Thursday, January 6, 2022

एक दुर्घटना के चलते जब मुझे करनी पड़ी सीता की भूमिका

 आत्मकथा

कुछ भूल गया, कुछ याद रहा

राजेश त्रिपाठी

भाग-22

हमारे गांव जुगरेहली से बबेरू आठ किलोमीटर है। वहां हाईस्कूल आने-जाने के लिए हमें गांव से आठ किलोमीटर का फासला पैदल ही तय करना पड़ता था। सुबह हलका-फुलका नाश्ता कर हम बबेरू के लिए रवाना हो जाते। मां रोटी बना कर उसमें घर की गायों का असली घी खूब चुपड़ कर साथ दे देती जो हम लोग दोपहर में अपने सहपाठियों से बांट-बांट कर खाते। वे अपने यहां से बनायी कुछ चीजें लाते वह हमें देते और हम अपनी घी चुपड़ी रोटियां उनसे साझा करते।

  यहां यह बताते चलें कि उन दिनों अध्यापकों के पढ़ाने का ढंग बहुत ही अच्छा था। इसमें छात्रों को रट्टू तोता बनाने की बजाय जोर इस पर दिया जाता था कि छात्र को उस विषय का सम्यक ज्ञान कराया जाये ताकि उसे परीक्षा में कहीं अटकना ना पड़े।

 हमारे संस्कृत के अध्यापक आचार्य प्रभाकर द्विवेदी अपने सामने पुस्तक नहीं रखते थे लेकिन अगर छात्र गलत पढ़ रहा होता तो तुरत टोंक देते। वे कहते मेरे पास पुस्तक नहीं है लेकिन मैं समझ रहा हूं कि तुम गलत पढ़ रहे हो। वे प्रकांड पंडित थे और बहुत सुंदर गौर और देदीप्यमान रंग-रूप था उनका। उनका व्यक्तित्व बहुत ही प्रभावशाली था और उतना ही उत्तम था उनके पढ़ाने का ढंग।

 एक दिन आचार्य जी ने मुझे पास बुलाया और पूछा- अरे भाई तुम्हारा यह नाम किसने रखा है।

मैंने उत्तर दिया- जी गांव की कुछ महिलाओं ने रखा था जैसा मेरी मां ने बताया था।

आचार्य जी बोले –यह रामहेती नाम निरर्थक है इसकी जगह रामहित होना चाहिए। रामस्य हितू सा रामहित: अर्थात जो राम से प्रेम करता है वही रामहित है। तुम मेरा नाम लेकर अपने कक्षा के अध्यापक से कहना वे रजिस्टर में तुम्हारा नाम ठीक करा देंगे।

 मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया और आचार्य जी को प्रणाम कर वापस आकर अपनी सीट पर बैठ गया।

 उसी दिन मैंने अपनी कक्षा के अध्यापक से कह कर अपना नाम ठीक करा लिया। उसके बाद से मैं रामहेती से रामहित हो गया। आचार्य जी से मैंने बताया था कि मेरे अध्ययन का प्राथमिक आधार संस्कृत रही है यह सुन कर वे बहुत प्रसन्न हुए। वे पौरहित्य कार्य भी करते थे, विवाह आदि करवाते थे। इसके बाद आसपास कहीं अगर वे विवाह कराने जाते तो मुझे साथ ले लेते। विवाह के अंत में शाखोच्चार पाठ किया जाता है जिसमें लोग वर-वधू के ऊपर अक्षत छिड़कते हैं और शाखोच्चार मंत्र पढ़ते हैं। तकरीबतन आधी सदी बीत जाने के बाद अब वह मंत्र तो याद नहीं बस इतना याद रह गया है कि अंत में –सदा रहो कुशलम् वर कन्यययो कहा जाता था।

*

बबेरू और हमारे गांव जुगरेहली के मार्ग के बीच में हमारे गांव से लगभग तीन मील दूर एक जगह पड़ती थी खेर। सुना था कभी वहां बसा बसाया गांव था जो अचानक आये भूकंप से धरती में समा गया और अवशेष के रूप में सड़क के इधर-उधर दो बड़े टीले और एक छोटी-सी कुइयां भर रह गयी। जाने क्यों उस जगह गुजरते हुए दिन में भी पल  भर के लिए शरीर पर सिहरन दौड़ जाती थी।

 एक दिन की बात है, हमारे विद्यालय में जिला विद्यालय निरीक्षक आये थे और उनके सम्मान में हम लोगों ने सांस्कृतिक कार्यक्रम रखा था जिसमें दो नाटकों का मंचन भी शामिल था। एक नाटक था चाणक्य जिसमें मैंने स्वयं चाणक्य की भूमिका निभायी थी और दूसरा रमई काका की रचना पर आधारित हास्य नाटक बहरे बोधन बाबा। इसमें भी मेरी ही प्रधान भूमिका थी। हमारे नाटक बहुत पसंद किये गये। सबसे अधिक प्रशंसा जिला विद्यालय निरीक्षक जी से मिली जिसे सुन कर हमारे शिक्षक और साथ ही हमारे प्रिंसिपल ज्वाला प्रसाद शर्मा जी बहुत प्रसन्न हुए।

