नशा
राजेश त्रिपाठी
फिजिक्स का पीरियड खत्म हुआ। गुप्ता सर नहीं आये थे
इसलिए अगला पीरियड खाली था। जाने क्यों सुबह से सतीश का सिर भाऱी था। उसने सोचा
कैंटीन चलते हैं थोड़ा चाय-साय पी लेते हैं तबीयत हलकी हो जायेगी।
वह कैंटीन की ओर बढ़
चला। अभी कैंटीन कुछ कदम दूर रह गया था कि उसे भीतर से ठहाकों और जोर से बातें
करने की आवाज आयी। ठहाके और बातचीत का स्वर इतना ऊंचा था कि इतनी दूर से भी सतीश
के कान फाड़ रहा था।
‘यार हद कर दी इन लोगों ने। यह कालेज का कैंटीन है या कोई
बाजार। अरे बातें करना है, हंसना है तो वाल्यून लाउड कर के भी तो हो सकता है। ऐसे
में तो मेरा सिर दर्द और बढ़ जायेगा।‘
पहले उसने सोचा कि वापस लौट जाये पर फिर यह सोच कर कि चलो देखते हैं अपना इस
चिल्लपों से क्या मतलब चाय पियेंगे और
निकल आयेंगे।
कैंटीन
के पास पहुंचते ही वहां से आता शोर और भी तेज हो गया। भीतर से जोरों से
बहस-मुबाहिसे और ठहाकों की आवाज आ रही थी।
सतीश
भीतर गया तो देखा चारों ओर हुल्लड़ मची थी और वातारवरण में सिगरेट का धुआं तारी था। पूरी तरह से दमघोंटू
माहौल था जिसका सतीश कभी आदी नहीं था। वह गांव के एक मध्यमवर्गीय परिवार से आया
लडका था जिसके अपने कुछ सपने थे। सपने कुछ बन कर अपने परिवार के हालात संभालने के
और खुद समाज में एक सम्माननीय स्थान बना पाने के। सीधे-सादे स्वभाव का सतीश कालेज
की इस मंडली में एकदम मिसपिट था। इनमें से सभी अकसर उसका मजाक उड़ाते थे।
‘लो आ गये संत(व्यंग्य
से उसके कुछ साथी उसे इसी नाम से पुकारते थे)। जल्दी सिगरेट खत्म करो। अब ये भाषण
पिलायेंगे सिगरेट से ये होता है, वो होता है। अरे भाई अगर ऐसा होता तो हर सिगरेट
पीने वालों को बीमार हो जाना चाहिए।‘
सतीश ने कोई जवाब नहीं दिया और एक चेयर पर बैठ कर उसने चाय का आर्डर दिया।
कोई
अचानक बोल पड़ा-‘अरे भाई हमारे ‘विवेकानंद’ तो अभी बालपन से आगे ही नहीं बढ़ पाये। दूध की चाय पी रहे हैं ना सिगरेट ना
कोई और नशा।‘
सिगरेट का दमघोंटू धुआं और सहपाठियों
के व्यंग्य बाण सतीश का हृदय छलनी कर रहे थे लेकिन वह संस्कारवान, धैर्यवान था
इसलिए जहर के यह घूंट भी पी गया। चाय आ गयी थी और वह चाय की चुस्कियां लेते हुए
अपने इन आवारा साथियों के बारे में सोच रहा था जो खाते-पीते घर के थे और अपने पिता
के पैसे इस तरह सिगरेट के धुएं में उड़ा रहे थे। उन्होंने इन्हें पढ़ने, कुछ बनने
को भेजा था लेकिन ये यहां अपनी जिंदगी, अपना कैरियर धुएं में गर्क कर रहे हैं।
वह
परेशान-सा था तभी वहां उसका एक और दोस्त आ गया। उसने जब अपने आवारा सहपाठियों को
सतीश की खिल्ली उड़ाते देखा तो उसके पास जाकर कंधे पर हाथ रख कर बोला-‘यार दुखी मत हो, इनसे यही उम्मीद की जा सकती है। तू चाय खत्म कर, चल बाहर खुली
हवा में टहल आते हैं। इस घुटन और धुएं में सांसें फूलने लगी हैं।‘
‘लो आ गये संत के चेले। अब यह भी उपदेश पिलायेंगे। अरे वो जिंदगी क्या जिसमें
नशा ही ना हो। दो दिन की जिंदगी है आनंद से बिताओ क्या बंदिशों और वर्जनाओं में
जीना।‘
अब सतीश से चुप ना रहा गया। वह बोला-‘कौन कहता है कि मुझे
किसी चीज का नशा नहीं। मुझे भी नशे की लत है और तुम सबसे ज्यादा है।‘
सतीश की बातें सुनते ही चुहलबाजियां, ठहाके अचानक थम गये। जहां हंगामा मचा था
वहां सन्नाटा छा गया। सतीश ने जो कुछ कहा था वह सबको स्तब्ध कर गया।। सतीश और नशा ! यह बात किसी के गले नहीं उतर रही थी।
अचानक
एक लड़के ने पूछा-‘अरे सतीश! तुम तो छुपे रुस्तम
निकले। नशा करते हो और संत जैसे दिखने का नाटक करते हो।‘
सतीश बोला-‘ नहीं नाटक नहीं करता, मैं सच बोलता हूं। मुझे नशा है।
पढ़ने का नशा, आगे बढ़ने का नशा। मेरी जिंदगी का लक्ष्य तुम लोगों से अलग है।
तुम्हारे मां-बाप के पास अकूत पैसा है, फूंको लेकिन मेरे मां-बाप मुझे किस मुश्किल
से पढ़ा रहे हैं। मेरी फीस और कालेज की फीस जुटाने के लिए मेरे पिता के आंखों की
नींद, दिल का चैन खो गया होगा। मेरे दिमाग में या तो पढ़ाई की बातें घूमती हैं या
फिर पिता की तकलीफ और उन सपनों की बात जो उन्होंने मुझे लेकर देखे हैं। मैं ऐसा
कोई काम नहीं कर सकता जिससे उनके दिल को ठेस पहुंचे। मुझे कुछ बन कर दिखाना है और
उन्हें देनी है एक खुशहाल जिंदगी। इसी नशे को लेकर जी रहा हूं मैं जो दूसरे नशों
की तरह खराब नहीं बल्कि एक नेक और बेहतर जिंदगी के लिए किया जा रहा नशा है।‘
सतीश की बातों के बाद वहां का सन्नाटा और गहरा गया। सतीश अपने दोस्त संतोष की बांह थाम कैंटीन से बाहर हो
गया।
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