Monday, October 29, 2018

कहानी



अंधेरे-उजाले

राजेश त्रिपाठी

विष्णुपुर कस्बे की एक शाम। विनिता और विनोद एक पार्क में बैठे बातें कर रहे हैं। आसपास सी सॉ और झूले पर खेलते बच्चों का कलरव। कुछ लोग पार्क में चहलकदमी कर रहे हैं और कुछ बातचीत में मशगूल। विनिता और विनोद अपने आस-पास के माहौल से विरक्त से खुद में खोये हैं। दोनों एक-दूसरे को दिलोजां से चाहते हैं। कह सकते हैं दो जिस्म पर एक जान वाली स्थिति है।
   विनोद –विनिता! अमर टाकीज में आशिकी लगी है कहो तो कल के टिकट ले आऊं।
     विनिता भी विनोद की ही तरह फिल्मों की दीवानी, तुरत उसने हामी भर दी।
     वादे के मुताबिक विनोद टिकट ले आया और दूसरे दिन दोनों फिल्म देखने अमर टाकीज पहुंच गये। घर वापस लौटते वक्त विनोद की मोटरसाइकिल में बैठ विनिता उसके कंधे पर टिक गयी। दोनों आपस में बातें करने लगे।
     विनोद बोला- जानती हो ये फिल्म कलाकार ब़ड़े ऐशो-आराम की जिंदगी जीते हैं। शानदार बंगले, महंगी-महंगी कारें, कितने नौकर- चाकर। कभी-कभी इच्छा होती है क्यों न मुंबई जाकर तकदीर आजमायी जाये।
            विनिता बोली-वह तो ठीक है, लेकिन उस दुनिया के बारे में जब भी सुना अच्छा नहीं सुना। अगर कोई गॉडफादर नहीं तो एड़िया रगड़ते रहिए कुछ नहीं होता।
     विनोद-अरे यह अफवाहें वे उड़ाते होंगे जिन्हें कुछ आता नहीं, काम बना नहीं और करने लगे पूरी फिल्मी दुनिया को बदनाम।
    विनिता-नहीं बाबा, शहर से बाहर जाने देने के लिए मां-बाबूजी भी राजी नहीं होंगे।
     विनोद-अरे हम लोग मां-बाबू जी से अभी कुछ नहीं बतायेंगे, चुपचाप निकल जायेंगे फिर वहां काम बनते ही उनको खुशखबरी देंगे।
          विनिता अब ना नहीं कह सकी। उसने उसके साथ जाने की हामी भर ली।
*
            दूसरी शाम दोनों मुंबई जानेवाली ट्रेन में थे। विनोद और विनिता दोनों मुंबई से पूरी तरह अनजान थे। न कोई जान-पहचान न ही कोई गॉडफादर। उनके पास अगर कुछ था तो वह थे एक-एक लाख रुपये जो दोनों साथ लाये थे।
     विनोद विनिता को साथ तो ले आया था लेकिन भीतर ही भीतर डर भी रहा था कि उसकी जान से प्यारी विनिता के साथ कहीं कुछ ऊंच-नीच हो गया तो क्या होगा।
     तरह-तरह की उधेड़बुन और भविष्य के लिए सपने देखने के साथ जब वे मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पहुंचे सुबह हो चुकी थी। अपने शहर से दूर एक अजनबी महानगर में आकर दोनों के दिलों की धड़कने बढ़ गयीं।   विनोद ने आसपास कहीं एक सस्ते होटल की तलाश की। एक होटल मिल भी गया। दोनों उसमें ठहर गये। नहा-धोकर दोनों खाना-खाया और फिर होटल के एक व्यक्ति से पूछा कि फिल्म निर्माता कंपनी के दफ्तर कहां मिलेंगे। होटल वाले ने उन्हें उस इलाके का पता बता दिया जहां कई फिल्म निर्माताओं के कार्यालय हैं।
     दूसरी सुबह दोनों एक फिल्म निर्माता कंपनी के कार्यालय में थे। वहां उनकी भेंट एक निर्माता से हुई। विनोद ने गौर किया कि निर्माता उसे कम और विनिता को ज्यादा गौर से देख रहा था। लग रहा था जैसे वह उसके जिस्म के पोर-पोर को अपनी आंखों से नाप रहा है। उसके चेहरे पर एक वहशियाना चमक तैर रही थी। उसे इस तरह देखते देख विनोद सहम गया।
