कौरवों पांडवों के बीच हुआ महाभारत का युद्ध भीषणतम युद्ध था। कृष्ण ने इस युद्ध को रोकने का भरसक प्रयत्न किया लेकिन दुर्योधन की हठधर्मिता और पांडवों को पांच ग्राम क्या सुई की नोक भर जमीन ना देने की बात के बाद युद्ध अवश्यंभावी हो गया।यह दिन18 दिन तक चला और इसमें बड़े-बड़े वीर मारे गये। एक अनुमान के अनुसार 18 दिन चले इस युद्ध में लगभग 10 लाख वीर मारे गये थे। यह युद्ध हरियाणा के कुरुक्षेत्र में हुआ था। यह युद्ध इसलिए भी प्रसिद्ध है क्योंकि इसी में मोहग्रस्त अर्जुन को उपदेश देकर युद्ध के लिए प्रेरित किया था उनका वह उपदेश आज गीता के रूप में हमारे सामने है।
कहते हैं कि आज भी कुरुक्षेत्र की मिट्टी लाल
है क्योंकि यहां लाखों वीरों का रक्त बहा था। हम आपको यह कथा भी सुनाने जा रहे हैं
कि क्या महाभारत युद्ध के बाद कुछ मृत वीर पुनर्जीवित हो गये थे। पहले देखें
महाभारत युद्ध के 18 दिनों का घटनाक्रम- अर्थात किस दिन क्या हुआ?
हम सब यह तो जानते महाभारत का युद्ध हुआ पांडवो
और कौरवों के बीच, पर यह युद्ध कब हुआ और कितने दिन चला
हम आपको हर दिन का घटनाक्रम बताते हैं।
एक अनुमान के अनुसार यह युद्ध ईसा से 1400 वर्ष पूर्व हुआ था।और यह लगातार 18 दिनों तक चला था।
महाभारत युद्ध के पहले दिन पांडव पक्ष को भारी
क्षति हुई थी। युद्ध के पहले दिन ही विराट नरेश के पुत्र उत्तर और श्वेत का शल्य
और पितामह भीष्म ने वध कर दिया था।
गंगा पुत्र भीष्म ने पांडवों के कई सैनिकों को
अकेले ही मौत के घाट उतार दिया था। पहला दिन कौरवों के लिए उत्साह बढ़ाने वाला और
पांडव पक्ष को भारी नुकसान होने से निराशाजनक था।
महाभारत के दूसरे दिन पांडवों ने युद्ध की
रणनीति को बदलते हुए अपने पक्ष को अधिक नुकसान नहीं होने दिया था।
गुरु द्रोणाचार्य ने धृष्टद्युम्न को कई बार
हराया था।
पितामह भीष्म ने अर्जुन और श्रीकृष्ण को कई बार
अपने तीरों से घायल किया।भीम के जबरदस्त प्रहार से हजारों कलिंग और निषाद अकेले ही
मार गिराए।
पितामह भीष्म पांडवों की सेना को अधिक नुकसान
पहुंचा रहे थे इसलिए भीष्म को रोकने का दायित्व अर्जुन को सौंपा गया था। अर्जुन ने
अपना पूरा रण कौशल दिखाते हुए पूरा दिन भीष्म को रोके रखा।
युद्ध के तीसरे दिन भीम ने अपने पुत्र घटोत्कच
के साथ मिल कर युद्ध लड़ा इससे दुर्योधन की सेना को युद्ध से भागना पड़ा।
इसके बाद पितामह भीष्म पांडव सेना को क्षति
पहुंचाने लगे और भीषण संहार मचा दिया।
श्रीकृष्ण यह देख कर अर्जुन को भीष्म का वध
करने को कहते हैं, लेकिन अर्जुन अपना उत्साह खो देते हैं
और युद्ध नहीं कर पाते हैं।
इसे देखकर श्रीकृष्ण स्वयं ही भीष्म को मारने
के लिए दौड़ पड़ते हैं। तब अर्जुन श्री कृष्ण को उनकी प्रतिज्ञा याद दिलाते हैं कि
वे इस धर्मयुद्ध में शस्त्र का इस्तेमाल नहीं करेंगे और अर्जुन श्रीकृष्णा को
विश्वास दिलाते हैं की वे पूरे उत्साह से युद्ध लड़ेंगे।
चौथे दिन कौरवों की सेना पर अर्जुन भारी पड़ गए।
