आत्मकथा-70
समय के साथ साथ जनसत्ता की लोकप्रियता भी बढ़ती गयी। यह अखबार औरों से
अलग और असरदार साबित हो रहा था क्योंकि इसके शीर्ष स्थान पर प्रभाष जोशी जैसे
सक्षम, सार्थक और सशक्त प्रमुख संपादक बैठे थे। उनकी नजर जनसत्ता के हर एडीशन पर रहती थी। बीच बीच में वे कोलकाता आते और
संपादकीय टीम से मीटिंग अवश्य करते थे। ऐसी हर मीटिंग में वे एक एक सदस्य से बात
करतें और आवश्यक निर्देश भी देते थे।
हमारे साथ प्रभात रंजन दीन थे
जो ऐसी ऐसी खबरें जाने कहां से खोद कर
लाते थे जो दूसरे अखबारों में नहीं मिलती थीं। कई खबरें तो चौंकानवाली होती
थीं। स्वभाव से भी आला खुशमिजाज प्रभात की रिपोर्ट चुस्त दुरुस्त होती थीं। उनकी हर
रिपोर्ट चर्चा का विषय बनती थी। कभी कभी तो कोई खबर जनसत्ता में ही होती थी।
मुख्य़ संवाददाता गंगा
प्रसाद थे जिनके निर्देशन पर रिपोर्टर और
स्ट्रिंगर काम करते थे।
कुछ अरसा बाद हावड़ा के समाचारों का समावेश भी जनतत्ता में होने लगा
इसका जिम्मा आनंद पांडेय ने संभाला जो वेषभूषा और आचार विचार में पत्रकार कम साधु
ज्यादा लगते थे। हावड़ा ऐसा जिला है जहां खबरें खोजनी वहीं पड़तीं रोज ही कुछ ना
कुछ घटता रहता जो खबर बनता है।
ओमप्रकाश अश्क के जिम्मे
व्यवसाय पृष्ठ था। उनकी सहायता के लिए प्रमोद मल्लिक थे।
खेल पेज का जिम्मा फजल इमाम मल्लिक को सौंपा गया था। गोरे चिट्टे फजल
भाई पत्रकार कम फिल्म कलाकार ज्यादा लगते थे। मैं जनसत्ता में फिल्म पेज देखता था।
अक्सर फिल्मों से जुड़े प्राय: हर इवेंट में मुझे
जाना पड़ता था। हमारे अखबार जनसत्ता में बांग्ला फिल्मों से जुड़ी खबरे भी
प्रकाशित होती थीं। मुझे स्टूडियो कवरेज के लिए भी जाना पड़ता था और फिल्मों के
प्रीमियर शो में भी। ऐसे ही एक बार सुधीर बोकाड़े अपनी किसी फिल्म के प्रीमियर के
लिए कोलकाता आये थे। संयोग से उस दिन उस हाल में जहां प्रीमियर हो रहा था मेरे साथ
फजल भाई भी थे। मेंने मजाक में पूछा फजल भाई फिल्मों में काम करेंगे बोकाड़े जी से
बात करें। फजल भाई मुसकरा कर रह गये। मैं उन्हें बोकाडे साहब के पास ले गया और
बोला-बोकाडे जी यह हमारे पत्रकार मित्र हैं। नाटकों में अभिनय भी करते रहते हैं।
क्या आपकी किसी फिल्म में उनको चांस मिल सकता है।
बोकाडे जी ने कहा क्यों नहीं
इन्हें कहिए हमें मुंबई में आकर मिलें।
जैसा कि मैंने बताया कि डेस्क में काम करने के अलावा मेरे जिम्मे
फिल्म से जुड़े पक्ष की रिपोर्ट करने का जिम्मा भी था तो मुंबई से आये कलाकारों के
इंटरव्यू, फिल्म समीक्षा और बांग्ला फिल्मों की शूटिंग के कवरेज का जिम्मा मुझ पर
था। इसके लिए स्थानीय स्टूडियो और आउटडोर शूटिंग कवरेज के लिए भी जाना पड़ता था।
इसी क्रम में पहली बार मेरी भेंट मिठुन चक्रवर्ती से हुई। एक हिंदी फिल्म ‘अभिनय’ के निर्माण की
घोषणा हुई थी। मिठुन भी उसी सिलसिले में आये थे। इसी फिल्म में संवाद लेखन के लिए
मेरे भैया रामखिलावन त्रिपाठी ‘रुक्म’ के मित्र ब्रजेंद्र गौड भी आये थे। जब पता चला
कि फिल्म बननी ही नहीं तो वे मुंबई को लौटने के लिए तैयारी करने लगे। भैया ने कहा –अब
लौट रहे हैं तो एयरपोर्ट के रास्ते में हमारा घर है वहां से होते चलिए. गौड जी
