Monday, February 21, 2022

गोत्र कहां से आया,अपना गोत्र कैसे पता करें

 

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गोत्र का महत्व इतना है कि हर पूजा या ऐसे धार्मिक अनुष्ठान में जहां संकल्प कराया जाता है वहां पूजा करानेवाला पंडित यजमान का गोत्र अवश्य पूछता है। पुराने जमाने के लोग प्राय:अपना कुल गोत्र जानते थे। आज के लोगों से गोत्र पूछो तो वे आसमान ताकने लगते हैं। गूगलयुगी यह पीढ़ी या तो धर्म कर्म से उदासीन हो गयी है या इसके प्रति उसकी रुचि ही नहीं रही है। गोत्र का इतिहास बहुत पुराना है। सामान्यतया यही माना जाता है कि गोत्र का संबंध ऋषियों से है। इसमें कहा यह जाता है कि जिस कुल के पूर्वज जिस ऋषि के शिष्य रहे उनके नाम से ही उनके कुल का गोत्र सदियों सदियों तक चलता रहता है। जिनका गोत्र पता नहीं होता उसे पंडित जी कश्यप गोत्र बना कर चला देते हैं।

 ऋषि-मुनियों के नाम से अपना संबंध जोड़ते हुए नई पहचान गोत्र के रूप में आयी। एक ही प्राचीन ऋषि आचार्य के शिष्यों को गुरुभाई मानते हुए पारिवारिक संबंध स्थापित किए गए और जैसे भाई और बहन का विवाह नहीं हो सकता उसी तरह गुरुभाइयों के बीच विवाह संबंध ग़लत माना जाने लगा। सगोत्रीय विवाह निषिद्ध किये गये हैं। इसके अलावा एक ही परिवार में विवाह का निषेध भी जिसका कारण वैज्ञानिक है। एक ही कुल में विवाह से आनुवांशिक बीमारियां पीढ़ी दर पीढ़ी चलती जाती हैं।पूजा में जब संकल्प कराया जाता है और यजमान अपना गोत्र नहीं बता पाता तो पंडित जी अमुक गोत्र या कश्यप गोत्र कह कर ही काम चला लेते हैं।

सबसे पहले गोत्र सप्तर्षियों व अन्य ऋषियों के नाम से प्रचलन में आये। जैसे गौतम, भरद्वाज, जमदग्नि, वशिष्ठ , विश्वामित्र, कश्यप, अत्रि, अंगिरा, पुलस्ति, पुलह, क्रतु- ग्यारह हो जाते हैं।

इससे आकाश के सप्तर्षियों की संख्या पर तो कोई असर नहीं पड़ता, पर गोत्रों की संख्या प्रभावित होती है। फिर बाद में दूसरे आचार्यों या ऋषियों के नाम से गोत्र प्रचलित हुए.

बृहदारण्यक उपनिषद में अंत में ऐसे कुछ ऋषियों के नाम दिए गए हैं।कुछ जनों और ब्राह्मणों में एक गोत्र या वंशागत पहचान (जैसे उदुंबर) मिलने पर किसी को हैरानी नहीं होती, उल्टे सभ्यता के प्रसार की प्रक्रिया चित्र की तरह हमारे सामने उपस्थित हो जाती है।

हम जिस गोत्र नामावली से परिचित हैं वह वैदिक काल से पीछे नहीं जाती, पर उन ऋषियों की उससे पहले की पहचान या वंश परंपरा क्या थी?

उदाहरण के लिए विश्वामित्र, वशिष्ठ, अंगिरा अपनी वंशधरता किससे जोड़ते थे? इसकी ज़रूरत तो तब भी थी।

विश्वामित्र कुशिक या कौशिक होने का दावा करते हैं। अंगिरा का जन्म आग से है। यही दावा आगरिया जनों का है और उनकी असुर कहानी के अनुसार विश्व का पूरा मानव समाज आग से पैदा सात भाइयों की संतान है जिनमें सबसे बड़े की संतान वे स्वयं हैं।इन्द्र का नाम शक्र ही नहीं है, ऋग्वेद में एक बार उन्हें कौशिक (कुशिकवंशीय) कहा गया है जिससे लगता है कश और शक में केवल अक्षरों का उलट फेर है।

जो भी हो, वंशधरता की पहचान के तीन चरण हैं। पहला टोटेम अर्थात जिनका संबंध पशु, पक्षियों से हो जिसमें दूसरे जानवरों को मनुष्य से अधिक चालाक या समर्थ मान कर उनसे अपनी वंशधरता जोड़ी जाती रही। इसकी छाया कुछ मामलों में जैसे ध्वज केतु (गरुणध्वज, वृषध्वज) आदि में बनी रही। फिर दूसरे मनुष्यों से अपने को अधिक श्रेष्ठ (मुंडा, आर्य, असुर, शक ) आदि और अंत में शिक्षा और ज्ञान का महत्व समझ में आने के बाद आचार्यों और ऋषियों के नाम से जिसे गोत्र के रूप में मान्यता मिली और ऋषियों की नामावली मे विस्तार की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि कृषिकर्म अपना कर अपनी कुलीनता का दावा करते हुए सभ्य समाज का अंग बनने का क्रम कभी पूरी तरह रुका नहीं।