  कार्य़क्रम खत्म होते-होते रात के साढ़े बारह बज चुके थे। चांदनी रात थी। मैंने और मेरे गांव के ही मेरे सहपाठी बाबूलाल यादव जी (जो अब सेवानिवृत जज हैं) ने तय किया कि चांदनी रात है हम दोनों गांव निकल चलते हैं। यह निश्चय कर हम लंबे-लंबे डग भरते अपने गांव की तरफ जानेवाली सड़क पर चल पड़े जो बबेरू से हमारे जनपद बांदा तक जाती है। हम दोनों आपस में बाते करते चटख चांदनी में तेजी से बढ़ते जा रहे। जब हम लोग खेर के पास आये तो जाने क्यों रोंगटे खड़े होने लगे। आधी शताब्दी बीत जाने पर भी उस दिन को याद करते हुए शरीर में भय की एक झुरझुरी दौड़ जाती है।

  हम अभी खेर के बीच के गुजर ही रहे थे कि हमें कुछ दूरी पर दो सफेद छायाएं हवा में लहराती दिखीं। हमने नीचे से ऊपर तक नजर दौडायी पर कहीं उनका अंत दिखायी नहीं दे रहा था। अब हमें काटो तो खून नहीं। हम जीवन में पहली बार ऐसा दृश्य देख रहे थे। हमने उन अद्भुत सफेद आकृतियों से अपनी नजर हटायी और जोर-जोर से हनुमान चालीसा की चौपाइयां दोहराते हुए तेजी से गांव  की ओर भाग चले। हमने घर जाकर दम लिया। हमारे दिल तेजी से धड़क रहे थे। हमने घर में जब इस घटना जिक्र किया तो अम्मा और बाबा ने बहुत डांटा। उन लोगों ने कहा –रात को नहीं आना था, वहीं विद्यालय के कर्मचारियों के कमरों में रात गुजार लेते। हमें भी अपनी गलती का एहसास हुआ और हमने तय किया कि अब से अगर ऐसा कोई कार्यक्रम हुआ तो हम विद्यालय में ही रुक जाया करेंगे।

यहां यह बता दें कि हमारा भी भूत-प्रेत पर विश्वास नहीं था लेकिन जो उस दिन देखा वह दृष्टि का भ्रम नहीं था। वैसे भी हमारे धर्म ग्रंथों में भी आत्माओं का उल्लेख मिलता है। धुंधकारी का प्रसंग तो जग विख्यात है जिसे प्रेत योनि से मुक्त कराने के लिए उसके भाई गोकर्ण ने श्रीमद्भागवत का पाठ कराया था। कहते हैं कि सात दिन भागवत का पाठ हुआ था। उसके लिए जो मंच बना था उसके एक किनारे सात गांठ वाले हरे बांस का एक टुकड़ा बांधा गया था। सातवें दिन जब भागवत समाप्त हुई तो कहते हैं कि बांस की सातवीं गांठ फट गयी। इस पर भागवत पाठ करने वाले ब्राह्मण ने गोकर्ण सेकहा कि- देखो बांस की सातवीं गांठ के फटने का अर्थ है कि तुम्हारे भाई धुंधकारी को प्रेत योनि से मुक्ति मिल गयी।  

 हमने यह सुन रखा था कि जो अपनी पूरी उम्र नहीं जी पाता और किसी दुर्घटना या अपघात में बीच ही मारा जाता है और सही ढंग से उसका श्राद्धकर्म आदि नहीं किया जाता तो वह प्रेत योनि में पृथ्वी पर भटकता रहता है।

*

कोई नहीं जानता कि उसे कब कैसी समस्या का सामना करना पड़े। अपने साथ अचानक हुई एक घटना का जिक्र यहां कर रहा हूं। हुआ यह कि एक दुर्घटना के वाकये के चलते मुझे रामलीला में सीता की भूमिका निभानी पड़ी। हुआ यह कि मेरी बहन लगनेवाली एक लड़की का विवाह था। लड़की वालों ने बारातियों का मनोरंजन कराने के लिए गांव ब्यौंजा की रामलीला मंडली को बुलाया था। रामलीला के सारे कलाकार आ गये थे। सीता की भूमिका निभानेवाला कलाकार रह गया था जिसके बारे में पता चला कि उसे कोई साइकिल पर ला रहा है और रामलीला शुरू होने के पहले वह आ जायेगा। उस दिन धनुष यज्ञ की लीला का मंचन होना था। हम सब लोग बहुत आनंदित थे कि बहुत दिन बाद रामलीला और वह भी धनुष यज्ञ की महत्वपूर्ण लीला देखने को मिलेगी।

 अभी हम लोग यही सोच रहे थे कि तभी एक आदमी साइकिल से आया और उसने जो खबर दी उससे हमारी सारी खुशी काफूर हो गयी। उसने बताया कि सीता की भूमिका करनेवाले जिस लड़के को वह साइकिल में ला रहा था उसके साथ रास्ते में दुर्घटना हो गय़ी। साइकिल की चैन में फंस कर उसकी पूरी पिंडली फट गयी। और वह उसे बबेरू के अस्पताल में भर्ती कर के आया है। इतनी खबर देकर वह वापस अस्पताल लौट गया।

