Saturday, March 14, 2009

आ गये मदारी लेके जादू की पिटारी




शहर के चौराहों पर, गांवों के चौबारों पर जुटने लगे हैं मजमे। दिखने लगे हैं कुछ ऐसे मौसमी चेहरे जो पांच साल बाद ही प्रकट होते हैं। शहरों की दीवारें पोस्टरों और नारों से बदरंग हो गयी हैं। गरीब की जोरू की तरह जो चाहता है उनसे मजाक कर रहा है। उनकी छाती पर तरह-तरह के सुहाने सपने नारे की शक्ल में बो रहा है। ये सपने ही तो उनके सपनों को साकार करेंगे जो बहुत बड़े खिलाड़ी हैं। खिलाड़ी ऐसे जो हर हाल में जीतना चाहते हैं, हारना जिन्हें पसद नहीं। जीतने के लिए भले ही सिद्धांतों को तिलांजलि देनी पड़े। न्यारी है इनकी रीति और जनता जनार्दन से इनकी मौसमी प्रीति। इनमें से कईयों के दामन दागदार हैं फिर भी वे सिंहासनारूढ़ होने को तैयार हैं। पांच साल में उभरनेवाले इन मौसमी जीवों को पर सत्ता से प्यार है। सत्ता जो इन्हें इनके कुनबे को देती है सुख-सुविधा के साधन और इन्हें रुतबा। इनके लिए आदमी सिर्फ और सिर्फ एक वोट है, वोट जो इनकी चुनावी वैतरणी को पार लगाने का एकमात्र साधन है। इस साधन को पाने के लिए ये लाखों जतन और छलछंद करते हैं। कुछ अपवाद भले सही बाकी इस हम्माम में सभी नंगे हैं।
पहले चुनाव उत्सव की तरह आते थे। गांवों में चुनाव के दिन मतदान केंद्र के आसपास मेले से लग जाते थे। पहले चुनाव पर्व था , पावन गणतंत्र का ऐसा पर्व जिसमें जनता अपने देश के भाग्य विधाता चुनती थी। आज चुनाव एक आतंक का पर्याय बन गये हैं। कुछ को छोड़ दें तो हर दल आज अपने ही दलदल में फंसा है। जो भले हैं वे हाशिए पर हैं जो दंबग हैं, जिनकी अपराधियों से साठगांठ हैं या वे खुद इससे जुड़े हैं टिकट उनके हिस्से ही आते हैं और वही विजयश्री पाते हैं। कई बार यह बात संसद में भी मानी गयी है कि राजनीति का अपराधीकरण हो गया है। चुनाव आयोग वर्षों से राजनीति के परिष्कार के लिए प्रयासरत है लेकिन उसे अब तक सफलता नहीं मिल पायी है।
चुनाव ने दस्तक दी और लोकलुभावन नारों की झड़ी लग गयी। अलग-अलग वेषभूषा और अलग-अलग अंदाज में फिर जुट गये वोट के याचक मदारी। इन जादूगरों की पिटारियों में गरीबों, लाचारों, महिलाओं के लिए बहुत कुछ है। ये पल में देश का नक्शा बदलने के दावे करते हैं। देखो, देखो भीड़ जमते ही उस मदारी ने अपनी जादू की पिटारी खोल ली है और घुमा दी है अपनी जादू की छडी। क्या कहा इसकी पोशाक एक खास दल के झंडे की रंग की है पोशाक नहीं इरादे देखो और देखो उसकी चमत्कारी पिटारी जो हर लेगी सारे दुख , गरीबी की बीमारी। अरे, जादूगर ने डुगडुगू बजायी, जादू की छड़ी घुमायी और पिटारी ले निकाला एक बल्ब और बोला-`मेहरबान कद्रदान, जरा मेरी बातों पर दे ध्यान, देश डूब रहा है, हर आदमी मौजूदा सत्ता से ऊब रहा है, हमें जिताइए , साल भर बिजली पाइए।' यह कह उसने बिजली का बल्ब पिटारी में वापस रख लिया। अब उसके हाथ में डाक्टर का एक आला है औरउसने फरमाया-` गांव-जवार में कोई डाक्टर नहीं है, आपने