अन्ना का आंदोलन तो लटका अधर में
राजेश त्रिपाठी
अन्ना हजारे,एक ऐसा नाम जिसकी पहुंच एक साल पहले तक उनके अपने गांव रालेगणसिद्धि या महाराष्ट्र की सीमा से बाहर शायद ही बहुत से लोग जानते रहे हों। पिछले साल 2011 में साल भर देश में यह नाम न सिर्फ सर्वाधिक चर्चा में रहा अपितु देश की जनता का एक बड़ा हिस्सा उससे इस तरह जुड़ गया जैसे उसके दुख-दर्द समाप्त करने के लिए बस एक यह नाम ही काफी है। किसी ने उसे दूसरा गांधी तो किसी ने कुछ और विशेषण से विभुषित करना शुरू कर दिया। अन्ना के आंदोलन ने राष्ट्रीय स्वरूप ले लिया और सारे देश के अन्ना के नाम की टोपी पहन ली और अपनी-अपनी तरह से सभी जुट गये भ्रष्टाचार के खिलाफ युद्ध में। उन्हें यह पता नहीं था कि जिस सत्ता के खिलाफ वे खड़े हुए हैं वह उनसे कहीं ज्यादा चालाक और घाघ है। वह येन-केन प्रकारेण उनके आंदोलन की वह परिणति करेगी कि वह कहीं का नहीं रहेगा। सिविल सोसाइटी ने जिस जन लोकपाल विधेयक का सपना देखा था, वह तो अब टूट चुका है। लोकसभा में संख्या बल पर संप्रग सरकार ने अपना लोकपाल विधेयक पास करा लिया लेकिन राज्यसभा में यह लटक गया।
अन्ना के आंदोलन ने सोयी जनता को जगाया, भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरे देश से सामूहिक आवाज भी उठी लेकिन (अफसोस कि ऐसे सत् उद्देश्य के आंदोलन में भी यह लेकिन आ ही गया) इसकी परिणति जो हुई, शायद वैसा अन्ना और उनके सिपहसालारों ने कभी नहीं सोचा था। वैसे इस आंदोलन के प्रारंभ से ही इसकी सफलता पर संदेह को बैदल घिरने लगे थे। पहले तो अन्ना टीम से जुड़े कुछ लोगों पर ही आरोपों की झड़ी लगने लगी थी। कहा यह जाने लगा था कि भ्रष्टाचार से लड़नेवाले पहले अपने दामन में झांकें। अन्ना आंदोलन के साथ हर वह भारतवासी खड़ा था जिसे किसी न किसी रूप में दिन प्रतिदिन भ्रष्टाचार से जूझना पड़ता है लेकिन शायद भ्रष्टाचार से निपटने का सही तरीका कुछ और ही होगा, आमरण अनशन, खुद को कष्ट देना, किसी दल के खिलाफ खड़े हो जाना इसका सही तरीका नहीं है। दल और मत के भेदभाव को भूल इस लड़ाई को एक व्यापक और सार्थक नजरिये से देखना होगा। ऐसा नजरिया जहां आंदोलनों को सवालों के कठघरे में न खड़ा होना पड़े और जिसे जनता के हर वर्ग का समर्थन मिले।
अन्ना और उनके साथियों ने राजनेताओं और राजनीतिक दल के मानस को पढ़ने में भी गलती की। कई राजनीतिक दलों के नेताओं ने उनके मंच पर जाकर जन लोकपाल के प्रति अपना समर्थन जताया तो लेकिन यह सिर्फ और सिर्फ जुबानी जमा खर्च के अलावा कुछ नहीं था इसका पता संसद में पेश हुए लोकपाल के वक्त चल गया। किसी ने भी लोकपाल में सार्थक सुधार और उसे एक सशक्त रूप में लाने पर उतना जोर नहीं जताया जितना वे बाहर कह और जता रहे थे। दरअसल कोई नहीं चाहता कि उनके सिर पर ऐसा कोई दरोगा बैठ जाये जिसका डर उन्हें दिन-रात भोगना पड़े। सबको इस बात का डर है कि लोकपाल नामक जिस विधेयक का हौवा खड़ा किया जा रहा है कहीं कल वह उन पर ही न भारी पड़ जाये। आज का कटु और दुखद सत्य यही है कि कोई भी राजनीतिक दल जन लोकपाल को मन से नहीं चाहता। यह बात शायद अब तक अन्ना और उनकी टीम के सामने भी दिन के उजाले की तरह साफ हो चुकी होगी।
