आत्मकथा
कुछ भूल गया, कुछ याद रहा
राजेश त्रिपाठी
भाग-17
जब से सांप काटने की घटना घटी थी, मन उचाट-सा हो
गया था। गांव जाकर अम्मा से मिलने की इच्छा हो रही थी। वे भी बाबा के साथ घर में
अकेली ही हैं। कैसी होंगी यह सोच कर चिंता हो रही थी।
दूसरे
दिन विद्यालय पहुंचते ही मैंने गुरु जी को प्रणाम किया और गांव जाने की अपनी इच्छा
बताते हुए उनसे अनुमति मांगी।
गुरु जी
ने मुझे अनुमति देते हुए कहा-एक सप्ताह से ज्यादा का अवकाश नहीं मिलेगा। सप्ताह भर
में वापस आ जाना नहीं तो अध्ययन में व्यवधान आयेगा।
मैंने
स्वीकृति में सिर हिला दिया और शाम को वापस उस घर आया जो साथी में मेरा आश्रय स्थल
था। घर आकर मैंने गयाप्रसाद भैया से बताया कि मैं एक सप्ताह के लिए मां से मिलने
जाना चाहता हूं। गुरु जी से अवकाश मिल चुका है, सोचा आपको भी बता दूं।
गयाप्रसाद भैया जानते थे कि मैं कुछ समय पहले ही
मौत के मुंह से उबर कर आया हूं और मुझे मां की याद आ रही होगी। उन्होंने मुझे
अनुमति देते हुए कहा-तो कल ही निकल जाओ लेकिन भूल कर मां से सांप काटने वाली घटना
बिल्कुल नहीं बताना। मैंने उन्हें आश्वस्त कर दिया कि मैं इसका जिक्र मां से नहीं
करूंगा क्योंकि मैं जानता था कि इसे सुनते ही अम्मा का क्या हाल होगा।
दूसरे
दिन सुबह ही मैं साथी से अपने गांव जुगरेहली के लिए निकल पड़ा। शाम ढलने से पहले
ही गांव पहुंच गया। मुझे पाते ही अम्मा मुझसे लिपट कर ऐसे बिलख-बिलख कर रोने लगी
जैसे वर्षों बाद में उससे मिला हूं। दो संतानें खोने के बाद मैं मां की इकलौती
संतान था। वे हमेशा मुझे इस तरह सहेज कर रखतीं जैसे दो आंखों को पुतलियां अपने बीच
रखती हैं। अगर मेरी शिक्षा की चिंता ना होती तो वे कभी मुझे अपनी आंखों से ओट नहीं
करतीं। बाबा को भी मेरे घर आने पर बहुत खुशी हुई। उन्होंने भी पुछा-बेटा ठीक हो
ना। मैं भी कह दिया-हां बाबा बिल्कुल ठीक हूं।
आज अम्मा
को रोते-बिलखते देख मुझे बचपन के वे दिन याद आ गया जब मैं उनकी स्नेह की छांह तले
पल-बढ़ रहा था। मां अक्सर जिद करती थीं कि मैं दूध पिऊं। घर में दूध की कमी नहीं
थी। चार-चार गायें थीं लेकिन जाने क्यों दूध मुझे भाता नहीं था और मक्खन मैं
छोड़ता नहीं था। अलस्सुबह नींद तो तभी खुल जाती थी जब मां घुर्र-घुर्र कर
जांत पीसतीं और साथ में प्रभाती राग वाला
भजन गाती जातीं-जागिए रघुनाथ कुंअर पंछी वन बोले, रवि की किरण उदय भई पल्लव दृग
डोले। उसके बाद वे दही बिलोतीं तो मैं
अपना कटोरा लेकर उनके पास जा बैठता। वे उलाहने के स्वर में कहतीं –तू दूध नहीं
पियेगा बस मट्ठा और मक्खन ही चाहिए। मैं बस मुसकरा देता और वे मेरे कटोरे में कुछ
मट्ठा और मक्खन का एक बड़ा टुकड़ा डाल
देतीं और वही सुबह का मेरा नाश्ता होता।
मेरे
