स्वामी विशुद्धानंद परमहंस |
बहुत समय पहले की बात है एक स्वामी जी कुछ लोगों के सामने उपदेश दे रहे थे। वे आसन में बैठे थे और सामने श्रोताओं की भीड़ बैठी उन्हें बड़े ध्यान से सुन रही थी। अचानक श्रोताओं ने देखा कि पलक झपकते ही स्वामी जी अपने आसन से अंतर्ध्यान हो गये। सभी लोग दंग रह गये कि अचानक उनकी नजरों के सामने से स्वामी जी कैसे और कहां ओझल हो गये। यह चमत्कार अचानक कैसे हुआ वे समझ नहीं पा रहे थे। उनका उस स्थान से जाने का भी मन नहीं था वे जानना चाहते थे कि स्वामी जी कहां गये। स रहस्य से परदा स्वामी जी ही हटा सकते थे। एक घंटे बाद स्वामी जी अचानक अपने आसन में प्रकट हो गये। लोग उनसे पूछें इससे पहले स्वामी ने स्वयं बताया कि –ज्ञानगंज में कुछ समस्या थी, मुझे संदेश मिला तो अचानक जाना पड़ा। यहां यह बता दें कि स्वामी स्थूल शरीर में नहीं सूक्ष्म शरीर में गये थे। ज्ञानगंज मठ हिमालय में है जो शांग्री-ला, शंभाला और सिद्धआश्रम के नाम से भी जानी जाती है।कहते हैं कि यह अध्यात्म, योग और सिद्धिप्राप्त का विश्व प्रसिद्ध आध्यात्मिक,योग और सिद्धि का विश्वविद्यालय है। वहां कई साधक सैकड़ों वर्षों से साधना कर रहे हैं। यह जगह तिब्बत और हिमालय के बीच दुर्गम स्थान पर स्थित है। कहा तो यहां तक जाता है कि ज्ञानगंज में अमरत्व का रहस्य छिपा है।
आगे बढ़ने से पहले हम उस सिद्धयोगी का परिचय
कराते चलें जिसका जिक्र हम यहां कर रहे हैं।
इन सिद्धयोगी का नाम था स्वामी विशुद्धानंद
परमहंस। बंगाल राज्य के
वर्धमान जिले के बण्डूल में अखिल चंद्र चट्टोपाध्याय और उनकी पत्नी राजराजेश्वरी देवी
को पुत्र प्राप्त हुआ। बालक बहुत अद्भुत था। बालक का नाम भोलानाथ रखा गया।बालक
भोलानाथ ने घर में देवी-देवताओं की मूर्तियां रखी हुई थीं। बालक भोलानाथ अपने ढंग
से उनकी पूजा करता। जंगल से फूल तोड़ लाता,मालाएं बनाता और इन मूर्तियों को पहनाता
था। चन्दन अर्पित करता पूजा करता। बिना पूजा किये वह बालक जल तक नहीं पीता था।एक
बार की बात है। भोलानाथ अपने साथियों के साथ खेलते – खेलते गाँव से दूर
निकल गया। वहीं बालू में शिवलिंग स्थापित करके बिल्वपत्र आदि चढ़ा कर पूजा करने
लगा। तभी एक शैतान बालक ने पूजा में बाधा डाल दी। भोलानाथ ने गुस्से में आकर
उससे कहा – “ तूने हमारे शिवजी
के साथ झगडा किया है, इसलिए अब तुझे उनका सांप डसेगा।भोलानाथ ने जो कहा, वह सत्य हो गया। उसी दिन शाम को उस लड़के को एक सांप ने काट लिया और वह मर
गया। जब यह बात भोलानाथ को पता चली तो उसने अपने हाथ से उसे छू दिया और वह जी उठा।
लोगो बड़ा आश्चर्य हुआ। भोलानाथ के गांव के पास ही शमशान था। शमशान के पास के
वृक्ष के नीचे एकांत में बैठना भोलानाथ को अच्छा लगता था। गाँव में किसी साधू, संत के आने का समाचार पाते ही भोलानाथ उनके दर्शन के लिए आतुर हो जाता
था। एक बार बण्डूल गाँव से कुछ दूरी पर एक
सन्यासी आये थे। समाचार पाते ही भोलानाथ वहाँ जाने की के लिए सोचने लगा किन्तु किसी कारणवश दिन में
जाना नहीं हो पाया तो उन्होंने रात्रि में जाने का सोचा।रात अँधेरी थी, सोचा कोई साथी मिल जाये तो अच्छा हो लेकिन अँधेरी रात में कोई उनके साथ
