज तक नहीं समझ पाया। बस मां दुर्गा का ही कोई प्रभाव
मान कर संतोष कर लिया।
*
दीपावली के
आसपास ही मौनिया व्रत भी होता है। इसे मैं भलीभांति इसलिए जानता हूं कि हमारे गांव
के मौनियों के गुरु मेरे बाबा यानी पिता जी ही थे। मौनिया कौड़ियों से गुंथे लाल, पीले रंग के
जांघिये और लाल पीले रंग की कुर्ती या बनियान पहनते हैं, जिस पर झूमर
लगी होती है। कमर में घंटियां बांधे रहते हैं। हाथों में
मोर पंख का गुच्छा एक लाठी होती है। सुबह से इनका मौन व्रत प्रारंभ होकर शाम को
पूरा होता है। इस दौरान इन्हें कम से कम पांच गांवों की सीमा का स्पर्श करना पड़ता
है। पूरे दिन मौन रहना इस व्रत की सबसे
महत्वपूर्ण और कड़ी शर्त होती है। अगर भूल से किसी का मौन व्रत भंग हो गया तो गोबर
और गोमूत्र मिला कर उसे शुद्ध कराया जाता है।
यह पर्व
चरवाहा संस्कृति से जुड़ा है। दीपावली के दूसरे दिन गायों को नहला कर रंग-बिरंगे
रंगों से उन्हें सजाया जाता था और उनकी पूजा की जाती थी। कुछ लोग इस पर्व को भगवान
कृष्ण से भी जोड़ते हैं क्योंकि वे यदुवंश भूषण और सच्चे गोपालक कहलाते हैं।
दिवारी का
चलन बुंदेलखंड में कब शुरू हुआ यह पता
नहीं लेकिन कुछ लोग इसका चलन 10वीं सदी से प्रारंभ हुआ
मानते हैं।
दीपावली
जिसे हमारी बुंदेली भाषा में दिवारी कहते हैं उस दिन यानी अमावस्या की रात को पिता
जी अपने शिष्यों के साथ सांप के काटने के उपचार के मंत्र का आधी रात के बाद पाठ
करते थे। इसको मंत्र जगाना कहते हैं। यहां यह बताते चलें कि इनको शाबर मंत्र कहते
हैं। इन मंत्रों की रचना के पीछे भी एक कहानी है। कह नहीं सकते कि यह कितनी सच्ची
है। कहते हैं ब्रह्मा जी जब सृष्टि की रचना कर रहे थे तो शंकर जी के मन में भी आया
कि वे भी सृष्टि की रचना करेंगे। उन्होंने सृष्टि की रचना में हाथ आजमाया पर उनसे
मनुष्य के बजाय सांप, बिच्छू जैसे विषैल जंतु बन गये। इस पर पार्वती ने कहा-यह
क्या सृष्टि कर दी आपने यह तो मानव जाति को कष्ट पहुंचाने के अलावा और कुछ नहीं
करेगी। अब मानव जाति की रक्षा के लिए कुछ करिये। इसके बाद शंकर जी ने शाबर मंत्र
की रचना की और कहाकि इन मंत्रों को सिद्ध करके इनका प्रयोग करने से सांप आदि
जहरीले जंतुओं के विष से मुक्ति पायी जा सकेगी। यह मंत्र अटपटे हैं इनका अर्थ समझ
नहीं आयेगा लेकिन ये अमोघ हैं। अपने गांव में हमने देखा कि सांप काटे किसी व्यक्ति
को अस्पताल नहीं जाना पड़ा। पिताजी और उनके शिष्यों ने मंत्र पढ़ कर और एक विशेष
औषधि को खिला कर सांप काटे व्यक्तियों को ठीक कर दिया। इसमें शर्त यह होती है कि
सांप काटे व्यक्ति को जगाये रखना पड़ता है। अगर विष के नशे से उसे तंद्रा आने लगती
है तो संडसी से उसके नाखूनों को दबा कर उसे होश में लाना पड़ता है। मंत्र की
पंक्ति समाप्त. होने के बाद सभी झाड़ने
वाले रोगी के कान पर जोर से चिल्लाते-विष खररररा। बचपन में यह देखा इसलिए विश्वास
करना पड़ता है अगर इसमें से किसी की मौत हो जाती तो संदेह होता। इसमें कई कोबरा के
काटे लोग भी थे। (क्रमश:)
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