भीम ने भी कौरव सेना की अच्छी तरह से पिटाई की यह देख दुर्योधन ने अपनी गजसेना भीम
को मारने के लिए भेजी, लेकिन अति विशालकाय घटोत्कच के साथ मिल
कर भीम ने उन सबको यमलोक पहुंचा दिया।
दूसरी तरफ भीष्म से अर्जुन का भयंकर युद्ध हो
रहा था।
युद्ध के पांचवें दिन पितामह भीष्म पांडव सेना
में खूब क्षति पहुंचा रहे थे। भीष्म को रोकने के लिए एक बार फिर अर्जुन और भीम ने
उनसे लोहा लिया।
दूसरी तरफ पांडव सेना में सात्यकी ने गुरु
द्रोणाचार्य से पूरा दिन युद्ध किया और उनको रोके रखा।
अंत में पितामह भीष्म द्रोणाचार्य की मदद के
लिए आए और उन्होंने सात्यकी को युद्ध से भागने के लिए मजबूर कर दिया था।
छठे दिन भी दोनों पक्षों के बीच बहुत भयंकर
युद्ध हुआ। दुर्योधन क्रोध की सीमा लांघता रहा और भीष्म उसे आश्वासन देकर शांत
करते रहे और उस दिन पितामह भीष्म पांचाल सेना का संहार कर दिया।
सातवें दिन अर्जुन कौरव सेना पर भारी पड़ जाते
हैं। धृष्टद्युम्न दुर्योधन को युद्ध में करारी हार देता है, अर्जुन का पुत्र इरावान विन्द और
अनुविन्द को हरा देता है।
दिन के अंत में भीष्म पांडव सेना पर जबरदस्त
प्रहार कर जाते हैं।
आठवें दिन भी भीष्म पांडव सेना को मुश्किल में
डाले रहते हैं। दूसरी तरफ भीम धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध कर देता है, राक्षस अम्बलुष अर्जुन के पुत्र इरावान
का वध कर देता है।
घटोत्कच दुर्योधन को अपनी माया से उलझा के रखता
है। उसके बाद भीष्म की आज्ञा से भगदत्त घटोत्कच, भीम, युधिष्ठिर व अन्य पांडव सैनिकों को
पीछे ढकेल देता है। दिन के अंतिम चरण के युद्ध में भीम धृतराष्ट्र के नौ और
पुत्रों का वध कर देता है।
नवें दिन तक युद्ध में निर्णायक स्थिति तक न
पहुँचने से दुर्योधन भीष्म से सूर्यपुत्र कर्ण को युद्ध में लाने की बात कहता है, तब भीष्म उसे आश्वासन देते हैं कि आज
या तो वह श्रीकृष्ण को युद्ध में शस्त्र उठाने के लिए विवश कर देंगे या फिर किसी
एक पांडव का वध कर देंगे।
युद्ध में पितामह भीष्म को रोकने के लिए
श्रीकृष्ण को अपनी प्रतिज्ञा खत्म पड़ती है और वे युद्ध में शस्त्र उठा लेते हैं।
आज के दिन भीष्म पांडवों की सेना के अधिकांश
भाग को खत्म कर देते हैं।
दसवें दिन पांडव श्रीकृष्ण के कहने पर भीष्म से
ही उनकी मुत्यु कैसे हो सकती है इसका उपाय पूछते हैं।
अर्जुन भीष्म के बताये उपाय के अनुसार शिखंडी
को आगे करके पितामह भीष्म पर बाणों की वर्षा कर देता है।
अर्जुन के बाणों से भीष्म पूरी तरह घायल हो
जाते हैं और अर्जुन पितामह के लिए बाणों की शय्या बनाते है और वे उस पर लेट जाते
हैं।
ग्याहरवें दिन कर्ण युद्ध में उतर जाता है।
कर्ण के अनुरोध करने पर द्रोणाचार्य को नया सेनापति बनाया जाता है।
दुर्योधन और शकुनि द्रोण को युद्ध रणनीति में
बदलाब करने को कहते हैं और कहते हैं कि अगर वे युधिष्ठिर को बंदी बना लेते हैं तो
युद्ध खत्म ही समझो।
दुर्योधन की यह योजना अर्जुन नाकामकर देते हैं।