जाने को राजी नहीं हुआ। हार कर भोलानाथ ने अकेले ही संन्यासी से मिलने की ठानी। भोलानाथ
सन्यासी के पास पहुंच गया।सन्यासी ने भोलानाथ की निडरता देख कर कहा – “ बालक ! मैं देख रहा हूँ, तुम्हारे अदम्य साहस और तेजस्विता के पीछे
एक अद्भुत शक्ति काम कर रही है, जिसके प्रभाव से तुम इस काली अंधियारी
रात्रि में निर्जन जंगल और घोर शमशान से होते हुए यहाँ तक आ पहुँचे हो। तुम स्वयं
नहीं जानते, तुम क्या होने वाले हो। समय आने पर सब जान
जाओगे।एक बार किसी ने बिना वजह भोलानाथ को अनाप-शनाप बक दिया। लेकिन अपनी तेजस्वी
प्रकृति के कारण भोलानाथ कभी भी मनुष्यों से नहीं रूठता था । भोलानाथ का विश्वास
था कि मनुष्य तो निमित्त मात्र है, असली कर्ता तो ईश्वर है । इसलिए वह ईश्वर
से रुष्ठ होता था । अपनी प्रकृति के अनुरूप ही उस दिन भी भोलानाथ रूठा और
श्रीकृष्ण की मूर्ति को ह्रदय से लगाकर आत्महत्या के विचार से नदी में कूद पड़ा।
लेकिन आश्चर्य की बात यह हुई कि बालक जिधर भी गया, पानी गहरा होते हुए भी घुटनों से ऊपर नहीं चढ़ा । थक हारकर
भोलानाथ को नदी से बाहर निकलना पड़ा। लोगों
ने यह चमत्कार देखा तो वह यह मानने लगे कि
भोलानाथ में कुछ अलौकिक शक्ति है। भोलानाथ के घर के पास बंकिम कुंडू नाम का एक
व्यक्ति रहता था । उसका लड़का भोलानाथ का मित्र था । वह लड़का जब भी बीमार होता था
भोलानाथ उसे कृष्ण की मूर्ति को स्नान कराने के बाद वही जल पिलाकर उसके माथे पर
छिड़क देता था । इससे वह बालक ठीक हो जाता
था।एक बार भोलानाथ के काका ने उसके लिए धोती ला दी। भोलानाथ ठहरा बालक, उसने खेल ही खेल में पूरी धोती
फाड़कर उसे टुकड़े – टुकड़े कर दिया । जब काका ने यह देखा तो वह
बहुत गुस्सा हुए। इसके बाद अद्भुत चमत्कार हुआ। भोलानाथ ने दुखी होकर फटी हुई धोती
के टुकड़े मुट्ठी में बंद करके हवा में उछाल दिए और यह क्या धोती पहले जैसी हो गयी।
यह देखकर लोग चकित हो गये। लोगों में यह चर्चा होने लगी कि भोलानाथ में जरूर किसी
देवी देवता का अंश है। जब भोलानाथ छह महीने के ही थे तभी उनके सिर से पिता का साया
उठ गया। अब उनके लालन-पालन का जिम्मा उनके काका पर आ गया। लेकिन दुख ने भोलानाथ का
पीछा नहीं छूटा। वे जब आठ वर्ष के थे उनके काका का भी निधन हो गया। अब मां ही उनका
सहारा थीं। एक बार उनकी माताजी को हैजा हो गया। बहुत दवा कराने पर भी वे ठीक नहीं
हुईं। सबने उनके बचने की आशा छोड़ दी थी। भोलानाथ की काकी ने उनसे पूछा की-
तुम्हारी मां बचेगी या नहीं। भोलानाथ का जवाब था “ जरूर बचेगी ।” उसी रात भोलानाथ अपने घर के पीछे की गौशाला में गोबर के उपलों (कंडों) पर
बैठ गया उसने संकल्प किया कि “ आज उन सब देवी – देवताओं की परीक्षा लूँगा, अगर उन्होंने कुछ नहीं किया तो मैं सारी
मूर्तियां तोड़ कर फेंक दूंगा । भोलानाथ को यह संकल्प किये कुछ वक्त ही गुजरा होगा
कि उसकी मां की हालत में सुधार होने लगा। सुबह जब भोलानाथ घर में नहीं दिखे तो
लोगों ने उसकी खोज शुरू की। वह गौशाला में उपलों पर बैठा था। सुबह होते ही उसकी
माँ भी ठीक हो गई ।नौ वर्ष की उम्र में भोलानाथ का उपनयन संस्कार कराया गया। उसके
