Tuesday, October 23, 2018

कहानी


जिंदगी जिंदगी
राजेश त्रिपाठी
    परदा गिरते नाटक खत्म होते ही रश्मि मेकअप रूम में मेकअप धोने चली गयी। वह अभी मेकअप धो ही रही थी कि नाटक के मैनेजर विनोद बाबू आ गये। विनोद बाबू को अचानक वहां देख रश्मि अचकचा गयी और बोली-अरे आप! आइए बैठिए।
      विनोद बाबू बोले-क्या बैठिए, तुमने मेरा नाटक ही चौपट कर दिया। जब हंसना था, लग रहा था रो रही हो। जानती हो दर्शक तुम्हारी सूरत और अदाकारी देख हंस रहे थे। ऐसा ही रहा तो तुम्हें नाटक से निकालने के अलावा और कोई चारा नहीं बचेगा। आखिर मुझे भी अपना व्यवसाय चलाना है। पता नहीं तुम्हारा काम में मन क्यों नहीं लगता।
      रश्मि हाथ जोड़ गिड़गिड़ाने लगी-नहीं विनोद मेहरबानी कीजिए, मुझे नाटक से मत निकालिए, मुझे अभी काम की बहुत जरूरत है।अपने छोटे भाई-बहनों को पालना है। काम छिन तो मेरा परिवार तबाह हो जायेगा। मैं आपको यकीन दिलाती हूं अबसे आपको कोई शिकायत नहीं होगी।
      विनोद थोड़ा नरम हुए और स्वर में मिठास घोलते हुए बोले-अरे मैं जानता हूं तुम अच्छी अदाकारा हो पर पता नहीं तुम्हें क्या हो जाता है। ऐसा करो तुम रोज शाम मेरे फ्लैट में आ जाया करो वहीं रिहर्सल कर लिया करना।
      रश्मि ने कहा-आज छोटे भाई की फीस देने की आखिरी तारीख है। नहीं दे पायी तो वह परीक्षा में नहीं बैठ पायेगा। मां भी नर्सिंगहोम में भर्ती है। यही सब दिमाग में घूम रहा था, इसलिए अपने रोल में मन नहीं लगा पायी।
      विनोद-मैं तो कहता हूं कि घर-परिवार का झमेला छोड़ो और मेरे साथ आ जाओ। मेरे पास रहोगी तो कोई परेशानी नहीं होगी।
      रश्मि विनोद के घर जाने, साथ रहने का मतलब अच्छी तरह समझती है। जाने कितनी बार रिहर्सल के नाम पर उसको उसके फ्लैट जाना और न चाहते हुए भी उसकी गलत इच्छाओं का शिकार होना पड़ा विनोद उसने नाटक में काम करने पैसा देता और उसका एक-एक पैसा उसके जिस्म से खेल कर वसूल कर लेता था। एक तरह से वह विनोद की रखैल बन कर रह गयी थी।
      रश्मि के पास कोई चारा नहीं था। जब-जब वह नाटक से जुड़ कर नाटकीय बनी अपनी जिंदगी पर गौर करती और उससे निजात पाने की सोचती उसके सामने बीमार मां, दो छोटी बहनों,भाई के चेहरे और शराब की बोतल के लिए फैले पिता के हाथ घूम जाते। वह सोचती अगर वह नाटक से भागती है तो इन लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ करेगी।
