संस्कार
राजेश त्रिपाठी
रात के दो बज चुके थे। सुधाकर बाबू देर से
कंप्यूटर से जूझ रहे थे। उन्हें नेट पर किसी का इंतजार था। किसी की खैरियत जानना
उनके लिए किसी भी काम से ज्यादा जरूरी था। रोज का यही वक्त होता था जब वे घंटों
आभासी दुनिया (वर्चुअल वर्ल्ड) के माध्यम से किसी से अपने सुख-दुख साझा करते और
उससे उसका हाल-चाल जान कर दिली सुकून पाते थे। यह क्रम कई वर्षों से चल रहा था
लेकिन अचानक पिछले कुछ महीनों से ठप हो गया था। दूसरी तरफ से कोई जवाब ना मिलने के
बावजूद सुधाकर बाबू नियत समय पर कंप्यूटर से
जा चिपकते और कोशिश करते रहते कि दूसरी तरफ से चैट पर कोई आये, उसकी
कुशल-क्षेम जाने और चैन की नींद सो सकें। लेकिन वार्ता का निरंतर चलनेवाला क्रम ना
जाने कैसे टूट गया। उनकी तरफ से नहीं, दूसरे छोर से ही जवाब आना बंद हो गया। यह
क्रम क्या टूटा जैसे सुधाकर बाबू का दिल ही टूट गया। वे अनमने से रहने लगे, किसी
काम में उनका मन ना लगता, खाने-पीने से भी जैसे अरुचि हो गयी थी।
जब से ऐसा होने लगा था सुधाकर बाबू जाने क्यों खुद में ही
खोये रहने लगे थे। जब भी वे चैट के इंतजार में होते बीच-बीच में एक अनजानी
दुश्चिंता से उबरने के लिए सिगरेट के कशों का सहारा लेने लगते थे। तरह-तरह से वे
आभासी दुनिया में किसी से जुड़ने की कोशिश करते। कभी नेट के राउटर को आन-आफ करते
तो कभी किसी को फोन मिलाने की कोशिश करते।
सारी कोशिशें बेकार हो जातीं तो उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंच जातीं जो हर
पल और गहरी होती जाती थीं। आज भी वही हाल था। उनकी व्यग्रता, उनकी दुश्चिंता रोज
की तरह बढ़ती जा रही थी। पास ही बैठी पत्नी अरुंधती काफी देर तक उनकी बेचैनी को
भांपती रही लेकिन कुछ बोली नहीं। जब पति को कुछ ज्यादा ही बेचैन और परेशान देखा तो
उससे रहा नहीं गया। सोचा ब्लड प्रेसर के मरीज हैं, अरसे से तबीयत भी नरम-गरम चल
रही है, कहीं और बिगड़ कई तो वह अकेली जान क्या करेगी।
उसने पति के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा-’चलिए ना रात के दो बज गये, नींद की गोली
लीजिए और सो जाइए। इस उम्र में और इतने रोगों को पाले हुए ज्यादा जागना ठीक नहीं।’
‘अरे अरु ! देखो ना कई
महीने से नवीन से संपर्क ही नहीं हो पा रहा। ना वह चैट पर आ रहा है और ना ही फोन
ही रिसीव करता है। बाप हूं, इकलौता बेटा हजारों किलोमीटर दूर विदेश में है चिंता
नहीं होगी?’
‘क्यों नहीं होगी। चिंता तो मुझे भी होती है
लेकिन आप जिसकी चिंता कर रहे हैं उसे हमारी चिंता है क्या?’