बाबा मंगलप्रसदा तिवारी ना सिर्फ हाजिरजवाब,निर्भीक अपितु आशुकवि भी थे। आशुकवि
अर्थात तत्काल कविता बना कर पढ़नेवाला
कवि। बाबा ने अपने जीवन की एक घटना मुझे सुनायी।
उन्होंने बताया कि एक बार जाड़े के मौसम में किसी गांव से एक कवि मुखिया जी
के दरबार में आया। जाड़े के दिन थे उनकी बैठके के बाहर आंगन में अलाव जल रहा था और
उनके यहां रोज आने वाले गांव के दरबारी अलाव ताप रहे थे। अपने यहां एक अजनबी को
आया देख मुखिया जी ने उन्हें आदर से बैठाया और पूछा –आप कहां से आये हैं, हमसे कुछ
काम है क्या।
उस कवि
ने कहा- मैं एक कवि हूं, चाहता हूं आपके गांव में कोई कवि हो तो मैं उससे कवित्त
की लड़ाई लड़ना चाहता हूं।
वहां
बैठे लोगों में से किसी ने कहा-यहां कोई कवि नहीं, सब किसान हैं, दिन भर खेत जोत
कर थक-हार कर रातो को घोड़ा बेच कर सो जाते हैं। ज्यादातर लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर हैं
वे क्या जाने कवित्त-ववित्त।‘
वह कवि लौटने को हुआ तो मुखिया गंगाप्रसाद जी ने
एक आदमी से कहा-जाओ जरा तिवारी को तो बुला आओ। वह काफी समय तक शहर में रहा है,
बातचीत में भी चतुर है शायद वह इनसे कवित्त की लड़ाई लड़ चले।
मेरे
बाबा मंगलप्रसाद तिवारी मुखिया जी के दरबार में पहुंचे तब तक गांव के काफी लोग
वहां जुट गये थे। उन्होंने जिंदगी में
कुश्ती देखी थी और कई ग्रांमीण खेल देखे थे पर कवित्त की लड़ाई नहीं देखी थी।
उन्हें भी इस बात की उत्सुकता थी कि यह नयी लड़ाई कैसी है और किस तरह लड़ी जाती
है।
मुखिया
गांगाप्रसाद जी ने मेरे बाबा से सारा हाल बताया और कहा-तिवारी ये बाहर से आये हैं
कवित्त की लड़ाई लड़ना चाहते हैं अब हमें तुम्हारे अलावा और कोई इस काबिल नहीं
मिला अब यह लड़ाई तुम्हीं लड़ो।
बाबा
बोले –मुखिया जी पहले कभी ऐसी लड़ाई तो नहीं लड़ी पर कोशिश करूंगा।
दोनों
कवि वहां बिछी दरी पर बैठ गये और शुरू हो गयी कवित्त की लड़ाई। एक कवित्त वह बाहर
गांव से आया कवि कहता तो उसके जवाब में मेरे बाबा (पिताजी) एक कवित्त कहते। यह
सिलसिला चलता रहा। जब सुबह होने को आयी तो पिता जी ने एक कवित्त पढ़ा जो मुझे अब
याद नहीं लेकिन उसके भाव कुछ इस तरह थे कि मेरे हजारों कवित्त अभी खेतों की रखवाली
कर रहे हैं, हजारों गायों की देखभाल कर रहे हैं और हजारों कबड्डी खेल रहे हैं
हजारों ऐसे हैं जिन्हें अभी मैंने याद ही नहीं किया।
इतना
सुनना था कि बाहर से आये कवि ने मेरे बाबा के चरण छू तिए और बोला-आप जीते, मैं
हारा पंडित जी मेरा तो यह आखिरी कवित्त है, आपके खजाने में तो अभी भी हजारों
कवित्त हैं। इतना कह सभी को प्रणाम कर वह
कवि वापस लौट गया।
जब वह
वापस लौट गया तो मुखिया गंगाप्रसाद जी ने मेरे बाबा से पूछा- अरे तिवारी तुम तो
बहुत गुनी हो, तुम कह रहे हो कि तुम्हारे अभी हजारों कवित्त बाकी हैं।
बाबा ने
