संदर्भ नक्सल समस्या
-राजेश त्रिपाठी
छत्तीसगढ़ से लेकर झारखंड, ओडिशा से लेकर आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल से लेकर बिहार और देश के अन्य राज्यों तक नक्सली हिंसा की आग फैल चुकी है। आयेदिन सुरक्षाकर्मी और निर्दोष लोग इसमें स्वाहा हो रहे हैं। नरसंहार का यह सिलसिला थमने का नाम नहीं लेता। पहली चिता ठंड़ी होती नहीं कि सुरक्षाकर्मी या इस पगलायी हिंसा के शिकार किसी और निरीह की चिता सजानी पड़ जाती है। देश किंकर्तव्य विमूढ़ है। उसके सारे अभियान, सारे प्रयास हिंसा की इस आग को बुझाने में विफल रहे हैं। पश्चिम बंगाल में सिलदा और छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा़ के नरसंहार में शहीद हुए सुरक्षाकर्मियों का हस्र देख दूसरे सुरक्षाकर्मियों का मनोबल भी जवाब दे रहा है। सवाल यह उठता है कि आखिर यह आग कब बुझेगी। यह सवाल तब और अहम हो जाता है जब नक्सलियों की हिंसा के समर्थन में कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी खुल कर सामने आ गये हैं। ये खुलेआम उनकी हिंसा को महिमामंडित कर रहे हैं और उनको निरीह बताते हुए कहते हैं कि उनके पास इसके अलावा कोई चारा नहीं था। इसमें स्वनामधन्य और विदेशों में सम्मानित एक लेखिका कुछ ज्यादा ही मुखर हैं। उनका कहना है कि बड़े-बड़े कारपोरेट घरानों से जहां-जहां सरकार के समझौते टूटे हैं, नक्सल आंदोलन वहीं उग्र हुए हैं। उनका कहना है कि जब भी सरकार कारपोरेट घरानों से कोई समझौता करना चाहती है, आपरेशन ग्रीन हंट जैसे नक्सल विरोधी अभियान तेज कर दिये जाते हैं। इन लेखिका का अपना सोच है कि कारपोरेट से जुड़े लोग और सरकारें नक्सल विरोधी अभियान चला कर लोगों को उनकी जमीन से दूर खदेड़ देना चाहते हैं। उनका दावा है कि भारत सरकार ऐसे लोकप्रिय जनांदोलनों (खुदा खैर करे, अगर ये लोकप्रिय आंदोलन हैं जो कत्ल और खून की भाषा से लिखे जा रहे हैं तो भगवान मेरे देश को बचाये और इन्हें महिमामंडित करने वालों से भी) को सरकार अक्सर कुचलती आयी है। उनका यह भी मानना है कि अक्सर सरकार का निशाना अल्पसंख्यक, आदिवासी और माओवादी रहे हैं। ऐसे में माओवादियों के पास हथियार उठाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। वह गांधीगीरी तो अपना नहीं सकते क्योंकि इसे सुनने-समझने वाला आज कोई नहीं। वे नक्सलियों के संग खड़ी हैं और उनके किये को बुरा या अनुचित नहीं मानतीं। वे सुरक्षकर्मियों की हत्या को एक अलग नजरिये से देखती हैं। उनका कहना है कि यह इस बात की मिसाल है कि पैसे वाले किस तरह से गरीब से(सुरक्षकर्मियों) गरीब (नक्सलियों) की हत्या करा रहे हैं।
एक और देवी हैं जिन्होंने शबर आदिवासियों की बड़ी सेवा और देखरेख की है जिसके लिए वे साधुवाद की पात्र हैं, कभी उनकी तरफ भी उंगली उठी थी कि वे नक्सलियों के साथ खड़ी हैं लेकिन उन्होंने इससे साफ इनकार कर दिया है। यह अच्छी बात है। वैसे भी केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को यह निर्देश दिया है कि वे ऐसी तमाम विभूतियों को जो नक्सलियों के पक्ष या समर्थन में खड़ी हैं या उनका साथ दे रही हैं उनके खिलाफ कानून का इस्तेमाल कर कार्रवाई करें। ऐसे में निकट भविष्य में ऐसा लगता नहीं है कि कोई खुल कर नक्सलियों की वकालत करने का साहस कर सकेगा।