उधर कर्ण भी पांडव सेना का भारी संहार करते आगे बढ़ रहे थे।
युद्ध के बारहवें दिन युधिष्ठिर को बंदी बनाने
के लिए शकुनि और दुर्योधन अर्जुन को युधिष्ठिर से काफी दूर भेजने में कामयाब हो
जाते हैं, लेकिन अर्जुन खतरा भांप लेते हैं और
शीघ्र युधिष्ठिर के पास पहुंचकर युधिष्ठिर को बंदी बनने से बचा लेते हैं।
तेरहवें दिन दुर्योधन राजा भगदत्त को अर्जुन से
युद्ध करने के लिए भेजते हैं। भगदत्त भीम को युद्ध में हरा देते हैं और उसके बाद
अर्जुन के साथ युद्ध करते हैं।
श्रीकृष्ण भगदत्त के वैष्णवास्त्र वार को अपने
ऊपर लेकर अर्जुन की रक्षा करते हैं।
अर्जुन भगदत्त की आंखों की पट्टी तोड़ देता है, जिससे उसे कुछ भी दिखाई नहीं देता है।
अर्जुन इस अवस्था को उचित मानकर उनका वध कर देता है।
उधर द्रोण राजा युधिष्ठिर के लिए चक्रव्यूह रच
रहे होते हैं। जिसे केवल पांडव पक्ष में अर्जुन पुत्र अभिमन्यु भेदना जानता था, लेकिन वापसनिकलना नहीं जानता था।
धर्मराज युधिष्ठिर भीम आदि को अभिमन्यु के साथ
भेजते हैं लेकिन चक्रव्यूह के द्वार पर जयद्रथ सभी योद्धाओं को रोक देता है।
केवल अभिमन्यु ही अन्दर प्रवेश कर पाता है।वह
अकेला ही सभी कौरवों से युद्ध करता और वीरगति को प्राप्त होता है।
अपने पुत्र अभिमन्यु का अन्याय अनीति से वध हुआ
देख कर अर्जुन अगले दिन जयद्रथ का वध करने की प्रतिज्ञा लेते हैं ऐसा न कर पाने पर अग्नि समाधि लेने का प्रण लेते हैं। अर्जुन की अग्नि समाधि वाली बात
को सुनकर कौरव जयद्रथ को बचाने की योजना बनाते हैं।
द्रोणाचार्य जयद्रथ को बचाने के लिए उसे सेना
के पिछले भाग में छिपा देते हैं लेकिन श्रीकृष्ण द्वारा किए गए कृत्रिम सूर्यास्त
के कारण जयद्रथ बाहर आता है और अर्जुन उसका वध कर देता है।
इसी दिन द्रोणाचार्य द्रुपद और विराट को मार
देते हैं।
इस दिन धर्मराज युधिष्ठिर छल से द्रोणाचार्य को यह कह कर कि अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो वा (
अश्वत्थामा मारा गया है, लेकिन मुझे पता नहीं कि वह नर था या
हाथी )अश्वत्थामा की मृत्यु का विश्वास दिला देते हैं, जिससे निराश हो द्रोण समाधि ले लेते
हैं।
इस दशा में धृष्टद्युम्न द्रोण का सिर काटकर वध
कर देता है।
सोलहवें दिन कर्ण को कौरव सेनापति बनाया जाता
है। इस दिन वह पांडव सेना का भयंकर संहार करता है।
भीम दुःशासन का वध कर देता है और उसकी छाती का
रक्त पीता है।
सत्रहवें दिन कर्ण भीम और युधिष्ठिर को हरा
देता है, लेकिन कुंती को दिए वचन के कारण उन्हें
मारता नहीं है।
युद्ध में कर्ण के रथ का पहिया भूमि में धंस
जाता है, तब कर्ण पहिया निकालने के लिए नीचे
उतरता है और उसी समय श्रीकृष्ण के कहने पर अर्जुन कर्ण का वध कर देता है फिर शल्य
प्रधान सेनापति बने, जिसे युधिष्ठिर मार देता है।
अठारहवें दिन भीम दुर्योधन के बचे हुए सभी
भाइयों को मार देता है। सहदेव शकुनि को मार देता है।
अपनी पराजय मानकर दुर्योधन एक तालाब में छिप
