यात्रा वृत्तांत-1
राजेश त्रिपाठी
वाघा बार्डर पर ब्लागर (बायें) और अपने पापा के साथ देवा |
‘सैर कर दुनिया की गाफिल, जिंदगानी फिर कहां, जिंदगानी गर रही तो नौजवानी फिर कहां’ जब से होश संभाला तब से ये पंक्तियां जैसे चाबुक मार-मार कर कहती रहीं कि कूप मंडूक बन कर मत रहो, जिस दुनिया का हिस्सा हो, उसे देखो-जानो। किताबें बहुत सी पढ़ी होंगी तुमने, दुनिया के बारे में भी पढ़ा होगा पर सिर्फ किताबी ज्ञान दुनिया को जानने के लिए काफी नहीं होता। जरूरी यह होता है कि अपने सीमित दायरे से निकलो, दुनिया का जितना हिस्सा चाक्षुश देख सको, देखो। गफलत से बाहर आओ, विदेश नहीं तो कम से कम अपने देश को देखो, जानो, जितना जान सको। इस देवभूमि, इस पुण्यभूमि के जितने रम्य और अद्भुत दृश्य अपनी स्मृति में संजो सको, संजो लो क्योंकि वक्त और अवसर किसी का इंतजार नहीं करते। इन पंक्तियों के ‘सैर कर दुनिया की गाफिल’ के आह्वान पर, दैनिक कार्यप्रणाली की एकरसता को तोड़ने और क्रंकीट के दमघोंटू माहौल से दूर मुक्त हवा में सांस लेने का मन बना लिया। वैसे इसके पीछे मेरी सहधर्मियणी का आग्रह और अनुनय भी प्रमुख रहा। ऐसी सहधर्मिणी जिसने कभी इतनी बड़ी मांग नहीं की जिसके सामने मुझ जैसे सामान्य मध्यम वर्गीय व्यक्ति को शर्मिंदगी या बेचारगी का सामना करना पड़े। बेहद घरेलू किस्म की हमारी इस गृहलक्ष्मी की मांग पूरी न करता तो शायद जिंदगी भर गिला रहता। उसने नौलखा हार तो मांगा नहीं था बस चूल्हे-चौके में सिमटी जिंदगी के बीच एक ताजा हवा का झोंका, कुछ खुशी और उल्लास के क्षण अपने लिए मांगे थे। उसकी अभिलाषा पूरी करना मेरा फर्ज था। बेटी भी देश-दर्शन और देव दर्शन की आग्रही थी। हमारा छोटा देवा (देवांस, हमारा नाती) भी बाहर जाने के लिए कम उत्साहित नहीं था। सो मन बन गया और सुयोग भी मिल गया। सुयोग ऐसा कि अपने ही कुछ परिचितों ने देशाटन-तीर्थाटन की योजना बनायी। कुल 42 लोग जुट गये और तय हुआ कि अप्रैल (2012) की पहली तारीख को ही निकल लिया जाये। बस 1 अप्रैल की शाम को अमृतसर मेल से हम लोग निकल पड़े अपनी देशाटन-तीर्थाटन यात्रा पर। पहला गंतव्य था अमृतसर। जहां हम ट्रेन में दो रात और एक दिन बिता तीसरे दिन पहुंचे। होटल में सामान पटक दम भी न ले पाये थे कि साथ गये भाई लोगों ने कहा-‘बस कर ली है। पहले वाघा बार्डर जायेंगे, फिर दुर्गयाना मंदिर, जालियांवाला बाग और स्वर्णमंदिर। हम पहले वाघा बार्डर पहुंचे जो अमृतसर शहर से 25 किलोमीटर दूर है। अप्रैल की चुभती गरमी, आग उगलता सूरज और बस का सफर। सभी उबाऊ और तकलीफदेह पर इस परेशानी को वाघा बार्डर देखने की ललक और उत्साह कम कर रहा था। वाघा जो अमृतसर (भारत) और लाहौर (पाकिस्तान) के अंतरराष्ट्रीय राजमार्ग के बीच स्थित है। जो भाई लोग हमारे इस यात्रा के संचालक थे उन लोगों ने ठीक से पता नहीं किया था कि वाघा बार्डर पर भारतीय बीएसएफ के जवानों और पाकिस्तानी रेंजरों की बीटिंग रिट्रीट कितने बजे होती है। बार्डर पर जाकर पता लगा कि ध्वज उतारने का कार्यक्रम (बीटिंग रिट्रीट) शाम छह बजे सूर्यास्त के वक्त होता है। और कार्यक्रम उससे एक घंटा पहले ही शुरू होता है। अब क्या करते, हम तो घंटों पहले वहां पहुंच चुके थे। अप्रैल की तेज धूप में तपने के अलावा हमारे पास और कोई चारा नहीं था। चिंता थी तो अपने दो साल एक महीने के देवा बाबू की जो गरमी के चलते अपना पीने का पानी बस में ही खत्म कर बैठे थे।