अपने गोत्र का पता कैसे करें। गोत्र एक ऐसी चीज़ है जो यह बताती है की आपके पूर्वज कौन थे और आप किस ऋषि से सम्बंधित हैं या आप किस ऋषि या उनके सीधे संपर्क में रहे शिष्यों की संतान हैं। गोत्र की उत्पत्ति के लिये आपको शुरुआत में दुनिया का प्रारम्भ कैसे हुआ यह जानना होगा।

वेद पुराणों मैं इस बात की पुष्टि होती है की इस संसार की रचना ब्रह्मा जी ने की और इसके लिए उन्होंने मनु को उत्पन्न किया और कहा कि वे सृष्टि रचना में उनकी मदद करें।मनु के नाम पर ही हमारा नाम मनुष्य पड़ा जो इस बात की पूरी तरह से पुष्टि करता है। मनु जो की पहले मनुष्य थे उनके द्वारा ऋषियों की उत्पत्ति हुई इन ऋषियों को सप्त ऋषियों के नाम से जाना जाता है। इन्हीं के नाम पर गोत्र हैं।

सात ऋषियों के नाम इस प्रकार हैं-कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ,विश्वमित्र,गौतम, जमदग्नि.भरद्वाज।आप इन ऋषियों के नाम पड़ कर सोच रहे होंगे कि ये तो ब्राह्मण के गोत्र हैं तो मैं आपको बताता चालू की लेकिन ये गोत्र सबके हैं। जातियों का विभाजन बहुत बाद में किया गया और उसी हिसाब से सबको उपाधियां दी गयीं। जातियों का विभाजन लोगों के कर्मों के अनुसार किया गया।

अपने अपने जाति के अनुसार सबने कर्म भी अपनाये। ब्राह्मण ने विद्यादान, क्षत्रिय ने रक्षा और अन्य ने खेती व कुछ ने सफाई और स्वच्छता का सभी लोग अपनी अपनी जिम्मेदारियों को निभाते थे और सभी महत्वपूर्ण थे और इसी के अनुसार सभी ने अपने गोत्रों को चुन लिया। या कहें की जाती मैं बट गए। सभी ऋषियों की संतान थे जो सनातन संस्कृति को मानते थे।अगर आपको अपना गोत्र पता ना हो तो क्या करें।कई लोगों को पता नहीं होता की उनका गोत्र क्या है। तो इस स्थिति वे अपना गोत्र कश्यप मान सकते हैं क्योंकि कश्यप ऋषि एक ऐसे ऋषि थे जिनकी संतान हर जाति मैं पायी जाती हैं और इसी कारण वे श्रेष्ठ ऋषि माने जाते हैं।अगर किसी पूजा, यज्ञ, या विवाह में आपसे कोई आपका गोत्र पूछे तो बेहिचक आप उन्हें बता सकते हैं की मेरा गोत्र कश्यप है। चाहे आप किसी भी जाति से सम्बन्ध रखते हों आप अपना गोत्र कश्यप बता सकते हैं जो की वैदिक रूप से बिलकुल सही बैठता है। गोत्र को बस आप ये समझ लीजिए की ये पहचान है कि आप किस ऋषि की संतान हैं।

हम सभी श्रेष्ठ ऋषियों की संताने हैं जिन्होंने वेद, पुराण और धार्मिक ग्रन्थ दिए हैं जिनके जरिये हम अपनी सनातन संस्कृति को समझ पाते हैं।भारत में गोत्र पद्धति के जरिए आपके वंश का पता चलता है. ये बहुत प्राचीन भारतीय पद्धति है।इससे मूलपिता और मूल परिवार, जिससे आप संबंध रखते हैं, उसका पता चलता है. हमारे देश में चार वर्ण माने जाते हैं- ब्राहण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र गोत्र समान रूप से पाए जाते हैं। ये ऐतिहासिक वंश-परपरा का सबसे पुष्ट प्रमाण है, जो बताते हैं कि चाहे हम किसी भी जाति या वर्ण में हों लेकिन प्राचीन काल एक पिता के वंश से संबंध रखते हैं.गोत्र और वर्ण अलग क्यों है। वर्ण व्यवस्था में जिसने गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर जिस वर्ण का चयन किया, वे उस वर्ण के कहलाने लगे। बाद में विभिन्न कारणों के आधार पर उनका ऊंचा-नीचा वर्ण बदलता रहा। किसी क्षेत्र में किसी गोत्र-विशेष का व्यक्ति ब्राह्मण वर्ण में रह गया, तो कहीं क्षत्रिय, तो कहीं शूद्र कहलाया। बाद में जन्म के आधार पर जाति स्थिर हो गयी। यही वजह है कि सभी गोत्र सभी जातियों और वर्णों में हैं। कौशिक ब्राह्मण भी हैं, क्षत्रिय भी। कश्यप गोत्रीय ब्राह्मण भी हैं, राजपूत भी, पिछड़ी जाति वाले भी। वशिष्‍ठ ब्राह्मण भी हैं, दलित भी. दलितों में राजपूतों और जाटों के अनेक गोत्र हैं. सिंहल-गोत्रीय क्षत्रिय भी हैं, बनिया भी। राणा, तंवर, गहलोत-गोत्रीय जाट हैं, राजपूत भी. राठी-गोत्रीय जन जाट भी हैं, बनिया भी।