जाता है, लेकिन पांडव द्वारा ललकारे जाने पर वह
भीम से गदा युद्ध करता है।
तब भीम छल से दुर्योधन की जंघा पर प्रहार करता
है, इससे दुर्योधन की मृत्यु हो जाती है।
इस तरह पांडव विजयी होते हैं।
आज हम आपको महाभारत से जुडी एक अदभुत घटना के
बारे में बता रहे है जब महाभारत युद्ध में मारे गए शूरवीर आदि एक रात के लिए
पुनर्जीवित हुए थे।
शूरवीर जैसे भीष्म, द्रोणाचार्य, दुर्योधन, अभिमन्यु, द्रौपदी के पुत्र, कर्ण, शिखंडी आदि एक रात के लिए पुनर्जीवित हुए थे यह घटना महाभारत युद्ध
ख़त्म होने के 15 साल बाद हुई थी। धृतराष्ट्, गांधारी, कुन्ती और विदुर की मौत कैसे हुई यह भी बतायेंगे।
राजा बनने के पश्चात हस्तिनापुर में युधिष्ठिर
धर्म व न्यायपूर्वक शासन करने लगे।युधिष्ठिर प्रतिदिन धृतराष्ट्र व गांधारी का
आशीर्वाद लेने के बाद ही अन्य काम करते थे। इस प्रकार अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रौपदी आदि भी सदैव धृतराष्ट्र व
गांधारी की सेवा में लगे रहते थे, लेकिन
भीम के मन में धृतराष्ट्र के प्रति हमेशा द्वेष भाव ही रहता। भीम धृतराष्ट्र के
सामने कभी ऐसी बातें भी कह देते जो कहने योग्य नहीं होती थी।
इस प्रकार धृतराष्ट्र, गांधारी को पांडवों के साथ रहते-रहते पंद्रह साल गुजर गए। एक दिन भीम ने धृतराष्ट्र व
गांधारी के सामने कुछ ऐसी बातें कह दीं जिसे सुन कर उनके मन में बहुत शोक हुआ। तब धृतराष्ट्र ने सोचा कि
पांडवों के आश्रय में रहते अब बहुत समय हो चुका है। इसलिए अब वानप्रस्थ आश्रम अर्थात
वन में रहना ही उचित है। गांधारी ने भी धृतराष्ट्र के साथ वन जाने में सहमति दे
दी। धृतराष्ट्र व गांधारी के साथ विदुर व संजय ने वन जाने का निर्णय लिया।
वन जाने का विचार कर धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर
को बुलाया और उनके सामने पूरी बात कह दी। पहले तो युधिष्ठिर को बहुत दुख हुआ, लेकिन बाद में महर्षि वेदव्यास के कहने
पर युधिष्ठिर मान गए। जब युधिष्ठिर को पता चला कि धृतराष्ट्र व गांधारी के साथ
विदुर व संजय भी वन जा रहे हैं तो उनके शोक की सीमा नहीं रही। धृतराष्ट्र ने बताया
कि वे कार्तिक मास की पूर्णिमा को वन के लिए यात्रा करेंगे। वन जाने से पहले
धृतराष्ट्र ने अपने पुत्रों व अन्य परिजनों के श्राद्ध के लिए युधिष्ठिर से धन
मांगा।
भीम ने धृतराष्ट्र को धन देने से इनकार कर दिया, तब युधिष्ठिर ने उन्हें फटकार लगाई और
धृतराष्ट्र को बहुत-सा धन देकर श्राद्ध कर्म संपूर्ण करवाया। तय समय पर धृतराष्ट्र, गांधारी, विदुर व संजय ने वन यात्रा प्रारंभ की। इन सभी को वन जाते देख
पांडवों की माता कुंती ने भी वन में निवास करने का निश्चय किया। पांडवों ने उन्हें
समझाने का बहुत प्रयास किया, लेकिन
कुंती भी धृतराष्ट्र और गांधारी के साथ वन चलीं गईं।
धृतराष्ट्र आदि ने पहली रात गंगा नदी के तट पर
व्यतीत की। कुछ दिन वहां रुकने के बाद धृतराष्ट्र, गांधारी, कुंती, विदुर व संजय कुरुक्षेत्र आ गए। यहां महर्षि वेदव्यास से वनवास की
