मनुष्य की उत्पत्ति कैसे हुई इसकी वैज्ञानिक और धार्मिक व्याख्या
अलग-अलग है। क्या मनुष्य का जन्म बंदर से हुआ। डायनोसार युग के अंत के लिए कहा
जाता है कि बहुत बड़ा धूमकेतु पृथ्वी पर गिरा जिससे इनकी पूरी प्रजाति का अंत हो
गया। डायनोसार के अंत ने एक नयी प्रजाति के जन्म
का मौका दिया। यह जाति थी स्तनधारियों की। आज से लगभग सवा पांच करोड़ वर्ष
पहले यह परिवर्तन हुआ। इसके बाद प्राणियों की ऐसी जाति आयी जो सीधी होकर चलने
लगी।ये एप्स कहलाये जो बाद में धीरे-धीरे इन एप्स में से कुछ गोरिल्ला और चिंपैंजी
में बदल गये और कुछ इनसानों में। यह इनसान ही आदि मानव थे जो गुफाओं में रहते थे और वन्य जीवों शिकार कर अपना जीवन
यापन करते थे। विज्ञान मानता है कि इन्हीं से बाद में मनुष्य का विकास हुआ।
यह वैज्ञानिक आधार ही था, जिसने उस समय के समाज और वर्तमान समाज
में काफी परिवर्तन लाकर खड़ा किया।
यदि हम चार्ल्स डार्विन के 'विकास के सिद्धांत' पर नजर डालें तो पता चलता है कि मनुष्य
का विकास के क्रम में जटिल जीवित प्राणी, मछली, उभयचर (जल-थल में समान रूप से चलनेवाला), आगे और इतने पर जैसे बहुत सरल जीवों से
विकसित हुए हैं। डार्विन के अनुसार यह प्रक्रिया प्राकृतिक और क्रमिक थी।
ठीक इसी सिद्धांत की तरह भगवान विष्णु के दस
अवतारों को देखा जाता है। जब विष्णु ने पहला अवतार लिया तो सृष्टि जलमग्न थी सब
कुछ खत्म हो चुका था। उनके पहले मत्स्य अवतार के समय पृथ्वी पर सब कुछ नष्ट हो
चुका था।
लेकिन मनु और जीव और वृक्ष आदि कुछ विशेष वस्तुएं बचा ली गयी थीं। ठीक इसी तरह
जब विष्णु का अंतिम अवतार कल्कि भगवान के रूप में होगा तब भी सब कुछ नष्ट हो चुका
होगा! कल्कि पुराण में ऐसा ही उल्लेख मिलता है।
गीता में भी श्रीकृष्ण ने कि जब-जब धर्म की
हानि होगी, अधर्म बढ़ेगा मैं तब-तब पृथ्वी पर आऊंगा।
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युथानम् अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे॥
अर्थात् जब-जब धर्म की हानि और अधर्म का उत्थान हो जाता है, तब-तब सज्जनों की
रक्षा और दुष्टों के विनाश के लिए मैं विभिन्न युगों में उत्पन्न होता हूँ।
विष्णु ने क्रमशः मत्स्य, कच्छप, वराह, नरसिंह,वामन, परशुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध अवतार लिए हैं और
कल्कि अवतार भविष्य में कलयुग के अंत में होगा। ध्यान देने वाली बात यह है कि विष्णु
का हर अवतार मत्स्य अवतार के बाद मानव जीवन के विकास की ओर ही संकेत करता है। यही
डार्विन के भी मानव जीवन के क्रमिक विकास के सिद्धांत में निहित है।
दुनिया
बदल रही है और बदलती दुनिया में अपने आप को बनाए रखने के लिए परिवर्तन आवश्यक है।
इसी परिवर्तनशील आचरण के सार्थक उदाहरण हमारी सनातन संस्कृति और धर्म में
व्याख्यायित दशावतार हैं,
जो जीव विज्ञानी चार्ल्स रॉबर्ट
डार्विन की जैव विकास संबंधी अवधारणा की पुष्टि करते हैं। संभव है, डार्विन ने दशावतारों की आवधारण से ही
