निराश्रित
राजेश त्रिपाठी
सुनंदा की जिंदगी भी अजीब उतार-चढ़ाव की जिंदगी
है। बेटे की शादी को हुए अभी कुछ माह ही गुजरे थे, वह इस खुशी में डूबी थी कि तभी पति
आनंद का साया उसके सिर से उठ गया। अगर बेटे-बहू ने ढांढ़स न बंधाया होता तो वह टूट
गयी होती। बहू पुनीता और बेटे मयंक के प्यार ने उसे दुख के गहरे सागर से उबार
लिया।
पिता की मृत्यु के बाद बेटे मयंक ने मां से कहा
था-‘ मां होनी को कोई टाल नहीं सकता। क्या करें शायद
भाग्य ने इतने दिनों के लिए ही पिता जी का साथ लिखा था। तुम चिंता मत करो, अपने को
निराश्रित मत समझो हम हैं ना।‘
बहू पुनीता ने पति मयंक के स्वर में स्वर मिलाते
हुए कहा-‘जी माता जी, मयंक सही कह रहे हैं हमारे होते हुए
आप अपने को अकेला मत समझिए। मुझे अपनी बेटी ही समझिए, मैं कभी आपको अकेला नहीं
छोड़ूंगी। आपके सुख-दुख का हमेशा खयाल रखूंगी। आखिर अब यह घर मेरा भी तो है।‘
बहू की बातें सुन कर सुनंदा बहुत खुश हुई और
बोली-‘बहू समझना क्या, तुम तो मेरी बेटी ही तो हो। मेरे
कोई बेटी नहीं थी, मैं दुखी रहती थी कि मेरे घर कोई लक्ष्मी नहीं है। आज मेरे घर
की लक्ष्मी मुझे तुम्हारे रूप में मिल गयी। इससे बड़ी खुशी और क्या हो सकती है।‘
पुनीता ने सुनंदा के पैर छुए तो उसने उसके सिर पर
हाथ रखते हुए कहा-‘सदा सौभाग्यवती रहो मेरी बहू। तुम आयीं तो मेरे
घर, मेरी जिंदगी में जैसे उजाला आ गया।‘
सुनंदा बहू और बेटे के साथ सुख से रहने लगी। बेटे
और बहू के प्यार ने कुछ अरसे में ही उसके मन से पति आनंद के दुख के बोझ को हलका कर
दिया। आनंद को भूल पाना तो उसके लिए कठिन था क्योंकि आनंद सुनंदा को अपनी जान से
बढ़ कर चाहते थे। उसकी आंखों में आंसू उनका दिल हिला देते थे।
बहू पुनीता सुनंदा का बड़ा ध्यान रखती थी, पहले
उन्हें खिला कर फिर खुद खाती और पति को खिलाती।
मयंक .साफ्टवेयर इंजीनियर था और अपना भविष्य भारत
के बाहर तलाशने की कोशिश कर रहा था। कई मल्टीनेशनल आई कंपनियों में उसने
अप्लीकेशंस दे रखे थे। अपनी काबिलियत और भाग्य पर उसे पूरा विश्वास था। पुनीता भी
पति को सफलता के शीर्ष पर देखना चाहती थी।
*
एक सुबह मयंक के लिए ऐसा संदेश लेकर आयी जिससे
उसके जीवन का सबसे बड़ा सपना सकार हो गया। यह संदेश एक मल्टीनेशनल कंपनी का था
जिसके कैलिफोर्निया स्थिति आफिस में उसे काम मिला था।
मयंक खुशी-खुशी पुनीता के पास गया और बोला-‘पुनीता तुम्हारी कामना और मेरी अभिलाषा एक साथ
पूरी हो गयी। देखो मेरे लिए विदेशी कंपनी का अप्वायंटमेंट लेटर आ गया।‘
पुनीता चहकते हुए बोली-‘कहां देखूं तो।‘
मयंक ने पुनीता को लेटर दिखाया तो उसे पढ़ कर
उसकी आंखों में अनोखी चमक तैर गयी।