वाघा बार्डर में सबसे पहले आपका स्वागत बीएसएफ का एक स्तंभ करता है जो भारत की आजादी के 50 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में बनाया गया है। इसमें अंग्रेजी में लिखा है बीएसएफ सेलेब्रेट्स 50 ईयर आफ इंडिपेंडेंस, हिंदी में लिखा है मेरा भारत महान। अंग्रेजी में बीएसएफ 102, इंडिया। इससे कुछ कदम दूर पर है स्वर्ण जयंती द्वार। हमने सोचा पत्नी और बेटी को किसी तरह से उस स्टैंड में बैठा दें जहां से वे बीटिंग रिट्रीट सही ढंग से देख सकेंगी। इन स्टैंड्स तक जाने की दो सीढ़ियां हैं पहली स्वर्ण जयंती द्वार के पास बायीं तरफ और दूसरी इससे कुछ आगे स्टैंड से लगी ब्लिडिंग के आखिरी छोर पर। हमने आखिरी छोर वाली सीढ़ियां ही चुनीं क्योंकि उधर ही महिलाओं के लिए स्टैंड था। हम अभी पत्नी और बेटी को लेकर पहुंचे ही थे कि एक अधिकारी गरजा-‘ नो नो यू कांट गो अप, दिस स्टैंड इज ओनली फार वुमेन।’ मैंने भी जवाब दिया-‘ नो सर आई ऐम नाट गोइंग अप, आई एम जस्ट गाइडिंग माई वुमेन फोल्क टू द स्टैंड्स।’
पत्नी के साथ बेटी को स्टैंड्स में बैठा कर वापस लौटा तो देखा हमारे नन्हें देवा ने ग्रांड ट्रंक रोड पर धमाचौकड़ी मचानी शुरू कर दी थी। असह्य गरमी भी उसका उत्साह नहीं कम कर पायी थी। कोलकाता में घर की चहारदीवारी या सामने के मैदान तक सिमटी उसकी दुनिया आज उन्मुक्त और विस्तृत हो गयी थी। उन्मुक्तता के हर पल को वह भरपूर जी लेना चाहता था। ऐसे में कभी अपने पापा मुकेश को चकमा देकर बीएसएफ के घुड़सवार सैनिक के पास जा धमकता तो कहीं भीड़ में ऐसे दुबक जाता कि उसे खोजना मुश्किल हो जाता। हमारे दामाद मुकेश परेशान, उसे काबू नहीं कर पा रहे थे। बार-बार कह रहे थे-‘पापा इसे संभालिए, बहुत बदमाश हो गया है।’ कैसे समझाता कि यह उसकी बदमाशी नहीं बचपन की सहजात चंचलता है, यही तो दिन हैं जब वह दुनिया की तमाम परेशानियों से दूर अपनी खुद की दुनिया में बेफिक्र खोया है। बड़ा होकर जब दुनियावी जिम्मेदारियों में फंस जायेगा, तब कहां मिलेगी यह आजादी और इस तरह उन्मुक्त बिचरने के पल-क्षण। डर तो मैं भी रहा था कि पता नहीं कब कहां गिर कर चोट लगा ले लेकिन उसे खेलने दिया, बस पास-पास उसका सहारा बन कर चलता रहा। सूरज अब तक नरम होने का नाम नहीं ले रहा था। गरमी असह्य थी। एक घंटे में दो-तीन बोतल पानी हम गटक गये थे। देवा का उबला हुआ पानी तो कब का खत्म हो चुका था, वह भी पानी-पानी चिल्ला रहा था। बाध्य होकर उसे भी मिनरल वाटर ही पिलाना पड़ा।
हम जिस ग्रांड ट्रंक रोड पर खड़े थे वह बंगलादेश के चटगांव से अफगानिस्तान के काबुल तक जाती है। यह सड़क ग्रांड ट्रंक के रोड के नाम से मशहूर है। इसे मौर्य शासनकाल में ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में बनाया गया था। बाद में 16 वीं शताब्दी में सेर शाह सूरी ने इसका नवीकरण और विस्तार किया। इसे पहले कई नामों से जाना जाता था, जैसे –उत्तर पथ, शाह राह-ए-आजम, सड़क-ए-आजम या बादशाही सड़क। यह दक्षिण एशिया की पुरानी, लंबी और मुख्य सड़क है जो कुल 2500 किलोमीटर लंबी है। सदियों से यह भारतीय उप महाद्वीप के पूर्वी क्षेत्रों को जोड़ती रही है। यह पूर्व में चटगांव (बंगलादेश ) से शुरू होकर हावड़ा (पश्चिम बंगाल, भारत) से होती हुई उत्तर भारत के कई मशहूर शहरों को जोड़ती हुई अमृतसर के वाघा बार्डर से पाकिस्तान से गुजरती हुई अफगानिस्तान के काबुल तक जाती है। यह भारत-पाकिस्तान के बीच एक महत्वपूर्ण सड़क मार्ग है जिससे पाकिस्तानी ट्रक व यात्री गाड़ियां आती-जाती रहती हैं।