अपना सिद्धांत सिद्ध करने की प्रेरणा ली हो।
वास्तव
में दशावतार जैव और मानव विकास को क्रमबद्ध रेखांकित किए जाने की सटीक अवधारणा है, क्योंकि इनमें एक स्पष्ट और तार्किक
कालक्रम का सिलसिला विद्यमान है। पहला
अवतार मत्स्य अर्था मछली के रूप में आया। विज्ञान भी मानता है कि जीव-जगत में जीवन
पानी में ही विकसित हुआ। दूसरा अवतार कच्छप हुआ, जो जल और जमीन दोनों स्थलों पर रहने में सक्षम था। तीसरा वराह था, जो थलचर था और बुद्धिहीन था। चौथा, नरसिंह अवतार, जानवर से मनुष्य बनने के संक्रमण को
प्रतिबिंबित करता है। यहां डार्विन के सिद्धांत मात्र इतना अंतर है कि डार्विन
मानवों के पूर्वज बंदरों को बताते हैं। पांचवां, वामन-अवतार,
लघु रूप में मानव जीवन के विकास का
प्रतीक है।
विष्णु
का छठा अवतार, परशुराम स्वरूप मनुष्य के संपूर्ण
विकास का अवतरण है। इसी अवतार के माध्यम से मानव जीवन को व्यवस्थित रूप में बसाने
के लिए वनों को काटकर घर बसाने और बनाने की स्थिति को अभिव्यक्त किया गया है।
परशुराम के हाथ में फरसा इसी परिवर्तन का द्योतक है। सातवां अवतार राम का धनुष-बाण
लिए प्रकट होना इस बात का द्योतक है कि मनुष्य मानव
बस्तियों से दूर रह कर भी अपनी सुरक्षा करने में सक्षम हो चुका था। आठवें अवतार
बलराम हैं, जो कंधे पर हल लिए हुए हैं। यह मानव
सभ्यता के बीच कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के विकास का संकेत करता है। नवें अवतार
कृष्ण हैं। कृष्ण मानव सभ्यता के ऐसे प्रतिनिधि हैं, जो गायों के पालन से लेकर दूध व उसके
उत्पादों से मानव सभ्यता को जोड़ने व उससे अजीविका चलाने के प्रतीक हैं। कृष्ण ने
अर्जुन को कुरुक्षेत्र में गीता का जो उपदेश दिया है, उसे उनका दार्शनिक अवतार भी कहा जा
सकता है। दसवां, कल्कि एक ऐसा काल्पनिक अवतार है, जो कलियुग में होना है।
ब्रिटेन के आनुवंशिकी और विकासवादी जीव
विज्ञानी जान बर्डन सैंडर्सन हल्डेन को राजनीतिक असहमति के चलते भारत आना पड़ा।
उन्होंने संभवतः जैव व मानव विकास के व्यवस्थित क्रम में अवतारों का पहली बार बीती
सदी के चौथे दशक में अध्ययन किया। उन्होंने पहले चार अवतार मत्स्य, कूर्म, वराह और नरसिंह को सतयुग से, इसके
बाद के तीन वामन, परशुराम और राम को त्रेता से और आगामी
दो बलराम और कृष्ण को द्वापर युग से जोड़कर कालक्रम को विभाजित किया है। हाल्डेन
ने इस क्रम में जैविक विकास के तथ्य पाए और अपनी पुस्तक ‘द कॉजेज आफ इवोल्यूशन‘ में इन्हें रेखांकित किया। उन्होंने
स्पष्ट किया कि विज्ञान जीव की उत्पत्ति समुद्र में मानता है, इस लिहाज से इस तथ्य की अभिव्यक्ति
मत्स्यावतार में है। कूर्म यानी कछुआ जल व जमीन दोनों में रहने में समर्थ है, इसलिए यह उभयचर कूर्मावतार के रूप में
सटीक मिथक है। अंडे देने वाले सरीसृपों से ही स्तनधारी प्राणियों की उत्पत्ति मानी
जाती है, इस नाते इस कड़ी में वराह अवतार की