गोत्र का इस्तेमाल किन कामों में होता है।गोत्र मूल रूप से ब्राह्मणों के उन सात वंशों से संबंधित होता है, जो अपनी उत्पत्ति सात ऋषियों से मानते हैं।जिनके नाम हम पहले बता चुके हैं।बाद में इसमें एक आठवां गोत्र अगस्त्य भी जोड़ा गया और गोत्रों की संख्या बढ़ती चली गई। जैन ग्रंथों में 7 गोत्रों का उल्लेख है- कश्यप, गौतम, वत्स्य, कुत्स, कौशिक, मंडव्य और वशिष्ठ. लेकिन छोटे स्तर पर साधुओं से जोड़कर हमारे देश में कुल 115 गोत्र पाए जाते हैं।विवाह में आमतौर पर गोत्र को किस तरह देखा जाता है एक लड़का-लड़की की शादी के लिए सिर्फ विवाह के लायक लड़के-लड़की का गोत्र ही नहीं मिलाया जाता, बल्कि मां और दादी का भी गोत्र मिलाते हैं। इसका अर्थ है कि तीन पीढ़ियों में कोई भी गोत्र समान नहीं होना चाहिए तभी शादी तय की जाती है।यदि गोत्र समान हैं तो विवाह न करने की सलाह दी जाती है।क्या गोत्र हमेशा एक ही रहता है। मनुस्मृति के अनुसार, सात पीढ़ी बाद सगापन खत्म हो जाता है अर्थात सात पीढ़ी बाद गोत्र का मान बदल जाता है. आठवी पीढ़ी के पुरुष के नाम से नया गोत्र शुरू होता है। लेकिन गोत्र की सही गणना का पता न होने के कारण हिंदू लोग लाखों हजारों वर्ष पहले पैदा हुए पूर्वजों के नाम से अपना गोत्र चला रहे हैं।

अगर दत्तक हो तो गोत्र बदल सकता है। विद्वानों का  मत है कि अगर हिंदू परंपरा और मान्यताओं के अनुसार पिता का गोत्र ही पुत्र को मिलता है। वही उसका गोत्र माना जाता है। इसकी मातृ परंपरा नहीं रही है। हां, अगर किसी ने किसी को दत्तक पुत्र के रूप में स्वीकार किया हो तो उसे उसका गोत्र मिल जाता है।

गोत्र पता करें। गोत्र आपके पूर्वज का परिचय देता है। हम सभी ऋषि मुनियों की संतान है। गोत्र सप्तऋषियों से संबंधित हैं। पहले गोत्र केवल सात थे जो अब बढ़ कर सौ हो गये हैं।एक ही गोत्र के लड़के लड़की का रिश्ता भाई-बहन का माना जाता है इसीलिए इनका विवाह वर्जित है।

 गोत्र जानकारी अपने बुजुर्गों या गांव के बड़े-बूढ़ों से मिल सकती है।

गोत्र पता ना हो तो क्या करें। गोत्र अर्थात आपकी पहचान। आपके वंश की परंपरा जिन ऋषियों से परिचालित है उसी ऋषि के नाम से आपके गोत्र का नाम होता है जैसे कश्यप ऋषि के शिष्य जिनके पूर्वज रहे हैं उनका गोत्र काश्यप होगा। जिन्हें अपने गोत्र का पता नहीं वे अपना गोत्र काश्यप गोत्र कह सकते हैं। ऐसा इसलिए कि हमारे पूर्वज किसी ना किसी ऋषि के शिष्य रहे हैं।

गोत्रका शाब्दिक अर्थ तो बहुत व्यापक है। विद्वानों ने समय-समय पर इसकी यथोचित व्याख्या भी की है। गोअर्थात् इन्द्रियां, वहीं त्रसे आशय है रक्षा करना’, अत: गोत्र का एक अर्थ इन्द्रिय आघात से रक्षा करने वालेभी होता है जिसका स्पष्ट संकेत ऋषिकी ओर है।

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