‘ठीक कह रही हो पर ऐसा भी तो हो सकता है कि
वह किसी परेशानी में पड़ गया हो।’
‘भगवान के लिए ऐसा ना कहो, ऐसा सोच कर भी
कलेजा मुंह को आता है।’
‘ मैं क्या करूं, जब से उससे बात नहीं हो पा
रही तब से मन ना जाने कितनी तरह की आशंकाओं और बुरे खयालों से भर गया है। क्या
करें उसके बारे में ना सोचें तो करें क्या। वही तो हमारी बुढ़ापे की लाठी है। आज
नहीं तो कल वह आयेगा, हमारा सहारा बनेगा। जिंदगी भर तो विदेश में नहीं रहेगा।’
‘ देखो जी बेटा तो मेरा भी है लेकिन जब से वह
विदेश गया, मैंने यह सोचना छोड़ दिया कि वह कभी हमारा सहारा बनेगा। आज के युग का
लड़का है, उसके अपने नये खयाल, नयी सोच और नये सपने हैं। उन्हें पूरा करने में वह
जिंदगी खपा रहा है, उससे ज्यादा उम्मीद रखना ठीक नहीं।’
‘क्या कह रही हो? अपने बेटे से उम्मीद नहीं रखेंगे तो किससे
रखेंगे। कौन है हमारा?’
‘क्यों, जिनकी संतानें नहीं होतीं क्या वे
नहीं जीते। देखो किसी से ज्यादा उम्मीद मत रखो क्योंकि उम्मीदें टूटती हैं जो
जिंदगी ही टूट जाती है। और जिंदगी बिखरी तो फिर उसे संवारना बहुत कठिन हो जाता है।
‘
‘सच कह रही हो अरु, उम्मीदें टूटना यानी
जिंदगी का बोझ बन जाना। आदमी बिना सहारे, बिना किसी सपने के जी ही नहीं सकता। जीने
के लिए कोई बहाना तो चाहिए ही। बेटों से आशा हर पिता को होती है, मैं इस मायने में
नया तो नहीं। तुम जो कह रही हो सच है लेकिन मेरा सोचना भी क्या अऩुचित है?’
‘आप पर दोष कैसे दूं। आपने तो जिंदगी की सारी
कमाई उस पर लुटा दी। उसके सपने पूरे करने के लिए अपने कितने सपनों की कुर्बानी दे
दी। लेकिन मेरा भी तो आपके सिवा कोई नहीं। आपका अच्छा रहना मेरे लिए सबसे बड़ा
संबल है।’
‘अरु, याद है तुम्हें मैंने उसे अच्छी से
अच्छी कोचिंग दिलायी थी ताकि वह हमेशा अव्वल आये और हर मामले में अपने सहपाठियों
से बीस ही रहे। जिस दिन उसका एक विदेशी कम्पनी में बहुत ही बेहतर और बड़े पे पैकेज
के साथ सेलेक्शन हुआ था, मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। मुझे आज भी वे पल पूरी
तरह याद हैं जब नवीन सेलेक्शन के बाद पहली बार आया था। मेरे पैर छुए थे और अपनी
कामयाबी के बारे में बताया था। तुम्हें कुछ याद है अरु!’
‘हां याद क्यों नहीं होगा। मां हूं, उसके
रोम-रोम में मेरी ममता भरी है। नौ महीने कोख में पाला, फूलों की तरह संवारा और नेह
किया है मैंने। आज भी वह दिन यादों में इस तरह ताजा है जैसे कल की ही घटना हो।’
µ
नवीन जिस दिन कैम्पस सेलेक्शन में एक बड़ी विदेशी कंपनी के
लिए बेहतर और बड़े पे पैकेज के साथ चुना गया उसे लगा कि जैसे उसके सपनों को पंख लग
गये हों। उसका सबसे बड़ा सपना था विदेश जाकर काम करना और अपनी जिंदगी के हर सपने
को पूरा करना।
वह कैंम्पस से सीधा अपने पापा के पास आया। उसके चेहरे पर
अनोखी चमक थी, खुशी की चमक, जिंदगी को जिंदगी की तरह जी पाने की सफलता की चमक।
नवीन ने पापा के पैर छुए और
बोला-’ पापा! आज आपकी कोशिश
और मेरी मेहनत रंग लायी। मैं कैम्पस सेलेक्शन में एक अमरीकी आईटी कंपनी के लिए चुन
लिया गया पापा।’
सुधाकर बाबू की आंखें नम हो
गयीं। ये खुशी के आंसू थे। सुधाकर बाबू को लगा जैसे उनकी साधना सफल हुई। उनके
एकमात्र बेटे की जिंदगी अब सफलता की वह सीढ़ियां चढ़ेगी जो उनका भी एकमात्र और
अंतिम लक्ष्य था लेकिन इकलौता बेटा विदेश में जा बसेगा यह बात ना जाने क्यों
उन्हें भीतर ही भीतर साल रही थी। जिस बेटे को बुढ़ापे का सहारा मान कर पाला-पोसा,
पढ़ाया-लिखाया, पल भर को आंखों से ओझल नहीं होने दिया वह विदेश में जा बसेगा! यह कल्पना ही उनको कहीं गहरे तक झकझोर गयी।
पापा के चेहरे पर अचानक घिर आयी उदासी नवीन
की भी निगाहों से छिप ना सकी।
वह बोला-’ क्या बात है पापा, आपको मेरी कामयाबी से खुशी नहीं हुई?’
