आत्मकथा-47
आनंद बाजार प्रकाशन के साप्ताहिक ‘रविवार’ के आने से हिंदी पत्रिकारिता में नये तेवर आये। को छोड़ दें तो बाकी ठकुरसुहाती में लिप्त थीं। साप्ताहिक हिंदी पत्रिका रविवार ने सच को सच की तरह कहने की हिम्मत दिखाई और कुछ अंकों के बाद ही पाठकों में लोकप्रिय हो गयी। लोगों को उसके हर अंक की बेसब्री से प्रतीक्षा रहती। धीरे-धीरे संपादकीय विभाग के हम सारे लोगों के बीच अपरिचय के आवरण हट गये। सबका परिचय सामने आया। सुदीप जी का पूरा नाम था गुलशन कुमार सुदीप उनका उपनाम या कहें पेन नेम था और वे उसी नाम से जाने-पहचाने जाते रहे। वे अच्छे कथाकार थे और कई फिल्मों की स्क्रिप्ट भी लिख चुके थे। वे प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका ‘सारिका’ से आये थे। उन्होंने विख्यात साहित्यकार कमलेश्वर के साथ काम किया था।
प्रारंभ में काफी अरसे तक ‘रविवार’ के संपादक के रूप में एम. जे. अकबर का नाम छपता था। हालांकि
पत्रिका का सारा काम हमारे एस.पी. यानी सुरेंद्र प्रताप सिंह देखते थे। उन्हें हम
लोग कुछ दिनों में ही एसपी दा पुकारने लगे थे। अकबर साहब का पूरा नाम मोबाशेर
जावेद अकबर था। अकबर साहब और एस.पी. दोनों मुंबई में टाइम्स ग्रुप से आये थे। अकबर
अंग्रेजी और एस.पी सिंह धर्मयुग और माधुरी में काम कर चुके थे। अकबर और एस पी
दोनों कोलकाता के उपनगरों से आये थे। एस.पी. गारुलिया से और अकबर गरुलिया के पास
से बहनेवाली हुगली नदी जो कि गंगा की ही एक धारा है। उसकी एक धारा अब के
बांग्लादेश की ओर मुड़ गयी है जिसका नाम पद्मा पड़ा है। गारुलिया के पास से बहती
हुगली नदी के उस पर एक उपनगर चंदननगर है। एम. जे. अकबर और उनका परिवार रहता था। एसी पी और अकबर साहब
के परिवारों में भी आपस में अच्छी जान-पहचान थी। हमारे एसपी दा के पिता जगन्नाथ
सिंह गारुलिया क्षेत्र के नामी-गिरामी लोगों में थे।
एस पी दा के बारे में हमने सुन रखा था कि वे बहुत खुले दिमाग के
और अपनी बात को पुख्ता ढंग से और साहस के साथ रखने के लिए प्रसिद्ध थे। उनके बारे
में यह प्रसिद्ध था कि उन्होंने धर्मयुग में काम करते वक्त वहां साथियों में अच्छी
धाक जमा ली थी। धर्मयुग तत्कालीन संपादक डाक्टर धर्मवीर भारती जब तक कार्यालय में
रहते प्राय: सन्नाटा छाया रहता। कहते हैं एक बार
किसी बात पर एस पी सिंह जी ने किसी बात पर उन्मुक्त ठहाका लगाया। वे यह देख कर
हैरान थे कि संपादकीय विभाग से सभी साथियों ने हंसने में उनका साथ नहीं दिया इसके
अलावा उन लोगों के चेहरे पर एक अनोखे भय की छाप उभर आयी।
ए, पी सिंह ने पूछा-अरे
भाई मैंने तो हंसने की बात की तुम लोगों के चेहरे पर मुर्दनी क्यों छा गयी।
लोगों ने धीरे से कहा
इस तरह ठहाका लगाने से चैम्बर (धर्मवीर भारती) नाराज हो जायेंगे।
इसके बाद एस पी ने फिर एक जोरदार ठहाका लगाया और कहा-मै
विष्णुकांत शास्त्री जी का छात्र रहा हुं जिनका कहना था कि –जो करो उन्मुक्त मन से
करो। हंसना गुनाह कब से होने लगा।
हमारे एक साथी राजकिशोर हावड़ा से आते थे। समाजवादी विचारधारा
के थे और अच्छे लेखक थे।
मणि मधुकर राजस्थानी
थे। वे अच्छे कवि और ज्योतिष के भी ज्ञाता थे। उनकी नाटकों आदि में भी रुचि थी।
प्रारंभ में इसी टीम को लेकर शुरुआत हुई थी। ध्येय यही था कि
ऐसी साहसिक पत्रिका की शुरुआत की जाये जो हिम्मत के साथ सच को कहने का माद्दा रखती
हो। हम उससे जुड़े थे इसलिए नहीं कहते रविवार के पाठक रहे व्यक्ति भी स्वीकार
करेंगे कि रविवार सदा अपनी इस भूमिका में खरा उतरा। कुछ अरसा बाद ही स्थिति यह हो
गयी थी कि राज्यों की विधानसभाओं में रविवार किसी घोटाले या घटना के बारे में
विधानसभाओं में प्रमाण के तौर पर रविवार के अंक दिखाये जाने लगे थे जिसमें उन
घोटालों की ऱबर छपी होती थी।
यहां यह बता दें कि साल पूरा होते-होते रविवार से नेता खौफ खाने
लगे थे। वे रविवार के पत्रकारों से बातें करते वक्त बहुत सावधानी बरतते थे कि कहीं
वे अपनी बातों से अपनी सरकार को ही मुसीबत में ना डाल दें। इसके उलट जो विपक्षी
नेता होते थे वे रविवार को सरकारी घोटाले की सारी जानकारी दे देते थे वह भी
डाक्युमेंट के साथ।
हमारे कार्यालय में एक कानूनी विभाग था जिसके प्रमुख थे विजित
बसु। वे कानून के अच्छे जानकार थे। जब कभी ऐसी रिपोर्ट दूसरे राज्यों के प्रतिनिथि
भेजते जिनमें मामला होने का संदेह होता उसे विजित दा को पढ़ा लिया जाता था। वे
उससे संबंधित जो भी डाक्युमेंट आवश्यक होते वे मंगा लिये जाते थे। उसके बाद अगर
कोई मामला होता तो विजित दा आकर एस पी से बोलते-एस पी मामला कर दिया है, हम लोग
लडेगे मजा आयेगा। अच्छा हुआ हमारे रिपोर्टर ने सारे संबंधित डक्युनेंट भेज दिये
थे।
कभी यह नहीं देखा ,कि
पत्रिका की किसी रिपोर्ट पर मामला हुआ हो और लोगों के हाथ-पैर फूल गये होंष रविवार
हर मामला जीतता था। एक साल गुजरते गुजरते वह देश की व्यवस्था विरोधी पत्रिका के
रूप में ख्यात हो गया था। व्यवस्था जहां-जहां जनास्थाओं से विमुख हुई वहां-वहां रविवार
उस पर सवाल उठाने से नहीं हिचकिचाया। (क्रमश:)
No comments:
Post a Comment