साहित्य, समसामयिक, सामाजिक सरोकार
जनसत्ता की साप्ताहिक पत्रिका सबरंग अखबार के साथ रविवार के अंक के साथ निशुल्क दी जाती थी। इसमें प्राय: किसी ना किसी स्तंभ में मेरा कुछ ना कुछ आलेख छपता ही रहता था। प्रतिवर्ष जनसत्ता का पूजा दीपावली विशेषांक भी निकलता था। सबरंग के साथ साथ पूजा दीपावली विशेषांक का संपादन सबरंग में हमारे वरिष्ठ साथी अरविंद चतुर्वेद करते थे। जिस बार का में जिक्र कर रहा हूं उस बार अरविंद चतुर्वेद विशेषांक का संपादन प्रारंभ कर चुके थे। एक दिन उन्होंने मुझे बुलाया और बोले-राजेश भाई मुझे विशेषांक के लिए एक रहस्य उपन्यास चाहिए जो फिल्म स्क्रिप्ट जैसा हो और जिसका रहस्य उप्न्यास के अंत में खुले।
अरविंद भाई का आदेश पाकर मैंने अपना सारा ध्यान उपन्यास की रूपरेखा पर ध्यान देना शुरु किया। मेरे सामने सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि कथानक में रहस्य प्रारंभ में शुरू हो जाये और अंत तक चलता रहे बीच में कभी भी पाठक रहस्य की तह तक ना जा सके। यहां यह बता दूं कि इस लघु उपन्यास का नाम रख दिया –रूम नंबर दो सौ तेरह।
मैने दूसरे दिन से ही उपन्यास की रूपरेखा बनानी शुरू कर दी। उपन्यास का कथानक रहस्य रोमांच पर आधारित होना था इसलिए उसकी शुरुआत भी रहस्य से होनी चाहिए। इस उपन्यास के प्रारंभ में ही एक होटल में एक नर्तकी की हत्या हो जाती है और उसके बाद उस रहस्य की गुत्थी सुलझाने के इर्द गिर्द पूरा कथानक घूमता है जिसमें कई किरदार जुड़ते जाते हैं। सबरंग का विशेषांक आया तो लोगों ने रूम नंबर दो सौ तरह को पसंद किया। मुझे सबसे ज्यादा संतोष इस बात का था कि मैं अरबिंद चतुर्वेदी जी की उम्मीदों पर खरा उतरा जिन्होंने यह उपन्यास लिखने का आदेश मुझे दिया था। कुछ महीने बाद किसी ने बताया कि हूबहू रूम नंबर दो सौ तेरह से मिलते जुलते कथानक पर एक हिंदी फिल्म भी बन गयी है।
***
जनसत्ता में मैं फिल्म संबंधी खबर और फीचर भी देखता था इसलिए अगर मुंबई से कोई कलाकार निर्माता आते उनके बारे में समाचार संकलन का जिम्मा भी मुझे ही उठाना पड़ता था। पब्लिसिटी आफीसर वगैरह फोन पर इसकी जानकारी दे देते थे। मुंबई के कलाकार आते तो भी मुझे कवरेज करने जाना प़ड़ता था।
जनसत्ता में हमारे एक साथी रहे रंजीव बहुत ही विनोदी स्वभाव के और योग्यता में भी श्रेष्ठ, बहुत तेज तर्रार। एक दिन की बात है मैंने कार्यालय में प्रवेश किया ही था कि रंजीव ने मुझे बुलाया और कहा- राजेश भाई आपके लिए बाहरी दुनिया से फोन आया था। कोई आपसे बात करना चाहता था।
अब मेरे चौंकने की बारी थी। बाहरी दुनिया यानी अंतरिक्ष रंजीव का यही आशय था। काफी देर तक मैं संशय की स्थिति में रहा। मुझे हतप्रभ देख कर रंजीव ने कहा-कुछ लोग थे जो कोई सीरियल बना रहे हैं। शायद बाहरी दुनिया।
अब मेरे सामने से रहस्य का परदा हटा। जिसे रंजीव ने बाहरी दुनिया बना दिया था वह एक सीरियल का नाम था। सही नाम था वाह री दुनिया उसका निर्माण जो लोग कर रहे थे वे शायद कंस्ट्रक्शन के बिजनेस से जुड़े थे। उन लोगों से कुछ अरसा पहले मेरी फोन पर बात हुई थी।
कैसा लगेगा कि कभी काम के बीच में आपको मनोरंजन करने का भी मौका मिल जाये। राजनीति और तत्संबंधी खबरों की दुनिया के बीच अगर कुछ समय खुली हवा में सांस लेने और खेलकूद के बीच खबरों की दुनिया से दूर कुछ पल सिर्फ अपने लिए जीना बहुत ही प्रीतिकर लगता है। तय हुआ कि कोलकाता के धर्मतला मैदान में जनसत्ता के पत्रकार और अन्य कर्मचारी क्रिकेट खेलेंगे। तय समय में हमारी जनसत्ता की टीम कोलकाता के धर्मतला में पहुंच गयी। सारी टीम बाकायदा ड्रेस में थी। सभी ने बैट में अपने हाथ आजमाये। याद नहीं आता कि हमारे बैट से कितने रन निकले पर आनंद आ गया। अचानक आयी इस टीम के खेल को देखने के लिए दर्शक भी जुट गये थे। नीचे उसी समय की एक तस्वीर पेश है। (क्रमश:)
No comments:
Post a Comment