Sunday, November 15, 2020

नहीं रहे सौमित्र चटर्जी,सशक्त अभिनय का आंगन हुआ सूना

 बहुतों को रुला गया अपू का जाना

राजेश त्रिपाठी


सशक्त, प्रभावी और यथार्थ अभिनय के बादशाह सौमित्र चटर्जी ने रविवार 15 नवंबर को दिन के 12.15 बजे अंतिम सांस ली। उनके जाने के साथ ही सशक्त, प्रभावी, यथार्थ अभिनय का आंगन भी सूना हो गया। सौमित्र अपनी मिसाल आप थे। याद नहीं आता कि उनके माप का कोई और अभिनेता बंगला फिल्मों में कोई रहा हो। उनकी छवि भले ही सफलता के पहले मापदंड जैसे चाकलेटी हीरो की भले ना रही हो लेकिन जहां तक भावप्रवण, य़थार्थ अभिनय का प्रश्न है उनकी बराबरी करने वाला कोई नहीं था। वे कोरोना से आक्रांत हुए थे और उससे उबर भी चुके थे लेकिन उसके बाद वे अऩ्य समस्याओं से ग्रस्त हो गये। किडनी की समस्या, शरीर में आक्सीजन की कमी व अन्य जटिल समस्याओं से 40 दिन तक लड़ने के बाद आखिर हार गये 85 वर्षीय सौमित्र दा। उन्हें दादा साहब फाल्के सम्मान मिला। कई बार राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त किये और फिल्मफेयर, पश्चिम बंगाल सरकार का बंगभूषण सम्मान व दूसरे कई सम्मान भी उन्होंने पाये। उनके जाने से बंगला फिल्मों का एक अध्याय समाप्त हो गया।

 इसे अतियुक्ति ना समझें मेरी यह धारणा हरै कि अब दूसरा सौमित्र नहीं होगा। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। रंगमंच, फिल्मों से तो उनका ओतप्रोत संबंध था ही वे कवि और आवृत्तिकार भी थे।  सौमित्र दा की तरह शायद ही कोई प्रभावी तरीके से कविता की आवृत्ति कर पाये। उनके स्वर में आवृत्ति की गयी कविता के भाव दिल की गहराई तक उतर जाते थे। फिल्मों में व्यस्त रहने के बाद भी उनका रंगमंच का प्रेम ना मरा ना ही म्लान हुआ। उनके नाटकों को देखने के लिए उनके प्रशंसकों की भीड़ लगती थी।

 उन्होंने जितनी फिल्में की उनमें अपनी अमिट छाप छोड़ी। उन्होंने सत्यजित राया और तपन सिन्हा की फिल्मों में ज्यादा काम किया।  उऩ्होंने फिल्मों में जितने भी चरित्र जिये उन्हें बखूबी जिया चाहे वह अपू का चरित्र रहा हो या फिर फेलू दा का। उऩ्होंने फिल्म में अभिनय नहीं किया बल्कि उस चरित्र को डूब कर जिया जो उन्हें दिया गया। सौमित्र दा जैसे अभिनेता कभी-कभी आते हैं और जाते हैं तो पीछे छोड़ जाते हैं एक बहुत बड़ा शून्य जिसको भरना आसान नहीं होता। व्यवहार, आचार, विचार, रहन-सहन में वे खांटी बंगाली थे। बंगाल की संस्कृति की संपूर्ण छवि उनमें दिखती थी।

उनसे यों तो क्षणिक भेंट-मुलाकातें कई बार हुईं लेकिन ज्यादा वार्तालाप नहीं हो पाया। जब उऩ्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिला तो कोलकाता जनसत्ता में हमारे कार्यकाल के समय हमारे न्यूज एडीटर रहे अणित प्रकाश सिंह जी का फोन आया-राजेश जी सौमित्र चटर्जी जी का इंटरव्यू लेना है उनसे बात करके आप एक डेट ले लीजिए। मैंने सौमित्र चटर्जी जी को फोन किया। उस वक्त भी वे बीमार थे। उन्होंने मुझसे धीमी आवाज में कहा-भाई अभी अस्वस्थ चल रहा हूं, क्या बताऊंम कब ठीक हो पाऊंगा। समय नहीं दे पा रहा।उनसे वही मेरी आखिरी बात थी।

   मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि हमारे यहां किसी एक व्यक्ति को हिमालय से भी ऊंचा उठा देने और दूसरे योग्य व्यक्ति की उपेक्षा करने की एक बुरी प्रथा है। सौमित्र आला दर्जे के अभिनेता थे जो अपने अभिनय से किसी भी बड़े-बड़े अभिनेता का मुकाबला कर सकते थे।

 आज वे नहीं हैं, सारा कला जगत व्यथित है। हर आंख नम है, हर दिल भारी है। वैसे सौमित्र चटर्जी जैसे व्यक्ति मर कर भी अपने कृत्तित्व के बल पर अमर रहते हैं। कोई भी कला प्रेमी अपने अपू या फेलू दा को कभी नहीं भूल पायेगा। उनकी स्मृति को शत शत नमन।

 

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