‘नहीं ऐसी बात नहीं है बेटा,
कौन ऐसा पिता होगा जिसे बेटे की कामयाबी पर खुशी नहीं होगी। लेकिन....।’
‘लेकिन क्या पापा?’
‘ बेटा!
अपने देश ने भी तो आईटी के क्षेत्र में बहुत प्रगति की है। यहां भी लोग अच्छे वेतन
पर सर्विस पा रहे हैं। तुम देश में पढ़े-लिखे, इस धरती में पले-बढ़े जो ज्ञान देश
में पाया उसका लाभ अगर देश को मिले तो कितना अच्छा हो। कुछ कम पैसे ही मिले तो
क्या हुआ। हमारे सामने रहोगे, हमें भी एक सहारा रहेगा। तुम्हें आंखों के सामने
पायेंगे तो तुम्हें लेकिन निश्चिंत और बेफिक्र रहेंगे।’
‘पापा, आपने ही तो सिखाया था –बड़े
सपने देखो, बड़ा बनो, किसी मोह-माया में फंस कर अपने सपनो को मत छोड़ो। ‘
‘ वह तो ठीक है बेटा, लेकिन
दूर देश, परदेस में जहां अपना कोई नहीं वहां तुम्हें लंबे अरसे के लिए भेजने को
दिल नहीं करता।’
‘क्या पापा आप ही तो कहते थे कि भारत का सिद्धांत है ‘वसुधैव कुटुंबकम’। जब सारी दुनिया अपनी है तो वहां
भी कोई ना कोई मिल जायेगा जिसके सहारे वक्त कट जायेगा।’
सुधाकर बाबू बेटे का दिल नहीं तोड़ना चाहते थे। वे मान गये लेकिन एक बार
फिर अपने मन की ख्वाहिश दोहरायी-’ ठीक है बेटा, जाओ अपने
सपने साकार करो। वैसे कभी मन करे तो यह भी सोचना कि तुम्हारी तरह हर भारतीय सोचने
लगे तो फिर इस देश की मेधा विदेशों में जा बसेगी और यहा आईटी के विशेषज्ञों की कमी
हो जायेगी।’
‘ऐसा कुछ नहीं
होगा पापा। फिर मैं ऐसी व्यवस्था किये जाऊंगा कि अमरीका में रह कर भी मैं आपके पास
रहूंगा।’
सुधाकर बाबू चौंके-’ अमरीका में रहोगे और हमारे पास
भी रहोगे? क्या पहेली बुझा रहे हो नवीन।’
नवीन हंसते हुए बोला-’आप समझे नहीं पापा। मानाकि
हकीकत की दुनिया में हम लोग दूर रहेंगे पर वर्चुअल वर्ल्ड (आभासी दुनिया) में आप
जब चाहें मुझसे मिल सकते हैं। अपने सामने मुझे हंसता-बोलता देख सकते हैं।’
‘वह कैसे?’