अब वक्त आ गया है कि वह अपने आंदोलन की दशा-दिशा बदले। अनशन और धरनों का दौर खत्म होना चाहिए। देश के कोने-कोने में ऐसे समूहों का गठन होना चाहिए जो अपने अंचल में भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को और तेज करें। यह एक निरंतर प्रक्रिया के रूप में होना चाहिए जिससे अन्ना के आंदोलन से बने माहौल और गति को त्वरान्वित करने और उसे बरकरार रखने में मदद मिलेगी। इस आंदोलन में बैनर भले ही अन्ना का हो लेकिन इसे जमीनी स्तर पर गांव-गांव तक ले जाना चाहिए और इसे 2014 के लोकसभा चुनावों तक तीव्र से तीव्रतर किया जाना चाहिए।
टीम अन्ना को अगर देश में वाकई अपना मनचाहा बदलाव लाना है , ऐसा बदलाव जो देश की जनता भी चाहती है तो फिर उन्हें देश की संसदीय प्रणाली में अपने मनपसंद और योग्य लोगों को चुनाव के समर में उतारना ही होगा। इसमें न कुछ अनुचित है और न ही अस्वाभाविक। अगर हमारे यहां लोकतांत्रिक प्रणाली है तो उसने देश के हर नागरिक को देश की शासन प्रणाली में हिस्सा लेने का अधिकार दिया है। उस अधिकार का फायदा उठा कर संसदीय प्रणाली से जु़ड़ना और अपनी संसद में शक्ति बढ़ा कर जनहितकारी विधेयक लाना शायद उचित और न्यायोचित भी होगा। अन्ना को और उनके साथ जुड़े लोगों को अब इस दिशा में ही सोचना होगा। एक बुजुर्ग व्यक्ति को जब-तब अनशन में बैठा कर खुद को होम करने को विवश करना उचित नहीं। उन्हें पूरी ताकत से जनांदोलन गढ़ने और उसे जयप्रकाश नारायण के आंदोलन जैसी परिणति तक पहुंचाना होगा। अन्ना की सबसे बड़ी पूंजी है कि आज देश की अधिकांश जनता उनके सत्प्रयास के साथ है। उन्हें और क्या चाहिए। उनके साथ जनबल है, जनसमर्थन है अब उन्हें वही करना चाहिए जो ऐसे में उचित है। इस जनबल को जो उनके साथ खड़ा है जाया नहीं होने देना चाहिए।
अन्ना बुजुर्ग हैं ,उनका स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा है ऐसे में बार-बार उनका अनशन करना उचित नहीं। वैसे भी अब लोग यह कहने लगे हैं कि अन्ना का आंदोलन उनके बिगड़े स्वास्थ्य के चलते अधर में फंसता नजर आ रहा है। पांच राज्यों के चुनावों में राजनीतिक दलों के खिलाफ जो प्रचार वे करने वाले थे वह भी नहीं हो पा रहा है। ऐसे में उनके सिपहसालारों को आंदोलनों को एक सही दिशा में ले जाना चाहिए।
हमारे देश में आज अगर जरूरत है तो एक सशक्त जनजागरण की। ऐसा जनजागरण जो जनता को उद्वेलित और प्रेरित करे ताकि वह अभी से राजनीति के परिष्कार में जुटने का संकल्प ले ले। उसे सही और स्वच्छ छवि वाले अपने मनपसंद जनप्रतिनिधि को चुनने में न बंदूक डर लगे न किसी बाहुबली की धमकी का। जब जनता जागेगी और अपनी तकदीर को किसी भ्रष्ट या अपराधी किस्म के व्यक्ति को सौंपने के बजाय सही हाथों में सौंपेंगी तभी बनेगा गांधी के सपनों का भारत। शायद अन्ना और उनकी टीम भी यही चाहती है तो फिर वे चुनाव में आने और संसद में जाने से संकोच क्यों करते हैं। अगर उन्हें अपनी बात मनवानी है तो इसका सिर्फ और सिर्फ यही तरीका है कि वे संसदीय प्रणाली में हिस्सेदारी करें।
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