पुनीता से बात करने के बाद मयंक मां के पास गया
और उनके चरण छूकर बोला-‘मां तुम्हारे आशीष से तुम्हारे बेटे को ऐसा काम
मिल गया है कि जिससे हमारे सारे सपने पूरे हो जायेंगे।‘
सुनंदा के चेहरे पर हर्ष और विषाद के भाव एक साथ
उभरे। उसे लगा कि शायद भाग्य उसे एकाकीपन में फेंकने का खेल रच रहा है।
मां को गुमसुम देख मयंक बोला-‘अरे किस सोच में पड़ गयी मां। अरे मैं बाहर चला
जाऊंगा तो अभी पुनीता तो तुम्हारे साथ रहेगी।‘
बेटे के जवाब ने सुनंदा को आश्वस्त तो किया पर
उसके गये वाक्य का ‘अभी’ शब्द उसे आशंकित कर गया।
नियत दिन पर मयंक कैलिफोर्निया के लिए रवाना हो
गया। पुनीता भारत में सास के साथ रह गयी।
दिन गुजरने लगे। पुनीता का व्यवहार कुछ दिन तक तो
सास सुनंदा के साथ पहले जैसा आत्मीय रहा लेकिन फिर धीरे-धीरे उसके व्यवहार में आये
परिवर्तन को सुनंदा भी समझने लगी। बहू उसे ठंडा खाना देती। वह बीमार होती तो कई
बार कहने पर तब कहीं जाकर डाक्टर को बुलाती। मयंक के जाने के कुछ दिन बाद से ही वह
खिंची-खिंची रहने लगी। सास से उसके संवाद का दायरा भी घटता गया। सुनंदा को लगा कि
शायद पुनीता मयंक को दिखाने के लिए ही उससे अच्छा व्यवहार कर रही थी । इस तरह वह
मयंक का दिल जीत रही थी। धीरे-धीरे उसने मयंक को अपने वश में कर लिया तो सास से
दूरी बना ली।
धीरे-धीरे दिन गुजरते रहे और हर गुजरते दिन के
बाद पुनीता और सास सुनंदा के बीच की दूरी और भी बढ़ती गयी। अब सुनंदा को खुद अपना
खाना परोसना पड़ता।
एक साल गुजरने के बाद एक दिन सुनंदा अपने कमरे
में लेटी हुई थी। तभी उसे अचानक बहू के कमरे से किसी मर्द की आवाज सुनायी दी। वह
उससे घर के कागजात मांग रहा था। उसने अपने कानों को पूरी तरह से उसी ओर लगा दिया।
उसके कानों ने जो सुना वह उसे चौंका देने के लिए काफी था। जो व्यक्ति पुनीता से घर
के कागज मांग रहा था वह सुनंदा के पति के इस सपने को बेचने की बात कर रहा था।
जब वह व्यक्ति कागजात लेकर चला गया तो सुनंदा बहू
के पास आयी और बोली बहू-‘कौन था यह आदमी, और इस घर को बेचने की बात क्यों
चल रही है।‘
बहू ने मुंह सिकोड़ते हुए कहा-‘मुझसे क्यों पूछ रही हैं। इस आदमी को आपके बेटे
ने ही भेजा था।‘
सुनंदा खामोश होकर रह गयी।
उसके पास मयंक का कोई संपर्क नहीं था। उसे एक बात जरूर अखर रही थी कि बेटा जब से
गया अपनी पत्नी से तो संपर्क रख रहा है लेकिन उससे कभी नहीं पूछा कि वह किस हाल
में है। वह किसी आनेवाले संकट के संकेत से कांप उठी।
कुछ दिन बाद मयंक भारत
वापस आया। उसने मां के पैर छुए तो सुनंदा ने पूछा-‘बेटा यह
क्या सुन रही हूं, तुम यह घर बेचना चाहते हो। तो फिर मैं और पुनीता कहां रहेंगे।‘