’ मैं आपको एक अच्छा मल्टीमीडिया कंप्य़ूटर दिये जाता हूं जिसके माध्यम से
आप हजारों किलोमीटर दूर से मुझसे मिल सकेंगे, बातें कर सकेंगे, मुझे देख सकेंगे और
मैं आपको देख सकूंगा।’
वायदे के मुताबिक नवीन ने एक मल्टीमीडिया कंप्यूटर लाकर सेट कर दिया और
पापा को उसे आपरेट करने का तरीका भी सिखा दिया।
बेटे ने समझा दिया, यह भी बता दिया कि कैसे वह दूर रह भी
माता-पिता के पास होने का एहसास कराता रहेगा लेकिन जिस दिन से उसके सेलेक्शन का
समाचार मिला उसी दिन से सुधाकर बाबू की चिंता बढ़ गयी। वे मन मार कर रहने लगे
लेकिन बेटे का मन ना टूटे इसलिए खुश रहने का भान करने लगे।
आखिर वह दिन आ ही
गया जिस दिन नवीन को अमरीका के लिए उड़ान भरनी थी। उसके पापा सुधाकर और मां अरुंधती एयरपोर्ट तक
उसे छोड़ने गये। जब नवीन माता-पिता के पैर छूकर विदा लेने लगा दोनों की आंखें भर आयीं लेकिन नवीन की
आंखों में आंसुओं की जगह नहीं थी, वहां तो बेहतर जिंदगी के सपनों ने जगह बना ली
थी। नवीन को एयरपोर्ट के अंदर जाते देख सुधाकर बाबू को लगा जैसे उनका ही कोई
हिस्सा उनसे अलग हो रहा हो। वे रोने लगे, खुद को संयत नहीं रख सके। अरुंधती उन्हें
किसी तरह संभाल कर टैक्सी स्टैंड तक लायी। जब वे घर पहुंचे तो उन्हें घर आज बहुत
सूना और डरावना लग रहा था। लग रहा था जैसे उसकी रौनक चली गयी हो।
µ
नवीन के विमान ने उड़ान भरी तो उसके साथ उसके बेहतर जिंदगी
के सपनों, उसकी महत्वाकांक्षाओं ने भी जैसे परवाज भरी। उसकी आंखों में सपने थे,दिल
में अरमान और कामयाबी की नयी दुनिया बांहें पसारे उसकी आगवानी के लिए बेताब थी।
विदेश एयरपोर्ट की जमीन पर कदम रखते ही उसे लगा जैसे कामयाबी की राह में रखा गया
यह उसका पहला कदम है।
उसे कहां पहुंचना है, किससे मिलना है यह सारा निर्देश उसे
पहले ही मिल चुका था। उसके मुताबिक वह उस कंपनी के कार्यालय पहुंच गया जिसने उसे
बड़े पैकेज के साथ हायर किया था। मैनेजर से मिला तो उसने बड़ी गर्मजोशी से उसका
स्वागत किया और उसका काम और कार्यालय में उसकी जगह बता कर कहा-मिस्टर नवीन वेलकम
टू अवर कंपनी,यू आर नाऊ ए पार्ट आफ अवर एक्सिलेंट आईटी टीम, अवर बेस्ट विसेज फार
योर ब्राइट फ्यूचर। ‘
नवीन-’ थैंक्स
सर, इट्स ऐन ऑनर। आई विल ट्राई माइ लेवेल बेस्ट।’
इस तरह से नवीन की नयी जिंदगी और सुधाकर बाबू और अरुंधती की
जिंदगी के एकाकीपन की शुरुआत एक साथ हुई।
कुछ दिन में ही नवीन कार्यालय में अच्छी तरह एडजस्ट हो गया।
उसे वहां कुछ अपने देश के साथी भी मिल गये। इसके साथ ही उसे एक अमरीकी लड़की मैरी
भी मिल गयी जिससे कुछ दिनों में ही उसकी गहरी दोस्ती हो गयी। मैरी ने नवीन के लिए
घर तलाशने में बड़ी मदद की। इस एहसान के बाद तो नवीन उसके और करीब हो गया। उसे लगा