दीक्षा लेकर ये सभी महर्षि शतयूप के आश्रम में निवास करने लगे। वन में रहते हुए
धृतराष्ट्र घोर तप करने लगे। तप से उनके शरीर का मांस सूख गया। सिर पर महर्षियों
की तरह जटा धारण कर वे और भी कठोर तप करने लगे। तप से उनके मन का मोह दूर हो गया।
गांधारी और कुंती भी तप में लीन हो गईं। विदुर और संजय इनकी सेवा में लगे रहते और
तपस्या किया करते थे।
इस प्रकार वन में रहते हुए धृतराष्ट्र आदि को
लगभग एक वर्ष बीत गया। इधर हस्तिनापुर में एक दिन राजा
युधिष्ठिर के मन में वन में रह रहे अपने परिजनों को देखने की इच्छा हुई। तब
युधिष्ठिर ने अपने सेना प्रमुखों को बुलाया और कहा कि वन जाने की तैयारी करो। मैं
अपने भाइयों व परिजनों के साथ वन में रह रहे महाराज धृतराष्ट्र, माता गांधारी व कुंती आदि के दर्शन
करूंगा। इस प्रकार पांडवों ने अपने पूरे परिवार के साथ वन जाने की यात्रा प्रारंभ
की। पांडवों के साथ वे नगरवासी भी थे, जो
धृतराष्ट्र आदि के दर्शन करना चाहते थे।
पांडव अपने सेना के साथ चलते-चलते उस स्थान पर
आ गए, जहां धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती रहते थे। जब
युधिष्ठिर ने उन्हें देखा तो वे बहुत प्रसन्न हुए और मुनियों के वेष में अपने
परिजनों को देखकर उन्हें शोक भी हुआ। धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती भी अपने पुत्रों व परिजनों को देखकर बहुत प्रसन्न
हुए। जब युधिष्ठिर ने वहां विदुरजी को नहीं देखा तो धृतराष्ट्र से उनके बारे में
पूछा। धृतराष्ट्र ने बताया कि वे कठोर तप कर रहे हैं। तभी युधिष्ठिर को विदुर उसी
ओर आते हुए दिखाई दिए, लेकिन आश्रम में इतने सारे लोगों को
देखकर विदुरजी पुन: लौट गए।
युधिष्ठिर उनसे मिलने के लिए पीछे-पीछे दौड़े।
तब वन में एक पेड़ के नीचे उन्हें विदुरजी खड़े हुए दिखाई दिए। उसी समय विदुरजी के
शरीर से प्राण निकले और युधिष्ठिर में समा गए। जब युधिष्ठिर ने देखा कि विदुरजी के
शरीर में प्राण नहीं हैं तो उन्होंने उनका दाह संस्कार करने का निर्णय लिया। तभी
आकाशवाणी हुई कि विदुरजी संन्यास धर्म का पालन करते थे। इसलिए उनका दाह संस्कार
करना उचित नहीं है। यह बात युधिष्ठिर ने आकर महाराज धृतराष्ट्र को बताई। युधिष्ठिर
के मुख से यह बात सुनकर सभी को आश्चर्य हुआ।
युधिष्ठिर आदि ने वह रात वन में ही बिताई। अगले
दिन धृतराष्ट्र के आश्रम में महर्षि वेदव्यास आए। जब उन्हें पता चला कि विदुरजी ने
शरीर त्याग दिया तब उन्होंने बताया कि विदुर धर्मराज (यमराज) के अवतार थे और
युधिष्ठिर भी धर्मराज का ही अंश हैं। इसलिए विदुरजी के प्राण युधिष्ठिर के शरीर
में समा गए। महर्षि वेदव्यास ने धृतराष्ट्र, गांधारी
और कुंती से कहा कि आज मैं तुम्हें अपनी तपस्या का प्रभाव दिखाऊंगा। तुम्हारी जो
इच्छा हो वह मांग लो।
तब धृतराष्ट्र व गांधारी ने युद्ध में मृत अपने
पुत्रों तथा कुंती ने कर्ण को देखने की इच्छा प्रकट की। द्रौपदी आदि ने कहा कि वह