     विनोद बोला-सर जी, आपसे क्या छिपाना, हम लोग भी फिल्मों में तकदीर आजमाना चाहते हैं। आप हमारी मदद करें तो हमारे ख्वाब भी पूरे हो सकेंगे।
     निर्माता उसकी बात सुन कर मुसकराया और बोला-मैंने अपनी नयी फिल्म ए भाई जरा बच के चलो शुरू की है। देखते हैं कि उसमें आपको क्या रोल दे सकते हैं। वैसे आपके साथ जो मैडम हैं भाई इनके लिए तो कुछ करना ही होगा। वाकई क्या सूरत पायी है।
     विनोद ने देखा कि निर्माता के चेहरे की वहशी चमक और गहरी हो गयी। वह कुछ कहता इससे पहले निर्माता ने बताया कि विनिता का स्क्रीन टेस्ट लेना होगा। उस दफ्तर के ही एक कमरे में स्क्रीन टेस्ट शुरू हुआ। विनोद को बाहर ही बैठा दिया गया। स्क्रीन टेस्ट के दौरान शाट की पोजीशन बताने और विनिता को सही जगह खड़ा कर डायलाग की सीट थमाने के बहाने उस निर्माता ने उसे कुछ इस तरह से छुआ कि वह भीतर तक कांप गयी। अपने संवेदनशील अंगों में उसके हाथों के स्पर्श विनिता को तपते शोलों की जलन दे रहे थे। थोड़ी देर बाद वह बाहर आयी तो विनोद को चिंतित बैठे पाया। विनोद बुरा न मान जाये इसलिए उसने स्क्रीन टेस्ट के दौरान निर्माता की हरकत के बारे में कुछ नहीं बताया।
     निर्माता ने बाहर आकर विनोद से कहा-मैडम के लिए तो रोल मैंने सोच लिया है, आपके लिए भी कुछ करते हैं। मिलते रहिए।
     निर्माता ने अपना नाम सुशील बताया और अपना एक कार्ड विनोद को थमाते हुए बोला-मिलते रहिएगा, आप यह कार्ड दिखा देंगे तो कोई आपको रोकेगा नहीं। आइए ना कहीं कुछ खाते-पीते हैं।
     निर्माता दोनों को एक महंगे रेस्तरां में ले गया। वहां उसने महंगे से महंगे खाने का आर्डर दिया। खाना समाप्त होने पर जब वह बिल देने को हुआ तो सदाशयता के मारे विनोद ने ही हजारों का बिल खुद चुका दिया। निर्माता ने उसे रोका नहीं।
     विनोद-विनिता अक्सर उस निर्माता के यहां जाते रहे और उस पर रुपया खर्च करने का सिलसिला चलता रहा। निर्माता की विनिता पर रुचि धीरे-धीरे और बढ़ती गयी। वह अक्सर स्क्रीन टेस्ट या रिहर्सल के बहाने उससे एकांत में मिलने लगा। आर्क लैंप की रोशनी और कैमरे के सामने विनिता को तरह-तरह की भड़कीली पोशाक पहना कर टेस्ट चलता रहा। दिनोंदिन उसका साहस बढ़ने लगा। अपने और विनोद के ख्वाब पूरे करने की चाह में विनिता खामोश रही। उसकी यह खामोशी ही काल बन गयी। एक दिन निर्माता सुशील ने उसके सामने ऐसा प्रस्ताव रख दिया कि वह चौंक गयी। सुशील चाहता था कि वह उसकी हो जाये फिर वह फिल्में क्या दुनिया की हर खुशियां उसके कदमों में बिछा देगा। उस दिन सुशील ने आवेश में आकर उसे बाहों में भर लिया। विनिता अचकचा गयी उसने सपने में भी ऐसा नहीं सोचा था कि उसके साथ ऐसा होगा। सुशील की बांहों में वह खुद को असहज महसूस कर रही थी। वह उसे एक ओर झिटक बाहर निकल आयी।
     बाहर बैठे विनोद ने जब विनिता को देखा तो उसके चेहरे पर खौफ और अजीब  सी उलझन उसने साफ पढ़ ली।
     वह दोनों चलने को हुए तो सुशील ने कुटिल हंसी हंसते हुए कहा-मिलते रहिएगा, मैडम को इस फिल्म में बढ़िया रोल और अगली फिल्म में हीरोइन बनाने का मैंने इरादा कर लिया है।
    