हमें इन देवियों या दूसरे ऐसे बुद्धिजीवियों से कोई शिकायत नहीं है। शिकायत उनके उन खयालों से है जो राह भटके हुओं को सही राह में लाने के बजाय उनकी हिंसा और दूसरी देशद्रोही कार्रवाइयों को जायज ठहराते हैं। वे खुद बतायें कि हिंसा की जिस अंधी सुरंग में आज का नक्सल आंदोलन धंस गया है, उससे क्या कभी वह बाहर आ सकेगा? आज वे जो कुछ भी कर रहे हैं उसका औचित्य क्या है। हम क्या देश का हर शुभ बुद्धि संपन्न व्यक्ति यह चाहेगा कि आदिवासी और पिछड़े अंचलों का सम्यक विकास हो, हर हाथ को काम, हर एक को रोटी नसीब हो। बालिकाओं को शिक्षा मिले, सबको स्वास्थ्य सुविधाएं मिलें। आदिवासी अंचलों में अगर लोग छाल और अखाद्य खाकर जिंदगी बिता रहे हैं तो हमारे देश के खाये-अघाये लोगों के मुंह पर .यह तमाचा है। राष्ट्रीय अस्मिता पर एक काला बदनुमा दाग जिसे हर हाल में मिट जाना चाहिए। आदिवासी या दबे –कुचले वर्ग के भाइयों पर सरकारों को पहले ध्यान देना चाहिए और उनकी आर्थिक, सामाजिक और सर्वांगीण उन्नति के लिए युद्ध स्तर पर कार्य करना चाहिए। आपरेशन ग्रीन हंट से ज्यादा शायद इन अंचलों में आपरेशन फेथ यानी लोगों में विश्वास जगाने का कार्यक्रम चलाने की जरूरत है। आदवासियों को यह लगना चाहिए कि सरकारें उनके लिए कुछ कर रही हैं। अगर ऐसे प्रयास हुए तो शायद हिंसा की होली खेलने वाले न उन्हें बहका सकेंगे और न उनकी भलाई का नाम ले अपने गरीबों के लिए चलाये जा रहे आंदोलन के बहाने खूनी होली ही खेल सकेंगे।
जो एक देवी खुल कर नक्सलियों के समर्थन में खड़ी हैं उनका कहना है कि नक्सली मुख्यधारा मे आकर चुनाव नहीं लड़ सकते क्योंकि उनके पास इसके लिए पैसा नहीं है। ये देवी जी अंग्रेजी के लेखिका हैं और जाहिर है कि अंग्रेजी अखबार जरूर पढती होंगी। एक मशहूर अंग्रेजी अखबार ने नक्सलियों की आमदनी का ब्यौरा देते हुए लिखा था कि उनकी आमदनी का सालना टर्नओवर 15 हजार करोड़ रुपये है जो किसी एक ब़ड़ी कंपनी का होता है.। मैं जानता हूं ये देवी जी इसे भी नक्सलियों के खिलाफ कुप्रचार कहेंगी लेकिन अगर यह खबर झूठी तो इसके विरोध में कोई संगठन क्यों नहीं आया। नक्सल प्रभावित राज्यों में ये संगठन खुलेआम रंगदारी और दूसरी तरह से लोगों से पैसा वसूलते हैं। इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं. वैसे हो सकता है ये देवी जी इसे भी न मानें।
हमें जंगल में कष्ट उठाते, परिजनों से दूर एक अंधी, हिंसक यात्रा में जुटे अपने नक्सली भाइयों से पूरी हमदर्दी है। विकास का लाभ सब तक पहुंचाने, सबको समान अधिकार दिलवाने और मजदूरों को उनका वाजिब मेहनताना दिलाने के उनके मकसद की भी हम कद्र करते हैं। लेकिन जिस हिंसक और अंधेरी राह में वे चल रहे हैं वह उन्हें अपने नेक मकसद के उजाले तक कभी नहीं ले जा सकेगी। हिंसा उनके काम को और भी कठिन करती जायेगी। हमारा उनसे और उनका पक्ष लेनेवालों से यह सवाल है कि वे जिन सुरक्षाकर्मियों की हत्या कर रहे हैं क्या वे उनके भाई नहीं हैं? उनकी नक्सलियों से कोई दुश्मनी नहीं वे तो अपनी ड्यूटी बजा रहे हैं और अपने वरिष्ठों के निर्देश का पालन कर रहे हैं फिर उन पर यह जुल्म क्यों? क्या हमें हमारे नक्सल भाई यह बतायेंगे कि रेल की पटरियां उड़ाना उनके किस मकसद को पूरा करता है? जिन अंचलों का वे विकास चाहते हैं वह विकासयात्रा इन पटरियों से ही तो गुजरेगी। यह नहीं रहीं तो फिर कैसा विकास और किसका विकास?