सार्थकता है। नरसिंह ऐसा विचित्र अवतार है, जो
आधा वन्य-प्राणी और आधा मनुष्य है, इस
विलक्षण अवतार की परिकल्पना से यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य का विकास पशुओं से
हुआ है। यह लगभग वही धारणा है, जो
चार्ल्स डार्विन ने प्रतिपादित की है। इन जैविक अवतारों के बाद हल्डेन ने मानवीय
अवतारों में वामन को सृष्टि विकास के रूप में लघु मानव माना।
राम
सामंती मूल्यों को सैद्धांतिकता देने और एक आचार संहिता की मर्यादा से आबद्ध करने
वाले अवतार हैं। हल्डेन बलराम को महत्व नहीं देते, किंतु कृष्ण को एक बौद्धिक पुरुष की परिणति के रूप में देखते हैं।
यदि हम इन अवतारों का गहराई से विज्ञान-सम्मत
अध्यन करें तो हमारी अनेक प्रचलित मान्यताएं वैज्ञानिकता पर सिद्ध होती हैं।
वैज्ञानिक शोध व दृष्टांतों से जोड़कर उनका वस्तुपरक विश्लेषण करें तो इनमें
चमत्कारिक रूप से कई जटिल विषयों के व्यावहारिक गुण-सूत्र मिलते हैं। ये अवतार
सृष्टि के उद्गम से लेकर जैव विकास के ऐसे प्रतिमान हैं, जो भूलोक से लेकर खगोल तक विद्यमान थल, जल व नभ में विचरण करने वाले जीव-जगत
की पड़ताल तो करते ही हैं,
खगोलीय घटनाओं का वैज्ञानिक विवेचन और
विश्लेषण भी करते हैं। इसीलिए इन अवतारों की परिधि में इतिहास और भूगोल तो हैं ही, ब्रह्माण्ड के रहस्य भी सम्मिलित हैं।
स्पष्ट है कि वैदिक धर्म व दर्शन अंधविश्वास से दूर जिज्ञासा और ज्ञान पर आधारित
है। ज्ञान और जिज्ञासा ही बौद्धिकता के वे मूल-भूत स्रोत हैं, जो ब्रह्माण्ड में स्थित जीव-जगत के
वास्तविक रूप की अनुभूति और आंतरिक रहस्य को जानने के लिए बेचैन रहते हैं।
दशावतार काल्पनिक नहीं बल्कि जैव विकास-गाथा का
पूरा एक कालक्रम हैं।
इसी परिवर्तनशील आचरण के सार्थक उदाहरण हमारी
सनातन संस्कृति और धर्म में व्याख्यायित दशावतार हैं, जो जीव विज्ञानी चार्ल्स रॉबर्ट
डार्विन की जैव विकास संबंधी अवधारणा की पुष्टि करते हैं। ... विज्ञान भी मानता है
कि जीव-जगत में जीवन पानी में ही विकसित हुआ।
वास्तव
में दशावतार जैव और मानव विकास को क्रमबद्ध रेखांकित किए जाने की सटीक अवधारणा हैं, क्योंकि इनके (विशेषकर जैव अवतार)
मिथकीयकरण में एक सुस्पष्ट और तार्किक कालक्रम का सिलसिला मौजूद है। डार्विन के
सिद्धांत में महज फर्क इतना है कि डार्विन मानव के पूर्वज बंदर को बताते है।
अगर हम यह सारी बात समझें तो हमें पता
चलेगा कि जिसको डार्विन बहुत बाद में विज्ञान की भाषा में कह सके, जिसे पुराण की भाषा में बहुत पहले कहा
जा चुका है। लेकिन आज भी,
अभी भी पुराण की ठीक-ठीक व्याख्या नहीं
हो पाती है। अगर इनकी सही व्याख्या हो तो हम पायेंगे कि इनमें ज्ञान का वह भंडार
भरा है जो काल्पनिक नहीं बल्कि यथार्थ के धरातल पर आधारित है। हम पाते हैं कि आज
के अधिकांश वैज्ञानिक संदर्भों, विषयों का उल्लेख हमारे पौराणिक ग्रंथों, वेदों
में बहुत पहले ही तार्किक रूप में किया जा चुका है।
No comments:
Post a Comment