भी अपने परिजनों को देखना चाहते हैं। महर्षि वेदव्यास ने कहा कि ऐसा ही होगा।
युद्ध में मारे गए जितने भी वीर हैं, उन्हें
आज रात तुम सभी देख पाओगे। ऐसा कहकर महर्षि वेदव्यास ने सभी को गंगा तट पर चलने के
लिए कहा। महर्षि वेदव्यास के कहने पर सभी गंगा तट पर एकत्रित हो गए और रात होने का
इंतजार करने लगे।
रात होने पर महर्षि वेदव्यास ने गंगा नदी में
प्रवेश किया और पांडव व कौरव पक्ष के सभी मृत योद्धाओं का आवाहन किया। थोड़ी ही
देर में भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, दु:शासन, अभिमन्यु, धृतराष्ट्र के सभी पुत्र, घटोत्कच, द्रौपदी के पांचों पुत्र, राजा
द्रुपद, धृष्टद्युम्न, शकुनि, शिखंडी आदि वीर जल से बाहर निकल आए। उन सभी के मन में किसी भी प्रकार
का अंहकार व क्रोध नहीं था। महर्षि वेदव्यास ने धृतराष्ट्र व गांधारी को दिव्य
नेत्र प्रदान किए। अपने मृत परिजनों को देख सभी के मन में हर्ष छा गया।
सारी रात अपने मृत परिजनों के साथ बिता कर सभी
के मन में संतोष हुआ। अपने मृत पुत्रों, भाइयों, पतियों व अन्य संबंधियों से मिलकर सभी
का संताप दूर हो गया। तब महर्षि वेदव्यास ने वहां उपस्थित विधवा स्त्रियों से कहा
कि जो भी अपने पति के साथ जाना चाहती हैं, वे
सभी गंगा नदी में डुबकी लगाएं। महर्षि वेदव्यास के कहने पर अपने पति से प्रेम करने
वाली स्त्रियां गंगा में डुबकी लगाने लगीं और शरीर छोड़कर पतिलोक में चली गईं। इस
प्रकार वह अद्भुत रात समाप्त हुई।
इस प्रकार अपने मृत परिजनों से मिलकर
धृतराष्ट्र, गांधारी, कुंती व पांडव बहुत प्रसन्न हुए। लगभग एक महीना वन में रहने के बाद युधिष्ठिर आदि पुन: हस्तिनापुर लौट आए। इस
घटना के करीब दो वर्ष बाद एक दिन देवर्षि नारद
युधिष्ठिर के पास आए। युधिष्ठिर ने उनका स्वागत किया। जब देवर्षि नारद ने उन्हें
बताया कि वे गंगा नदी के आस-पास के तीर्थों के दर्शन करते हुए आए हैं तो युधिष्ठिर
ने उनसे धृतराष्ट्र, गांधारी व माता कुंती के बारे में
पूछा। तब देवर्षि नारद ने उन्हें बताया कि तुम्हारे वन से लौटने के बाद धृतराष्ट्र
आदि हरिद्वार चले गए। वहां भी उन्होंने घोर तपस्या की।
एक दिन जब वे गंगा स्नान कर आश्रम आ रहे थे, तभी वन में भयंकर आग लग गई। दुर्बलता
के कारण धृतराष्ट्र, गांधारी व कुंती भागने में असमर्थ थे।
इसलिए उन्होंने उसी अग्नि में प्राण त्यागने का विचार किया और वहीं एकाग्रचित्त
होकर बैठ गए। इस प्रकार धृतराष्ट्र, गांधारी
व कुंती ने अपने प्राणों का त्याग कर दिया। संजय ने ये बात तपस्वियों को बताई और
वे स्वयं हिमालय पर तपस्या करने चले गए। धृतराष्ट्र, गांधारी व कुंती की मृत्यु का समाचार जब महल में फैला तो हाहाकार मच
गया। तब देवर्षि नारद ने उन्हें धैर्य बंधाया। युधिष्ठिर ने विधिपूर्वक सभी का
श्राद्ध कर्म करवाया और दान-दक्षिणा देकर उनकी आत्मा की शांति के लिए संस्कार किए।
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