कि मैरी के रूप में अमरीका में उसे कोई अपना मिल गया है।
वह रोज चैट के जरिये अपने पापा और मम्मी से बात करना ना
भूलता। उन्हें अपनी प्रगति के बारे में बताता और उनके हालचाल पूछता था। सुधाकर और
अरुंधती भी खुश थे कि दूर रह कर भी उनका बेटा दूर कहां हैं आभासी दुनिया में ही
सही उनसे हंसता-बोलता तो दिखता है।
दो-चार महीने बाद जब नवीन चैट पर आया तो उसकी मां ने अपने
पति से कहा-’नवीन के पापा लोग सही कहते हैं कि आदमी जहां रहता है वहां उसका रंग-रूप कुछ तो
बदलता ही है देखिए ना अपना नवीन पहले ले गोरा लग रहा है।’
सुधाकर बाबू हंस कर बोले-’ अरे गोरा तक तो
ठीक है पर कहीं वहां से गोरी मेम ले आया तो क्या करोगी। कैसे उससे गिटिर-पिटिर
अंग्रेजी में बात करोगी।’
‘रहने दो जी मेरे बेटे को लेकर ऐसी बातें ना करो। वह हमसे
पूछे बगैर अपनी जिंदगी का इतना बड़ा फैसला तो कर ही नहीं सकता।’
सुधाकर बाबू बोले-’ अरे तुम्हें
चिढ़ाने के लिए कहा है, हमारा नवीन ऐसा थोड़े है। वह हर काम हमारी इजाजत से ही
करेगा। कहो तो पूछ लूं।’
‘नहीं उसे डिस्टर्ब मत करो।’
उधर अमरीका में नवीन और मैरी के संबंध दोस्ती से कुछ आगे
बढ़ चुके थे। एक दिन मैरी नवीन को लेकर अपने घर गयी और उसे अपने पापा-मम्मी से
मिलाते हुए कहा कि वे दोनो एक ही कंपनी में काम करते हैं, अच्छे दोस्त हैं और
एक-दूसरे को पसंद करते हैं और शादी करना चाहते हैं।
मैरी के पापा कुछ देर तक चुप रहे फिर उन्होंने उसे समझाना
शुरू किया कि क्या वह एक अलग देश, अलग परिवेश और बिल्कुल अलग रहन-सहन वाले लड़के
को जीवनसाथी बना कर खुश रह सकेगी। कल को अगर वह उसे लेकर भारत जाना चाहे तब तो वे
लोग अकेले रह जायेंगे।
मैरी ने नवीन की ओर देखा जैसे पूछ रही हो कि मेरे
पापा-मम्मी की दुनिया में मेरे सिवा कोई नहीं। मैं जिस तरह से तुम्हारे बिना नहीं
रह सकती उसी तरह मम्मी-पापा को भी छोड़ पाना मुमकिन नहीं है।
मैरी को गंभीर और शंका भरी नजरों से देखते देख नवीन ने
अचानक कह दिया-’ नहीं मैं मैरी को भारत नहीं ले जाऊंगा, मैं यही नहीं
रहूंगा।’
अंधा क्या चाहे, दो आंखें मैरी के पापा-मम्मी के मन की बात
हो गयी। बेटी भी घर में रहेगी और एक पला-पलाया बेटा भी मिल गया। एक दिन चर्च में ‘ एंड नाऊ मिस्टर नवीन एंड मिसेज मैरी इज हसबैंड एंड वाइफ’ के एक संक्षिप्त वाक्य ने उन्हें जिंदगी भर के लिए एक-दूसरे से जोड़ दिया। मैरेज के
रिसेप्शन में मैरी का परिवार और नवीन के आफिस के दोस्त शामिल हुए। उस दिन से अपना
किराये का घर छोड़ कर नवीन मैरी के मम्मी-पापा के विला में ही रहने लगा।
वह पहले की तरह रोज पापा-मम्मी से बातें करता लेकिन कभी
उसने उनसे अपनी शादी या मैरी के बारे में जिक्र तक नहीं किया। उसके पापा-मम्मी यह