वह नाटक में काम करती है कहने से बेहतर होगा यह यह कहना कि उसकी जिंदगी खुद ही एक नाटक बन गयी है। मंच पर लाल-हरे प्रकाश के बीच जब वह चेहरे पर मुसकान ओढ़ना चाहती है,उसके भीतर का सच लाख छिपाये भी नहीं छिप पाता।वह सच जहां हैं अरमानो की चिताएं,हर नकली मुसकान के पीछे कुछ कतरे आंसू। होश संभालते ही जिसके कंधे पर परिवार की जिम्मेदारी लाद दी जाये उसके लिए अपनी खुशी की अहमियत नहीं रहती।
रश्मि घर लौटी तो देखा नशे में धुत उसके पिता उसकी छोटी बहन पर लातों और गालियों की बौछार कर रहे थे। उसने झपट कर पिता को परे हटाते हुए कहा-आपको शर्म नहीं आती।क्यों पीट रहे हैं इसे। आपकी जवान बेटी बाहर कमाने जाती है और आपका काम यही रह गया है कि  मेरी खून-पसीने की कमाई से शराब पिओ और इन अबोध बच्चों को मारो-पीटो।पिता होने का अच्छा फर्ज अदा कर रहे हैं आप। क्या किया है इसने।
उसके पिता रामलाल ने कहा-देखो ना, इससे पैसे मांग रहा हूं दे नहीं रही, तुम्हारी मां के लिए दवा खरीद कर नर्सिंग होम पहुंचाना है।
रश्मि-झूठ मत बोलिए, यह क्यों नहीं कहते कि पैसा शराब के लिए चाहिए। कल भी तो आपने दवा के लिए पैसे मांगे थे और उनकी शराब पी गये। आज मैं नर्सिंग होम से आ रही हूं कल वाली दवा आज मुझे खरीद कर देनी पड़ी। आपको पता है राकेश की फीस जमा नहीं हुई वह अब इस साल परीक्षा नहीं दे पायेगा। आपसे यह भी नहीं हुआ कि अपने किसी दोस्त से पैसे उधार लेकर उसकी फीस तो जमा कर देते। वैसे अब आपको कोई उधार भी नहीं देगा क्योंकि उन्हें मालूम है आप उन पैसों की शराब पी जायेंगे।
रश्मि पिता को इतना कुछ कह तो गयी फिर उसे अपने पर बहुत पछतावा हुआ और एक कोने में बैठ सुबकने लगी। थोड़ी देर बाद उसे अपने कंधे पर हलका स्पर्श महसूस हुआ।
यह बहन आशा थी जो चुपके से उसके पास आ खड़ी हुई थी। उसकी आंखें नम थीं। उसकी आंखें नम थीं। वह बोली-रोओ मत दीदी, मुझसे कोई गलती हो गयी हो तो माफ कर दो।
रश्मि-नहीं रे, मैं तुझसे नाराज नहीं, जिस पिता को मेरी शादी और तुम लोगों के सुंदर भविष्य की चिंता होनी चाहिए वह आज शराब में डूब गये हैं। मैं तो जैसे इस परिवार के लिए अपनी जिंदगी रेहन रख चुकी हूं। कभी कभी दिल करता है कि इस परेशानी भरी जिंदगी से कहीं दूर जली जाऊं।
रश्मि की बात सुन आशा डर गयी और उससे लिपट कर रोने लगी और बोली नहीं दीदी ऐसा मत करना। तुम गयीं तो हम सब भूखे मर जायेंगे।
आशा के सिर पर हाथ फिराते हुए रश्मि बोली-नहीं रे, मैं कितना भी कहूं क्या तुम लोगों को छोड़ कर जा सकती हूं?’