बाद से उनका ब्रह्मचर्य तेज दिनोंदिन बढ़ता
गया। भोलानाथ जब पंद्रह वर्ष के हुए उन्हें एक पागल कुत्ते ने काट लिया। कुत्ते के
काटने के कारण उनके पूरे शरीर में असह्य जलन होने लगी। भोलानाथ ने यह बात अपने घर
वालों को बताई। उसके दादा डाक्टर थे । उन्होंने अपने स्तर पर इलाज करना शुरू कर
दिया । अन्य वैद्यों की भी सहायता ली गई लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। जलन इतनी तेज हो
गई कि बालक जोर – जोर से चिल्लाने लगा। भोलानाथ को लगा कि
अब वह नहीं बचेंगे। सूर्यास्त का समय था। भोलानाथ डूबते सूर्य को निहारते हुए गंगा
किनारे आ बैठा। वह मन ही मन सोच रहा था कि-चलो गंगा भैया में ही जल समाधि ले लेते
हैं। तभी एक अद्भुत घटना हुई। वह एकटक
गंगा के जल को निहार रहा था तभी उसने देखा कि एक सन्यासी बार – बार गंगा के जल में डुबकियाँ लगा रहा है। सन्यासी का मुख उज्जवल और
अलौकिक लग रहा था । सन्यासी ने बालक का चेहरा देखकर ही सारा हाल जान लिया गंभीर
स्वर में सन्यासी बोला – “ बच्चा ! इतने चिंतित क्यों हो ? हम अभी सब अच्छा किये देते है ।” इतना कहकर वह किनारे आ गये । उन्होंने बालक के सिर पर हाथ रखा और बालक के
शरीर की जलन शांत हो गयी। सन्यासी ने वहाँ से एक ओषधि लाकर दी और उसे घर लौट जाने
को कहा। दूसरे दिन भोलानाथ फिर गंगा
किनारे उसी स्थान पर पहुँचा। उसने संन्यासी से कहा कि आपने मुझे ठीक किया है। आप
मुझे दीक्षा दीजिये। संन्यासी ने भोलानाथ को एक आसन और मन्त्र दे दिया और कहा – “ हम तुम्हारे गुरु नहीं है, तुम्हारे गुरु यहाँ से दूर हैं । समय आने पर वह तुमसे मिलेंगे
और आगे क्या करना है यह बतायेंगे। इसके बाद भोलानाथ अपने गुरु की खोज में तिब्बत
की बर्फ ढंकी पहाड़ियों में भटकने लगे। वहीं उन्हें गुरु की प्राप्ति हुई ।
उन्होंने अपने गुरु के निर्देशन में बारह वर्षों तक सूर्य विज्ञान का अभ्यास किया।
आगे चलकर वह योगी विशुद्धानंद के नाम से विख्यात हुए। विशुद्धानन्द जी के गुरुजी
की आयु लगभग 1200 वर्ष थी और वह जिस स्थान पर रहते थे वह
सिद्धाश्रम और ज्ञानगंज के रूप में जाना जाता है।
स्वामी विशुद्धानन्द
परमहंस एक आदर्श योगी, सूर्य विज्ञानी थे।
एक तरह से अलौकिक था उनका जीवन। उनको अनेक योग सिद्धियाँ प्राप्त थीं जिससे
प्रकृति, काल और स्थान सब उनकी इच्छा शक्ति के अनुसार चलते
थे। उनकी उपलब्धि इतनी असाधारण थी कि सूर्य की रश्मियों को क्रिस्टल की मदद से रुई
आदि पर इकट्ठा करके वे मनचाही धातुओं, मणियों तथा अन्य
पदार्थों का सृजन तथा एक वस्तु को दूसरी में परिवर्तित कर देते थे।
काशी के मलदहिया
मुहल्ले में उन्होंने विशुद्धानन्द कानन आश्रम स्थापित किया जो अनेक वर्षों तक
उनकी लीलाओं का कर्म स्थल रहा। वहाँ आज भी उनके द्वारा स्थापित प्रसिद्ध नवमुण्डी
सिद्धासन तथा संगमर्मर की प्रतिमा के रूप में उनकी स्मृति सुरक्षित है।
विशुद्धानंद जी सूर्य विज्ञान के ज्ञाता
थे। सूर्य की 360 प्रकार की रश्मियों को पृथक कर के वे अद्भुत चमत्कार करते थे।
किसी वस्तु को दूसरी वस्तु में परिवर्तित कर देना उनके बायें हाथ का खेल था। इसके