अभी तक बीटिंग रिट्रीट शुरू नहीं हुआ था हां, तिरंगा लिये महिलाओं और बच्चों ने मार्च करना और वहां जो-शोर से बजाये जा रहे देशभक्ति से ओतप्रोत फिल्मी गीतों पर थिरकना और नाचना शुरू कर दिया था। ‘मेरा रंग दे वसंती चोला’, ‘ऐसा देश है मेरा’ गीत जोरदार आवाज में फिजा में गूंज रहे थे । इन गीतों पर थिरकते देशभक्त बच्चों, महिलाओं का जोश देखते बन रहा था। यह जोश स्टैंड पर बैठे लोगों तक में देखा जा रहा था जो हाथ हिला कर और देशभक्ति के जोशीले नारे लगा कर उनका साथ दे रहे थे। उधर पाकिस्तान की तरफ वाले स्टैंड्स भी खचाखच पाकिस्तानी भाई-बहनों से भरे थे। वे भी अपने वतन के समर्थन में नारे लगा रहे थे। भारत की तरफ से अपने देश के लिए जहां ‘भारत माता की जय’ के नारे लग रहे थे वहीं पाकिस्तानी स्टैंड्स पर बैठे दर्शक ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे लगा रहे थे। भारत की ओर से कोशिश यह हो रही थी कि नारों और गीतों की आवाज इतनी ऊंची हो जाये कि उधर पाकिस्तान की ओर से लगाये जा रहे नारे भारत के कब्जे वाली सीमा तक न सुने जा सकें। इसमें भारत वालों को सफलता भी मिल रही थी। अब तक बीएसएफ के जवानों ने भी कदमताल शुरू कर दी थी। सूरज का ताप भी नरम पड़ने लगा था और बीटिंग रिट्रीट का समय करीब था। हम स्वर्ण जयंती द्वार से आगे नहीं बढ़ पाये। जो भीड़ स्टैंड में नहीं समा पायी वह स्वर्ण जयंती द्वार के पास सीढ़ियों और सामने के हिस्से में ठंस गयी थी। इसके बीच से ही उचक-उचक कर एड़ियों के बल खड़े होकर यह देखने की कोशिश कर रहे थे कि कैसे होती है बीटिंग रिट्रीट।
वाघा बार्डर पर बीटिंग रिट्रीट की शुरुआत 1959 में हुई। तब से पाकिस्तान की ओर से पाकिस्तानी रेंजर्स और भारत की ओर से बीएसएफ के जवान सूर्यास्त के समय झंडा उतारने की इस रस्म का नियमित पालन करते आ रहे हैं। इसकी शुरुआत दोनों तरफ के सैनिकों की परेड से होती है। इसमें सैनिक अपने पैरों को कमर की ऊंचाई तक 90 डिग्री के कोण के आकार तक ले जाते हैं और जोर से पटकते हैं। पहले सैनिक पैरों को सिर की ऊंचाई तक ले जाते थे और ज्यादा ही आक्रामक ढंग से पटकते थे। इससे उनके घुटनों में तकलीफ होने लगी थी। इसके चलते 2010 में इसको कुछ नरम कर दिया गया। पहले दोनों तरफ के सैनिक उंगलियों और हाथों से ऐसे इशारे करते थे जो आक्रामक थे अब इन्हें भी कम कर दिया गया है। बीटिंग रिट्रीट का कार्यक्रम सूर्यास्त से 30 मिनट पहले शुरू होता है। दोनों ओर के सैनिक पहले काफी देर तक पैरेड करते हैं फिर ज्योंही सूर्यास्त होने को होता है, दोनों ओर के सैनिक एक साथ अपने –अपने देश के झंड़ों को उतारना और उन्हें मोड़ना शुरू कर देते हैं। झंडे उतारने और मोड़ने की यह क्रिया बहुत ही समन्वित और लयात्मक ढंग से होती है। यह प्रक्रिया स्टैंड्स में बैठे दर्शक मंत्रमुग्ध होकर देख रहे थे जिसमें विदेशी भी थे। बेचारा देवा भी परेशान था यह बीटिंग रिट्रीट देखने के लिए । उसे उसके पापा ने कंधे पर उठाया और देवा भी लोगों की तरह हाथ हिलाने लगा। अब हालांकि बीटिंग रिट्रीट का रुख पहले जैसे आक्रामक नहीं रहा लेकिन क्या इसे और सौहार्दपूर्ण नहीं किया जा सकता ?