मुसकराते हुए कहा-नहीं मुखिया जी मेरा भी आखिरी कवित्त था। सोचा अगर कुछ नहीं कह
पाया तो गांव की हार हो जायेगी। सोचा कुछ तो चतुराई दिखानी ही होगी। मैंने मन ही
मन यह कवित्त रच डाला जिससे वह बाहरी कवि डर गया।
मुखिया
जी ने मेरे बाबा की बड़ी प्रशंसा की और कहा-तिवारी सचमुच आज तुमने हमारे गांव की
लाज रख ली।
*
हमारे यहां जो गायें थीं उन्हें हम पशु नहीं
परिवार के एक सदस्य की तरह मानते थे। अगर उन्हें कोई कष्ट हो तो हमें तब तक चैन
नहीं मिलता था जब तक वे ठीक ना हो जायें। यह अच्छा था कि अम्मा दवाई जानती थीं तो
वे उनकी बीमारी ठीक कर लेती थीं।
गायें भी
हम सबको इतना मानती थीं कि नाम से पुकारने
पर पास आ जातीं। उनकी गरदन सहलाने लगों तो आंख बंद कर लेंती और उन्हें देख लगता
जैसे बहुत खुश हैं। हमारी सभी गौ माताओं ने हमारी गोरुहाई (गौशाला) में अपने जीवन
की यात्रा समाप्त की। दूध देना बंद करने के बाद भी हमने उन्हें बेचा नहीं हालांकि
अनेक लोग ऐसा करते थे और हमें भी कहते थे-बूढ़ी गाय को घर में रखने से क्या फायदा।
हम कहते –यह तो हमारी माता है मां बूढ़ी हो जाये तो क्या उसे बेचते हैं?
उन गायों में एक
रजनी नाम की गाय भी थी। एक दिन वह जंगल से लौट कर आयी और द्वार पर बैठ कर रोने लगी
और बार-बार मुंह और गरदन हिलाने लगी।
अम्मा ने कहा-लगता है रजनी के मुंह में कुछ तकलीफ
है।
वे घर के
भीतर गयीं और कुछ दवा और हल्दी बांट कर ले आयीं और उसके मुंह में हाथ डाल कर वह
लेप लगाया और मुंह के भीतर से कई कांटे निकाले जो उसके मुंह में चुभे थे। थोड़ी
देर में उसकी पीड़ा शांत हुई तो वह मां का हाथ चाटने लगी जैसे एहसान जता रही हो कि
किसी ने उसे कष्ट से मुक्ति दिलायी।
वही रजनी
एक दिन जंगल से रोज की अपेक्षा पहले आ गयी। वह बुझी-बुझी थी उसकी आंखों से झर-झर
आंसू बह रहे थे और वह कांप भी रही थी। अम्मा भांप गयीं की गड़बड़ है।
वे बोलीं
–दादू (हमारी तरफ बच्चों को प्यार से इसी नाम से पुकारते हैं) लगता है रजनी हमारा
साथ छोड़नेवाली है। और उनकी आशंका सही साबित हुई कुछ देर बाद ही रजनी एक ओर लुढक
गयी। वह निस्पंद हो चुकी थी, हमें छोड़ जा चुकी थी। मैं जोर-जोर से रोने लगा ऐसा लगा
जैसे अपने किसी सगे को खो दिया है। (सच कह कहता हूं आज यह पंक्तियां लिखते वक्त भी
मेरी आंखों में आंसू हैं)। रजनी के जाने पर दो दिन तक हमारे घर चूल्हा नहीं जला।
मेरे लिए मां पास के घर से खाना ले आती पर मुझसे भी खाया ना जाता। धीरे-धीरे
स्थितियां सामान्य हो गयीं पर रजनी हमारी स्मृतियों में हमेशा के लिए बस गयी। हमने
अपनी गौ माताओं को कभी पशु माना ही नहीं इसलिए उनका विछोह भी हमें उसी तरह तड़पा जाता
जैसा किसी अपने को खोने पर होता है। (क्रमश:)
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