बारे में यह बताया जाता है कि वे पहले सूर्य की सफेद रश्मि को खोजते और क्रिस्टल
की मदद से वस्तु विशेष पर केंद्रित करते और फिर दूसरी रश्मियों की मदद से उस वस्तु
को मनचाही वस्तु में बदल देते थे। कहते हैं कि वे कुछ देर में ही फूलों का रंग बदल
देते या प्रकार भी बदल देते। ऐसा सुना जाता है कि बच्चे उनके पास लाल गुलाब लाते
और अनुरोध करते –बाबा इसे सफेद रंग
में बदल दीजिए। बाबा थोड़ी देर में ही सूर्य विज्ञान की मदद से यह चमत्कार कर देते
थे।
एक बार कोई विदेशी उनसे मिलने आया और उनका
चमत्कार देखने की इच्छा की। विशुद्धानंद जी ने कहा कल आना और अपने साथ थोड़ी रुई
लेते आना। हां तुम अपने साथ योगीनाथ कविराज को लेते आना वह अंग्रेजी में तुम्हें
मेरी बातें समझाता रहेगा। उस विदेशी ने किसी तरह से योगीनाथ कविराज का पता लगाया
और उनके साथ दूसरे दिन रुई लेकर विशुद्धानंद
महाराज के पास पहुंच गया। रुई को स्वानी जी ने हाथ में लिया और उस पर प्रकाश की
किरणें डालीं, वह रुई स्फटिक की
गायत्री की मूर्ति बन गयी। बाबा के चमत्कारों की विदेश तक में चर्चा होती थी। कहते
हैं कि एक अंग्रेज बाबा के पास आया और
उनसे बोला कि वे उनकी रूमाल के चार कोनों में अलग-अलग सुगंध ला दें। बाबा ने रूमाल
लिया और अपने क्रिस्टल बाल से उस पर एक सूर्य रश्मि केंद्रित की और थोड़ी देर बाद
वह रूमाल अंग्रेज को लौटा दी और उसने सूंघने को कहा। अंग्रेज ने कहा-बेला की सुगंध
है। फिर दूसरे कोने में उसकी मनपसंद सुगंध सूर्य रश्मि के चमत्कार से डाल दी।
तीसरी सुगंध भी उसके मन की डाल दी और उसने स्वीकार किया कि वही गंध है जो उसने कहा
था। अब गंधबाबा ने चौथे कोने में अपने पसंद की सुगंध डाल दी। अंग्रेज ने पाया कि
गंध एकदम अलग है जो अब तक उसने कहीं पायी नहीं। उसे आश्चर्य से देखते देख गंधबाबा
ने कहा-इसे नहीं पहचान पाओगे यह तिब्बत के एक अद्भुत पुष्प की सुगंध है।
आश्चर्य में डूबा वह अंग्रेज होटल लौट
आया। वह सोचने लगा कि बाबा ने कहीं मुझे वशीकरण में सम्मोहन में तो नहीं बांध लिया
कि उन्होंने जो कहा वही मुझे अनुभव हुआ। उसने होटल के एक कर्मचारी से कहा कि इस
रूमाल को सूंघ कर बताओ इसमें कौन सी सुगंध है। उसने तीनों कोनो की सुगंध के नाम
बता दिये। चौथे कोने के लिए कहा कि इसमें अनोखी सुगंध है लेकिन किस फूल की है मैं
नहीं जानता।
अब अंग्रेज को विश्वास हुआ कि सचमुच बाबा
ने अपनी चामत्कारिक शक्ति से सुगंध पैदा की है। पाल बर्टेन नामक एक विदेशी लेखक,
पत्रकार भी गंधबाबा के चमत्कारों से प्रभावित था उसने बाबा पर एक पुस्तक भी लिखी
थी।
गंधबाबा आर्युवेद और ज्योतिष के ज्ञाता
थे। जब वे ज्ञानगंज से वापस लौट रहे थे उनसे कहा गया था कि अपने जीवन यापन के लिए
वे अपनी इन्हीं विद्याओं का प्रयोग करें। उनसे यह भी कहा गया था कि घर पहुंच कर वे
विवाह करें। गुरु आदेश का पालन करते हुए उन्होंने विवाह भी किया और उनके एक पुत्र
भी हुआ।
उनके बारे में प्रसिद्ध था कि वे जब तक रोज
कुंआरियों को खाना नहीं खिला लेते थे तब तक
अन्न जल नहीं ग्रहण करते थे।
ऐसा माना जाता है कि ध्यान करने पर विशुद्धानंद जी के शरीर से कमल पुष्प की