बाहर आकर विनिता ने स्क्रीन टेस्ट के बहाने उसके साथ हुई ज्यादती की कहानी विनोद को सुना दी। विनोद को बहुत गुस्सा आया। वह बोला-वहां क्यों नहीं बताया, साले का ऐसा स्क्रीन टेस्ट लेता कि फिल्मों का नाम भूल जाता। अरे ठीक है क्या एक यही निर्माता है मुंबई में।
     दोनो दर-दर भटकते और निर्माताओं के पास जा-जा कर लुटते रहे। जहां जाते वहीं उनको निर्माताओं पर पैसे खर्च करने पड़ते। उनके पैसे धीरे-धीरे खत्म होने को आये। स्क्रीन टेस्ट के नाम पर विनिता भी कई पुरुषों के हाथों यौन उत्पीडन का शिकार होती रही।
    
एक दिन वह बोली-विनोद मुझसे यह सब बरदाश्त नहीं होता। लौटते हो तो कहो नहीं मैं अकेले ही लौट जाऊंगी।
विनोद बोला-विनिता, रावण की लंका में कोई तो विभीषण होगा। रुको देखते हैं कुछ और लोगों से मिलते हैं।भी
विनोद एक दिन विनिता को एक बुजुर्ग निर्माता के पास ले गया। उनसे उसने सारी कहानी सुनायी। उनकी बातें सुन कर विकास शर्मा नामक वे निर्माता बोले-भाई अब तक तुम जिनसे भी मिले वे सभी नकली निर्माता थे जो तुम जैसे भोले-भाले और फिल्मों के दीवाने लोगों को लूटने के लिए दुकाने खोले बैठे हैं। तुम लोग दूर से फिल्मों की चमक-दमक देख यहां दौड़े आते हो। यहां आर्क लैंप की चकाचौंध के बीच भी अंधेरा है। कह सकते हो रोशनी का अंधेरा। इस अंधेरे में पलते हैं पाप, लुटते हैं ललनाओं के शील। इनके बीच हम जैसे सार्थक काम करने वाले हो गये हैं अप्रसांगिक। तुम लोगों की तरह कई लोग इस फिल्मी दुनिया की चकाचौंध में खिंचे चले आते हैं और अपना सब कुछ गंवा बैठते हैं। आओ तुम्हें कुछ दिखाता हूं।
बाहर लाकर विकास शर्मा ने स्टूडियो की कैंटीन में बर्तन साफ करते एक खूबसूरत युवक को दिखाते हुए कहा-यह युवक भी वर्षों पहले तुम्हारी तरह हीरो बनने का ख्वाब लेकर बाप की कमाई दौलत लेकर आया था। सब कुछ गंवा कर लज्जा के मारे घर लौट नहीं सका अब इसी तरह जिंदगी गुजार रहा है। यहां लोग किसी को ना नहीं कहते। युवक आते हैं स्टूडियो दर स्टूडियो जूते रगड़ते बूढ़े हो जाते हैं पर काम नहीं मिलता। तुम दोनों की पिता कि उम्र का हूं मेरी मानो तो वापस लौट जाओ। उन मां-बाप की सोचो जो तुम्हारे चले आने से कितने परेशान हो रहे होंगे। यह बनावटी दुनिया है, नकली चमक-दमक की दुनिया, लौट जाओ प्यार और दुलार की उस दुनिया में जहां खुशहाल जिंदगी तुम्हारे इंतजार में हैं।
            शर्मा जी के चरण छूकर दोनों वापस होटल लौट आये। अपना सामान पैक किया और शाम को उन्होंने मुंबई से विष्णुपुर  वापसी की ट्रेन पकड़ ली।      


    



No comments:

Post a Comment