देखा है ऐसा होता कहीं है ? यह सत्ता नाकारी है इसीलिए तो घर-घर बीमारी है। हम आपके गांव तक एम्स जैसा अस्पताल लायेंगे बीमारी दूर भगायेंगे। स्वस्थ भारत है हमारा सपना, बस हमें वोट दीजिए अपना।' अब उसकी पिटारी से निकले कुछ नोट जिसकी चमक में दिख रहे थे उस राजनीतिक मदारी को वोट। उसने कहा-`हम जानते हैं गांव-गांव में बोरोजगारी है, यह सबसे बड़ी बीमारी है, हम बांटेगे किसानो, भूमिहीनों को भत्ता, पर एक बार हो जाये दिल्ली में हमारी सत्ता।' नोट वापस पिटारी में चले जाते हैं। नोट देख कर भूखी लाचार जनता की आंखों में आयी क्षणिक चमक बुझ जाती है। जिनके यहां बिजली महीनों गायब रहती है, कभी आती है तो किसी पाहुन की तरह घंटो-दो घंटे या एक दिन के बाद जो जाती है तो फिर लाख मिन्नतें करने पर भी नहीं आती है। खेत सिंचाई बिन सूख जाते हैं, बच्चे ढिबरी के उजाले में पढ़ने को मजबूर हो जाते हैं।
मदारी पिटारी में हाथ डाल कर अगला चमत्कार दिखाने ही वाला था कि वहां एक दूसरा मदारी आ जाता है। उसके कपडों का रंग एक दूसरे खास दल की तरह का है। वह चिल्लाता है-` आओ, आओ, इधर आओ। यह मदारी ढोंगी है, यह सिर्फ सत्ता को लोभी है। हमारे पास जो है यह इसके पास नहीं, इससे करना रत्ती भर आस नहीं। आओ हम तुम्हारे लिये बहुत कुछ लाये हैं, यह समझो बस तुम्हारे ही लिये आये हैं। हम तुम्हारे दुखों को हर लेंगे, तुम्हारे गंदे- मैले गांव को शहर सा रौनक कर देंगे। हमारा दल देश में सबसे आला है, आपका जाना-पहचाना और देखा भाला है। हमें देशवासियों का ध्यान है, हमारे लिए बराबर हर इनसान है।'
इतनी भूमिका बांध मदारी ने अपनी पिटारी से सुख-सविधाओं की सामग्री निकालनी और डींग हाकनी शुरू कर दी तभी गांव का एक बुजुर्ग पास बैठे एक लड़के से बोला-` ऐ किशनवा, मोरी आंखी मां चश्मा है तोरी आंखी तौ जवान हैं देख या तौ वहै हय जो पांच साल पहले आवा रहा। तब जो कुछ कहिगा रहै कुछौ तौ पूरा न भवा। अब या फिर काहे हमैं ठगैं आवा है।'
क्स्बे के कालेज में पढ़ा किशनवा यानी कृष्णकुमार बोला-` आप ठीक कह रहे हैं दादा जी। यह वही मदारी है। ये लोग पांच-पांच साल बाद आते हैं, हमारी गरीबी का मजाक उड़ाते हैं और लोकलुभावना सपने दिखा कर चले जाते हैं। गद्दी पर बैठने के बाद इन्हें हमारी फिक्र नहीं रहती रहती है तो कुर्सी बचाने की फिक्र। तब अगर दुख-दर्द की गुहार लेकर जाओ तो कहेंगे-सब होगा, धीरे-धीरे होगा, हमारे पास कोई जादू की छड़ी तो नहीं है। दादा जी, बेहतर है कि इन्हें पहचाने और सिर्फ ,सिर्फ उन्हें ही चुने जो जनता के प्रति जवाबदेह हों, मत की कद्र के साथ-साथ मतदाता की भी कद्र करें, उसकी अहमियत भी समझें और उसके सपनों और अरमानों का कत्ल न करें उन्हें पुरा करें, उनका सम्मान करें।'
गणतंत्र का एक महापर्व शुरू हो गया है। बंजारा ऐसे में चुप बैठनेवाला नहीं , वह गायेगा और उसकी वाणी में उभरेगी देश की आवाज।
-बंजारा

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