तभी राकेश आ गया और उसने रश्मि से कहा कि उसने हेडमास्टर को दो दिन के लिए मना लिया है अगर तब भी न दे पाया तो परीक्षा में नहीं बैठ सकेगा। छोटी बहन शोभा ने अपनी छोटी फ्राक दिखाते हुए कहा-‘दीदी, आपने इस महीने नयी फ्राक लाने को कहा था।
रश्मि ने भाई-बहन को प्रबंध करने का ढांढस बंधाया और विनोद के फ्लैट की ओर चल पड़ी। उसे हर हाल में राकेश की फीस के पैसे जुगाड़ करने थे। राह में सुरेश मिल गया जो उसका सच्चा साथी था। उसे दिल से चाहता था और उसकी मदद के लिए बेकरार रहता था लेकिन वह भी बेकार था। अनाथ सुरेश अपने मामा के यहां रहता था और छोटी-मोटी ट्यूशन करके जिंदगी चला रहा था। उसने रश्मि की समस्या सुनी पर कुछ मदद नहीं कर पाया।
सुरेश ने कहा-चलो यह शहर छोड़ देते हैं इसने तुम्हें और मुझे परेशानी के सिव कुछ नहीं दिया,किसी नये शहर में जिंदगी का सुख तलाशते हैं।
सुरेश की बात सुन कर रश्मि मुसकरा कर विनोद के फ्लैट की ओर बढ़ गयी। उसने विनोद से कहा-राकेश की फीस के लिए रुपये चाहिए।
विनोद बोला-मिल जायेंगे रुपये, बैठो, जल्दी क्या है।यह कह कर उसने गिलास में ह्विस्की उंडेली और उसे गटागट भी गया। कुछ ही देर में उसकी आंखों में एक साथ दो नशे उभर आये नाश शराब का और नसा हवश का। कुछ ही देर में उसने रश्मि को अपने आगोश में ले लिया और उसके जिस्म से खेलने लगा। अपने नाकारा पिता के चलते वह इसी तरह रोज-रोज बिकने को मजबूर थी।
वह घर लौटी तो पाया कि नशे में धुत पिता शोभा को बुरी तरह पीट रहे थे। रोज-रोज अपनी अस्मत लुटने से परेशान रश्मि अपने पर काबू नहीं पा सकी। उसने पिता को जोर से धक्का देकर हटाया तो उनका सिर दीवाल से टकरा गया और उससे खून बहने लगा। रश्मि ने उन्हें संभाला और किसी तरह से उनकी मरहम पट्टी की और गुस्से में घर से निकल गयी।
जब देर रात तक रश्मि वापस नहीं आयी तो घर में सभी को चिंता हुई। पिता को सुरेश से रश्मि के संबंधों का पता था वे उसके मामा के घर पहुंचे और उन्हें धमकाते हुए कहा कि पूरा यकीन है कि उनका भांजा सुरेश उनकी बेटी रश्मि को भगा ले गया है।अगर वे अपना भला चाहते हैं तो उनकी बेटी लौटा दें नहीं तो वे उन्हें और उनके भांजे को जेल भिजवा कर दम लेंगे। सुरेश के मामा ने उनके मुंह लगने के बजाय उनके मुंह पर दरवाजा बंद करना ही उचित समझा।
*
मुंबई जानेवाली ट्रेन तेजी से बढ़ रही थी। रात गहरा गयी थी सुरेश अपनी बर्थ में सोया हुआ था। नीचेवाली बर्थ पर रश्मि अभी भी उधेड़बुन में लगी थी।उसकी आंखों में नींद का नाम न था। नयी जिंदगी की तलाश में निकली रश्मि की जिंदगी उसे धिक्कार रही थी। उसके सामने अपने भाई-बहनों के चेहरे आ रहे थे। उसके अंदर काफी देर तक द्वंद्व चलता रहा फिर उसने एक दृढ़ निश्चय कर लिया। उसने डायरी से एक पन्ना निकाला और उसमें लिखा-सुरेश मुझे माफ करना।सुख की जिंदगी मेरे नसीब में नहीं।अपने  छोटे भाई-बहनों के चेहरों पर मुसकान देखना, उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करने में मदद करना ही मेरी जिंदगी है। ऐसे में मेरी खुशियों के लिए कोई जगह नहीं। मेरे लिए यह जिंदगी ही सही जिंदगी है, भले ही किसी के नाम रेहन हो।
कागज सुरेश के सिरहाने दबा कर वह अगले स्टेशन में उतर गयी और कोलकाता की गाड़ी का इंतजार करने लगी। उसे घर लौटने की जल्दी थी, पता नहीं उसके गायब होने का दोष पिता किसके सिर पर मंढ़ रहे होंगे और किस-किस को लानत भेज रहे होंगे। (सन्मार्ग रविवारीय परिशिष्ट 21 अक्टूबर 2018 में प्रकाशित)
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