जनसत्ता दिनों दिन प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रहा था। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था। जनसत्ता ने पाठकों में अपनी धाक जमा ली थी। समाचारों पर अच्छी पकड़, जनता से सरोकार रखनेवाले मुद्दों को प्रमुखता से स्थान देने के कदम ने इस समाचार पत्र को जन जन तक पहुंचा दिया था।
राज्य के
कोने कोने से खबर लाने वाले स्ट्रिंगरों की बदौलत इसमें सभी क्षेत्रों का समावेश
होता था। पाठकों में इसकी विश्वसनीयता भी दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी। खतरनाक
स्थितियों से भी हमारे लोग समाचार संग्रह से नहीं चूकते थे। इस बारे में एक घटना
याद आती है। कोलकाता के पासवर्ती एक उपनगर में किसी धार्मिक मामले को लेकर अच्छा
खासा विवाद उठ खड़ा हुआ था। स्थिति इतनी बिगड़ गयी कि उसे नियंत्रित करने के लिए
पुलिस को बुलाना पड़ा। इस घटना की रिपोर्टिंग के लिए हमारे एक साथी अभिज्ञात जी को
भेजा गया। वहां की भीड़भाड़ और हंगामे के बीच हमारे साथी अभिज्ञात भी फंस गये।
वहां उपस्थित पुलिस ने स्थिति को नियंत्रित करने के लिए लाठीचार्ज शुरू कर दिया और
लाठीचार्ज में हमारे भाई अभिज्ञात जी बुरी तरह से पिट गये उनकी उंगलियां टूट गयीं
थी।
इस घटना का उल्लेख इसलिए किया ताकि यह पता चल सके कि जनसत्ता से जुड़े
लोग कार्य के प्रति कितने समर्पित थे। इसी तरह की एक घटना और याद आती है जब
सांप्रद्रायिक तनाव के बारे में रिपोर्ट के वक्त जनसत्ता के धाकड़ और साहसी पत्रकार
प्रभात रंजन दीन फंस गये। बाकी पत्रकार उग्र भीड़ के पास जाने का साहस नहीं कर पा
रहे थे और वे प्रभात रंजन दीन को भी आगाह कर रहे थे वहां जाना खतरनाक है लेकिन वे अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित पत्रकार हैं और उन्होंने रिर्पोटिंग का अपना पूरा
काम किये बगैर वह जगह नहीं छोड़ी।
उदाहरण तो कई हैं लेकिन कुछ उदाहरण दिये ताकि
जनसत्ता की टीम की अपने कार्य के प्रति निष्ठा और प्रतिबद्धता का पता चल सके। ऐसे
कई दृष्टांत हैं। यही वजह है कि स्थानीय या राष्ट्रीय खबरों को प्रमुखता से
प्रस्तुत करने में जनसत्ता सदा आगे रहा।
यह बात जनसत्ता के नयी दिल्ली, चंडीगढ मुंबई और कोलकाता सभी संस्करणों में
प्रमुखता से परिलक्षित होती थी।
अब उस घटना के जिक्र पर आते हैं जिसके चलते कुछ पल
के लिए हम सब लोगों की जान सांसत में फंस गयी थी। बीके पाल एवेन्यू में जिस मंदिर
वाले मकान में जनसत्ता का कार्यालय था उसमें दरवाजे से प्रवेश करते ही दायीं तरफ
कई ट्रांसफार्मर थे। जब यह दुर्घटना हुई
उन दिनों काली पूजा चल रही थी। हमारे कार्यालय के बगल में भी कालीपूजा का पंडाल
था।
हम लोग काम
कर ही रहे थे तभी नीचे से कोई चिल्लाया-ट्रांसफार्मर फट गया है तेजी से काला धुआ पूरी बिल्डिंग में फैल रहा है। सभी लोग बाहर
निकल आयें। कुछ लोग तो नाक में रूमाल दबा कर बाहर निकल गये। न्यूज डेस्क के प्रमुख
गंगा प्रसाद बिल्डिंग के पास के बरगद की डाल पकड़ कर किसी तरह से नीचे उतर गये।
ऊपर मैं और ओमप्रकाश अश्क रह गये। हम जब तक सीढ़ियां उतर कर आते तब सीढ़ियां और
मंदिर के सामने का हिस्सा काले धुएं में डूब गया था हमारे सामने काले धुएं में दम
घुटने का कष्ट झेलने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। हमने खिड़की से नीचे चिल्लाना
शुरु किया-ए दिके जानलाय मोई लगान आमरा फेंसे गियेछि अर्थात इधर नसेनी लगाइए हम
लोग ऊपर फंसे हुए हैं। यह हमरा सौभाग्य है कि नीचे लोगों ने हमारी बात सुन ली।
कालीपूजा का पंडाल बनाने के लिए नसेनी लायी गयी थी वही लेकर लोगों ने खिड़की की
तरफ लगा दी और जोर से चिल्लाये आप लोग नीचे उतरिए हम लोग मोई यानी नसेनी पकड़े हुए
हैं। ओमप्रकाश अश्क और मैंने जूते पहने और
खिड़की के कांच पर कई बार प्रहार किया। कुछ देर में खिड़की का कांच टूट गया और मैं
मेरे पीछे ओमप्रकाश अश्क धीरे धीरे नीचे उतर गये। जब हमारे कदम धरती पर पड़े तब कहीं हमारी जान में जान आयी। नीचे
ख़ड़े हमारे साथी भी हमारे लिए चिंतित थे। हमें सुरक्षित देख वे भी चिंतामुक्त
हुए।
दूसरे
दिन जब हम लोग वापस पहुंचे तो जिन
खिड़कियों को तोड़ कर हम निकले थे उन्हें देख कर ओमप्रकाश अश्क बोले- बाबा क्या डर में आदमी
पतला हो जाता है। इस संकरी खिड़की से हम लोग कैसे निकल गये। यहां स्पष्ट कर दूं कि
मेरे ओमप्रकाश अश्क, पलास विश्वास और विनय बिहारी सिंह के बीचा आपसी संबोधन के
लिए 'बाबा' संबोधन चलता था जो आज तक जारी
है। (क्रमश:)
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