 बड़ी समस्या आ गयी अब रामलीला हो तो कैसे। धनुष यज्ञ की लीला वह भी सीता के बिना असंभव। रामलीला कमेटी वालों ने हमारे गांव के गणमान्य व्यक्ति काशीप्रसाद जी द्विवेदी से बात कर सारी समस्या बतायी और उनसे मदद मांगी। सबने कहा कि उनके साथ-साथ यह गांव की इज्जत का सवाल भी है।

 काशीप्रसाद जी को हम लोग आदर से काका कहते थे। वे हमारे बड़े भैया अमरनाथ जी द्विवेदी के पिता जी थे। उनके सामने जब भी इस तरह की या अन्य समस्या आती तो वे मुझे भी याद करते थे। रामलीला कमेटी वालों ने जब अपनी समस्या बतायी तो काशीप्रसाद काका ने अपने यहां काम करनेवाले एक सेवक से कहा-जाओ तिवारी के लड़के को बुला लाओ।

 सेवक जब हमारे घऱ आया तो उसने कुछ बताया नहीं बस इतना कहा-भैया तुम्हैं काका जी बुलाय रहे हैं।

 मैं तुरत काशीप्रसाद काका के पास गया और उनको प्रणाम कर पूछा- काका क्या काम है।

उन्होने संक्षेप में सारी घटना बता कर कहा- गांव की इज्जत का सवाल है अब तुम्हीं हमें इस मुश्किल से उबारो। ब्यौंजा की जो रामलीला मंडली आयी उसमें आज सीता की भूमिका कर लो।

  कोई और होता तो मैं टाल भी जाता लेकिन काका जी का आदेश मेरे लिए हर हाल में शिरोधार्य था। मैंने जब हामी भर ली तो उन्होंने राहत की सांस ली।

  शाम होते ही मैं वहां था जहां रामलीला के सारे कलाकार मेकअप कर रहे थे। मेकअप मेरा भी किया गया जनकनंदिनी सीता के रूप में। इस मंडली में जो परशुराम की भूमिका करते थे उनका अभिनय मैं पहले भी देख चुका था। वे अपने अभिनय में खो जाते थे। उनके बारे में यह भी प्रसिद्ध था कि धनुष भंग के बाद जब क्रोध में कूदते-फांदते थे तो तख्त तक तोड़ देते थे। गांव के एक व्यक्ति ने यह सुन कर अपना मजबूत तख्त भेजा और कहा था कि परशुराम जी इसे तोड़ कर दिखायें।

 जो पंडित जी परशुराम की भूमिका करते थे उन्हें देखा कि मेकअप करने से पहले उन्होंने  लगभग आधा पाव घी उसमें एक पेडा और कुछ कालीमिर्च डाल कर खा लिया। पता चला कि उनका यह बराबर का नियम था। परशुराम के रूप में उनके शरीर में भस्म लगाया गया और उन्होंने कोपीन (लंगोट) पहन लिया।

 मुझे सुंदर-सी साड़ी और गहनों में सीता के रूप में सजाया गया। धनुष भंग होने के बाद मुझे जयमाल लेकर जाना था और राम के गले में डालना था। धनुष भंग हो गया सीता बना मैं सखियों के साथ जयमला ले चल पड़ा। सखियां गा रही थीं-हमार सिया प्यारी धीरे चलो सुकुमारी। उनके गाने के साथ ही कुछ दूर चलने के बाद मैं आगे ना बढ़ सका। सखियां गाये जा रही हैं और मेरे पैर जैसे एक जगह ठहर कर रह गये थे। हुआ यह था कि मेरी साड़ी एक तख्त की कील में अटक गयी थी। दृश्य को खराब होने से बचाने के लिए मैंने पैर से किसी तरह कील के बंधन से साड़ी को मुक्त किया। हाथ में जयमाल थमी थी उसकी मदद तो ले नहीं सकता था। इसके बाद जयमाल का कार्यक्रम संपूर्ण हुआ।

 जयमाल कार्यक्रम संपूर्ण हो जाने के बाद परशुराम आये और गुरु का धनुष भंग हो जाने पर बहुत क्रोधित हुए और इस तख्त से उस तख्त पर क्रोध से कूदने लगे। हुआ यह था कि राम परशुराम का क्रोध शांत करने का प्रयास करते तो लक्ष्मण फिर कुछ कह कर उनका क्रोध बढ़ा देते।

 दूसरे दिन पता चला कि परशुराम जी ने वह तख्त भी तोड़ डाला था जिसे गांव के व्यक्ति ने इस शर्त के साथ दिया था कि मेरे तख्त को तोड़ कर दिखलायें।

  वैसे मैं सीता की भूमिका के लिए तैयार नहीं था लेकिन मुझे यह जान कर संतोष था कि मैंने अपने आदरणीय काशीप्रसाद काका जी का आदेश पालन किया और एक तरह से अपने गांव की इज्जत भी बचा ली। (क्रमश:)

 

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