‘मां पुनीता की चिंता मत करो इस बार मैं उसे लेने
आया हूं। यह घर बेच रहा हूं क्योंकि अकेले तुम्हारे लिए यह घर फंसा कर क्यों रखा
जाये। इससे जो रकम मिलेगी विदेश में मेरे काम आयेगी।‘
सुनंदा-‘बेटे वह तो ठीक है।
पर तुम लोगों के बिना मैं यहां निराश्रित किसके सहारे रहूंगी।‘
मयंक
बोला-‘चिंता मत करो मां, तुम्हारी अच्छी व्यवस्था मैं
करके जाऊंगा।‘
घर बिक गया, पुनीता का पासपोर्ट वीजा भी बन गया।
सुनंदा बेबस अपने परिवार को उजड़ते, अपने जीवन को एकाकीपन के अंधेरे की ओर बढ़ते
मन मसोस कर देखती रह गयी।
*
पत्नी पुनीता के साथ विदेश जाने से पहले मयंक
वायदे के अनुसार मां सुनंदा के लिए अच्छी व्यवस्था कर गया। उसने मां को एक
वृद्धाश्रम में रख दिया। वृद्धाश्रम के व्यवस्थापकों से वह कह गया कि वह विदेश से
हर माह मां के रखरखाव का खर्च भेजता रहेगा। सुनंदा बहू और बेटे के जाने के बाद देर
तक रोती रही। अगर वृद्धाश्रम की एक दूसरी महिला सुशीला ने आकर उसके आंसू न पोंछे
होते तो दुख का यह सागर उसकी आंखों से निरंतर बहता रहता।
कुछ दिन बाद सुनंदा को अपने इस नये घर की आदत पड़
गयी। हां वह इस बात को सदा बिसूरती कि जो बेटा कभी उसे जान से बढ़ कर चाहता था वह
उसे अकेला अजनबियों के बीच मरने को निराश्रित छोड़ गया। जिसने दूध पिलाया उसे
अकेला छोड़ चला गया। जिस सुनंदा के आंसू कभी आनंद को कंपा देते थे वह मयंक को नहीं
हिला सके। वह पल भर में अपनी जननी को इस
तरह छोड़ कर चला गया जैसे उससे कोई नाता ही न हो और सिर्फ पुनीता ही उसकी जिंदगी
हो।
कुछ महीने तक विदेश से मयंक का भेजा खर्च
वृद्धाश्रम में आता रहा फिर वह भी बंद हो गया। मयंक वृद्धाश्रम में अपना कोई
संपर्क या पता भी नहीं दे गया था कि वृद्धाश्रम वाले उससे संपर्क कर पाते। मयंक ने
स्वयं भी कभी मां का पता नहीं किया कि वह जिंदा है या नहीं। वृद्धाश्रम वालों के
रहमोकरम पर पलने वाली सुनंदा बीमार रहने लगी। धीरे-धीरे उसकी तबीयत बेहद खराब रहने
लगी। वृद्धाश्रम वाले अपनी तरफ से इलाज कराते रहे लेकिन सुनंदा के तन-मन को
उपेक्षा के घुन ने खोखला कर दिया था। उसने लोगों से बोलना भी बंद कर दिया था। देर
तक शून्य में ताकती रहती जैसे किसी को खोज रही हो। एक सुबह उसकी तबीयत ज्यादा खराब
हो गयी। जब तक डाक्टर पहुंचते सुनंदा की जीवनलीला समाप्त हो चुकी थी।
वृद्धाश्रम वालों ने पता किया कि अगर उनका कोई
सगा-संबंधी हो तो उनको सूचित किया जाये लेकिन किसी का पता नहीं चला। बेटे-बहू के
होते हुए भी निराश्रित सुनंदा ने अजनबियों के कंधे पर अपनी अंतिम यात्रा पूरी
की। ( सन्मार्ग के रविवारीय परिशिष्ट 4 नवंबर में प्रकाशित)
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