यह एक कटु और शर्मनाक सच है कि हमारे आदिवासी विकास से वंचित हैं और दयनीय जिंदगी जीने को मजबूर हैं। चाहे पश्चिम बंगाल का लालगढ़ हो या ओडिशा का कोरापुट या सुंदरगढ़ के आदिवासी अंचल विकास इन आदिवासी अंचलों की सीमाओं से पहले ठिठक गया है। क्यों इसका जवाब या तो सरकार के पास या फिर उन नक्सलियों के पास जो इन अंचलों में राज करते हैं और जिनके डर से आला अधिकारी इन अंचलों में जाने से डरते हैं। अब विकास तो इन सरकारी कदमों से ही इन अंचलों में पहुंचेगा। उन्हें ही रोक या तोड़ दिया जायेगा तो फिर कैसे होगा विकास। विकास से दूर आदिम दूर इन आदिवासियों के हित की कोई भी झूठी-सच्ची बात करता या कहता है वे उसी के हो जाते हैं। आज अगर इन आदिवासी अंचलों में नक्सलियों का राज है तो इसीलिए कि वे जो संघर्ष चला रहे हैं उसे उन्होंने आदिवासी कल्याण का नाम दे दिया है। आदिवासी इन आधुनिक हथियारों से लैस ‘समाज सुधारकों’ के साथ खड़े होने को मजबूर हैं। ये उनका विरोध कर नहीं सकते, इनमें इतनी कूवत नहीं। इसलिए ये उनके साये और उनके दबदबे में जीने को अभिशप्त हैं। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में सलवा जुडूम नामक जनप्रतिरोध वाहिनी गठित हुई थी जिसका मकसद नक्सलियों की हिंसा का विरोध करना था लेकिन उस पर भी नक्सलियों का कहर कम नहीं टूटा। नक्सलियों से यह पूछा जाना चाहिए कि वे जिन आदिवासी अंचलों का विकास चाहते हैं वहां आला अधिकारियों को क्यों नहीं घुसने देते। क्यों उनका अपहरण और हत्या की जाती है। अगर नक्सली विकास के पक्षधर हैं तो इन अधिकारियों के साथ खड़े हों और जैसा चाहते हैं वैसा विकास करने को उन्हें बाध्य करें लेकिन हिंसक दबाव से नहीं। जनांदोलन के जरिये। कानू सान्याल, चरु मजुमदार और जंगल संथाल ने हक की लड़ाई के लिए पश्चिम बंगाल के नक्सलबाडी से जिस आंदोलन का श्रीगणेश किया था जाहिर है उसका मकसद यह तो नहीं था जो आज लगाया जा रहा है। उन्होंने सबके लिए समान अधिकार और श्रमिक को वाजिब मजदूरी की मांग की थी। इस आंदोलन की दुखद और शोचनीय परिणति ही शायद कानू सान्याल की आत्महत्या का कारण बनी। किसी भी तरह की हम खुलेआम भर्त्सना करते हैं और यह भी कहते हैं कि अगर देश के कई अंचलों तक विकास का उजाला नहीं पहुंचा तो यह सरकार पर एक बदनुमा दाग है। आदिवासियों की जीवन शैली जंगल से जुड़ी है। उससे अलग उनकी जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। सदियों से पेड़ और जंगली जानवरों के बीच उनकी जिंदगी बीती है। देश के विकास के लिए, उद्योंगों की स्थापना के लिए अगर उनके विस्थापन की जरूरत होती है तो जरूरी यह है कि पहले उनके बसाने की कोशिश की जाये। समय गवाह है कि आदिवासी औद्योगिक इकाइयों के लिए अपनी जमीन से तो बेदखल कर दिये गये पर उसके बदले उन्हें उचित पुनर्वास नहीं मिला। इस तरह की बातें इन्हें परेशान और उत्तेजित करती हैं जिसका फायदा तमाम संगठन उठाते हैं और आदिवासी कल्याण के नाम पर देश को अस्थिर करने के काम में जुट जाते हैं। वैसे इनमें से कुछ अपवाद भी हैं जो आदिवासियों के विकास और उत्थान के पुनीत कार्य में सक्रियता से जुडे़ हैं। जहां नक्सली हिंसा व्य़ाप्त है वहां ऐसे नेक कार्य भी इसके चलते प्रभावित हो रहे हैं।
हिंसा और प्रतिहिंसा की ये आग तभी बुझेगी जब दोनों पक्ष इसके लिए उत्सुक और कटिबद्ध हों। सरकार को भी कुछ नरम होना चाहिए और वन-वन भटकते, कष्ट सहते नक्सली भाइयों को भी शांति के पथ पर कदम आगे बढ़ाने चाहिए। वे बहुत कष्ट झेल चुके अब देश की मुख्यधारा से जुड़ें, चुनाव लड़ें और जैसी सरकार बनाना चाहते हैं बनायें और जहां जैसा विकास चाहते हैं वह लायें। यह तय है कि उनका देखा सपना बंदूक की गोली से नहीं, गणतांत्रिक प्रक्रिया से ही पूरा हो सकेगा। उन्हें आज नहीं तो कल इस राह में आना ही पड़ेगा तो फिर देर क्यों, और अधिक खूनखराबा क्यों, जब जागे तभी सवेरा। इन भाइयों से प्रार्थना है कि वे अपने देश के लिए कुछ सार्थक करें और अंधेरे से उजाले में आयें। उजाला जो उन्हें देगा जिंदगी के सही मायने और देश को अपने ही लोगों के खिलाफ ताकत के इस्तेमाल से मुक्ति।
सरकार से भी अनुरोध कि वह आपरेशन फेथ चलाये और जैसे भी राह भटके हुओं को मख्यधारा में लाये गोली के बदले गोली का सिलसिला बंद होना चाहिए और देश के राह भूले भाइयों को घरवापसी की राह खुलनी चाहिए। उन्हें यह लगना चाहिए की सरकार उनके प्रति और उनकी चिंताओं के प्रति गंभीर है और उन्हें एक सही सार्थक जिंदगी जीने का हक देने को उत्सुक भी। अभी देर नहीं हुई क्योंकि जब जागे तभी सवेरा।
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