बीटिंग रिट्रीट देखने आते वक्त हमें सीमा से तकरीबन एक किलोमीटर पहले ही अपनी बस छोड़ देनी पड़ी थी। उससे आगे किसी भी निजी वाहन को जाने की इजाजत नहीं। उतनी दूर तक हमें पैदल ही आना पड़ा। यहां बता दें की वाघा बार्डर पर हमारी सीमा की तरफ स्वर्ण जयंती द्वार के पास ही राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की तस्वीर लगी हुई है। इस तस्वीर के एक तरफ हिंदी में भारत और दूसरी तरफ अंग्रेजी में इंडिया लिखा हुआ है। जिस द्वार के पार से पाकिस्तान शुरू होता है उस पर कायदे आजम जिन्ना की तसवीर लगी हुई है। यह सोच कर अद्भुत लगा कि हम लाहौर से बस कुछ किलोमीटर दूर ही खड़े हैं। अमृतसर से 32 किलोमीटर की दूरी पर लाहौर स्थित है। हमने अपनी सीमा को प्रणाम किया और अमृतसर जाने के लिए पैदल वापस उस तरफ चल पड़े जहां हमारी बस खड़ी थी। राह मे हमें एक पाकिस्तानी टूरिस्ट बस मिली जिसके सामने वाली विंड स्क्रीन पर एक तरफ भारत के झंडे और दूसरी तरफ पाकिस्तान के झंडे का स्टिकर लगा हुआ था। बस अमृतसर से लाहौर जा रही थी। बस की खिड़कियों से झांकते यात्री हमें देख मुसकरा रहे थे। इनमें कुछ लोग हिंदुस्तान के और कुछ पाकिस्तान के रहे होंगे जो अपने-अपने नाते-रिश्तों से मिल कर लौट रहे थे या सीमा के उस पार मिलने जा रहे थे। अपने इन भाइयों को देख बरबस हमारे हाथ उठ गये और हमने अपने देश की सीमा पर उनका अभिवादन, इस्तेकबाल हाथ हिला कर किया। कुछ मिनटों में ही वह बस सीमा के पार पाकिस्तानी हिस्से में दाखिल हो आंखों से ओझल हो गयी। कुछ आगे बढ़े को सड़के किनारे बाईं ओर अनोखे और बहुत ही बेहतर तरीके से सजे-सजाये ट्रक खड़े नजर आये जिन पर उर्दू में कुछ लिखा था। अपने यहां तो ऐसे ट्रक होते नहीं। देखा कुछ विदेशी पर्यटक उनके बोनट पर बैठ कर फोटो खिंचा रहे हैं। ये पाकिस्तानी ट्रक थे जो शायद भारत से कुछ माल लेने आये थे।
देश के इस उत्तरी सीमा क्षेत्र को अपनी आंखों से देखने की स्मृति संजोये हम अमृतसर के होटल लौट आये। बीटिंग रिट्रीट देखना और सीमा का यह सफर हमेशा याद रहेगा। अरे हमे क्या हमारे नन्हें देवा को भी वाघा याद है। कोलकाता लौटने के बाद भी जब कभी उससे वाघा बार्डर का बीटिंग रिट्रीट दिखाने के लिए कहा जाता है तो वह वाघा-वाघा चिल्ला कर बीएसएफ के जवानों की तरह अपने पैर ऊपर उठाने और पटकने लगता है। पैरों को ज्यादा से ज्यादा उठाने के क्रम में वह कई बार गिर कर चोट भी खा चुका है लेकिन ये चोटें उसका जोश नहीं कम कर सकीं। वह अब भी वाघा बार्डर की परेड की जब-तब लोगों के कहने पर नकल करता रहता है। अभी बच्चा है, पता नहीं उसके मानस में यह स्मृति दीर्घस्थायी होगी भी या नहीं कि इतनी कम उम्र में वह देश की आखिरी सीमा छू आया है। हम तो आजीवन इस अनुभव को नहीं भुला पायेंगे।
वाह खूब नज़ारे दिखलाए आपने इस लेख मे माध्यम से !
ReplyDeleteइस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - दुनिया मे रहना है तो ध्यान धरो प्यारे ... ब्लॉग बुलेटिन