राजी हो गये। हमारे घर आये तो भैया रुक्म जी मिठाई लाने के लिए तैयार होने लगे।
गौड जी उन्हें रोकते हुए रसोई घर में पहुंचे और मेरी पत्नी से बोले –बहू चीनी का
डिब्बा कहां है। चीनी का डिब्बा पाते ही
उन्होंने एक चम्मच से थोड़ी चीनी निकाली और मुह में डालते हुए बोले-लो भाई हो गया
मुंह मीठा अब मैं चलता हूं।
फिल्म अभिनय जो मुहूर्त से
आगे नहीं बढ़ी उसके गीत लिखने प्रसिद्ध गीतकार इंदीवर भी आये थे। उनका वास्तविक
नाम श्यामलाल बाबू राय था इंदीवर उनका उपनाम था जिससे वे फिल्मी गीतकार कै रूप में
मशहूर हुए। वे हमारे बुंदेलखंड के झांसी जिले के रहनेवाले थे। उनसे भेंट हुई तो
फिल्मी गीतों के गिरते स्तर और फूहड़पन पर बात हुई। इस दौड़ में उनके जैसा समर्थ
और सशक्त गीतकार भी शामिल हो गया था। उनके एक गीत ‘झोपड़ी
में चारपाई’ का जिक्र करते हुए पूछा-चंदन सा बदन चंचल चितवन
के लेखक को इस घटिया स्तर पर उतरना पड़ा। इस पर उन्होंने उत्तर दिया-भाई साहब अब
चंदन सा बदन जैसे गीत कोई नहीं लिखवाता अगर हम उनकी शर्तों में घटिया गीत ना लिखें
तो भूखों मरना पड़ेगा। उनके इस कथन ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया।
***
हमें काम करते हुए काफी समय बीत गया था। एक दिन की बात है हम सभी लोग
काम कर रहे थे। कार्यालय में मेरे बैठने की पोजीशन कुछ ऐसी थी कि मेरी पीठ पीछे
सारा विभाग बैठता था। मेरी बगल से नीचे से ऊपर आनेवाली सीढ़ियां गुजरती थीं।
स्थिति यह थी कि अगर कोई सीढ़ियों से ऊपर की ओर आये तो मैं बायीं ओर मुड़े बगैर या
आनेवाले के बोले बगैर नहीं जान सकता था कि नीचे से कौन ऊपर आया है।
ऐसे ही एक दिन मुझे अपने
कंधों पर किन्हीं के हाथों का स्पर्श महसूस हुआ और एक गंभीर आवाज गूंजी –भाई हमारे
राजेश जी के कंधों पर बहुत भार है।
आवाज जानी पहचानी थी मैं उठ
कर खड़ा हो गया। मुड़ कर देखा सामने प्रभाष जोशी जी थे। मैंने प्रणाम किया
उन्होंने कुशल क्षेम पूछने के बाद कहा-बैठिए काम कीजिए।
प्रभाष जोशी जितनी बार आते संपादकीय टीम के साथ बैठक अवश्य करते थे।
इस बार भी उसमें कोई व्यतिक्रम नहीं आया। अखबार की प्रगति के बारे मैं जानने के
बाद वे इस विषय में आये कि कौन क्या कर रहा है। जब मेरा क्रम आया तो वे बोले-हमारे
राजेश जी तो शिफ्ट अच्छी तरह संभाल रहे होंगे चूंकि जवाब संपादक श्यामसुंदर आचार्य
दे रहे थे इसलिए मैं खामोश रहा। जवाब श्यामसुंदर जी की तरफ से ही आया-राजेश जी अभी
एडिट पेज देख रहे हैं। हम सभी को आलराउंडर बना रहे हैं। मैंने प्रभाष जी का चेहरा
पढ़ने की कोशिश की मुझे लगा कि उन्हें यह बदलाव अच्छा नहीं लगा लेकिन उन्होंने अपने
बडप्पन के अनुसार इस विषय पर चुप रहना ही उचित समझा। प्रभाष जी ऐसे संपादक थे जो
दिल्ली में रहते हुए भी अपने सभी एडीशनों पर निरंतर पैनी नजर रखते थे और समय समय
पर जो आवश्यक हो निर्देश भी संपादकों को देते रहते थे। मुझसे शिफ्ट छिनने का मुझे
कोई गम नहीं था क्योंकि मैं रात को समय से घर पहुंचने लगा था मेरे लिए परिवार
वालों को अब आधी रात नींद में जागना नहीं पड़ता था। (क्रमश:)
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