तरह की गंध निकलती थी। उनका कक्ष हमेशा इस गंध से भरा रहता था। यही कारण है कि कुछ
लोग उनको गंधबाबा के नाम से भी पुकारते थे। वे ज्ञानगंज में सूर्य विज्ञान, सिद्ध योग आदि की
शिक्षा पाकर बंगाल लौट आये। ज्ञानगंज में
उनको विविध महान, चमत्कारी विभूतियों
के दर्शन हुए जिनमें उनके गुरु नीमानंद जी महाराज व ज्ञानगंज के सबसे बड़े अधिकारी
महातप बाबा सम्मिलित थे। ज्ञानगंज के सर्वोच्च पद पर राज राजेश्वरी जी थीं। जो
अदृश्य रूप में रहती थीं और उन्होंने ज्ञानगंज का भार महातप बाबा को सौंप रखा था।
कहते हैं कि ज्ञानगंज में एक दिव्य शिवलिंग था जिसमें साधक त्राटक (एक निश्चित
वस्तु पर दृष्टि स्थिर कर की जाने वाली साधना) करते थे। कहते हैं कि जब
विशुद्धानंद सारी शिक्षा,
साधना पूरी कर वापस
बंगाल लौट रहे थे तो महातप बाबा ने प्रसन्न हो कर उन्हें वह शिवलिंग दिया जिसे
विशुद्धानंद जी ने अपने ग्राम बंडूल में स्थापित किया था।
यहां यह बताते चलें कि उन्हें बंडूल से लेने एक
संत आये थे जो उन्हें लेकर विंध्यवासिनी मंदिर गये उन्हें वहां रख वापस लौट गये और
फिर आकर उन्हें सूक्ष्म रूप में आंखों पर पट्टी बांध कर ज्ञानगंज ले गये। यही
नीमानंद महाराज उनके गुरु बने।
कहते हैं कि विशुद्धानंद महाराज किसी फूल
में दूसरे फूल की गंध भर देते थे। यहां तक कि शुष्क फूल को तरोताजा कर देते थे।
सुनते हैं कि एक बार विशुद्धानंद अपने भक्तों से बातें कर रहे थे तभी एक चिड़िया
उड़ती हुई आई और उनके सामने गिर गयी। भक्तों में से किसी ने कहा-बाबा इसको जीवित
कर दीजिए।
विशुद्धानंद जी ने फिर क्रिस्टल बाल की
मदद से मृत चिड़िया पर सूर्य रश्मि डाली और थोड़ी देर में वह चिड़िया जीवित होकर
उड़ गयी।
परमहंस योगानंद जी ने भी योगी कथामृत (एक
योगी की आत्मकथा) में विशुद्धानंद परमहंस जी के बारे में कुछ इस तरह से उल्लेख किया है-उस संन्यासी ने मुझसे कहा अपना
दायां हाथ बढ़ाओ। मैं गंधबाबा से कई गज दूर बैठा था। मैंने अपना हाथ बढ़ाया उस
योगी (गंधबाबा) ने मेरे हाथ को छुआ तक नहीं। मेरे आश्चर्य का ठिकाना ना रहा जब
मेरी हथेली से गुलाब की सुगंध आने लगी। मैंने मन से यही गंध मांगी थी। मैंने पास
ही रखे फूलदान से एक सूखा गंधहीन सफेद फूल निकाल लिया। मैंने गंधबाबा से कहा कि
क्या इस सूखे फूल से चमेली की गंध आ सकती है। बाबा ने स्वीकृति में सिर हिला दिया।
मैंने देखा उस सूखे फूल से चमेली की सुगंध आने लगी। मैंने यही गंध मांगी थी। मैं
उनके एक शिष्य के पास जाकर बैठ गया। उसने बताया कि विशुद्धानंद जी ने तिब्बत के एक
क हजार वर्ष आयु के अनेक सिद्धियां प्राप्त की थीं।
योगानंद जी महाराज आगे बताते हैं कि एक बार विशुद्धानंद जी के घर में भोज हो रहा था। योगानंद जी भी उसमें शामिल थे। उन्होंने सुन रखा था कि गंधबाबा जो चाहें वे पल भर में पैदा कर सकते हैं। योगानंद जी बाबा से संतरा प्रकट करने को कहा। बाबा ने पल भर में यह कर दिखाया। थाल में परोसी गयी पूड़ियों के बीच संतरे के छिले टुकड़े भी अचानक जाने कहां से आ गये।
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