सपना संजोये बैठे थे कि उनका लाड़ला जल्द ही देश वापस आयेगा और वह उनके पसंद की
सुशील, सुंदर बहू घर लायेगा और उनका सूना घर बहू के पुनीत कदमों और उसके पावन
आचरणों से पुण्य हो जायेगा। कुछ अरसे तक बेटे और पिता के बीच आभासी दुनिया के
संबंध कायम रहे फिर दोनो के बीच एक लंबे
फासले के साथ ही सन्नाटा भी पसर गया। यह सन्नाटा सुधाकर बाबू के विचलित और बेचैन कर रहा था।
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उधर नवीन और मैरी नयी जिंदगी की
खुशियों में खोये थे इधर सुधाकर बाबू को अपने बेटे की चिंता खाये जा रही थी। वे
बदस्तूर रोज कंप्यूटर के सामने बैठ जाते, घंटों प्रतीक्षा करते कि अमरीका की ओर से
खुलनेवाली चैट विंडो हरकत में आये और वह चेहरा उभरे जिसे देखने, जिसे सुनने के लिए
उनका मन बेचैन है लेकिन हर दिन निराशा ही हाथ लगती।
पत्नी अरूंधती उनकी बढ़ती बेचैनी
और उसके साथ ही उनके तेजी से गिरते स्वास्थ्य को लेकर बेहद चिंतित थी। एक दिन उसने
ऊब कर कहा-’उसका खयाल छोड़ दीजिए। उसे याद करके अपनी तबीयत क्यों खराब
कर रहे हैं, जब उसे आपकी फिक्र नहीं तो आप क्यों उसके लिए इतना बेचैन हो रहे हैं।
वह पराया हो गया, वह हमारा नहीं रहा। कहा था ना कि बच्चे को विदेश मत भेजो।’
सुधाकर चिढ़ जाते वैसे भी वे इन दिनों बहुच चिड़चिड़े हो
गये थे। पत्नी को डांटते हुए कहते-’ मेरा नवीन ऐसा
नहीं है। कोई बात तो जरूर है वरना वह अचानक इस तरह खामोश नहीं हो जाता। देखना उसकी
तरफ से आज नहीं तो कल जवाब जरूर आयेगा।’
सुधाकर बाबू का कहा सच हो गया। महीनों बाद सचमुच कंप्यूटर
की चैट विंडो में हलचल हुई। उसमें दूर देश से उभरे कुछ शब्द सुधाकर बाबू के आशा के
बुझते दीप को जैसे फिर प्रज्ज्वलित कर गये। दूसरे छोर में नवीन था जिसने लिखा था –हैलो
पापा। वीडियो चैट आन कीजिए।’ सुधाकर बाबू ने
वीडियो चैट आन करते हुए पत्नी को आवाज दी-’ अरू, जल्द आओ,
नवीन।’
अरुंधती दौड़ी-दौड़ी आयी। उसने देखा पति के बुझे चेहरे में
एक अनोखी चमक आ गयी थी।
वीडियो चैट की विंडो पर नवीन का
चेहरा उभरा। उसने कहा-’सारी पापा, कई महीने तक आपसे बात नहीं कर
पाया।’
सुधाकर बाबू ने गुस्सा होते हुए कहा-’सारी के बच्चे। बात नहीं कर सका। जानते हो हमारी जान पर बन
आयी थी। तुम्हारी कोई खबर ना पाकर हम दोनों अधमरे से हो गये थे। ऐसा क्या हो गया था कि मा-बाप से खैरियत के दो शब्द कहना तक
तुम्हारे लिए दूभर हो गया था।’
अभी नवीन कुछ कह
पाता कि उसके पास ही एक खूबसूरत विदेशी युवती का चेहरा उभरा। वह धीरे से
बोली –’पापा, मम्मी नमस्ते।’
एक विदेशी लड़की को खुद को पापा-मम्मी कहते देख सुधाकर बाबू
और उनकी पत्नी अरुंधती दोनों चौंके। सुधाकर बाबू ने पूछा-’ नवीन यह क्या माजरा है, कौन है ये लड़की?’
