राजेश त्रिपाठी
भाग-1
हमारे
यहां की ग्राम देवी कमासिन दाई हैं जो कहते हैं कि कभी गांव के मध्य में थीं। 1918 में आये भयानक स्पैनिश फ्लू ने पूरे विश्व में
पांच करोड़ लोगों की जान ले ली थी। इस बीमारी ने हमारा आधा गांव भी साफ कर दिया
था। इसके बाद देवी का स्थान गांव से बाहर हो गया। तब देवी कुछ पेड़ों के झुरमुट के
मध्य विराजमान थीं। कुछ भक्तों ने मंदिर बनवाने की कोशिश की तो देवी ने स्वप्न में
आदेश दिया कि मंदिर बनाने की कोई जरूरत नहीं। यहां यह बताते चलें कि गांव में
पक्के मकान भी नहीं बनते थे। गांव में पहले केवल दुबे जी लोगों का घर पक्का था।
बाकी लोग इस डर से कि कहीं पक्का मकान बनाने से कोई अनर्थ ना हो जाये कच्चे मकानों
में ही रहते थे। कालांतर में यह डर निकल गया और लोग पक्के मकान बनाने लगे।
जिस
देवस्थान का जिक्र कर रहे हैं उसके बारे में एक विचित्र कथा सुनाते चलें जो
बड़े-बूढ़ों से सुनी थीं। कहते हैं कि इस देव स्थान के पास ही कभी एक कुआं हुआ
करता था जिसका पानी अगर कोई स्त्री पी ले तो उसकी संतान बड़ी वीर और धनुर्धर होती
थी। कहते हैं कि एक बार गांव के कुछ युवक बाण चलाने का अभ्यास कर रहे थे दूर कहीं
कच्ची सड़क पर कोई धनाढ्य व्यक्ति अपने बेटे का विवाह कर लौट रहा था। बेटा जिस
पालकी पर सवार था जुगरेहली के युवकों का बाण जाकर उस पर लगा और पालकी टूट गयी और
उस पर सवार बेटा वहीं खत्म हो गया। इस बात से गुस्साये उस धनी व्यक्ति ने अपने
सिपाहियों को उस दिशा में भेजा जिधर से बाण आया था। उनसे कह दिया कि जो भी धनुष
बाण लिये नजर आये उसे खत्म कर देना। सिपाहियों ने वैसा ही किया, जितने युवक धनुष
बाण लिये दिखे उनको मार कर चले गये। गांव में हाहाकार मच गया।
उस समय
अंग्रेजों का शासन था जब उन्हें इस घटना का पता चला तो उन्होंने तुरत यह आदेश दिया
कि जुगरेहली गांव में जो कोई चमत्कारी कुआं है उसे बंद कर दिया जाये। आनन-फानन में
वह कुआं ईंटों से पाट दिया गया। हम लोगों को बड़े-बूढ़ें यह कहानी सुनाते थे। भले
ही यह कहानी हो लेकिन देवी के स्थान के पास ही एक ऐसा स्थान है जहां लगता है कि
कुआं रहा होगा जिसे पाट दिया गया होगा।
एक घटना
यह भी सुनते थे कि बहुत पहले कुछ लोग ताम्रपत्र लेकर आये थे और उन लोगों ने उन्हें
पढ़ कर एक जगह के बारे में जानकारी मांगी। लोगों ने उन्हें बताया कि यह जगह तो
कमासिन दाई देवस्थान है। कहते उस रात वे लोग मंदिर के आसपास ही जाने क्या करते
रहे। लोगों ने सुबह देखा कि देवी स्थान पर एक बड़ा चौकोर पत्य़र रखा है जिस पर
सिंदूर आदि लगा कर किसी ने पूजा की है। बाद में पता चला कि वहां कोई खजाना था
जिसका जिक्र ताम्रपत्र में था। वे वही निकाल ले गये और पत्थर की पूजा कर गये.। यह
पत्थर बाद के दिनों में भी देवी स्थान के प्रवेश के बायीं ओर देखा जाता रहा।
जुगरेहली
में ज्यादातर लोग खेतिहर हैं और जिनके जमीन नहीं है वे जोतदारों के यहां या तो हल
चलाते हैं या खेती-किसानी का दूसरा काम करते हैं। तीज-त्योहारों का जो रंग शहरों
या कस्बों में देखा जाता है वैसा गांवों नहीं। यहां त्योहार आडंबर नहीं आस्था के
साथ मनाये जाते हैं। इनमें जहां एक ओर जनास्था के रंग होते हैं वहीं होती है
पारंपरिकता।गांवों के अभाव, दुख, पीड़ा से भरे जीवन में ऐसे त्योहार खुशियों की
नयी बहार, ताजा हवा का झोंका बन कर आते हैं।
इस गांव
की कहानी में अब उस पात्र को लाते हैं जो इस पूरी कहानी का प्रथम और प्रमुख पात्र
है। हमारा अभिप्राय मुखराम शर्मा से है जिनके बिना यह कहानी प्रारंभ ही नहीं हो
सकती क्योंकि वही कहानी के आधार हैं। मुखराम जी की जुगरहेली में अच्छी-खासी जमीन
थी और अपना एक बड़ा मकान था। वे बड़े नहीं तो मझोले दर्जे के काश्तकार तो थे ही। मुखराम
जी के एक बेटा मंगल प्रसाद और एक बेटी थी। परिवार दिन राजी खुशी से चल रहे थे। (क्रमश:)
जो सुना,जो जाना,जो देखा,वही लिखा
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