नवीन सकुचाते हुए बोला-’ ओ पापा ये आपकी
बहू मैरी है। शादी कुछ ऐसी जल्दबाजी में हुई कि आपको बताने का मौका नहीं मिला।’
सुधाकर बाबू को
काटो तो खून नहीं। बेटा इतना बड़ा हो गया कि उसने जिंदगी का इतना बड़ा फैसला खुद
ले लिया लेकिन समय की नजाकत को देखते हुए सुधाकर बाबू उसे डांटने के बजाय बोले-’ खैर शादी बिना बताये कर ली ठीक है लेकिन बहू को यहां लाया क्यों नहीं। हम लोगों
से बातचीत क्यों बंद कर दी। ’
नवीन ने उत्तर दिया –‘ पापा मैरी के पापा की तबीयत बहुत खराब थी। वे अस्पताल में
चार माह भरती थे। मैरी और मैं आफिस टाइम के बाद
उनके पास ही रहते थे। मैरी के मम्मी-पापा का भी मैरी के सिवा दुनिया में
कोई नहीं है।’
‘ठीक है, जो भी हो लेकिन अब बहू को लेकर घर आजा। अरे हमारे
रीति-रिवाज संस्कार हैं उनका भी तो खयाल रखना है। कुछ पूजा वगैरह होगी।’
नवीन बोला-‘पापा माफ कीजिए अब यह मुमकिन नहीं है। मैरी अलग परिवेश में
पली-बढ़ी है। इसके रीति-रिवाज अलग हैं फिर इसके
पापा-मम्मी यहां अकेले हो जायेंगा। ऐसा करना मेरे लिए उचित नहीं होगा। फिर
मैरी के संस्कार भी अलग हैं यह वो सब पूजा-पाठ वगैरह पर यकीन नहीं करती। इसके
संस्कार इसे यह इजाजत नहीं देंगे कि यह दूर देश में जाकर रहे।यही वजह है कि मैं भी
अब इंडिया नहीं लौट सकूंगा। मुझे जल्द ही यहां की सिटजनशिप भी मिलने वाली है।’
सुधाकर बाबू को लगा जैसे किसी ने उनको किसी ऊंचाई से नीचे
फेंक दिया हो। उनका दिल धक्क से रह गया फिर भी वे बोले-‘और बेटा तुम्हारे संस्कार ये इजाजत देते हैं कि किसी लड़की
के लिए अपने बूढ़े बीमार माता-पिता को अकेले छोड़ दो। संस्कार की बात करता है।’
सुधाकर बाबू का
इतना बोलना था कि उधर से चैट विंडो बंद हो गयी। काफी देर तक वे कंप्यूटर स्क्रीन
को घूरते रहे लेकिन उसे तो नहीं खुलना था। नवीन ने अपने पिता की कड़ी बात सुनते ही
चैट विंडो बंद कर दी थी।
जब बहुत देर तक सुधाकर बाबू
कंप्यूटर पर आंखें गड़ाये रहे तो अरुंधती ने उन्हें डांटते हुए कहा-‘पागलों की तरह स्क्रीन मत घूरो। पहले ही कहा था बेटा गया
हाथ से। अब यह चैट विंडो हमेशा के लिए बंद हो गया और इसके साथ ही हमारे बेटे से
हमारे संबंध की विंडो भी हमेशा के लिए बंद हो गयी।’
सुधाकर बाबू सुबकते हुए पत्नी से लिपट गये और बोले-‘हमारी परवरिश में कहां चूक हो गयी अरु।’
अरुंधती बोली-‘हमसे भी वही गलती हुई जो आज देश के अधिकांश माता-पिता करते
हैं। अपने देश में सारी सुविधाएं होते-हुए भी हमने उसे विदेश का सपना देखने दिया।
दरअसल यह आजकल कुछ परिवारों के लिए स्टेटस सिंबल या साख का मामला हो गया है। अगर
उनका बेटा विदेश में नौकरी पाता है तो वे शान से इसका ढिंढोरा पीटते हैं जैसे इससे
बढ़ कर कोई और उपलब्धि नहीं। हमें नवीन को बाहर नहीं भेजना चाहिए था। लेकिन अब यह
सब बिसूरने का वक्त नहीं।’
सुधाकर बाबू बोले-‘लेकिन अब हमारा
क्या होगा। हमें इस बुढ़ापे में कौन संभालेगा।’
अरुंधती ने हंसते हुए कहा-‘हम खुद एक-दूसरे को संभालेंगे,कुछ तुम मुझे संभालना, कुछ
मैं तुम्हें संभालूंगी। जिनके बेटे-बेटी नहीं वह भी तो जी लेते हैं। ’
पत्नी अरुंधती की बात सुन कर
सुधाकर बाबू के चेहरे पर मुसकान खिल गयी। ये मुसकान आत्मविश्वास की थी, भरोसे और प्रेम
की थी। अरु ने इससे पहले उनके चेहरे पर ऐसी मुसकान कभी नहीं देखी थी।
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